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श्रीजिनप्रभ सूरिका (झोली )को चूहों द्वारा काटी हुई देख कर सोमप्रभ सूरिजीको दिखलाई । श्रीजिनप्रभ सूरिजी मी पासमें बैठे थे, उन्होंने आकर्षणी विद्यासे उपाश्रयके समस्त चूहोंको रजोहरण द्वारा आकर्षित कर लिया और उनसे कहा कि-'तुममेंसे जिसने इस सिक्किकाको काटी हो वह यहां ठहरे, बाकी सब चले जॉय' । तब केवल अपराधी चूहा वहां रह गया, और बाकी सब चले गये। उसे भविष्यमें ऐसा न करनेको कह कर उपाश्रयका प्रदेश छोड़ देनेकी आज्ञा दे दी। इससे श्रीसोमप्रभ सूरि और मुनिमण्डली बड़ी विस्मित हुई । योगिनी प्रतियोष
प्राकृत प्रबन्धमें लिखा है कि-एक वार चौसठ योगिनी श्राविकाके रूपमें सूरिजीको छलनेके लिये आई और सामायक ले कर व्याख्यान श्रवणार्य बैठी। पभावती देवीने योगिनीयोंकी भावनाको सूरिजीसे विदित कर दी । तब सूरिजीने उन्हें व्याख्यान श्रवणमें निमग्न देख कर वहां खील करके स्तम्भित कर दी। व्याख्यान समाप्तिके अनन्तर जब वे उठनेको प्रस्तुत हुई तो अपनेको आसनों पर चिपकी हुई पाई । यह देख कर सूरिजीने मूदु हास्यपूर्वक उनसे कहा-'मुनियोंके गोचरीका समय हो गया है, अतः शीघ्र वन्दना व्यवहार करके अवसर देखो!' मन-ही-मन लज्जित होती हुई योगिनियोंने कहा-'भगवन् ! हम तो आपको छलनेके लिये आई थीं पर आपने तो हमें ही छल लिया। अब कृपा कर मुक्त करें। सूरिजीने कहा'हमारे गम्छके अधिपति जब योगिनीपीठ (उज्जैनी, दिल्ली, अजमेर, भरौंच ) में जाँय तो उन्हें किसी प्रकारका उपद्रव नहीं करनेकी प्रतिज्ञा करो तो छोड़ सकता हूं।' योगिनियां इस बातका खीकार कर खस्थान चली गई। इसके बाद खरतर गच्छके आचार्य सर्वत्र निर्विघ्नतया विहार करते रहे । शैषोंको जैन बनाना
सं० १३४४ (१७४ )में खंडेलपुरमें जंगल गोत्रके बहुतसे शिवभक्तोंको प्रतिबोध दे कर जैन बनाए। देवीउपद्रव निवारण
शुभशीलगणिके कथाकोशमें लिखा है कि-एक नगरमें श्रावक लोगोंको दो दुष्ट देवियां रोगोपद्रवादि किया करती थीं, सूरिजीको ज्ञात होने पर उन्होंने उन देवियोंको आकर्षित की। उसी समय उस नगरके संघने दो श्रावकोंको इसी कार्यके लिये सूरिजीके पास भेजा था। उन्होंने, उपद्रवकारी देवियोंको सूरिजी समझा रहे हैं, यह अपनी आँखोंसे देखा तो उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। उनके प्रार्थना करनेके पूर्व ही सूरिजीने उस उपद्रवको दूर करवा दिया । श्रावकोंने लौट कर संघके समक्ष सब वृत्तान्त कह कर सूरिजीकी भूरि भूरि प्रशंसा की। श्रीजिनप्रभ सूरिजीकी साहित्य सम्पत्ति
श्रीजिनप्रभ सूरिजीने साहित्यकी अनुपम सेवा की है। उनकी कृतियां जैन समाजके लिये अत्यन्त गौरवपूर्ण है। इन कृतियोंमेंसे रचना समयके उल्लेख वाली कृतियोंका निर्देश तो यथास्थान किया जा चुका है । पर बहुतसी कृतियोंमें रचना समयका उल्लेख नहीं है । अतः यहां उनकी सभी कृतियोंकी यथा ज्ञात सूची दी जाती है।
१ कातन्त्र विभ्रमटीका, मं० २६१, सं० १३५२, योगिनीपुर, कायस्थ खेतलकी अभ्यर्थनासे । २ श्रेणिक चरित्र (याश्रयकाव्य ), सं० १३५६ (कुछ भाग प्रकाशित) ३ विधिप्रपा, पं० ३५७४, सं० १३६३ विजयदशमी, कोशलानयर । ४ कल्पसूत्रवृत्ति-सन्देहविषौषधि, मं० २२६९, सं० १३६४, अयोध्या, (प्रकाशित)
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