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- ॐ ह्रीं श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः .
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स्वप्नद्रव्य, देवद्रव्य ही है
।
(पूज्यपाद आचार्यदेवादि सुविहित महापुरुषों के अभिप्राय,
मार्गदर्शन आदि साहित्य का संयोजन-सम्पादन)
"
संयोजक : सम्पादक पू. पाद प्रशान्तमूर्ति प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय कनकचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज
हिन्दी भाषान्तरकार: पं. बसन्तीलाल नलवाया, रतलाम
प्रकाशक:
श्री विश्वमंगल प्रकाशन मन्दिर, पाटण (गुजरात)
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- प्रकाशक : मणिलाल सरूपचन्द भाटिया रतिलाल अमृतलाल वकील मानद मंत्री श्री विश्वमंगल प्रकाशन मन्दिर केशर निवास, गोल शेरी, पाटण (गुजरात) ३८४२६५
वीर सं. २५१० वि. सं. २०४० ई. सन् १९८४
- आमुख लेखक : पू. विद्वद्वर्य सिद्धहस्त लेखक मुनिराज श्री पूर्णचन्द्रविजयजी म.
मूल्य : छह रूपया
- मुद्रक : जंनोदय प्रिंटिंग प्रेस चौमुखीपुल, रतलाम (म. प्र.)
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[ प्रकाशकीय
___ जैन जगत् में आजकल अधिकांश जन-संघ, स्वप्नद्रव्य को देवद्रव्य मानने की शास्त्रसिद्ध परम्परा का पालन कर रहे हैं, तदपि इस द्रव्य को साधारण में ले जाने की और उसकी बोली पर अतिरिक्त चार्ज लगाकर, उसे साधारण खाते में खताने की एक अवांछनीय बात पिछले कई वर्षों से चल रही है। ऐसी स्थिति में उस बात का सचोट खण्डन करने वाली किसी पुस्तक के प्रकाशन की महत्ती आवश्यकता वर्षों से अनुभव की जा रही थी।
इस महत्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति करने का पुण्य पू. पाद परम शासन प्रभावक जैन शासन ज्योतिधर व्याख्यान वाचस्पति आचाय देव श्रीमद् विजय रामचन्द्र सूरीश्वरजी महाराजश्री के पट्टालंकार परम पूज्य शान्त आचार्यदेव श्रीमद् विजय कनकचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की कृपा से हमारी संस्था श्री विश्वमंगल प्रकाशन मन्दिर, पाटन को मिल रहा है-यह आनन्द की बात है।
___ इस संस्था की स्थापना पू. पाद प्रवचन प्रभावक आचार्यदेव श्रीमद् विजय कनकचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के शिष्य रत्न श्रुतोपासक पूज्य उपाध्यायजी महाराज श्री महिमा विजयजी गणिवर श्री के उपदेश से हुई थी। तब से आज तक यह संस्था उत्तरोत्तर उपयोगी प्रकाशनों का साहित्य-थाल समाज के सामने रखने में सफल हुई है, यह इन पूज्यों की कृपादृष्टि का ही परिणाम है। इस पुस्तक का प्रकाशन भी उस कृपादृष्टि का ही एक प्रतीक है ! . .
पूज्य आचार्यदेवश्री ने बहुत ही परिश्रम से सम्पादन-संकलन किया है, फलस्वरूप यह पुस्तक देवद्रव्य विषयक जानकारी के लिए एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज के समान बन गई है । ऐसा सुन्दर साहित्य हमारी संस्था को प्रकाशित करने के लिए पू. प्रशान्तमूर्ति आचार्य भगवन्त श्रीमद्
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विजयकनकचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने देने की कृपा की है, इसे हम हमारा सौभाग्य समझते हैं । साथ ही सिद्धहस्त लेखक विद्वद्वर्य पू. मुनिराज श्री पूर्णचन्द्र विजयजी महाराज ने इस पुस्तक की सुन्दर और बहुत ही उपयोगी प्रस्तावना लिखकर हमें उपकृत किया है।
पूज्य आचार्यदेवश्री ने मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश आदि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में विचरण कर अगणित उपकार किये हैं और हिन्दी साहित्य के सृजन द्वारा भी हिन्दी भाषी जनता पर अपना प्रभाव अंकित किया है। उस हिन्दी साहित्य को प्रकाशित करने का लाभ भी हमें मिला है । पूज्यपाद आचार्यदेव श्री के स्वर्गारोहण के पश्चात् यह द्वितीय हिन्दी 'प्रकाशन हो रहा है।
हिन्दी भाषी प्रदेशों के श्रीसंघों से हमारी यह प्रार्थना है कि वे इस पुस्तक के वाचन-मनन द्वारा देवद्रव्य विषयक सनातन सत्य को समझें, स्वीकारें और सन्मान दें। इसी शुभ भावना से इस पुस्तक का प्रकाशन किया गया होने से हमारा प्रयास तो प्राथमिक रूप से सफल हो गया है फिर भी सब संघ इसे स्वीकार करेंगे तो हमारा प्रयास विशेष सफल होगा।
आश्विन सुदी १०
मन्त्रीगण श्री विश्वमंगल प्रकाशन मन्दिर,
पाटण (गुजरात)
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महत्त्वपूर्ण एवं मननीय मार्गदर्शन
( लेखक : पू. विद्वद्वर्य सिद्धहस्त लेखक मुनिराज श्री पूर्णचन्द्रविजयजी महाराज )
जहाँ देह है वहां रोग की संभावना रहती है और रोग होने पर उसकी औषधि भी होती है । इसी तरह जहाँ समाज है वहाँ कोई न कोई समस्या होती ही है और जहाँ समस्या होती है तो उसका समाधान भी होता है । यह एक माना हुआ सत्य है ।
जैन संघ अन्ततः व्यक्ति-व्यक्ति की जोड़ से बना हुआ एक समाज ही है । अतः इसके सामने भी समस्याएँ हों, प्रश्न हों और चर्चा- विचारणा हों यह असंभवित नहीं । शास्त्रीय समाधान की अपेक्षा रखने वाले अनेक प्रश्नों में से एक प्रश्न है कि :- स्वप्नद्रव्य को देवद्रव्य गिना जाय या नहीं ? स्वप्न की बोली में चार्ज बढ़ाकर उस बढ़ी हुई रकम को साधारण खाते में खताया जा सकता है या नहीं ?' यह प्रश्न बहुत पुराना नहीं है । पिछले पचास वर्ष से ही यह चर्चा चली है । इस चर्चा के चालक कौन थे और उसके पीछे क्या अभिप्राय था ? इसकी विचारणा को अलग रखकर, इस प्रश्न का शास्त्र सम्मत समाधान क्या है, यह जानना तो आवश्यक ही है !
'स्व'नद्रव्य देवद्रव्य ही है' पुस्तिका द्वारा इस प्रश्न पर सुन्दर प्रकाश डाला जा रहा है। इस प्रश्न के शास्त्रीय समाधान के लिए हुए निर्णयों और प्रयासों को सब सरलता से समझ सकें, इस तरह शब्दस्थ करके पुस्तकाकार में प्रकाशित करने की अनि
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वार्य आवश्यकता अनुभव को जा रही थी, ऐसे समय में इस पुस्तक का प्रकाशन बहुत ही मननीय मार्गदर्शन देगा यह निस्संदेह है ।
स्वप्नद्रव्य को देवद्रव्य सिद्ध करने वाले प्रमाणों से परिपूर्ण इस पुस्तक में सम्पादित संकलित सामग्री की गहराई में उतरने से पहले एक बार यह विचार कर लें कि 'देवद्रव्यं किसे कहते हैं ? और देवद्रव्य की वृद्धि का सर्वव्यापी माध्यम आज क्या है ?
