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________________ पद्य संख्या आदि पद परमेष्ठिनं सुरतरून् नाभेयं शोचि निर्ममो० सिद्धो वर्णसमाम्नाय:० क्रमांक रचना नाम पंचपरमेष्ठिस्तव: चतुर्विंशतिजिनस्तव: पुण्डरीकगिरिमण्डण-ऋषभस्तव: (कातन्त्रसन्धिसूत्रगर्भित) युगादिदेवस्तव: शान्तिजिनस्तवः अरजिनस्तव: पार्श्वजिनस्तव: वीरजिनस्तवः तीर्थमालास्तव: १०. स्तुतित्रोटक: सुधर्मगणधरस्तवः (विविधछंदमय) १२. पद्मावतीचतुष्पदिका वर्धमानविद्यास्तवः परमतत्त्वावबोधद्वात्रिंशिका मेरौ दुग्धपयोधि वा० शृंगारभासुरसुरासुर० जय शरदशकलदशहयवदन० श्रीपार्श्वपरमात्मानं० विश्वश्रीधुरच्छिदे० चउवीसंपि जिणिंदे० ते धन्नपुन्नसुकयत्थनरा० आगमत्रिपथगा हिमवन्तं० जिणसासणु अवधारि० आसि किलठुत्तरसय० धर्माधर्मान्तरं मत्वा० १५. हीयाली (अपूर्ण) चारि चलण चउ० इनमें से अप्रकाशित १८ लघु कृतियाँ एवं स्तोत्र तथा जिनप्रभसूरि परम्परा के ४ गीत शासन प्रभावक आचार्य जिनप्रभ और उनका साहित्य' में प्रकाशित किये हैं। श्री जिनदत्तसूरि पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत और सिंघी जैन ग्रन्थमाला ने अनेक दुर्लभ ग्रन्थों को पुस्तकाकार व पत्राकार रूप में प्रकाशित किया था। दुर्भाग्यवश पुनर्मुद्रण के अभाव में यह पुस्तकें आज सहज उपलब्ध नहीं हैं। आचार्य प्रवर श्री मुनिचन्द्रसूरिजी महाराज की सत्प्रेरणा से प्राकृत भारती ने इस कमी को दूर करने के लिए एक-एक कर उन सभी पुस्तकों के पुनर्मुद्रण की योजना बनाई है जिनकी वर्तमान शोधकर्ताओं तथा श्रमणवर्ग को आवश्यकता पड़ती है। ___ इसी योजना के अन्तर्गत विधि-मार्ग-प्रपा पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करते हुए हमें हर्ष होता है। विधि-विधान की सन्दर्भ पुस्तक होने के कारण इसका महत्त्व जितना श्रमण समुदाय के लिए है, उतना ही धर्मिष्ठ समुदाय तथा विद्वज्जनों के लिए भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003393
Book TitleVidhi Marg Prapa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages186
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size12 MB
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