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________________ सम्पादकीय श्वेताम्बर जैन आम्नाय की जो विभिन्न शाखाएं आज विद्यमान हैं उनमें सबसे प्राचीन शाखा है खरतरगच्छ। विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक श्वेताम्बर जैन श्रमण वर्ग में शिथिलाचार अपने चरम तक पहुंच चुका था। जैन श्रमण की शास्त्र-सम्मत आत्म-साधना की ओर प्रेरित सतत विद्यार्जन और कठोर - चर्या का स्थान चैत्यवाद और सुविधा सम्पन्न - चर्या ने ले लिया था। यद्यपि अनेक चैत्यवासी श्रमण आत्म-साधना, विद्याध्ययन, चिन्तन व सृजन कार्यों में संलग्न थे, किन्तु शिथिलाचार का व्यामोह धीरे-धीरे आत्म-कल्याण के पद को लीलता जा रहा था। इन विषम परिस्थितियों में भी कुछ क्रियासम्पन्न आत्म-साधक श्रमण इस शिथिलाचार तथा धर्मह्रास से चिंतित एवं जिन-वाचित विशुद्ध साधना-मार्ग की पुनर्स्थापना की ओर प्रयत्नरत थे। इस पुनरुत्थान के कार्य को सम्पन्न करने का साहसी संकल्प लिया वर्धमानसूरि ने। वे अपनी चैत्यवासी परम्परा की सुविधाओं को त्याग सुविहित मार्ग के शीर्षस्थ आचार्य उद्योतनसूरि के शिष्य बन गये और अपने संकल्प को क्रियान्वित करने में जुट गए। वर्धमानसूरि ने अपने शिष्य समुदाय - जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागरसूरि आदि समुदाय को इस हेतु विद्याभ्यास करवाया तथा विशुद्धचर्या में दृढ किया। जब उन्हें विश्वास हो गया कि उनका समुदाय यथेष्ट आध्यात्मिक तथा बौद्धिक शक्ति से संपन्न हो चुका है तब वे पाटण आए । जो उस काल में चैत्यवासियों का गढ था। यहाँ के राजा दुर्लभराज की राजसभा में १०७२ से १०७६ विक्रम के मध्य किसी समय चैत्यवासी सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य सूराचार्य से जिनेश्वरसूरि का शास्त्रार्थ हुआ। इसी शास्त्रार्थ में जिनेश्वरसूरि ने स्थापित किया कि चैत्यवास-चर्या शास्त्रविरुद्ध है और विशुद्ध सुविहितचर्या शास्त्रसम्मत। जिनेश्वरसूरि की ओजस्विता और प्रमाणों की अकाट्यता से प्रभावित हो दुर्लभराज ने उन्हें खरतरविरुद से सम्मानित किया। जिनेश्वरसूरि से आरम्भ हुई सुविहित खरतरगच्छ परम्परा में अनेक गीतार्थ विद्वान व धर्मप्रभावक महापुरुष हुए। जिन्होंने जैन साहित्य की संपदा को निरन्तर वर्धित किया। जिनप्रभसूरि इसी परम्परा की लघु खरतर शाखा के आचार्य जिनसिंहसूरि के पट्टधर विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में हुए। इनकी अनेक रचनाओं में से दो का सर्वकालीन महत्त्व है - १. विविध तीर्थकल्प और २. विधि-मार्ग-प्रपा। इनका दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक पर बहुत अधिक प्रभाव था जिसका उपयोग इन्होंने शासन प्रभावना हेतु किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003393
Book TitleVidhi Marg Prapa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages186
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size12 MB
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