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सा. की वृद्धावस्था के कारण तीन चातुर्मास जयपुर में किए। इस काल में गुरुसेवा के साथ-साथ अपने अध्ययन तथा लेखन को परिपक्क करने की साधना भी निरन्तर चलती रही और अपने समय की परम विदुषी साध्वी बन गई
सरल स्वभावी और धर्मपरायणा सज्जनश्रीजी म. सा. को मधुर स्वर और प्रभावी व्यक्तित्व के गुण जन्मजात मिले थे। अध्ययन और चिन्तन ने इन गुणों को निरन्तर निखारा और वे एक प्रभावी व्याख्यानदात्री बन गईं। अपने विहार काल में वे जहां-जहां गईं वहीं अपना विशिष्ट प्रभाव छोड़ा। ...
जयपुर से मालपुरा को किए प्रथम विहार से आरंभ हुआ उनका पदयात्रा क्रम ४८ वर्ष पश्चात जयपुर में ही समाप्त हुआ। इस बीच उन्होंने राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार और बंगाल आदि स्थानों में विशिष्ट शासन प्रभावना करते हुये अनेक तीर्थ यात्राएं की।
- सज्जनश्रीजी म. ने अपनी धर्म-यात्रा में प्रवचन, तप, स्वाध्याय आदि के साथ-साथ साहित्य सृजन के महत्त्वपूर्ण कार्य भी सम्पन्न किए। प्रखर विश्लेषण क्षमता और गहन विषय को सहज शैली में प्रस्तुत करने की प्रतिभा ने उन्हें धर्म-संदेश को जनजन तक पहुँचाने की विलक्षण योग्यता प्रदान की थी।
। दीक्षा की रजत जयंती के अवसर पर जयपुर में आयोजित कार्यक्रमों में अनेक स्थानीय विद्वानों ने आपके कृतित्व की भूरि-भूरि प्रशंसा की व “सिद्धान्तविशारद'' की उपाधि से विभूषित किया।
आपके द्वारा रचित एवं अनुदित निम्न साहित्य प्राप्त हैं :- १. पुण्य जीवन-ज्योति, २. श्रमण सर्वस्व, ३. देशनासार, ४. द्रव्य-प्रकाश, ५. कल्पसूत्र, ६. चैत्य-वन्दन कुलक, ७. द्वादशपर्व व्याख्यान, ८. श्री देवचन्द चौबीसी स्वोपज्ञ, ९. सज्जन संगीत सुधा, १०. सज्जन भजन भारती, ११. सज्जन-जिनवन्दन विधि, १२. तत्त्व ज्ञान प्रवेशिका इत्यादि।
विक्रम संवत् २०३२ में आपके गंभीर शास्त्र ज्ञान के अभिज्ञान स्वरूप प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्रीजी म. ने जयपुर श्रीसंघ की उपस्थिति में आपको आगम-ज्योति विरुद से अलंकृत किया। विक्रम संवत् २०३९ में जोधपुर में आचार्य श्री जिनकान्तिसागरसूरिजी म. सा. के कर कमलों से आपको प्रवर्तिनी पद प्रदान किया। १९८९ में जयपुर संघ ने राष्ट्रीय स्तर पर आपकी विशिष्ट ज्ञान गरिमा का भावभरा अभिनन्दन किया तथा इसी अवसर पर आपके अनुपम व्यक्तित्व एवं कृतित्व को उजागर करने वाले विशिष्ट विषयों से संयुक्त 'श्रमणी' नामक एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित कर आपको भेंट किया गया। इस
आगम-ज्योति प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म. सा. का अन्तिम चातुर्मास उनकी जन्मस्थली जयपुर में ही हुआ। जयपुर के जैन समाज के चारों सम्प्रदायों द्वारा अभिनन्दन के छ: माह पश्चात् मौन एकादशी के दिन ९ दिसम्बर, १९८९ को यह तपःपूत आत्मा आगम-ज्योति परम-ज्योति में विलीन हो गई। मोहमवाडी जयपुर में आपका दाह संस्कार किया गया। इसी स्थान पर जयपुर संघ ने आपकी स्मृति रूप एक भव्य स्मारक - एन्दिर का निर्माण कराया है जिसमें, ९ फरवरी, १९९८ को विराट समारोह के साथ आपकी मूर्ति प्रतिष्ठापित , की गई है। आपका शिष्या परिवार - सज्जनमणि आर्या शशिप्रभाश्रीजी म. आदि आपके द्वारा जगाई गई श्रुत साधना की अलख को निरन्तर प्रचारित व प्रसारित करती हुईं शासन सेवा में प्रयत्नशील हैं।
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