प्रथम देवद्रव्य की बात लें । देव के सामने भक्ति के निमित्त स्वेच्छा से समर्पित द्रव्य, देवद्रव्य गिना जाता हैं । इस समर्पण के प्रकारों में भगवान् के पांच कल्याणक तथा माला परिधानादि अनेक प्रसंगों को लेकर होने वाला सम्पत्ति समर्पण आ सकता है ।
ऐसे देवद्रव्य की वृद्धि का सर्वव्यापी माध्यम आज तो स्वप्नों की बोली है जो पर्युषण पर्व में बोलो जाती है । क्योंकि भारत के अनेक गांवों-नगरों में प्रतिवर्ष पर्युषण में स्वप्न उतारने की परम्परा चली आ रही है ।
स्वन्न उतारने को क्रिया प्रभु के च्यवन-कल्याण महोत्सव का एक अंग होने से इसे लेकर बोली जाने वाली बोली का द्रव्य प्रभु भक्ति निमित्तक होने से देवद्रव्य ही गिना जाना चाहिये । इस स्वप्नद्रव्य को देवद्रव्य में ले जाने की शास्त्रीय प्रणाली के कारण ही जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ को उत्तराधिकार में मिले हुए भव्य मन्दिर और भव्यातिभव्य तीर्थ आज भी अनुपम अस्मिता लिये हुए हैं तथा भव्यातिभव्य नये मन्दिरों का निर्माण भी होता रहता है ।
भारत के संघों में पर्युषण के प्रसंग पर स्वप्न वाचन के एक ही दिन होने वाली बोलियों की जोड़ की जाय तो उसकी
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अनुमानित राशि करोड़ की संख्या से भी ऊपर जा सकती है इस स्वप्न द्रव्य की आय को देवद्रव्य में ले जाने के कारण ही हमारे मन्दिरों और तीर्थों की शिल्पकला तथा स्थापत्य की अनुपमता विश्व प्रसिद्ध है । आबू, राणकपुर और तारंगा जैसे प्राचीन तीर्थों को आज भी उनके मूल स्वरूप में टिकाये रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली स्वप्नद्रव्य को देवद्रव्य गिनने वाली अपनी शास्त्रीय परम्परा को अखण्डित रखने में ही अपना हित है । इससे ही अपने भव्य तीर्थ एवं मन्दिर काल के प्रवाह के सामने उसकी टक्कर को झेलते हुए दृढ़ता से खड़े रह सकेंगे ।
प्रभुभक्ति के लक्ष्य में रखकर बोली जाने वाली बोली का द्रव्य देवद्रव्य गिना जाता है और उसकी वृद्धि का सर्वव्यापी माध्यम, स्वप्न की बोली है, यह बात संक्षेप में हमने जान ली । अब प्रस्तुत पुस्तक का परिचय प्राप्त करें : --
प्रस्तुत पुस्तक में चार खण्ड हैं । प्रथय के तीन खण्डों में 'स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ही है' इस भाव को उद्घोषित करते हुए अनेकानेक पूज्य आचार्यदेवादि मुनिवरों के स्पष्ट अभिप्राय पत्र साधारण खाते के खर्च को चलाने के लिए स्वप्न की बोलो का चार्ज बढ़ाने के विचार की अशास्त्रीयता और पिछले पचास वर्षो में हुए तीन मुनि सम्मेलनों में इस सम्बन्ध में लिये गये निर्णयों का सुन्दर, स्पष्ट एवं सरल उल्लेख किया गया है ।
इसके पश्चात् चतुर्थ खण्ड में 'होर प्रश्न' और 'सेन प्रश्न ' जैसे शासनमान्य ग्रन्थ के उद्धरण देकर देवद्रव्य की सुरक्षा, सदुपयोग और उसके संवर्धन के विषय में स्पष्ट मार्गदर्शन दिया गया है ।
चौथे खण्ड में दिये गये मार्गदर्शन से गुरुपूजन सम्बन्धी प्रश्न पर भी पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । ' पैसे से गुरुपूजन नहीं हो
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सकता'-ऐसी भ्रमणा रखने वालों तथा 'गुरु पूजन का द्रव्य गुरु को वैयावृत्य के खाते में ले जाया जा सकता है-'ऐसी मिथ्या धारणा वाले वर्ग को यह चतुर्थ खण्ड अवश्य पढ़ना चाहिये और यह समझ लेना चाहिये कि-'गुरुपूजन हो सकता है और गुरु की नवांगी पूजा भी हो सकती हैं । इसमें द्रव्य (पैसा) रखने की परम्परा शास्त्रसिद्ध है । साथ ही गुरुपूजन का यह द्रव्य देवद्रव्य ही गिना जाता है, इसे वैयावृत्य के खाते में नहीं खताया जा सकता। . . आजकल देवद्रव्य के पैसे से निर्मित चालियों और भवनों में रहने की प्रथा बढ़ती जा रही है। स्वप्नद्रव्य को देवद्रव्य गिनने वाले संघों का अधिक प्रमाण होते हुए भी स्वप्नद्रव्य को साधारण में ले जाने की अशास्त्रीय विचारधारा सर्वथा सुखी नहीं है । देवद्रव्य के पैसों को कई जैन ब्याज से वापरने लगे हैं और गुरुपूजन के पैसों को गुरु के वैयावृत्य खाते में खताने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। ऐसी स्थिति में 'स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ही है'इस पुस्तक का सर्वजनोपकारी सम्पादन-संकलन करके सुप्रसिद्ध वक्ता प्रशान्त मूर्ति सिद्धहस्त साहित्यकार परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजयकनकचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने जैन जगत् को एक महत्त्वपूर्ण एवं मननीय मार्गदर्शन दिया है, ऐसा कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
__इस पुस्तक के संपादन-संकलन में पू. आचार्यदेवश्री ने सारे भारत के संघों को मननीय मार्गदर्शन देने की कल्याणकामना से जो परिश्रम किया है उसे तो इस पुस्तक का सांगोपांग वाचन करने वाला ही समझ सकता है ! पू. आचार्यदेव के शिष्यरत्न श्रुतोपासक पू. उपाध्यायजी श्री महिमाविजयजी महाराज के सदुपदेश से स्थापित संस्था 'श्री विश्वमंगल प्रकाशन मन्दिर, • पाटण, इस पुस्तक के प्रकाशन में' निमित्त बना है, यह आनन्द
की बात है। संस्था के द्वारा आज तक प्रकाशित पुस्तकों की
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परम्परा में यह पुस्तक सर्वोपकारी साहित्य की एक और कड़ी जोड़ने वाली है ।
महत्त्वपूर्ण और मननीय मार्गदर्शन देने वाली इस पुस्तक के सम्पादन - संकलन के लिए जैनसंघ, स्वर्गस्थ प्रशान्त मूर्ति सुप्रसिद्ध साहित्यकार परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजयकनकचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के अत्यन्त ऋणी रहेंगे ।
आज से पांच वर्ष पूर्व गुजराती में प्रकाशित यह पुस्तक अब हिन्दी में अनुवादित होकर पुनः प्रकाशित हो रही है यह एक हिन्दी भाषी विशाल प्रदेश के लिए उपकारी कार्यं हो रहा है । यद्यपि इस पुस्तक के संयोजक - सम्पादक पू. आचार्यदेवश्री आज क्षरदेह से विद्यमान नहीं हैं परन्तु ऐसे प्रकाशनों में प्रतिबिम्बित होने वाले उनके अक्षर-देह के अस्तित्व को मिटा सकने की शक्ति काल में भी नहीं है । पूज्यश्री के स्वर्गवास के पश्चात् हिन्दी में धर्म का मर्म प्रकाशित हुआ था और आज यह दूसरी पुस्तक प्रकाशित हो रही है ।
देवद्रव्य की परम पवित्रता समझने के लिए इसके संरक्षण से बंधने बाले प्रकृष्टं पुण्य को और भक्षण से लगने वाले प्रबल पाप को जानने के लिए तथा देवद्रव्य विषयक अनेकानेक बातों की सही सही समझ पाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति इस पुस्तक को पढ़े और उसके मार्गदर्शन को व्यवहार में उतारे, इसी अभिलाषा के साथ, इसके सम्पादक - संयोजक पूज्य स्वर्गीय आचार्यदेवश्री के चरणों में वन्दनावलि को पुष्पाञ्जलि समर्पित करते हुए आनन्द का अनुभव करता हूं ।
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वि. सं. २०४० श्रा. सु. ५ सिद्धक्षेत्र पालीताना
- मुनि पूर्णचन्द्रविजय
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प्रकरण [१] पू. पाद सुविहित प्राचार्यादि मुनि भगवन्तों का
शास्त्रानुसारी सचोट मार्गदर्शन स्वप्नों को घो की बोली का मूल्य बढ़ाकर क्या वह
वृद्धि साधारण खाते में ले जाई जा सकती हैं ?
शास्त्रानुसारी महत्त्वपूर्ण निर्णय
समस्त भारतवर्ष के श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघों को सदा के लिए मार्गदर्शन प्राप्त हो, इस शुभ उद्देश्य से एक महत्त्वपूर्ण पत्र-व्यवहार यहाँ प्रसिद्ध किया जा रहा है ।
. उसकी पूर्व भूमिका इस प्रकार है । वि. सं. १९९४ में शान्ताक झ (बम्बई) में पू. पाद सिद्धान्त महोदधि गच्छाधिपति, आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजश्री की आज्ञा से पूज्य मुनिवर श्री ३८-३ पर्यषणा पर्व की आराधना के लिए श्रीसंघ की विनति से पधारे थे । उस समय संघ के कई भाइयों की भावना साधारण खाते के खर्च को पूरा करने के लिए स्वप्नों की बोली में घी के भाव बढ़ाकर उसे साधारण खाते में ले जाने की हुई। यह भावना जब संघ में प्रस्ताव के रूप में रखी गई तो उस चातुर्मास में श्री पर्युषणा पर्व की आराधना कराने श्रीसंघ की विनति से पधारे हुए पू. मुनि-महाराजाओं ने उसका दृढ़ता से विरोध करते हुए बताया कि ऐसा करना उचित नहीं है । यह न तो शास्त्रानुसारो है और न व्यावहारिक ही । स्वप्नों
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की बोली में इस प्रकार साधारण खाता की आय नहीं मिलाई जा सकती है । इसमें हमारा स्पष्ट विरोध है।' उन्होंने यह भी कहा कि-'संघ को इस विषय में निर्णय लेने के पहले जैन संघ के विराजमान एवं विद्यमान पू. सुविहित शासनमान्य आचार्य-भगवन्तों से परामर्श करना चाहिए और उसके बाद ही उनकी सम्मति से हो इस विषय में निर्णय लिया जाना चाहिए।'
अतः तत्कालीन शान्ताकु झ संघ के प्रमुख सुश्रावक जमनादास मोरारजी जे. पी. ने इस बात को स्वीकार करके समस्त भारत के जैन श्वे. मू. पू. संघ में, उसमें भी तपागच्छ श्री संघ में विद्यमान पू. आचार्य भगवन्तों को इस विषय में पत्र लिखे । वे पत्र तथा उनके जो प्रत्युत्तर प्राप्त हुए, वह सब साहित्य वि. सं. १९९५ के मेरे लाल बाग जैन उपाश्रय के चातुर्मास में मुझे सुश्रावक नेमिदास अभेचन्द मांगरोल निवासी के माध्यम से प्राप्त हआ। उसे मैंने पहले 'कल्याण' मासिक में प्रकाशनार्थ दिया और आज फिर से अनेक सुश्रावकों की भावना को स्वीकार कर पुस्तक के रूप में उसे प्रकाशित किया जा रहा है।
.
(१)
शान्ताक्रुझ संघ की ओर से लिखा गया
प्रथम पत्र :
'सविनय निवेदन है कि यहां का संघ सं. १९९३ के साल तक स्वप्नों के घी की बोली ढाई रुपया प्रति मन से लेता रहा है तथा उसकी आय को देव-द्रव्य के रूप में माना जाता था। परन्तु साधारण खाते की पूर्ति के लिये चालू वर्ष में एक प्रस्ताव
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किया कि स्वप्नों की बोली के घी के भाव रु. ढाई की जगह रु. पाँच किये जावें । जिसमें से पूर्व की भांति ढाई रुपया देवद्रव्य में
और ढाई रुपये साधारण खर्च की पूर्ति के लिए साधारण खाते में जमा किये जावें । उक्त प्रस्ताव में शास्त्रीय दृष्टि से या परम्परा से उचित गिना जा सकता है क्या ? इस सम्बन्ध में आपका अभिप्राय बताने की कृपा करें जिससे वह परिवर्तन करने की आवश्यकता हो तो समय पर शीघ्रता से किया जा सके । श्री सूरत, भरुच, बड़ौदा, खम्भात, अहमदाबाद, महेसाणा, पाटण, चाणस्मा, भावनगर आदि अन्य नगरों में क्या प्रणालिका है ? वे नगर स्वप्नों की बोली के घी आय का किस प्रकार उपयोग करते हैं ? इस विषय में आपका अनुभव बतलाने की कृपा करें।
श्रीसंघ के उक्त प्रस्तावानुसार श्री स्वप्नों की बोली के घी की आय श्री देवद्रव्य और साधारण खाते में ले जाई जाय तो श्रीसंघ दोषित होता है या नहीं ? इस विषय में आपका अभिप्राय बतलाने की कृपा करे ।
संघ-प्रमुख -जमनादास मोरारजी .
