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श्रीजिनप्रभ सूरिका शायद ये ही सबसे पहले जैनाचार्य थे जिन्होंने यावनी भाषाका अध्ययन किया और उसमें स्तोत्र जैसी कृतियां मी की । दिल्लीमें अधिक रहने और मुसलमान बादशाहोंके दरबारमें आने-जानेके विशेष प्रसंगोंके कारण इनको उस भाषाके अध्ययनकी परम आवश्यकता मालूम दी होगी। शायद बादशाहको, जैन देवकी स्तुति कैसे की जाती है इसका परिचय करानेके निमित्त ही इन्होंने उस भाषामें इन स्तोत्रोंकी रचना की हो ।
सं० १३७६ में दिल्लीके सा० देवराजने शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थोंका संघ निकाला। उस संघमें सूरिजी मी साथ थे । मिती ज्येष्ठ कृष्ण १ को शत्रुजय तीर्थकी यात्रा की और मिती ज्येष्ठ शुक्ल ५ को श्री गिरनार तीर्थकी यात्रा की। देवराजके संघ एवं इन तीर्थद्वयकी यात्राका उल्लेख सूरजीने स्वयं अपने तीर्थयात्रा स्तवन एवं त्रोटकमें किया है।
सं० १३८० में पादलिप्तसूरि कृत वीरस्तोत्रकी वृत्ति और सं० १३८१ में राजादिरचादिगणवृत्ति, साधुप्रतिक्रमण-वृत्ति, सूरिमंत्राम्नाय आदि ग्रन्थोंकी रचना की।
सं० १३८२ के वैशाख शुद्ध १० को श्रीफलवर्द्धि तीर्थकी यात्रा कर स्तोत्र बनाया । सुलतान कुतुबुद्दीन मिलन
हमारी ओरसे प्रकाशित ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रहके 'जिनप्रभसूरि गीत' में लिखा है कि सूरिजीने सुलतान कुतुबुद्दीनको रञ्जित किया था। अठाही, आठम, चौथको सम्राट् कुतुबुद्दीन उन्हें अपनी सभामें बुलाता था और एकान्तमें बैठ कर उनसे अपना संशय निवारण किया करता था। सुप्रसन्न हो कर सुलतानने गांव, हाथी आदि सूरिजीको लेनेके लिये कहा पर निस्पृह गुरुजीने उनमेंसे कुछ मी ग्रहण नहीं किया।
सं० १३९३ में रचित 'नाभिनन्दनोद्धार प्रबन्ध में लिखा है कि-शत्रुअयोद्धारक समरसिंहने शाही फरमान ले कर संघ और श्रीजिनप्रभ सूरिजीके साथ मथुरा और हस्तिनापुरकी यात्रा की थी।
महमद तुगलक प्रतिबोध । बादशाहका आमन्त्रण
सूरिजीके अद्भुत पाण्डित्यकी ख्याति सर्वत्र फैल चुकी थी। एक वार सं० १३८५ में जब आप दिल्लीके शाहपुरामें विराजमान थे तब दिल्लीपति सम्राट् महमद तुगलकने अपनी सभामें विद्वद्गोष्ठी
१ यह ग्रन्थ गुजराती अनुवाद सहित अहमदाबादसे छप चुका है।
२ डॉ. ईश्वरीप्रसादके भारतवर्षके इतिहास (पृ. २२३-३२) में सुलतान महमद तुगलकके संबन्धमें अच्छा प्रकाश डाला गया है। उस प्रन्थसे कुछ आवश्यक अंश नीचे दिया जाता है, इससे उसके खभाव चरित्रादिके विषयमें पाठकोंको अच्छी जाकानरी हो सकेगी। "महम्मद तुगलक-(सन् १३२५-१३५१ ई.)-अपने पिता गयासुद्दीनकी मृत्युके बाद शाहजादा जूना महम्मद तुगलकके नामसे दिल्लीकी गद्दी पर बैठा । दिलीके सुलतानोंमें वह सबसे अधिक विद्वान और योग्य पुरुष था। उसकी स्मरण शक्ति और बुद्धि अलौकिक थी और मस्तिष्क बड़ा परिष्कृत था। अपने समयकी कला तथा विज्ञानका वह ज्ञाता था, और बड़ी आसानी तथा खूबीके साथ फारसी भाषा बोल और लिख सकता था। उसकी मौलिकता, वक्तृत्व और विद्वत्ता देख कर लोग दंग रह जाते थे और उसे सृष्टिकी एक अद्भुत चीज समझते थे। तर्कशास्त्रका बह बडा पंडित था और उस विषयके प्रकाण्ड विद्वान भी उससे शास्त्रार्थ करनेका साहस नहीं करते थे।
वह अपने धर्मका पाबन्द था परंतु विधर्मियों पर अत्याचार नहीं करता था। वह मुल्लाओं और मौलवियोंकी रायकी परवाह नहीं करता था और प्राचीन सिद्धान्तों और परिपाटियोंको आंख बंध कर नहीं मानता था। उसने हिन्दुओंके साथ धार्मिक अत्याचार नहीं किया; और सती प्रथाको रोकनेका प्रयन किया। वह न्याय करने में किसीकी रियायत नहीं करता था और छोटे बडे सबके साथ एकसा बर्ताव करता था। विदेशियोंके प्रति वह बडा औदार्य दिखलाता था ...... उसमें ठीक निक्षय तक पहुंचनेकी शक्तिकी कमी थी। उसे क्रोध जल्दी आता था और जरासी देरमें वह आपेसे
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