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संक्षिप्त जीवन-परित्र । म हो कर उससे अग्मिकी चिनगारियां निकलने लगी । तब सम्राट्ने प्रतिमाके समक्ष क्षमा याचना कर उसे स्वर्णमुद्राओंसे बधाई। विजय-यन-महिमा
एक वार मन्त्र-यन्त्रके माहात्म्यके सम्बन्धमें सूरिजी और सम्राट्में वार्तालाप हो रहा था। सम्राट्ने प्रसङ्गवश विजय-यन्त्रकी महिमा सुन कर उसके प्रभावको प्रत्यक्ष देखना चाहा । सूरिजीने विजय-यन्त्र देते हुए सम्राट्से कहा-'जिसके पास यह यंत्र होता है उसे देवताओंके अस्त्र भी नहीं लगते और कुपित शत्रु मी अनिष्ट नहीं कर सकते ।' सम्राट्ने उस यन्त्रको एक बकरेके गलेमें बांध कर उस पर खगके कई प्रहार किये परन्तु यत्रके प्रभावसे बकरेके तनिक भी धाव नहीं हुआ। तब फिर उस यंत्रको छत्रदण्ड पर बांध कर उसके नीचे एक चूहेको रखा गया और सामनेसे बिल्ली छोड़ी गई। चूहेको पकड़नेके लिए बिल्ली दौड़ी अवश्य, परन्तु यन्त्रके प्रभाक्से छत्रके नीचे न आ सकी, जिससे वह चूहा बाल बाल बच गया। यंत्रका यह अक्षुण्ण प्रभाव देख कर सम्राट्ने ताम्रमय दो यन्त्र बनवा कर एक खयं रखा और एक सूरिजीको दे दिया। ___इसी प्रकारके चमत्कारी प्रवादोंमें अमावसको पूनम बना देना, शीतज्वरको मोलीमें बांधके रख देना, भैंसेके मुखसे वाद कराना, आदि जनश्रुतियां मी पाई जाती हैं । बुद्धिशाली कथन
पं० श्रीशुभशीलगणिके कथाकोशमें उपर्युक्त प्रवादोंके साथ सम्राट्के पूछे हुए दो प्रश्नोंके सूरिजी द्वारा दिये गये युक्तिपूर्ण उत्तरोंके उल्लेख इस प्रकार हैं
एक वार सम्राट्ने राजसभामें पूछा, कहो-'शक्कर किस चीजमें डालनेसे मीठी लगती है!' पण्डितोंमेंसे किसीने कुछ और किसीने कुछ ही उत्तर दिया। उससे सम्राटको सन्तोष न होने पर सूरिजीसे पूछा । उन्होंने कहा-'शक्कर मुँहमें डालनेसे मीठी लगती है।
इसी तरह एक वार, सम्राट् क्रीड़ाके हेतु उद्यानमें गया था, वहां जलसे भरे हुए विशाल सरोवरको देख कर सबसे पूछा-'यह सरोवर धूलि आदि द्वारा भरे बिना ही छोटा कैसे हो सकता है ? कोई भी इस प्रश्नका युक्तिपूर्ण उत्तर न दे सका; तब सूरिजीने कहा-'यदि इस सरोवरके पास अन्य कोई बड़ा सरोवर बनाया जाय तो उसके आगे यह सरोवर स्वयमेव छोटा कहलाने लग जायगा।'
एक समय सुलतानने सूरिजीसे पूछा कि-'पृथ्वी पर कौनसा फल बड़ा है ?' उन्होंने कहा'मनुष्योंकी लज्जा रखने वाली वउणी (कपास)का फल बड़ा है।' सोमप्रभसूरि मिलन और अपराधी चूहेको शिक्षा
सं० १५०३ में विरचित श्रीसोमधर्मकृत उपदेशसप्तति और संस्कृत जिनप्रभसूरि-प्रबन्धमें लिखा है कि-एक वार श्रीजिनप्रभ सूरिजी पाटणके निकटवर्ती जंघराल नगरमें पधारे तो वहां तपागच्छीय श्रीसोमप्रभ सूरिजीसे मिलनेके लिये गये। सोमप्रभ सूरिजीने खड़े हो कर बहुमान पूर्वक आसनादि द्वारा उनका सन्मान करते हुए कहा-'भगवन् ! आपके प्रभावसे आज जैनधर्म जयवन्त वर्त रहा है । आपकी शासनसेवा परम स्तुत्य है ।' प्रत्युत्तरमें श्रीजिनप्रभ सूरिजीने कहा-'सम्राट्की सेनाके साथ एवं सभामें रहनेके कारण हम चारित्रका ययावत् पालन नहीं कर सकते । आपका चरित्रगुण श्लाघनीय है। इस प्रकार दोनों आचार्योंका शिष्ट संभाषण हो रहा था, इतने ही में एक मुनिने प्रतिलेखन करते समय, अपनी सिलिका
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