(२)
दुबारा इस विषय में श्रीसंघ द्वारा लिखा गया
- दूसरा-पत्र :_ 'सविनय निवेदन है कि यहाँ श्रीसंघ में स्वप्नों के घी की बोली का भाव ढाई रुपया गत वर्ष तक था। वह आमदनी देव
स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ।
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द्रव्य की समझी जाती थी परन्तु साधारण खर्च की पूर्ति के लिए श्रीसंघ ने विचार करके एक प्रस्ताव किया कि मूल २ 11 ) रु. आवें वे सदा की भांति देवद्रव्य में ले जाये जावें और २ || ) रु. जो अधिक आवें वे साधारण खाते की आमदनी में ले जाये जावें । उक्त ठहराव शास्त्र के आधार से ठीक है या नहीं, इस विषय में आपका अभिप्राय बतलाने की कृपा करियेगा । श्री सूरत, भरुच, बड़ौदा, खम्भात, अहमदाबाद, महेसाणा, पाटण, चाणस्मा, भावनगर आदि श्रीसंघ स्वप्नों की बोली की आय का किस किस प्रकार उपयोग करते हैं, वह आपके ध्यान में हो तो बताने की कृपा करें ।'
शान्ताक्र ुझ श्रीसंघ की तरफ से लिखे गये पत्रों के उत्तर रूप में पू. पाद सुविहित शासन मान्य आचार्य भगवन्तों की तरफ से जो जो प्रत्युत्तर श्रीसंघ के प्रमुख सुश्रावक जमनादास मोरारजी जे. पी. को प्राप्त हुए, वे सब पत्र यहां प्रकाशित किये जा रहे हैं । उन पर से स्पष्ट रूप से प्रतीत होगा कि स्वप्नों की आय में वृद्धि करके प्राप्त की गई रकम भी साधारण खाते में नहीं ले जाई जा सकती है।' इस प्रकार सचोट एवं दृढ़ता के साथ पू. पाद शासनमान्य आचार्य भगवन्तों ने फरमाया है । ऐसी स्थिति में जो वर्ग सारो स्वप्न-द्रव्य की आय को साधारण खाते में ले जाने की हिमायत कर रहा है, वह वर्ग शास्त्रीय सुविहित मान्य परम्परा से कितना दूर सुदूर जाकर, श्री वीतरागदेव की आज्ञा के आराधक कल्याणकामी अनेक आत्माओं का अहित करने की पापप्रवृत्ति को अपना रहा है, यह प्रत्येक सुज्ञ आराधक आत्मा स्वयं विचार कर सकता है ।'
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(१)
पू. पाद आचार्यदेवादि मुनिवरों के अभिप्राय
ता. २३-१०-३८ 'अहमदाबाद से लि० पूज्यपाद आराध्यपाद आचार्यदेव श्री श्री श्री विजयसिद्धि सूरीश्वरजी महाराजश्री की ओर से तत्र शान्ताक्र ुझ मध्ये देवगुरु पुण्य प्रभावक सुश्रावक जमनादास मोरारजी वि० श्रीसंघ समस्त योग्य |
मालूम हो कि आपका पत्र मिला । पढ़कर समाचार जाने । पूज्य महाराजजी सा. को दो दिन से ब्लड प्रेशर की शिकायत हुई है । इसलिये ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने की झंझट से दूर रहना चाहते हैं । इसलिए ऐसे प्रश्न यहाँ न भेजे क्योंकि डाक्टर ने मगजमारी करने ओर बोलने की मनाही कर रखी है । तो भी यदि हमारा अभिप्राय पूछते हो तो संक्षेप में बताते हैं कि 'स्वप्नों की आमदनी के पैसे हम तो देवद्रव्य में ही उपयोग में लिखाते हैं | हमारा अभिप्राय उसे देवद्रव्य मानने का है । अधिकांश गांवों या नगरों में उसे देवद्रव्य के रूप में ही काम में लेने की प्रणाली है । ' साधारण खाते में कमी पड़ती हो तो उसके लिए दूसरी पानड़ी ( टीप ) करना अच्छा है परन्तु स्वप्नों के घी की बोली के भाव २ 11 ) के बदले ५) का भाव करके आधे पैसे देवद्रव्य में ले जाना उचित नहीं है । तथा यदि श्रीसंघ ऐसा करता है तो वह दोष का भागीदार ऐसा करने की अपेक्षा साधारण खाते अलग पानडी करना क्या बुरा है ? इसलिए स्वप्नों के निमित्त के पैसों को साधारण खाते में ले जाना हमको ठीक नहीं लगता है | हमारा अभिप्राय उसे देवद्रव्य में ही काम में लेने का है ।'
।
पू. महाराजश्री की आज्ञा से - द. : मुनि 'कुमुदविजयजी'
स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ]
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'साणंद से आचार्य महाराजश्री विजयमेघसूरीश्वरजी म. आदि की तरफ से
'बम्बई मध्ये देवगुरु भक्तिकारक सुश्रावक जमनादास मोरारजी योग धर्मलाभ । यहाँ सुखशाता है । आपका पत्र मिला। उसके सम्बन्ध में हमारा अभिप्राय यह है कि स्वप्नों की बोली सम्बन्धी जो कुछ आय हो उसे देवद्रव्य के सिवाय अन्यत्र नहीं ले जाई जा सकती है । अहमदाबाद, भरुच, सूरत, छाणी, पाटण, चाणस्मा, महेसाणा, साणंद आदि बहुत से स्थानों में प्रायः ऊपर कही हुई प्रवृत्ति चलती है । यही धर्मसाधन में विशेष उद्यम रखें।'
द. : सुमित्रविजय का धर्मलाभ
(३)
उदयपुर आ. सु. ६ मालदास की शेरी
'जैनाचार्य विजय नीतिसूरीश्वरजी आदि ठाणा १२. शान्ताक झ मध्ये सुश्रावक देवगुरु भक्तिकारक श्रावकगुण सम्पन्न शा. जमनादास मोरारजी जोग धर्मलाभ बांचना । देवगुरु प्रताप से सुखशाता है । उसमें रहते हुए आपका पत्र मिला। बांचकर समाचार जाने । पुनः भी लिखियेगा। पुरानी प्रणालिका अनुसार हम स्वप्नों की आय को देवद्रव्य में ले जाने के विचार वाले हैं। क्योंकि तीर्थंकर की माता स्वप्नों को देखती है, वह पूर्व में तीर्थकर नाम बांधने से तीर्थंकर माता चवदह स्वप्न देखती है । वे
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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च्यवन कल्याणक के सूचक हैं । अहमदाबाद में सपनों की उपज को देवद्रव्य माना जाता है । यही । जो याद करे उसे धर्मलाभ कहियेगा |
द. : 'पंन्यास सम्मतविजयजी गणी के धर्मलाभ'
(४)
ता. २८-९ – ३८ सिद्धक्षेत्र पालीताना से लि० आचार्य श्री विजयमोहनसूरिजी आदि । तत्र देवगुरु भक्तिकारक सुश्रावक सेठ जमनादास मोरारजी मु. शान्ताक्रूझ योग्य धर्मलाभ के साथ - यहां देवगुरु प्रसाद से सुखशाता है । आपका पत्र मिला । समाचार जानें ।
पर्वाधिराज श्री पर्युषण पर्व में स्वप्नों की बोली के द्रव्य को किस खाते में गिनना, यह पूछा गया तो इस विषय में यह कहना है कि - गज, वृषभादि जो चौदह महास्वप्न श्री तीर्थंकर भगवन्त की माता को आते हैं, वे त्रिभुवन पूज्य श्री तीर्थंकर महाराज के गर्भ में आने के प्रभाव से ही आते हैं । अर्थात् माता को आने वाले स्वप्नों में तीर्थंकर भगवान् ही कारण हैं ।
उक्त रीति से स्वप्न आने में जब तीर्थंकर भगवन्त कारण हैं तो उन स्वप्नों की बोली के निमित्त जो द्रव्य उत्पन्न होता है, वह देवद्रव्य में ही गिना जाता है । ऐसा हमको उचित लगता है । जिस द्रव्य की उत्पत्ति में देव का निमित्त हो वह देवद्रव्य ही गिना जाना चाहिए, ऐसा हम मानते हैं । इतना ही । धर्मकरणी में विशेष उद्यत रहें । स्मरण करने वालों को धर्मलाभ कहें ।
स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ]
आसोज सु. ३ सोमवार
द. : धर्मविजय का धर्मलाभ
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( वर्तमान में पू. प्रा. म.श्री विजयधर्मसूरीश्वरजी म.)
