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________________ १० क्रमाक नाम ५८ श्रीफलवर्धिपार्श्व स्तोत्र ५९ फलवर्द्धिपार्श्वस्तोत्र ६० पार्श्वनाथस्तवन ६१ परमेष्ठिस्तव ( मंगलाष्टक ) ६२ चन्द्रप्रभचरित्रस्तोत्र ६३ मथुरायात्रास्तोत्र ६४ शत्रुञ्जययात्रा स्तोत्र ६५ मथुरास्तूप स्तुतयः ६६ पंचकल्याणकस्तुतयः ६७ त्रोटक ६८ पहाड़िया राग ६९ प्रभातिक नामावलि ७० प्राकृतसिद्धान्तस्तव ७१ उवसग्गहरपादपूर्ति पार्श्वस्तवन ७२ मायाबीजकल्प ७३ शान्तिनाथाष्टक श्रीजिनप्रभ सूरिका पच प्रारम्भ श्रीफलवर्धिपार्श्वप्रभो कारं सं० भाषा पचसंख्या ९ Jain Education International सं० जयामा श्रीफलवर्धिपार्श्व असमसरणीय जउ निरंतरा प्रा० जितभावद्विषं खर्विदाम् सं० चंदप्पह २ पणमिय चर० प्रा० सुराचल श्रीर्जितदेवनिर्मिता सं० श्रीशतंजय प्रा० श्री देव निर्मित स्तूप शृंगारति० सं० पद्मप्रभप्रभोर्जन्मगर्भा० सं० निय जम्मु सफल अकलु अमलुअ जोणि संभवु सौभाग्याभाजनमभंगुर सिरि वीरजिणं सुयरयण २१ ७ ८ २२ १० ९ ४ १५ ५ ४ विशेष सं० १३८२ वै० सु० १० ऋतुवर्णन For Private & Personal Use Only सं० १३७६ यात्रा प्रा० प्रा० ( विधिप्रपाके परिशिष्टमें प्रकाशित ) ( समाचारी शतक पृ० ७६ में प्र० ) गा० २२ प्रा०गा० ३० पारशीभाषाचित्रक अजिकुह काफु जुनू० श्रीजिनप्रभसूरिकी शिष्यपरम्परा । १ श्रीजिनदेव सूरि- आप सा० कुलधरकी पत्नी वीरिणीकी कुक्षिसे उत्पन्न हुए थे। आपमे श्रीजिनसिंह सूरिजी के पास दीक्षा ग्रहण की थी। जिनप्रभ सूरिजीने इन्हें अपने पद पर स्थापित किये थे । सुलतान महमदसे जब सूरिजी मिले तब आप भी साथ ही थे । सम्राट्ने सूरिजीके साथ इनका भी बड़ा सन्मान किया था । सूरिजी के विहार करने पर आप सम्राट्के पास बहुत समय तक रहे थे और इनका सम्राट् पर अच्छा प्रभाव था । इनका उल्लेख आगे आ चुका है। आपकी रचित कालकाचार्यकथा प्रकाशित हो चुकी है । २ श्रीजिनमेरु सूरि - आप श्री जिनदेव सूरिजीके शिष्य थे । इनके गुरुभाई श्रीजिनचंद्र सूरि थे । ३ श्रीजिनहित सूरि- इनका रचा हुआ एक वीरस्तवन गा० ९ ( हमारे संग्रह के गुटके में ) है । इनके प्रतिष्ठित १ पार्श्वनाथ पंचतीर्थीका लेख सं० १४४७ फा० ब० ८ सोम श्रीमाल ढोर धिरीयाराम कर्मसिंह कारित, बुद्धिसागरसूरिके धातुप्रतिमा लेखसंग्रह, भा० २, लेखांक ६१७ में प्रकाशित हो चुका 1 ४ श्रीजिनस ५ श्रीजिनचन्द्र सूरि - इनके प्रतिष्ठित प्रतिमा लेख, सं० १४६९, १४९१, १५०६ के उपलब्ध होते हैं । ६ श्रीजिनसमुद्र सूरि - इनकी रचित कुमारसंभव टीका, डेक्कन कालेजवाले संग्रहमें उपलब्ध है । ७ श्रीजिनतिलक सूरि - इनकी प्रतिष्ठित प्रतिमाओंके लेख सं० १५०८ से १५२८ तक के उपलब्ध हैं। इनके शिष्य राजहंसकी की हुई बाग्भट्टालङ्कारवृत्ति सं० १४८६ में लिखित उपलब्ध है। www.jainelibrary.org
SR No.003393
Book TitleVidhi Marg Prapa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages186
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size12 MB
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