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________________ शासनप्रभावक श्रीजिनप्रभसूरि । [संक्षिप्त जीवन चरित्र] लेखक - श्रीयुत अगरचन्दजी और भँवरलालजी नाहटा, बीकानेर । जैनशासनमें प्रभावक आचार्योंका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्यों कि धर्म की व्यावहारिक उन्नति उन्हीं पर निर्भर है । आत्मार्थी साधु केवल स्व-कल्याण ही कर सकता है; किन्तु प्रभावक आचार्य ख-कल्याणके साथ साथ पर-कल्याण भी विशेष रूपसे करते हैं, इसी दृष्टिसे उनका महत्त्व बढ जाना खाभाविक है । प्रभावक आचार्य प्रधानतया आठ प्रकारके बतलाये हैं यथा पावयणी धम्मकही वाई नेमित्तिओ तवस्सी य। विजासिद्धा य कवी अट्टे य पभावगा भणिया ॥ अर्थात् -प्रावचनिक, धर्मकथाप्ररूपक, वादी, नैमित्तिक, तपस्वी, विद्याधारक, सिद्ध और कवि ये आठ प्रकार के प्रभावक होते हैं । समय समय पर ऐसे अनेक प्रभावकों ने जैन शासनकी सुरक्षा की है, उसे लाञ्छित और अपमानित होनेसे बचाया है, अपने असाधारण प्रभावद्वारा लोकमानस एवं राजा, बाहशाह, मंत्री, सेनापति आदि प्रधान पुरुषोंको प्रभावित किया है । उन सब आचार्योंके प्रति बहुत आदरभाव व्यक्त किया गया है और उनकी जीवनियां अनेक विद्वानोंने लिख कर उनके यशको अमर बनाया है। प्रभावक चरित्रादि ग्रन्थोंमें ऐसे ही आचार्योंका जीवन वर्णन किया गया है । प्रस्तुत ग्रन्थ इस विधिप्रपाके कर्ता श्रीजिनप्रभ सूरि अपने समयके एक बडे भारी प्रभावक आचार्य थे। उन्होंने दिल्ली के सुलतान महमद बादशाह पर जो प्रभाव डाला वह अद्वितीय और असाधारण है । उसके कारण मुसलमानोंसे होने वाले उपद्रवोंसे संघ एवं तीर्थोंकी विशेष रक्षा हुई और जैन शासनका प्रभाव बढा। उन्होंने विद्वत्तापूर्ण और विविध दृष्टियोंसे अत्यन्त उपयोगी, अनेक कृतियां रच कर साहित्य भंडारको समृद्ध बनाया । पं० लालचंद भगवानदास गांधीने उनके सम्बन्धमें "जिनप्रभसूरि अने सुलतान महमद" नामक गुजराती भाषामें एक अच्छी पुस्तक लिखी है । पर उसमें ज्यों ज्यों सामग्री उपलब्ध होती रही त्यों त्यों वे जोडते गये अतः श्रृंखला नहीं रही ? हम उस पुस्तकके मुख्य आधारसे, पर खतंत्र शैलीसे, नवीन अन्वेषणमें उपलब्ध ग्रन्थोंके साथ सूरिजीका जीवन चरित्र इस निबन्ध में संकलित करते हैं । जिनमभ सूरिकी गुरु परम्परा खरतर गच्छके सुप्रसिद्ध वादी-प्रभावक श्रीजिनपति सूरिजीके शिष्य श्रीजिनेश्वर सूरिजीके शिष्य श्रीजिनप्रबोध सूरि हुए । इनके गुरुभ्राता श्रीमालगोत्रीय श्रीजिनसिंह सूरिजीसे खरतरगच्छकी लघु शाखा प्रसिद्ध हुई । इसका मुख्य कारण प्राकृत प्रबन्धावलीमें यह बतलाया गया है कि-एक वार श्रीजिनेश्वर सूरि जी पल्हूपुर (पालणपुर ) के उपाश्रयमें विराजते थे, उस समय उनके दण्डके अकस्मात् तड़तड़ शब्द करते हुए दो टुकड़े हो गए । सूरिजीने शिष्योंसे पूछा कि-'यह तड़तड़ाट कैसे हुआ ?' शिष्योंने कहा'भगवन् ! आपके दण्डेके दो टुकड़े हो गए' ! यह सुन कर सूरिजीने उसके फलका विचार करते हुए निश्चय किया कि मेरे पश्चात् मेरी शिष्य-सन्ततिमेंसे दो शाखाएं निकलेंगी। अतः अच्छा हो, यदि मैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003393
Book TitleVidhi Marg Prapa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages186
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size12 MB
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