आपके यहाँ आज तक बोली का भाव प्रतिमन ढाई रूपया था और वह सब देवद्रव्य गिना जाता था। वह ढाई रूपया देवद्रव्य का कायम रखकर मन का भाव आपने पांच रूपया करना ठहराया। शेष रुपये ढाई साधारण खाते में ले जाने का आपने नक्की किया, यह हमको शास्त्रीय दृष्टि से उचित नहीं लगता। आज तो आपने स्वप्नों की बोली में यह कल्पना की, कल प्रभु की आरती पूजा आदि की बोली में भी इस प्रकार की कल्पना करेंगे तो क्या परिणाम आवेगा? अतः जो था वह सर्वोत्तम था। स्वप्नों की बोली के ढाई रूपये कायम रखिये और साधारण की आय के लिए स्वप्नों की बोली में कोई भी परिवर्तन किये बिना दूसरा उपाय ढूंढिये; यह अधिक उत्तम है। इतना ही । धर्मकरणी में उद्यत रहें।
ईडर आ. सु. १४
पूज्य आचार्य महाराज श्रीमद् विजय लब्धिसूरिजी महाराज की आज्ञा से तत्र सुश्रावक देवगुरु भक्तिकारक जमनादास मोरारजी योग्य धर्मलाभ बांचना।
आपका पत्र मिला । बांच कर समाचार जाने । आप देवद्रव्य के भाव २॥ को पांच करके २॥ साधारण खाते में ले जाना चाहते हो, यह जाना परन्तु ऐसा होने से जो पच्चीस मन घी बोलेने की भावना वाला होगा, वह बारह मन बोलेगा, इसलिए कुल मिलाकर देवद्रव्य की हानि होने का भय रहता है अतः ऐसा
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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करना हमें उचित नहीं लगता । साधारण खाते को आय को किसी प्रकार के लाग द्वारा बढ़ाया जाना ठीक लगता है। दूसरे गांवों में क्या होता है, इसकी हमें खास जानकारी नहीं हैं। जहां जहां हमने चौमासे किये हैं वहां अधिकांश देवद्रव्य में ही स्वप्नों की आय जमा होती है । कहीं कही स्वप्नों की आय में से अमुक भाग साधारण खाते में ले जाया जाता है । परन्तु ऐसा करने वाले ठीक नहीं करते, ऐसी हमारी मान्यता है । धर्मसाधन में उद्यम करियेगा।
२.: 'प्रवीणविजय के धर्मलाभ'
प. पू. पाद आचार्य देव श्री विजयप्रेमसूरोश्वरजी म. तरफ से शान्ताकु झ मध्ये देवगुरु भक्ति-कारक सुश्रावक जमनादास भाई योग्य धर्मलाभ । आपका पत्र मिला। पढ़कर समाचार जाने । सूरत, भरुच, अहमदाबाद, महेसाणा और पाटन में मेरी जानकारी के अनुसार किसी अपवाद के सिवाय स्वप्न की आय देवद्रव्य में जाती है । बड़ौदा में पहले हंसविजयजी लायब्रेरी में ले जाने का प्रस्ताव किया था परन्तु बाद में उसे बदलकर देवद्रव्य में ले जाने की शुरुआत हुई थी। खम्भात में अमरचन्द शाला में देवद्रव्य में हो जाता है । चाणस्मा में देवद्रव्य में जाता है। भावनगर की निश्चित जानकारी नहीं है।
अहमदाबाद में साधारण खाता के लिए प्रतिघर से प्रतिवर्ष अमुक रकम लेने का रिबाज है जिससे केशर, चन्दन, धोतियां आदि का खर्च हो सकता है । ऐसी योजना अथवा प्रतिवर्ष शक्ति अनुसार पानड़ी की योजना चलाई जाय तो साधारण खाते में
स्वप्नद्रव्य, देवद्रव्य ]
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ले जाना तो उचित नहीं लगता । तीर्थंकर देव को लक्ष्य में रखकर ही स्वप्न हैं तो उनके निमित्त से उत्पन्न रकम देवद्रव्य में ही जानी चाहिए ।
'गप्प दीपिका समीर' नाम की पुस्तक में प्रश्नोत्तर में पूज्य स्व. आचार्यदेव विजयानन्दसूरिजी का भी ऐसा ही अभिप्राय छपा हुआ है ।
सबको धर्मलाभ कहना ।
द. : 'हेमन्तविजय के धर्मलाभ'
(७)
जैन उपाश्रय, कराड़
आचार्य श्री विजयरामचन्द्रसूरि की तरफ से धर्मलाभ | स्वप्न उतारने की क्रिया प्रभु-भक्ति के निमित्त ही होती है । अतः इसकी आमदनी कम हो, ऐसा कोई भी कदम उठाने से देवद्रव्य की आय को रोकने का पाप लगता है इसलिए आपका प्रस्ताव किसी भी तरह योग्य नहीं है परन्तु शास्त्र विरुद्ध है । साधारण की आय के लिये अनेक उपाय किये जा सकते हैं ।
अहमदाबाद आदि में स्वप्नों की उपज जीर्णोद्धार में दी जाती हैं। जिन-जिन स्थानों में गड़बड़ी होती है या हुई है तो वह अज्ञान का ही परिणाम है । अतः उनका उदाहरण लेकर आत्मनाशक वर्ताव किसी भी कल्याणकारी श्रीसंघ को नहीं करना चाहिए ।
सब जिनाज्ञा के रसिक और पालक बनें, यही अभिलाषा ।
| स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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(८)
श्री मुकाम पाटण से लि० विजय भक्तिसूरि तथा पं. कंचनविजयादि ठा. १९ तरफ से
मु. शान्ताक्र ुझमध्ये देवगुरु भक्ति कारक धर्मरागी जमनादास मोरारजी योग्य धर्मलाभ वांचना | आपका पत्र पहुँचा । समाचार जाने । आपने स्वप्नों की बोली के सम्बन्ध में पूछा उसके उत्तर में लिखना है कि
पहले ढाई रुपये के भाव से देरासरजी ( मन्दिरजी ) में ले जाते थे । अब पांच रुपये का प्रस्ताव करके आधा साधारण खाते में ले जाने का विचार करते हो, यह विचारणीय प्रश्न है । क्योंकि जब ढाई रुपये के पांच रुपये भाव करेंगे तो स्वाभाविक रूप से कम घी बोला जावेगा । इसलिए मूल आवक में परिवर्तन हो सकता है। साथ ही मुनि सम्मेलन के समय -आधा साधारण खाते में. जाने का निर्णय नहीं हुआ है। तो भी आप वयोवृद्ध आचार्यश्री विजय सिद्धिसूरिजी तथा विजयने मिसूरिजी महाराज को पूछ लेना ।
'आप जैसे गृहस्थ धारें तो साधारण में लेशमात्र भी कमी न आवे । न धारें तो कमी आने की है ! सबसे उत्तम मार्ग तोजैसा पहले हैं वैसा ही रखना है । कदाचित् आपके लिखे अनुसार आधा-आधा करना पड़े तो ऊपर सूचित दो स्थानों पर पूछ कर कर लेना । यह बराबर ध्यान में लेना । धार्मिक क्रिया करके जीवन को सफल करना । अहमदाबाद तक कदाचित् आने का प्रसंग आवे तो पाटण नगर के देरासरजी की यात्रा का लाभ लेना ।
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खम्भात, आसोज सुदी १ आचार्य विजय क्षमाभद्रसूरि की ओर से ! सुश्रावक देवगुरु भक्तिकारक सेठ जमनादास मोरारजी योग्य धर्मलाभ सहित विदित हो कि आपका पत्र मिला । समाचार जाने । वहां के संघ द्वारा किया गया नया प्रस्ताव शास्त्रीय दृष्टि से ठीक नहीं है। क्योंकि देवद्रव्य के नाम से उपार्जित रकम का कोई भी भाग देवमन्दिर और मूर्ति के निर्वाह के अतिरिक्त अन्य खाते में नहीं प्रयुक्त किया जाना चाहिये । देने वालों की भावना भी देवद्रव्य के उद्देश्य से होती है । श्रावक के वार्षिक ग्यारह कर्तव्यों में से देवद्रव्य की वृद्धि रूप कर्तव्य पालन के निमित्त ही पूर्व-पूरुषों ने ऐसी प्रवृत्तियाँ प्रचलित की हैं। अनेक पेढ़ियों के संचालक बड़े-बड़े व्यापारी भी इस लोक की प्रामाणिकता के लिए प्रत्येक का हिसाब अलग-अलग और साफ सुथरा रखते हैं। रकम इस प्रकार एक दूसरे में नहीं मिलाई जा सकती है । इसी तरह धार्मिक खातों में भी स्पष्ट और अलग-अलग जमा खर्च होना चाहिये।
साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि बहुत से बोली बोलने वाले देवपूजा को जीर्णोद्धार आदि खाते में खर्च के लिये निर्धारित या अलग निकाली हई रकम में से ही बोली बोलते हैं-अपने खर्च खाते से नहीं । कुछ पेढ़ियों में आय या बचत का अमुक भाग देव के नाम पर जमा होता रहता है और प्रसंगप्रसंग वह दिया जाता रहता है। यह बात लक्ष्य में रखने पर, लोगों की मूल भावना को ठेस पहुंचाने वाला और आगे नये आने वाले अनजान व्यक्तियों को देवद्रव्य में से इधर-उधर आडे-टेढे मार्गों में रकम खर्च करने की पिछले दरवाजे से छूट देने वाला प्रस्ताव उचित नहीं माना जा सकता।
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साधारण खाते में घाटा होने की आवाज अनेक स्थानों पर सुनी जातो है परन्तु आप जैसे जबाबदार धर्मरुचि वाले व्यक्ति धारें तो अकेले ही इतनी रकम दे सकते हैं जिसके ब्याज से ही ऐसे प्रकीर्ण खर्च निभाये जा सकते हैं और अपने दृष्टान्त से दूसरों को भी प्रेरणा दे सकते हैं । जब इसी समाज को खर्च निभाना है तो पहले ही साधारण खाते के लिए भी अच्छी पानड़ी कर लेना हितावह होता है।
__ हमने आपके जैसे प्रस्ताव कई जगह पर किये जाने की बात सुनी है परन्तु जहां तक हमारी आवाज पहुँच पाई है, हमने वस्तु की सही जानकारी देकर साधारण खाते की अलग ही आय करवाने का प्रयास किया है और गुरुकृपा से कई स्थानों पर सफलता भी मिली है।
कई स्थल ऐसी भी दृष्टिगोचर होते हैं जहाँ के व्यवस्थापक अपनी बुद्धि के अनुसार अमुक व्यवस्था वर्षों तक चलाते रहते हैं और जब स्थिति साफ बिगड़ जाती है तब मुनिराजों के पास शिकायत करते हैं जिसका परिणाम अरुण्य-रुदन के अलावा
और कुछ नहीं निकलता। धर्मकार्य लिखियेगा । धर्मकार्य में उद्यमशील रहें।
-क्षमाविजय कदाचित् हमारे अक्षर बराबर पढ़ने में न आए, इसलिये गुजराती में पत्र लिखवाया है । वस्तु-स्थिति का विचार कर वहाँ के संघ को कल्याणकारी प्रवृत्ति में कायम रखना।
खम्भात, सूरत आदि प्राचीन प्रणालिका की रुचि वाले नगरों में ऐसी गड़बड़ नहीं होती हैं।
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[२] स्वप्नों की आय का द्रव्य, देवद्रव्य ही हैं ! पूज्यपाद सुविहित प्राचार्यादि महापुरुषों का शास्त्रानुसारी महत्वपूर्ण प्रदेश
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विक्रम संवत् १९६४ में पू. पाद सुविहित शासन मान्य गीतार्थ आचार्य भगवन्तों का शास्त्रानुसारी स्पष्ट एवं दृढ़ उत्तर यही प्राप्त हुआ कि स्वप्नों की आय को देवद्रव्य ही माना जाय और उसमें जो भी वृद्धि हो वह भी साधारण खाते में न ले जाते हुए देवद्रव्य में ही ले जाई जाय । इसके पश्चात् पुनः वि. सं. २०१० में इसी महत्त्वपूर्ण प्रश्न के सम्बन्ध में वर्तमानकालीन समस्त तपागच्छ के श्वे. मू. पू. संघ के पूज्य सुविहित शासन मान्य आचार्य भगवन्तों के साथ पत्र-व्यवहार करके उनके स्पष्ट एवं सचोट निर्णय तथा शास्त्रीय मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए वेरावल निवासी सुश्रावक अमीलाल रतिलाल ने जो पत्र-व्यवहार किया और जो उन पू. पाद आचार्य भगवन्तों के उत्तर प्राप्त हुए वे 'श्री महावीर शासन' में प्रसिद्ध हुए । उन्हें पुस्तकाकार प्रदान करने हेतु अनेक भव्यात्माओं का आग्रह होने से तथा वह साहित्य चिरकाल तक स्थायी रह सके इस दृष्टि से पुनः उन्हें प्रकाशित किया जा रहा है ताकि आराधक भाव में रूचि रखने वाले कयाणकामी आत्माओं के लिये वह उपयोगी एवं उपकारक बने ।
(१)
अहमदाबाद, श्रावण सुदी १२
परम पूज्य संघ स्थविर आचार्यदेव श्रीमद् विजयसिद्धिसूरीश्वरजी महाराज सा० आदि की तरफ से -
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[ स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य .
