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विधि मार्ग प्रपा
जिनेश्वरसूरि से आरम्भ हुई सुविहित खरतरगच्छ परम्परा में अनेक गीतार्थ विद्वान व धर्मप्रभावक महापुरुष हुए हैं। जिनप्रभसूरि इसी परम्परा की लघु खरतर शाखा के आचार्य जिनसिंहसूरि के पट्टधर विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में हुए । इनका दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक पर बहुत अधिक प्रभाव था जिसका उपयोग इन्होंने शासन प्रभावना हेतु किया।
जिनप्रभसूरि ने अपने गच्छ की विशेषता, शास्त्रसम्मत आचार-चर्या, को सम्पूर्ण एवं सर्वांग रूप से विधि-मार्ग-प्रपा नामक ग्रन्थ में समेट कर भविष्य के लिए प्रामाणिक विधि-विधान उपलब्ध कराने का महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित किया है। यह ग्रन्थ उन्होंने अपनी प्रौढावस्था में रचा था अतः लगभग समस्त विधि-विधानों के सन्दर्भ व प्रकियाएं उनके द्वारा स्वानुभूत थीं, केवल संकलन मात्र नहीं ।
पुस्तक का रचना वैशिष्ट्य इस बात प्रकट होता है कि श्रावक जीवन से संबंधित, श्रमण जीवन से संबंधित तथा दोनों के संयुक्त क्रियाकलापों से संबंधित सभी विधि-विधान इसमें समेट लिये गये हैं। इसे विधि-विधान का सन्दर्भ कोश कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। श्वेताम्बर आम्नाय के लगभग सभी गच्छ अपने समस्त विधि-विधान मूलतः इस अद्वितीय पुस्तक के आधार पर करते रहे हैं। कालान्तर में अपनी-अपनी परम्परा की कतिपय विशिष्टताएँ बताने के लिए कुछ परिवर्तन कर इस विषय के पृथक् ग्रन्थ तैयार किये गये, किन्तु आधार ग्रन्थ यही रहा। विधि-विधान की सन्दर्भ पुस्तक होने के कारण इसका महत्त्व जितना श्रमण समुदाय के लिए है, उतना ही धर्मिष्ठ समुदाय तथा विद्वज्जनों के लिए भी है।
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