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________________ संक्षिप्त जीवन चरित्र । ९ 'जैन स्तोत्र संदोह ' भा० २ की प्रस्तावना, पृ० ४० में, इस विक्रमपुरको बीकानेर बतलाया है, पर वह भूल ही है। बीकानेर तो उस समय बसा मी नहीं था, उसे तो राव बीकाने, सं० १५४५ में बसाया है । पूर्वका विक्रमपुर जेसलमेर निकटवर्ती वर्तमान वीक्रमपुर ही है । afrfeat ओर विहार और प्रतिष्ठानपुर यात्रा - I श्री जिनप्रभ सूरिने दिल्ली में इस प्रकार की धर्म-प्रभावना करके महाराष्ट्र ( दक्षिण ) की ओर विहार किया । सम्राट्ने सूरिजीके विहारमें सब प्रकारकी अनुकूलतायें प्रस्तुत कर दीं। सूरिजीने सम्राट् एवं स्थानीय संघके संतोषके निमित्त श्री जिनदेव सूरिजीको १४ साधुओंके साथ, दिल्लीमें ठहरनेकी आज्ञा दी । सूरिजी विहार-मार्गके अनेक नगरोंमें धर्म-प्रभावना करते हुए देवगिरि (दौलताबाद) पहुंचे । स्थानीय संघने प्रवेशोत्सव किया। वहांसे संघपति जगसिह, साहण, मल्लदेव आदि संघ -मुख्योंके सहित प्रतिष्ठानपुर पधारे और वहां जीवंत मुनिसुव्रत स्वामीकी प्रतिमा के दर्शन किये। यात्रा करके संघ सहित सूरिमहाराज पुनः देवगिरि पधारे । सं० १३८७ भा० शु० १२ के दिन 'दीवाली ल्कप' की यहां पर रचना की । देवगिरिके जैन मन्दिरोंकी रक्षा एक वार, पेथड़, सहजा और ठ० अचलके करवाए हुए जिनमन्दिरोंको तुर्क लोग तोड़नेके लिये उद्यत हुए, तब सूरजीने शाही फरमान दिखला कर उन मन्दिरोंकी रक्षा की। इस प्रकार और भी अनेक तरहसे शासन - प्रभावना करते हुए, शिष्योंको सिद्धान्त - वाचना और तपोदूवहन कराते हुए, तीन वर्ष यहीं व्यतीत किये । इसी बीच सूरजीने उद्भट ऐसे बहुतसे वादियोंको शास्त्रार्थमें परास्त किया । अपने शिष्यों एवं अन्य गच्छके मुनियोंको काव्य, नाटक, अलङ्कार, न्याय, व्याकरण आदि शास्त्र पढाए । दिल्ली में जिनदेव सूरिद्वारा धर्म-प्रभावना - इधर दिल्लीमें विराजित श्री जिनदेव सूरिजी, विजयकटक ( शाही छावणी में ) में सम्राट्से मिले । सम्राट्ने बहुत सन्मान के साथ एक सराय ( मुहल्ला ) जैन संघके निवास करनेके लिये दी । इस सराय का नाम 'सुलतान सराय' रखा गया। वहां सम्राट्ने पौषधशाला और जैनमन्दिर बनवा दिया, एवं ४०० श्रावकोंको सकुटुम्ब निवास करनेका आदेश दिया । पूर्वोक्त कन्यानयनके महावीर बिम्बको, इस सरायमें सम्राट्के बनवाये हुए मन्दिरमें विराजमान किया गया । श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं अन्य धर्मावलम्बी जन भी भक्तिभाव से इस प्रतिमाकी पूजा करने लगे । इस शासनोन्नतिके कायसे सम्राट् महम्मद तुगुलकका सुयश सर्वत्र फैल गया । १. 'संस्कृत जिनप्रभसूरि प्रबन्ध' और शुभशीलगणिके कथाकोशमें लिखा है कि- जिनप्रभ सूरिजी सर्वत्र चैत्य परिपाटी करते हुए सुलतान महमद शाहके साथ देवगिरि पहुंचे । तब सा० जगसिंहने ३२००० मुद्रा व्यय कर प्रवेशोत्सव किया । स्थानीय चैत्योंकी वन्दना करते हुए, जब सूरिजी जगसिंहके गृहमन्दिर पर पहुंचे तो वहां के रत्नमय जिनबिम्बों को देखकर सूरिजीने सिर धुनाया । जगसिंहके कारण पूछने पर कहा - 'हमने बहुत स्थानों में जिनमन्दिरोंका वंदन किया पर एक तो आज तुम्हारे गृहमन्दिरको स्थावर तीर्थरूप और दूसरे जंगम तीर्थरूप जंघरालपुरमें तपागच्छीय सोमतिलकसूरि को देखा । २. विशेष जानने के लिये 'जिनप्रभसूरि अने सुलतान महमद' पृ० ७९ से १०१ तक देखना चाहिए । ३. हर्षपुरीय गच्छके मलधारि श्री राजशेखरसूरिने अपने बनाये हुए न्यायकन्दली विवरणमें, सूरिजीका अपने अध्यापक रूपसे स्मरण किया है। उन्होंने सूरिजीसे न्यायकंदली. प्रन्थका अध्ययन किया था । रुद्रपल्लीय गच्छके संघतिलकसूरिने सम्यक्त्वसप्ततिकावृत्ति में सूरिजीको अपना विद्यागुरु बतलाया है। इसी तरह, सं० १३४९ में नागेन्द्र गच्छके श्री मनीषेण सूरिने अपनी स्याद्वादमञ्जरी में जिनप्रभ सूरिजी द्वारा प्राप्त सहायताका उल्लेख किया है । 2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003393
Book TitleVidhi Marg Prapa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages186
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size12 MB
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