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वेरावल मध्ये श्रावक अमीलाल रतिलाल जैन ! धर्मलाभ । आपका पत्र मिला । पढ़कर समाचार ज्ञात हुए। आपके पत्र का उत्तर इस प्रकार हैं :
चौदह स्वप्न, पारणा, घोड़ियाँ तथा उपधान की माला की बोली का घी-ये सभी आय शास्त्र की दृष्टि से देवद्रव्य में ही जाती हैं । और यही उचित है। तत्सम्बन्धी शास्त्र के पाठ 'श्राद्धविधि' 'द्रव्य सप्ततिका' एवं अन्य सिद्धान्त-ग्रन्थों में हैं। अतः यह आय देवद्रव्य की ही है। इसे साधारण खाते में जो ले जाते हैं वे स्पष्ट रूप से गलती करते हैं। धर्मसाधन में उद्यत रहें।
लि. आचार्यदेव की आज्ञा से. द. : 'मुनि कुमुदविजय की ओर से धर्मलाभ'
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(२)
. अहमदनगर, ख्रिस्ती गली जैन धर्मशाला, सुदी १४
पू. पाद आचार्यदेव श्री विजयप्रेम सूरीश्वरजी म. की तरफ से सुश्रावक अमीलाल रतीलाल योग धर्मलाभ वांचना। तारीख १० का आपका पत्र मिला। चवदह स्वप्न, पारणा, घोड़ियां तथा उपधान की मालादि के घी (आय) को अहमदाबाद मुनि सम्मेलन ने शास्त्रानुसार देवद्रव्य में ले जाने का निर्णय किया है । वही योग्य है । धर्मसाधना में उद्यमवंत रहें।
द. : 'त्रिलोचन विजय का धर्मलाम'
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पालीताना साहित्य मन्दिर, ता. ५-८-८४ गुरवार
पू. आ. म. श्री विजय भक्तिसूरीश्वरजी म. की तरफ से । मु. वेरावल श्रावक अमिलाल रतिलाल योग्य धर्मलाभ । आपका पत्र मिला। निम्नानुसार उत्तर जानिए :
(१) उपधान.की माला का घी देवद्रव्य के सिवाय अन्यत्र नहीं ले जाया जा सकता।
(३) चौदह स्वप्न तथा घोडियाँ-पारणा का घी भी देवद्रव्य में ले जाना ही उत्तम है। इन्हें देवद्रव्य में ही ले जाना धोरी मार्ग है । अहमदाबाद के मुनि सम्मेलन में भी यही निर्णय हुआ है कि इसे मुख्यमार्ग के रूप में देवद्रध्य ही.माना जाय । इत्यादि समाचार जानना । देवदर्शन में याद करना। .
लि. विजयभक्तिसूरि (दः स्वयं)
(४)
पावापुरी, सु. १४ - पू. परम गुरुदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्र सूरीश्वरजी म. की तरफ से देवगुरु भक्तिकारक सुश्रावक अमीलाल योग धर्मलाभ । तारीख १० का आपका पत्र मिला । उत्तर में ज्ञात करें कि स्वप्नद्रव्य, पारणा, घोडियां इत्यादि श्री जिनेश्वर देव को उद्देश्य करके घी की बोलियां बोली जाती हैं उनका द्रव्यशास्त्र के अनुसार देवद्रव्य में ही गिना जाना चाहिए। इससे विपरीत
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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रीति से उसे उपयोग में लेने वाला देवद्रव्य के नाश के पाप का भागीदार होता है ।
धर्म की आराधना में सदा उद्यत रहो यही सदा के लिए शुभाभिलाषा है।
द. : चारित्रविजय के धर्मलाभ
( स्व. उपाध्यायजी श्री चारित्रविजयजी गणिवर )
(५)
श्रावण सुद ७ शुक्रवार ता. ६-८ - ५४ गुडा बालोतरा ( राजस्थान )
पूज्य आचार्य महाराजश्री विजय महेन्द्रसूरीश्वरजी म. आदि की तरफ से -
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वेरावल मध्ये सुश्रावक शाह अमीलाल रतिलाल योग धर्मलाभ । आपका पत्र मिला । पढ़कर समाचार ज्ञात हुए । उत्तर में लिखा जाता है कि उपधान की आय देवद्रव्य में जाती है ऐसा ही प्रश्न में उल्लेख है । दूसरी बात यह है कि स्वप्नों क आय के लिए स्वप्न उतारना जब से शुरु हुआ है तब से यह आम - दनी देवद्रव्य में ही जाती रही है । इसमें से देरासर के गोठी को तथा नौकरों को पगार ( वेतन ) दिया जाता है । साधु सम्मेलन में इस प्रश्न पर चर्चा हुई थी । परम्परा से यह राशि देवद्रव्य में गिनी जाती रही है इसलिए देवद्रव्य में ही इसे ले जाने हेतु उपदेश देने का निर्णय किया गया । यहाँ सुखशान्ति है, वहाँ भी सुखशान्ति वरते । धर्मध्यान में उद्यम करना । नवोन ज्ञात करना । द. : 'मुनिराज श्री अमृतविजयजी'
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(सुविहित आचार्यदेवों की परम्परा से चली आती हुई आचरणा भी भगवान की आज्ञा की तरह मानने हेतु भाष्यकार भगवान सूचित करते हैं । निर्वाह के अभाव में देवद्रव्य में से गोठी को या नौकर को पगार दो जाय, यह अलग बात है परन्तु जहाँ निर्वाह किया जा सकता है वहाँ यदि ऐसा किया जाय तो दोष लगता है-ऐसा हमारा मन्तव्य है।)
स्वस्ति श्री राधनपुर से लि. आचार्य श्री विजय कनकसूरिजी आदि ठाणा १० तत्र श्री वेरावल मध्ये सुश्रावक देवगुरुभक्तिकारक शा. अमीलाल रतिलाल भाई योग्य धर्मलाभ पहंचे। यहां देवगुरु कृपा से सुखशाता वर्ते है । आपका पत्र मिला। उत्तर निम्न प्रकार से जानना :
चोदह स्वप्न, पारणा, घोडिया तथा उपधानमाल आदि का घी या रोकड़ रुपया बोला जाय वह शास्त्र की रीति से तथा सं. १९९० के अहमदाबाद मुनि सम्मेलन में ९ आचार्यों की हस्ताक्षरी सम्मति से पारित प्रस्ताव के अनुसार भी देवद्रव्य है। सम्मेलन में सैकड़ों साधु-साध्वी तथा हजारों श्रावक थे। उस प्रस्ताव का किसी ने विरोध नहीं किया। सबने उसे स्वीकार किया। धर्मकरणी में भाव रखना, यही सार है । श्रावण सुदी १४ लि. "विजयकनकसूरि का धर्मलाभ'
(वागडवाला) पं. दीपविजय का धर्मलाभ वांचना ( स्व. पू. आ. म. श्री विजयदेवेन्द्रसूरि म.)
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(७)
भायखला जैन उपाश्रय, लवलेन बम्बई नं. २७ ता. १५-८-५४
लि. विजयामृतसूरि. पं. प्रियंकरविजयगणि ( वर्तमान में पू. आ. म. श्री विजय प्रियंकरसूरिजी म. ) आदि की तरफ से - देवगुरु भक्तिकारक श्रावक अमीलाल रतिलाल योग्य धर्मलाभ | आपका कार्ड लालवाड़ी के पते का मिला। यहां प्रातः स्मरणीय गुरु महाराजश्री के पुण्य प्रसाद से सुखशाता वर्त रही है ।
देवद्रव्य के प्रश्न का शास्त्रीय आधार से चर्चा करके साधु सम्मेलन में निर्णय हो चुका है । अखिल भारतवर्षीय साधु सम्मेलन की एक पुस्तक प्रताकार में प्रकाशित हुई है, उसे देख लेना । वहाँ आ. विजय अमृतसूरिजी तथा मुनि श्री पार्श्वविजयजी आदि हैं-उनसे स्पष्टीकरण प्राप्त करना तथा उनकी सुखशाता पूछना । यही । अविच्छिन्न प्रभावशाली श्री वीतराग शासन को पाकर धर्म की आराधना में विशेष उद्यमवंत रहना - यही नरजन्म पाने की सार्थकता है ।
( पू. श्री. म. श्री विजयनीति सू. म. श्री के समुदाय के )
(८)
अहमदाबाद, दि. ११-१०-५४
सुयोग्य श्रमणोपासक श्रीयुत् शा. अमीलाल भाई जोग, धर्मलाभ | पत्र दो मिले । कार्यक्शात् विलम्ब हो गया । खैर । आपने चौदह स्वप्न, पालना, घोडियां और उपधान की माला की घी की बोली को रकम किस खाते में जमा करना -आदि के लिए लिखा । उसका उत्तर यह है कि परम्परा से आचार्य देवों ने
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देवद्रव्य में ही वृद्धि करने का फरमाया है । अतः वर्तमान वातावरण में उक्त कार्य में शिथिलता नहीं होनी चाहिये अन्यथा आपको आलोचना का पात्र बनना पड़ेगा। किमधिकम् ।
द. : 'वि. हिमाचलसूरि का धर्मलाभ'
पालीताणा से लि. भुवनसूरिजी का धर्मलाभ । कार्ड मिला । समाचार जाने । स्वप्नों को बोली का पैसा देवद्रव्य में ही जाना चाहिए । साधारण खाते में वह नहीं ले जाया जा सकता। पूज्य सिद्धिसूरिजी म., लब्धिसूरिजी म., नेमिसूरिजी म., सागर जी म. आदि ५०० साधुओं की मान्यता यही है । आराधना में रक्त रहना । पारणा को बोली भी देवद्रव्य में हो जाती है।
- सुदी १२ (१०)
दाठा (जि. भावनगर) श्रावण सु. १२ .. पू. पा. आ. श्री ऋद्धिसागरसूरिजी म. सा. तथा मुनिश्री मानतुंगविजयजी म. की ओर से
धर्मलाभ पूर्वक लिखने का है कि यहाँ सुखशाता है। आपका पत्र मिला । समाचार जाने । प्रश्न के उत्तर में जानिये कि चौदह स्वप्न माता को प्रभूजी के गर्भवास के कारण पूण्यबल से आते हैं इसलिए तत्सम्बन्धी वस्तु देव सम्बन्धी ही गिनी जानी चाहिए। मालादि के सम्बन्ध में भी यही बात है। प्रभुजी के दर्शन या भक्ति निमित्त संघ निकलते हैं तब संघ निकालने वाले संघपति को तीर्थमाला पहनायी जाती थी अर्थात् तीर्थमाला भी
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प्रभुजी की भक्ति निमित्त हुए कार्य के लिए पहनायी जाती थी; इस कारण उसकी बोली की रकम भी देव का ही द्रव्य गिना जाता है । सब प्रकार की मालाओं के लिए ऐसा ही समझना । तथा सं. १९९० के साल में अहमदाबाद में साधु सम्मेलन हुआ था । उसमें भी इस सम्बन्ध में प्रस्ताव हुआ है । उस प्रस्ताव में इस द्रव्य को देवद्रव्य ही माना गया है ।
(११)
भावनगर, श्रावण सुदी ६
लि. आचार्य महाराज श्री विजयप्रतापसूरिजी म. श्री की तरफ से देवगुरु भक्तिकारक सुश्रावक अमीलाल रतिलाल योग्य धर्मलाभ वांचना ।
यहाँ धर्मप्रसाद से शान्ति है । आपका पत्र मिला । समा`चार जाने | आपने १४ स्वप्न, घोडियां पारणा तथा उपधान की माला की बोली का घी किस खाते में ले जाना। इसके विषय में मेरे विचार मंगवाये । ऐसे धार्मिक विषय में आपकी जिज्ञासा हेतु प्रसन्नता है । आपके यहाँ चातुर्मास में आचार्यादि साधु हैं तथा वेरावल में कुछ वर्षों से इस विषय की चर्चाएँ, उपदेश, विवारविनिमय चलता ही रहता है। मुनिराज इस विषय में दृढ़तापूर्वक घोषणा करते हैं कि वह द्रव्य, देवद्रव्य ही है । वे शास्त्रीय आधार से कहते हैं, अपने मन से नहीं । शास्त्र की बात में श्रद्धा रखने वाले उसे स्वीकार करने वाले भवभीरु आत्माएँ उनकी बात को उसी रूप में मान लेती है ।
द. : 'चरणविजयजी का धर्मलाभ'
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(१२)
श्री जैन विद्याशाला, बिजापुर (गुजरात)
लि. आचार्य कीर्तिसागरसूरि, महोदयसागरगणि आदि ठाणा ८ की तरफ से श्री वेरावल मध्ये देवगुरु-भक्तिकारक शा. अमीलाल रतिलाल भाई आदि योग्य - धर्मलाभ पूर्वक लिखना है कि आपका पत्र मिला । पढ़कर और समाचार जानकर आनन्द हुआ है । हम सब सुखशांता में हैं । आप सब सुखशाता में होओगे ।
आपने लिखा कि स्वप्न, पारणा, घोडियां तथा उपधान की माला को बोलो का घी किस खाते में ले जाना ? इसका. उत्तर है कि पारणा, घोडिया तथा श्री उपधान की आय या घी देवद्रव्य खाते में ले जाई जाती है । साधारण खाते में नहीं ले जाई जाती । अतः उपधान आदि घो को आय देवद्रव्य में ले जानी चाहिए | धर्मसाधन करियेगा ।
(१३)
पथिया का उपाश्रय, हाजा पटेल की पोल अहमदाबाद, श्रावण सुदी १४
सुश्रावक अमीलाल रतिलाल योग धर्मलाभ पूर्वक लिखना है कि देवगुरु प्रसाद से यहां सुखशाता है । तारीख १०-१-५४ का लिखा हुआ आपका पत्र मिला । समाचार जाने । इस विषय में लिखना है कि
चौदह स्वप्न, पारणा, घोडियां सम्बन्धी तथा उपधान की माला सम्बन्धी आय देवद्रव्य में आती है । साधारण खाते
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में उसे ले जाना उचित नहीं है । इस सम्बन्ध में राजनगर के जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक मुनि सम्मेलन का ठहराव स्पष्ट निर्देश करता है । धर्मसाधना में उद्यमशील रहना ।
लि. 'प्रा. विजय मनोहरसूरि का धर्मलाभ'
(१४)
तलाजा ता. १३-८-५४
लि. विजयदर्शन सूरि आदि ।
तत्र देवगुरु भक्तिकारक शा. अमीलाल रतिलाल योग्य वेरावल बन्दर; धर्मलाभ | आपने चवदह स्वप्न, घोडिया, पारणा तथा उपधान की माला की उपज साधारण खाते में ले जाना या देवदव्य खाते में ? यह पूछा है । इस विषय में लिखना है कि जो प्रामाणिक परम्परा चली आ रही है उसमें परिवर्तन करना उचित नहीं है । एक परम्परा तोड़ी जावेगी तो दूसरी परम्परा की टूट जाने का भय रहता है । अब तक तो वह आय देवद्रव्य खाते ही ले जाई जाती रही है । अतः उसी तरह वर्तन करना उचित प्रतीत होता है ।
यद्यपि वह स्वप्न दर्शन प्रभु की बाल्य अवस्था के हैं परन्तु वे इसी भव में तीर्थंकर होने वाले हैं इसलिएबालवयरूप द्रव्य निक्षेप को भाव निक्षेप का मुख्य कारण मानकर शुभ कार्य करने हैं अर्थात् त्रिलोकाधिपति प्रभु भगवंत को उद्देश्य में लेकर हो स्वप्न आदि उतारे जाते हैं । जिस उद्देश्य को लेकर कार्य किया जाता हो उसी उद्देश्य में उसे खर्च करना उचित समझा जाता है | अतः त्रिभुवननायक प्रभु को लक्ष्य में रखकर
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स्वप्नादिक का घी बोला जाता है इसलिए देवद्रव्य में ही वह आय लगाई जाय, यह उचित मालूम होता है ।
( पू. आ. म. श्री विजयनेमि सूरीश्वरजी म. श्री के पट्ट प्रभावक आचार्य महाराजश्री विजय दर्शनसूरीश्वरजी म. श्रीजी का उक्त अभिप्राय है | )
(१५)
भुज ता. १२-८-८४
धर्मप्रेमी सुश्रावक अमीलाल भाई,
लि. भुवनतिलकसूरि का धर्मलाभ । पत्र मिला । जिनदेव के आश्रित जो घी बोला जाता है वह देवद्रव्य में ही जाना' चाहिए, ऐसे शास्त्रीय पाठ हैं । 'देवद्रव्य - सिद्धि' पुस्तक पढ़ने की भलामन है । मुनि सम्मेलन में भी ठहराव हुआ था । देवाश्रित स्वप्न, पारणा या वरघोड़ा आदि में बोली जाने वाली बोलियों का द्रव्य तथा मालारोपण की आय - यह सब देवद्रव्य ही है । देवद्रव्य के सिवाय अन्यत्र कहीं भी किसी भी खाते में उसका उपयोग नहीं किया जा सकता ।
कुछ व्यक्ति इस सम्बन्ध में अलग मत रखते हैं परन्तु वह अशास्त्रीय होने से अमान्य है । देवद्रव्य की वृद्धि करने की आज्ञा है परन्तु उसकी हानि करने वाला महापापी और अनन्त संसारी होता है, ऐसा शास्त्रीय फरमान है । आजके सुविहित शास्त्र-वचन श्रद्धालु आचार्य महाराजाओं का यही सिद्धान्त और फरमान है क्योंकि वे भवभीरु हैं ।
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(१६)
अहमदाबाद, शाहपुर, मंगलपारेख का खाँचा जैन उपाश्रय सुदी १४
धर्मश्रद्धालु सुश्रावक भाई अमीलाल रतिलाल भाई मु. बेरावल योग्य धर्मलाभ | आपका पत्र मिला । सब समाचार जाने | चौदह स्वप्न, पारणा, उपधान को माला का घी देवद्रव्य में ले जाना उचित है । शास्त्र तथा परम्परा के आधारों को साक्षात में शान्ति से समझाया जा सकता है । धर्म भावना में वृद्धि करना ।
८. धर्मविजय का धर्मलाभ
( उक्त अभिप्राय पू. आ. म. श्री बिजयप्रतापसूरीश्वरजी म. के पट्टधर पू. आ. म. श्री विजयधर्मसूरिजी महाराज का है | )
( १७ )
श्री जैन ज्ञानवर्धक शाला, वेरावल . श्रावण वद १०
परम पूज्य प्रातः स्मरणीय आचार्यदेव श्रीमद् विजय अमृतसूरीश्वरजी महाराज तथा पू. मुनिराज श्री पार्श्वविजयजी म. आदि ठाणा ६ की तरफ से
देवद्रव्य भक्ति कारक सुश्रावक अमीलाल रतिलाल जैन योग्य धर्मलाभ | आपकी ओर से पत्र मिला । पढ़कर समाचार जाने । उत्तर में लिखना है कि
स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ]
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चवदह स्वप्न, पारणा, घोडिया तथा उपधान की माला को बोली का घी शास्त्रीय आधार से देवद्रव्य में ही. ले जाना चाहिए। उसे साधारण खाते में ले जाना शास्त्र और परम्परा के अनुसार सर्वथा अनुचित है । इस संबंध में शास्त्रीय पाठ है।
के जिनेन्द्र विजय का धर्मलाभ (वर्तमान में पंन्यासजो म. श्री जिनेन्द्र विजयजी गणिवर)
मु. लीम्बडी श्रा. सु. ७
(१८) धर्मविजय आदि की तरफ सेसुश्रावक अमीलाल रतीलाल मु. वेरावल योग्य।
धर्मलाभ पूर्वक लिखना है कि आपका पत्र मिला। समाचार विदित हुए । उत्तर में लिखना है कि स्वप्न, पारणा आदि की बोली के घी की आय शास्त्र दृष्टि से देवद्रव्य में जाती हैं। इसी तरह तीर्थ माला, उपधान की माला आदि के घी को आय भी देवद्रव्य में जाती है । इसके लिए शास्त्र में पाठ है। इसलिए देवद्रव्य में ही उसे ले जाना. योग्य है । धर्म साधन में उद्यम करना।
द. धर्मविजय का धर्मलाभ
(उक्त अभिप्राय पू. आ. म. श्री विजय रामचन्द्र सूरीश्वरजी महाराजा के शिष्य रत्न उपाध्यायजी धर्मविजयजी महाराज का है।)
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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(१९)
नागपुर सिटी नं. २ इतवारी बाजार जैन श्वे. उपाश्रय ता. ११-८-५४
धर्मसागरगण आदि ठाणा ३ की तरफ से -
सुश्रावक देव गुरु-भक्ति कारक शाह अमीलाल रतिलाल वेरावल योग्य । धर्मलाभ पूर्वक लिखना है कि आपका पत्र ता. ९-८-५४ का आज मिला। पढ़कर समाचार ज्ञात हुए ।
(१) चवदह स्वप्न, पारणा, घोडिया तथा उपधान की माला आदि का घी शास्त्रीय रीति से तथा परम्परा और ज्ञानियों की आज्ञानुसार देवद्रव्य में ले जाया जाता है । इस सम्बन्ध में अहमदाबाद में सं. १९९० के सम्मेलन में समस्त श्वे. मूर्तिपूजक श्रमण संघ ने एकमत से निर्णय लिया है । वह मंगवाकर पढ़ लेना । इस निर्णय का छपा हुआ पट्टक सेठ आनंदजी कल्याणजी पेढ़ी अहमदाबाद से मिल सकेगा । उसमें स्पष्ट है कि प्रभु जिनेश्वर देव के समक्ष या उनके निमित्त देरासर या उसके बाहर भक्ति के निमित्त जो बोली की रकम आवे वह देवद्रव्य गिनी जाय ।
1
स्वप्न उदारता तोर्थंकर भगवान का च्वयन कल्याणक हैं । प्रमास पाटण में हमारे गुरुदेव पू. आ. श्री चन्द्रसागरसूरिजी महाराज के हस्त से अंजन शालाका हुई थी । उसमें पांचों कल्याणक की आय देवद्रव्य में ली गई है । तो स्वप्न, पारणा, च्यवन- जन्म महोत्सव को प्रभुभक्ति के निमित्त बोली गई बोली देवद्रव्य ही गिननी चाहिये । इसमें शंका का कोई स्थान नहीं है । तथापि स्वप्न तो भगवान की माता को आते हैं आदि खोटी दलीलें दी जाती है । इस विषय में जो प्रश्न पूछते हो पूछ सकते है | सब का समाधान किया जावेगा ।
स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ]
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इस सम्बन्ध में लगभग सब आचार्यों का एक ही अभिप्राय है जो शान्ताकु झ संघ की तरफ से पुछाये गये प्रश्न के उत्तर रूप में 'कल्याण' मासिक में प्रसिद्ध भी हआ है। 'सिक्रचक्र पाक्षिक में पू. स्व. आगमोद्धारक श्री सागरजी महाराजा ने भी देवद्रव्य में इस राशि को ले जाना बताया है।
अहमदाबाद, सूरत, खम्भात, पाटन, महेसाणा, पालीताना आदि बड़े संघ परम्परा से इस राशि को देवद्रव्य में ले जाते हैं। केवल बम्बई का यह चेपो रोग कुछ स्थानों पर फैला हो, यह संभावित है। परन्तु बम्बई में भी कई स्थानों पर आठ आनो या दशआनी या अमुक भाग साधारण खाते में ले जाया जाता है परन्तु वह देवद्रव्य मन्दिर के साधारण अर्थात् पूजारी, मन्दिर की रक्षा के लिए भैया, मन्दिर का काम करने वाले नौकर के वेतन आदि में काम लिया जाता है न कि साधारण अर्थात् सब जगह काम में लिया जा सके इस अर्थ में । इस संबंध में जिसको समझना हो, प्रभु को आज्ञानुसार धर्म पालना हो, व्यवहार करना हो तो प्रत्येक शंका का समाधान योग्य रीति से किया जावेगा।
. (२) उपधान के लिए श्रमण संघ के सम्मेलन का स्पष्ट ठहराव है कि वह देवद्रव्य में ले जाया जाय । इसमें कोई शंका नहीं है सब जगह ऐसी ही प्रवृत्ति है । बम्बई में दो वर्ष से ठाणा ओर घाटकोपर में वैसा परिवर्तन करने का प्रयत्न किया गया परन्तु वहां भी संघ में मतभेद है अतएव उसे निर्णय नहीं कहा जा सकता।
तात्पर्य यह है कि उक्त दोनों प्रकार की आय को देवद्रव्य में ले जाना शास्त्र सम्मत एवं परंपरा से मान्य है । यदि कोई समुदाय अपनी मति- कल्पना से इच्छानुसार प्रवृत्ति करे तो वह
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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वास्तविक नहीं मानी जा सकती । सुज्ञेषु किं बहुना ? धर्म ध्यान करते रहना ।
लि. धर्मसागर का धर्मलाभ
टिप्पण - गत वर्ष हमारा चातुर्मास बम्बई आदीश्वरजी धर्मशाला पायधुनी पर था | स्वप्न, पारणा आदि सब आमदानी देवद्रव्य में ले जाने का निश्चित् ठहराव कर श्री संघ ने हमारी निश्रा में स्वप्न उतारे थे. यह आपकी जानकारी हेतु लिखा है । इस संबंध में विशेष कोई जानकारी चाहिए तो खुशी से लिखना । भवभीरुता होगी तो आत्मा का कल्याण होगा। संघ में सबको धर्म लाभ कहना ।
1
( उक्त अभिनय पू. आचार्य म. श्री सागरानन्द्र सुरोश्वर जो म. श्री के प्रशिप्य रत्न स्व. उपाध्यायजी म. श्री धर्मसागरजी महाराज का है । )
( २० )
श्री नेमीनाथजी उपाश्रय बम्बई न. ३ ता. १२-८-५४
लि धुरंधर विजय गणि,
तत्र श्री देवगुरु भक्तिकारक अभीलाल रतिलाल जैन योग्य धर्म लाभ | आपका पत्र मिला। यहां श्री देवगुरु प्रसाद से सुख शान्ति है । स्वप्नादि की घो की आय के विषय में पूछा सो हमारे क्षयोपशम के अनुसार सुविहित गोतार्थ समाचारी का अनुसरण करने वाले भव्यात्मा उसे देवद्रव्य में ले जाते हैं । हमें वही उचित प्रतीत होता हैं । विशेष स्पष्टीकरण साक्षात् में किया जा सकता है । धर्माराधना में यथासाध्य उद्यमवंत रहें ।
स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ]
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( उक्त अभिप्राय पू. आ. म. श्री विजय नेमिसूरीश्वरजी म. श्री के पट्टालंकार पू. आ. म. श्री विजय अमृतसूरीश्वरजी म. श्री के पट्टालंकार स्व. पू. आ. म. श्री विजय धर्मधुरन्धर सूरीश्वरजी म. का है | )
( २१ )
राजकोट ता. ८-८-५४
पं. कनकविजय गणि आदि ठाणा ६ की तरफ से तत्र देव गुरु भक्तिकारक श्रमणोपासक सुश्रावक अमीलाल रतिलाल योग्य धर्मलाभ पूर्वक लिखना है कि यहाँ देवगुरु कृपा से सुख शाता है । आपका ता. ४-८-५४ का पत्र मिला । उत्तर में लिखना है कि स्वप्न, पारणा इन दोनों की आय देवद्रव्य में गिनी जाती है । अब तक सुविहित शासनमान्य पू. आचार्य देवों का यही अभिप्राय है । श्री तीर्थंकर देवों की माता इन स्वप्नों को देखती है । अतः उस निमित्त जो भी बोली बोली जाती है वह शास्त्र दृष्टि से तथा व्यवहारिक दृष्टि से देवद्रव्य ही गिनी जाती है ।
सेन प्रश्न के तीसरे उल्लास में पं. विजयकुशलगणिकृत प्रश्न ( ३९ वें प्रश्न) के उत्तर में बताया गया है कि देव के लिए आभूषण करवाये हो वे गृहस्थ को नहीं कल्पते हैं। क्योंकि उनका उद्देश्य और संकल्प देव-निमित्त है अतः गृहस्थ को उनका उपयोग नहीं कल्पता है । उसी प्रकार संघ के बीच में स्वप्नों या पारणों के निमित्त जो बोली बोली जाती हैं वह स्पष्ट रूप से देव निमित्त होने से उसकी आय देवद्रव्य मानी है । सं १९९० के साधु सम्मेलन में भी पू. आचार्य देवों ने मौलिक - रीति से
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[ स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य
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स्वप्नों के द्रव्य को देवद्रव्य मानने का निर्णय दिया है । तदुपरान्त १९९० के वर्ष में शान्ताकु झ (बम्बई) के संघ ने ऐसा ठहराव करने का विचार किया कि साधारण खाते में घाटा रहता है इसलिए स्वप्नों के घी के भाव बढ़ाकर उसका अमुक भाग साधारण खाते में ले जाना । जब गच्छाधिपति स्व. पू. आ. म. श्री विजय प्रेमसूरीश्वरजी म. श्री को यह बात मालूम हुई तब उन्होंने श्री संघ के प्रसिद्ध विद्यमान पू. आचार्य देवों की सेवा में इस विषयक अभिप्राय परामर्श मांगने हेतु श्री संघ को पत्र व्यवहार करने की सूचना की। इस पत्र व्यवहार में जो उत्तर प्राप्त हुए वे सब मेरे पास थे जो 'कल्याण' के दसवें वर्ष में प्रसिद्ध करने हेतु भेजे गये थे । वे आप देख सकते हैं। उससे भी सिद्ध होता है कि स्वप्नों की आय तथा पारणों की आमदनी देवद्रव्य गिनी जाती है । 'उपदेश सप्ततिका' के स्पष्ट उल्लेख है कि देवनिमित्त के द्रव्य का देव-स्थान के सिवाय अन्य स्थान में उपयोग नहीं किया जा सकता।
माला का द्रव्य देवद्रव्य गिना जाता है । मालारोपण के विषय में 'धर्मसंग्रह' में स्पष्ट उल्लेख है कि ऐन्द्री अथवा माला प्रत्येक वर्ष में देवद्रव्य की वृद्धि हेतु ग्रहण करनी चाहिए। 'श्राद्धविधि' में पाठ है । माला परिधापनादि जब जितनी बोली से किया हो वह सब देवद्रव्य होता है । इसी तरह श्राद्धविधि के अन्तिम पर्व में स्पष्ट प्रमाण है कि श्रावक देवद्रव्य की वृद्धि के लिए मालोद्घाटन करे उसमें इन्द्रमाला अथवा अन्य माला द्रव्य उत्सर्पण द्वारा अर्थात् बोली द्वारा माला लेनी चाहिए । इन सब उल्लेखों से तथा 'द्रब्य सप्ततिका' ग्रन्थ में देव के लिए संकल्पित वस्तु देवद्रव्य है ऐसा पाठ है। देवद्रव्य के भोग से या उसका नाश होता हो तब शक्ति होते हुए भी उसकी उपेक्षा करने से स्वप्नद्रव्य, देवद्रव्य ।
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दोष लगते हैं । इस विषय में विशेष स्पष्टता चाहिए तो वहाँ विराजमान पू. आ. म. श्री विजय अमृतसूरीश्वरजी म. श्री से प्राप्त की जा सकती है । पत्र द्वारा अधिक विस्तार क्या किया जाय?
