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संक्षित जीवन पत्रि ८ श्रीजिनराज सूरि-इनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाका लेख सं० १५६२ वै० सु०१० का प्रकाशित है। ९ श्रीजिनचन्द्र सूरि - इनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाका लेख सं० १५६६ ज्येष्ठ सुदि २ और सं० १५६७
मा० सु० ५ के उपलब्ध हैं। १०० श्रीजिनभद्र सूरि-इनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाओंके लेख सं० १५७३ वै० म० ५ और सं० १५६८
___मि. सु. ७ के प्रकाशित हैं। १०B श्रीजिनमेरु सूरि । ११ श्रीजिनभानु सूरि - आप श्रीजिनभद्र सूरिजीके शिष्य थे (सं० १६४१)। इसके पश्चात् आचार्य
परम्पराके नाम उपलब्ध नहीं है । सं० १७२६ के नयचक्र वचनिकासे - जो कि श्रीजिनप्रभ सूरिजीकी परम्पराके पं० नारायणदासकी प्रेरणासे कवि हेमराजने बनाई थी-श्रीजिनप्रभ सूरिजीकी परम्परा १८ वीं शताब्दीतक चली आ रही थी, ऐसा प्रमाणित होता है।
श्रीजिनप्रभ सूरिजीकी परम्परामें चारित्रवर्द्धन अच्छे विद्वान् हुए हैं जिनके रचित 'सिन्दर प्रकर टीका' (सं० १५०५), नैषधमहाकाव्य टीका, रघुवंश टीका-आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं। श्रीजिनप्रभ सूरिजीके शिष्य वाचनाचार्य उदयाकरगणि, जिन्होंने विधिप्रपाका प्रथमादर्श लिखा था, रचित श्रीपार्श्वनाथकलश, गा० २४ हमारे संग्रहके गुटंकेमें उपलब्ध है । दि० जैन विद्वान् , पं० बनारसीदासजी, जिनप्रभ सूरिजीके शाखाके विद्वान् भानुचन्द्रके पास प्रतिक्रमणादि पढे थे, ऐसा वे खयं अपनी जीवनीमें लिखते हैं ।
उपसंहारउपर्युक्त वृत्तान्तसे, श्रीजिनप्रभ सूरिजीका जैन साहित्यमें बहुत ऊँचा स्थान है यह खतः प्रमाणित हो जाता है। उन्होंने सुलतान महम्मदको अपने प्रभावसे प्रभावित कर जैन समाजको निरुपद्रव बनाया, जैन तीर्थों व मन्दिरोंकी सुरक्षा की । सम्राट्को समय समय पर सत्परामर्श दे कर दीन दुःखियोंका कष्ट निवारण किया। उसकी रुचिको धार्मिक बना कर जनता पर होने वाले अत्याचारोंको रोका । जैन शासनकी तो इन सब कार्योंसे शोभा बढी ही, पर साथ साथ जन साधारणका भी बहुत कुछ उपकार हुआ।
सूरिजीने साहित्य की जो महान् सेवा की उससे जैनसाहित्य गौरवान्वित है। उनका विविध तीर्थकल्प अन्य भारतीय साहित्यमें अपनी सानी नहीं रखता । इस ग्रन्थसे सूरिजीका विहार कितना सार्वत्रिक था, और पुरातन स्थानोंका इतिवृत्त संचय करनेकी उनमें कितनी बड़ी लगन थी,- यह बात इस प्रन्धके पढने वालोंसे छिपी नहीं है। इसी प्रकार द्वयाश्रयकाव्यसे सूरिजीकी अप्रतिम प्रतिभाका अच्छा परिचय मिलता है । विधिप्रपा ग्रन्थ भी आपके श्रुतसाहित्यके गम्भीर अध्ययन और गुरुपरम्परासे प्राप्त ज्ञानका प्रतीक है। आपके निर्माण किये हुए स्तुतिस्तोत्र, स्तोत्रसाहित्यमें महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। एक ही व्यक्ति द्वारा इतने सुन्दर और वैशिष्ट्यपूर्ण अनेक स्तोत्रोंका निर्माण होना अन्यत्र नहीं पाया जाता । तपागच्छीय सोमतिलक सूरिसे मिलने पर सूरिजीने जो शब्द कहे, अपने रचित स्तोत्रोंको .उन्हें समर्पित किया एवं अन्य गच्छीय विद्वानोंको शास्त्रीय अध्ययन रकाया. उन्हें ग्रन्थ रचनेमें साहाय्य प्रदान किया-इन सब बातोंसे सूरिजीकी उदार प्रकृतिकी अच्छी झांकी मिलती है ।
इस प्रकार विविध सत्प्रवृत्तियों द्वारा श्रीजिनप्रभ सूरिने जैन शासन की महान् प्रभावना करके एक विशिष्ट आदर्श उपस्थित किया। मुसलमान बादशाहों पर इतना अधिक प्रभाव डालने वालोंमें आप सर्वप्रथम हैं। जैन धर्मकी महत्ताका और जैन विद्वानोंकी विशिष्ट प्रतिभाका सुन्दर प्रभाव डालनेका काम सबसे पहले इन्हों-ही-ने किया । सचमुच ही जैनधर्मके ये एक महाप्रभावक आचार्य हो गये।
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