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________________ श्राजिममम सूारका अतः समस्त श्वेताम्बर दर्शनकी उपद्रवसे रक्षा करनेके लिये सम्राट्ने एक फरमान पत्र सूरिजीको समर्पण किया । गुरुश्रीने चारों दिशाओमें उस फरमानकी नकलें भेज दी जिससे शासनकी बड़ी भारी उमति हुई । इसी प्रकार एक दिन सूरिजीने तीयोंकी रक्षाके लिये सम्राटका ध्यान आकर्षित किया । सम्राट्ने तत्काल शत्रुञ्जय, गिरनार, फलौधी आदि तीर्थोकी रक्षाके लिये फरमान पत्र लिखवा कर दे दिये । उन फरमान पत्रोंकी नकलें भी तीर्थों में भेज दी गई । अन्य समय एक वार सूरिजीके उपदेशसे सम्राट्ने बहुत बन्दियोंको कैदसे मुक्त कर दिया। सं० १३८५ की माघ शुद्धि ७ को दिल्लीमें सूरिजीने 'राजप्रासाद" नामक शत्रुजय कल्प बनाया। कन्यानयनकी चमत्कारी प्रतिमाका उद्धार - संवत् १३८५ में आसीनगर (हांसी ) के अल्लविय वंशके किसी क्रूर व्यक्तिने श्रावकों एवं साधुओंको बंदी बना कर उनकी विडम्बना की । उसने कन्यानयनके श्रीपार्थनाथ खामीकी पाषाण मय प्रतिमाको खण्डित कर दी, और सं० १२३३ आषाढ सुद्धि १० गुरुवारको, श्रीजिनपति सूरिजी द्वारा प्रतिष्ठित एवं उनके चाचा विक्रमपुर निवासी सा० मानदेव कारित, २३ अंगुल प्रमाण वाली श्रीमहावीर भगवानकी चमत्कारी प्रतिमाको अखण्डित रूपसे ही गाड़ीमें रख कर दिल्ली ले आया। सम्राट् उस समय वगिरिमें था। अतः उसके आने पर उसकी आज्ञानुसार व्यवस्था करनेके विचारसे उस जिनबिम्बको तुगुलकाबादके शाही खजानेमें रख दिया। इससे वह प्रतिमा पंद्रह मास पर्य्यन्त तुकोंके आधिकारमें रही । ___महावीर प्रभुकी इस प्रतिमाका यह वृत्तान्त ज्ञात कर सूरि महाराज सोमवारके दिन राजसभामें पधारे । उस समय वृष्टि हो रही थी जिससे उनके पैर कीचड़से भर गये थे। सम्राट्ने यह देख कर मल्लिक काफूर द्वारा अच्छे वस्त्रखंडसे उनके पैर पुंछवाये । सूरिजीने बहुत ही भाव-गर्भित काव्य द्वारा सम्राटको आशीर्वाद दिया । उस काव्यकी व्याख्या करने पर सम्राट्के हृदयमें अत्यन्त चमत्कृति पैदा हुई । अवसर जान कर सूरि महाराजने उपर्युक्त महावीर प्रतिमाका वृत्तान्त बतला कर सम्राट्से, उसे जैनसंघको समर्पण कर देनेके लिये निवेदन किया । सम्राट्ने सूरिजीकी आज्ञाको सहर्ष स्वीकार की। तुगुलकाबादके खजानेसे असूअग मल्लिकोंके कन्धे पर विराजमान करा कर प्रभुप्रतिमाको राजसभामें मंगवाई और सम्राट्ने दर्शन करके सूरि महाराजको समर्पण कर दी । उस चमत्कारी प्रतिमाकी प्राप्तिसे संघको अपार हर्ष हुआ। समस्त संघने एकत्र हो कर बडे समारोहके साथ सखासनमें विराजमान कर मलिकताजदीन सराय के जिनमन्दिरमें उसे स्थापित की । सूरिजीने वासक्षेप किया, और श्रावकलोग प्रतिदिन पूजन करने लगे। कन्यानयकी प्रतिमाका पूर्व इतिहास इस प्रतिमाके पूर्व इतिहासके विषयमें सूरिजीने 'कन्यानयन' तीर्थकल्पमें लिखा है किसं० १२४८ में पृथ्वीराज चोहानके, सहाबुद्दीन गौरी द्वारा मारे जाने पर, राज्यप्रधान परम श्रावक सेठ रामदेवने स्थानीय श्रावक संघको लिखा कि- तुकोंका राज्य हो गया है, अतः महावीर प्रभुके बिंबको कहीं प्रच्छन्नरूपसे रखना आवश्यक है । इस सूचनासे वहांके श्रावकोंने दाहिमाज्ञातीय मंडलेश्वर कैमासके नामसे वसे हुए 'कयंवास स्थल' में बालके नीचे प्रतिमाको गाड़ दी । सं० १३८६ में सूरिजीने दिपुरी तीर्थ स्तोत्रकी रचना की । , १ इस कल्प का नाम 'राजप्रासाद' होनेका कारण सूरिजीने ही बताया है कि इसके रचना-प्रारंभके समय राजाधिराज (महमद तुगुलक) संघ पर प्रसन्न हुए थे। उपर्युक्त फरमान द्वयकी प्राप्तिसे भी इसका समर्थन होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003393
Book TitleVidhi Marg Prapa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages186
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size12 MB
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