SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साक्षप्त जाबन-चारत्र। सं० १३११ के दारुण दुर्भिक्षमें जीवन निर्वाहके लिये जाजओ नामक सूत्रधार कमाणयसे सुभिक्ष देशकी ओर चला। प्रथम प्रयाण योड़ा ही करना चाहिये यह विचार कर उसने रात्रिनिवास 'कयंबास स्थल में किया । अर्द्धरात्रिके समय उससे स्वप्नमें देवताने कहा-'तुम जहां सोये हो उसके कितनेक हाथ नीचे प्रभु महावीरकी प्रतिमा है । तुम उसे प्रकट करो ता कि तुम्हें देशान्तर न जाना पड़े और यहीं निर्वाह हो जाय !' संभ्रम पूर्वक जग कर देवकथित स्थानको अपने पुत्रादिसे खुदवाने पर प्रतिमा प्रकट हुई। यह शुभ सूचना उसने श्रावकोंको दी। उन्होंने महोत्सवके साथ मन्दिरजीमें प्रतिमाको स्थापित की और सूत्रधारकी आजीविका बांध दी। एक वार न्हवणकरानेके पश्चात् प्रभुबिंब पर पसीना आता दिखाई दिया । बार-बार पौंछने पर मी अविरल गतिसे पसीना आता रहा। इससे श्रावकोंने भावी अमंगल जाना । इतने ही में प्रभातके समय जेट्ठय लोगोंकी धाड़ आई। उन्होंने नगरको चारों तरफसे नष्ट किया। इस प्रकार प्रकट प्रभाव वाले महावीर भगवान, सं० १३८५ तक 'कयंवास स्थल' में श्रावकों द्वारा पूजे गये । इसके बादका वृत्तान्त ऊपर आ ही चुका है। कन्यानयन स्थान निर्णय पं० लालचंद भगवानदासका मत है कि उपर्युक्त कन्नाणय या कन्यानयन वर्तमान कानानूर है। पर हमारे विचारसे यह ठीक नहीं है । क्यों कि उपर्युक्त वर्णनमें, सं० १२४८ में उधर तुकोंका राज्य होना लिखा है; किन्तु उस समय दक्षिण देशके कानानूरमें तुर्कोका राज्य होना अप्रमाणित है। 'युगप्रधानाचार्यगुर्वावली' में (जो कि श्री जिनविजयजी द्वारा सम्पादित हो कर 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' में प्रकाशित होने वाली है) कन्यानयनका कई स्थलोंमें उल्लेख आता है । उससे भी कनाणय, आसी नगर (हांसी) के निकट, वागड़ देशमें होना सिद्ध है । जिस कन्यानयनीय महावीर प्रतिमाके सम्बन्ध में ऊपर उल्लेख आया है उसकी प्रतिष्ठाके विषयमें भी गुर्वावलीमें लिखा है कि - सं० १२३३ के ज्येष्ठ सुदि ३ को, आशिकामें बहुतसे उत्सव समारोह होनेके पश्चात् , आषाढ महीनेमें कन्यानयनके जिनालयमें श्रीजिनपति सूरिजीने अपने पितृव्य सा० मानदेव कारित महावीर बिंबकी प्रतिष्ठा की और व्याघ्रपुरमें पार्श्वदेवगणिको दीक्षा दी। कन्यानयनके सम्बन्धमें गुर्वावलीके अन्य उल्लेख इस प्रकार हैं संवत् १३३४ में श्रीजिनचन्द्र सूरिजीकी अध्यक्षतामें कन्यानयन निवासी श्रीमाल ज्ञातीय सा० कालाने नागौरसे श्रीफलौधी पार्श्वनाथजीका संघ निकाला, जिसमें कन्यानयनादि समग्र वागड़ देश व सपादलक्ष देशका संघ सम्मिलित हुआ था। संवत् १३७५ माघ सुदि १२ के दिन, नागौर में अनेक उत्सवोंके साथ श्रीजिनकुशल सूरिजीके वाचनाचार्य-पदके अवसर पर, संघके एकत्र होनेका जहां वर्णन आता है वहां 'श्रीकन्यानयन, श्रीआशिका, श्रीनरभट प्रमुख नाना नगर प्राम वास्तव्य सकल वागड़ देश समुदाय' लिखा है ।। ___ संवत् १३७५ वैशाख वदि ८ को, मन्त्रिदलीय टक्कर अचलसिंहने सुलतान कुतुबुद्दीनके फरमान से हस्तिनापुर और मथुराके लिये नागौरसे संघ निकाला। उस समय, श्रीनागपुर, रुणा, कोसवाणा, मेड़ता, कडुयारी, नवहा, झुंझणु, नरभट, कन्यानयन, आसिकाउर, रोहद, योगिनीपुर, धामइना, जमुनापार आदि नाना स्थानोंका संघ सम्मिलित हुआ लिखा है । संघने क्रमशः चलते हुए नरभटमें श्रीजिनदत्तसूरि-प्रतिष्ठित श्रीपार्श्वनाथ महातीर्थकी वन्दना की। फिर समस्त वागड़ देशके मनोरथ पूर्ण करते हुए कन्यानयनमें श्रीमहावीर भगवानकी यात्रा की । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003393
Book TitleVidhi Marg Prapa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages186
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy