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________________ . विधिप्रपा। तह जो भवो पाविय वयाई पालेइ अप्पणा सम्म । अन्नेसि वि भवाणं देइ अणेगेसि हियहे ॥१४॥ सो इह संघपहाणो जुगप्पहाणो त्ति लहइ संसदं । अप्पपरेसिं कल्लाणकारओ गोयमपहु च ॥१५॥ तित्थस्स बुड्डिकारी अक्खेवणओ कुतित्थियाईण । विउसनरसेवियकमो कमेण सिद्धिं पि पावेइ ॥१६॥ उट्ठावणा जहन्नओ सत्तराईदिएहिं, सा पुण पुधोवट्ठावियपुराणस्स कीरइ । मज्झिमओ चउहिं मासेहिं, सा य अणहिजओ मंदसद्धस्स य । उक्कोसओ छम्मासेहिं, सा य दुम्मेहस्स । असद्भहओ य लग्गाइकारणे य अइरिनेणावि कालेण कीरइ ति ॥ ॥ उट्ठावणाविही समत्तो ॥२०॥ ६३४. उट्ठाविएण य सुयमहिज्झियवं । सुयाहिज्झणं च न जोगवहणमंतरेण त्ति संपयं जोगविही भण्णइ-तत्थ पढमं ताव जोगवाहीहिं एवं भूएहिं होय।। पियधम्मा मुविणीया लज्जालुइया तहा महासत्ता। उज्जुत्ता य विरत्ता दढधम्मा सुट्टियचरित्ता ॥१॥ जियकोह-माण-माया जियलोहा जियपरीसहा निरुया। मण-वयण-कायगुत्ता एरिसया जोगवाहीओ ॥२॥ थोवोवहिओवगरणा निद्दजयाहारजयपहाणा य । आलोयणसलिलेणं पक्खालियपावमलपडला ॥३॥ कयकप्पतिप्पकिरिया सन्निहिचाई गुरूण आणरया। अणगाढजोगिणो विहु अगाढजोगी विसेसेण ॥४॥ तत्थ पसत्थे दिणे अमियजोग-सिद्धिजोग -रविजोगाइगुणगणोवेए मिगसिराइनाणनक्खत्तजुत्ते मचुजोगवज्जपायाइदोसलेसादूसिए संझागय - रविगय–विड्डेर- सग्गहविलंबि – राहुय- गहभिन्ननक्सतचत्ते सुमेसु सुमिणसउणनिमित्तेसु दिणपढमपोरिसीए चेव अंगसुयक्खंधाणं उद्देस-समुद्देसाणुन्नाओ कीरति । नो पच्छिमपोरिसीए राईए वा । अज्झयणुद्देसाइयं राईए वि कीरइ । ॥ ३५. तहा जोगा दुविहा- गणिजोगा, बाहिरजोगा य । तत्थ गणिजोगा आगाढा चेव । आगाढा नाम जेसु सबसमत्तीए उत्तरीज्जइ । इयरे आगाढा अणागाढा य । तत्थ उत्तरज्झयणसत्तिक्कय पण्हावागरणमहानिसीहाणि आगाढा । आवस्सगाई अणागाढा असमत्तीए वि उत्तरिज्जइ ति काउं । अन्ने दिणचउक्काणंतरमुत्तरिज्जइ ति भणंति । तहा उकालिया कालिया य । तत्थुक्कालिएसु जोगुक्खेवो कीरइ न संघट्ट । केसिंचि मएण न जोगुक्खेवो न संघट्ट । कालिएसु जोगुक्खेवो संघटुं च । केसु वि आउत्तवाणयं च । " एयविहाणं पत्थावे भण्णिही। ६३६. तहा कालिएसु कालग्गहणाइयं च होइ । कालग्गहणं च अणज्झाए न विहेयचं ति पुषमणायणविही भण्णइ । तत्थ गब्भमासेसु कत्तिय-मग्गसिराइसु महियाए पडतीए रए वा जाव पडइ ताव असज्झाओ। जो महिया पडणसमकालमेव सर्व आउक्कायभावियं करेइ । अओ तकालसममेव सबचिहाओ निरुभति पाणिदयट्ठा । सचित्तो आरण्णो उद्धुओ आगओ रओ भण्णइ । वण्णओ ईसि आयंवो दियंतेसु 1B सुयमहिमणं। १'आताम्रो दिगन्तेषु' इति A टिप्पणी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003393
Book TitleVidhi Marg Prapa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages186
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size12 MB
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