(उक्त अभिप्राय पू. पाद आचार्यदेव श्रीमद् विजयरामचन्द्रसूरि के पट्टालंकार आ. म. श्री विजयकनकचन्द्रसूरि महाराज का है।)
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सादड़ी श्रा. सु. ७ शुक्रवार पाटो का उपाश्रय श्रावक अमीलाल रतिलाल !
लि. मुनि संबोधविजयजी; धर्मलाभ पूर्वक लिखना है कि. पत्र मिला। समाचार जाने ।
स्वप्नों का द्रव्य, देवद्रव्य में जावें ऐसी घोषणा गतवर्ष श्री 'महावीर शासन' में हमारे पू. आ. महाराजश्री के नाम से आ गई है । जैसा हमारे पू. महाराजश्री करें उसी प्रकार हम भी मानते हैं.और करते हैं। 'श्राद्धविधि ग्रन्थ' तथा 'द्रव्य-सप्ततिका' में स्पष्ट बताया गया है। मुनि सम्मेलन में एक कलम देवद्रव्य के लिए निर्णीत कर दी गई है । उस पर हस्ताक्षर भी हैं। किं बहुना।
[ पिछले कुछ वर्षों से ऐसी हवा जान बूझकर फैलाई जा रही है कि पू. पाद आचार्य म. श्री विजयानन्दसूरि महाराजश्री ने राधनपुर में स्वप्नों की आय साधारण खाते में ले जाने का आदेश दिया था। वि. सं. २०२२ के हमारे राधनपुर के चातुर्मास
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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में इस बात का सख्त प्रतिकार करने का अवसर प्राप्त हुआ था। उस समय हमारी शुभनिश्रा में श्री जैन शासन के अनुरागी श्रीसंघ ने प्रस्ताव करके राधनपुर में स्वप्नों की आय को देवद्रव्य में ले जाने का निर्णय किया था। इसके पश्चात् तो समस्त राधनपुर श्रीसंघ में सर्वानुमति से स्वप्नों की आय देवद्रव्य में ही जाती है।
परन्तु पू. पाद आत्मारामजी महाराजजी जैसे शासनमान्य सुविहित शिरोमणि जैन शासन स्तम्भ महापुरुष के नाम से ऐसी कपोलकल्पित मनघडन्त बातें फैलाई जाती हैं, यह सचमुच दुःख का विषय है। उनके द्वारा रचित. 'गप्प दीपिका समीर' नाम के ग्रन्थ में से एक उद्धरण नीचे दिया जा रहा है जो बहुत मननीय और मार्गदर्शक है।
स्थानकवासी सम्प्रदाय की आर्या श्री पार्वतीबाई द्वारा लिखित 'समकित सार' पुस्तक की समालोचना करते हुए पू. पादश्री विजयानन्दंसूरीश्वरजी महाराज ने स्वप्न को आय के विषय में जो स्पष्टीकरण किया है उससे स्पष्ट होता है कि 'स्वप्न की उपज देवद्रव्य में ही जाती है।'
यह पुस्तक पू. पाद आत्मारामजी म. श्री के आदेश से उनके प्रशिष्यरत्न पू. मुनिराज श्री वल्लभविजय महाराजश्री ने सम्पादित की है, जो बाद में पू. आ. म. श्री विजयवल्लभसूरि म. श्री के नाम से प्रसिद्ध हुए।] _ 'स्वप्न की आय देवद्रव्य में ही जाती है।
पू. पाद श्री आत्मारामजी महाराज का शास्त्रमान्य एवं सुविहित परम्परानुसार स्पष्ट अभिप्राय ।
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स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ]
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. (१) प्रश्न- स्वप्न उतारना, घी चढ़ाना, फिर नीलाम करना और
दो तीन रूपये मन बेचना, सो क्या भगवान का घी सौदा है ?
उत्तर- स्वप्न उतारना, घी बोलना आदि धर्म की प्रभावना और
जिनद्रव्य की वृद्धि का हेतु है । धर्म को प्रभावना करने से प्राणी तीर्थंकर गोत्र बांधता है, यह कयन श्री ज्ञातासूत्र में है। जिनद्रव्य को वृद्धि करने वाला भी तोर्थंकर गोत्र बांधता है, यह कथन सम्बोध सत्तरी शास्त्र में है । घी की बोली के वास्ते जो लिखा है उसका उत्तर यों जानो कि जैसे तुम्हारे आचारांगादि शास्त्र भगवान की वाणी दो या चार रुपये में बिकती है वैसे ही घी के विषय में भी मोल समझो।
- 'समकित सारोद्धार' में से
[बीसवीं सदी के अद्वितीय शासन प्रभावक, जंगमयुग प्रधानकल्प न्यायांभोनिधि पू. पाद आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजयानन्दसूरीश्वरजी महाराजश्री के विशाल सुविहित साधु-समुदाय में भी स्वप्न-द्रव्य को व्यवस्था के विषय में उस समय शास्त्रानुसारी मर्यादा का पालन कितनो चुश्तता से ओर कठोरता से होता था, यह बात निम्नलिखित पत्र-व्यवहार से स्पष्ट प्रतीत होती है। पूज्य आत्मारामजी म. श्री के शिष्यरत्न पू. प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी महाराजश्री के शिष्यरत्न पू. विद्वान् मुनिप्रवर श्री चतुरविजय महाराजश्री जो विद्वान् पू. मुनिवर श्री पुण्यविजयजी म. श्री के गुरुवर है, वे नीचे प्रकाशित किये जाने वाले पत्र में स्पष्ट
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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रूप से कहते हैं कि 'मेरे सुनने में कभी नहीं आया कि स्वप्नों का द्रव्य उपाश्रय में खर्च करने की सम्मति दी हो ।'
इससे यह स्पष्ट है कि स्वप्न द्रव्य की आय कदापि उपाश्रय में प्रयुक्त नहीं की जा सकती । आज इस पत्र को लिखे कितने हो वर्ष हो चुके हैं उससे इतना तो समझा जा सकता है कि स्वयं उस समय अर्थात् आज से ६४ वर्ष पहले भी पूज्यपाद आ. म. श्री विजयानन्दमूरिजी महाराजश्री के श्रमण - समुदाय में. अरे स्वयं पू. आ. म. श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराजश्री के समुदाय में भी स्वप्नद्रव्य की उपज देवद्रव्य में हो जाती थी । यह शास्त्रानुसारी और सुविहित परम्परामान्य प्रणाली है जिसे पू. विद्वान् मुनिराजश्री चतुरविजयजी म. जैसे साहित्यकार और अनेक शास्त्र-ग्रन्थों के सम्पादक-संशोधक तथा पू. आ. म. श्री विजयवल्लभसूरि महाराजश्री के आज्ञावर्ती भी मानते थे और उसके अनुसार प्रवृत्ति करते थे ।
नीचे प्रकाशित किया जाने वाला उनका यह पत्र हमें इस बात की प्रोति कराता है । ]
(२)
पू. पाद श्रात्मारामजी महाराज का श्रमण समुदाय भी स्वप्नों की प्राय को देवद्रव्य में ले जाने का पक्षधर था श्रौर है। एक महत्वपूर्ण पत्र व्यवहार :
ता. ६-७-१७
बम्बई से लि. मुनि चतुरविजयजी की तरफ से -
स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ]
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भावनगर मध्ये चारित्रपात्र मुनि श्री भक्तिविजयजी तथा यशोविजयजी योग्य अनुवंदना सुखशाता वांचना । आपका पत्र मिला । उत्तर क्रम से निम्नानुसार है
पाटन के संघ की तरफ से, आपके लिखे अनुसार कोई ठहराव हुआ हो, ऐसा हमारे सुनने में या अनुभव में नहीं हैं परन्तु पोलीया उपाश्रय में अर्थात् यति के उपाश्रय में बैठने वाले स्वप्नों के चढ़ावे में से अमुक भाग उपाश्रय खाते में लेते हैं, ऐसा सुना है, जबकि पाटन के संघ की तरफ से ऐसा ( स्वप्नों की आय को उपाश्रय में ले जाने के लिए ) कोई ठहराव नहीं हुआ है । तो गुरुजी को अनुसति-सम्मति कहां से हो, यह स्वयं सोचने की बात है । विघ्नसंतोषो व्यक्ति दूसरों की हानि करने के लिए यद्वा तद्वा कुछ कहे, उससे क्या ? यदि किसी के पास महाराज के हाथ की लिखित स्वीकृति निकले तो सही हो सकती है अन्यथा लोगों के गप्पों पर विश्वास नहीं करना । मेरी जानकारी के अनुसार कोई भी प्रसंग ऐसा नहीं आया जब स्वप्नों की आय के पैसे उपाश्रय में खर्च करने की उन्होंने सम्मति दो हो। अभी इतना ही।
द. : चतुरविजय
(३)
पूज्य प्रात्मारामजी म. के ही आज्ञावर्ती मुनिराजश्री भी स्पष्ट कहते हैं कि स्वप्न की प्राय देवद्रव्य में ही जातीहै।
[ दूसरा महत्त्वपूर्ण पत्र यहाँ प्रकाशित हो रहा है । यह भी बहुत हो उपयोगी बात पर प्रकाश डालता है । पू. आ. म.
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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श्री विजयानन्दसूरिजी म. श्री अपरनाम पू. आत्मारामजी महाराजश्री के समुदाय में उनके स्वयं के हस्त दीक्षित प्रशिष्यरत्न पू. शान्तमूर्ति मुनिराज हंसविजयजी महाराज-जो पू. आ. म. श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराजश्री के श्रद्ध य तथा आदरणीय थे-ने पालनपुर श्रीसंघ द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर में जो जो बातें शास्त्रीय प्रणाली और गीतार्थ महापुरुषों को मान्य हो इस रीति से बताई हैं, वे आज भी उतनी ही मननीय और आचरणीय हैं। उनमें देवद्रव्य को व्यवस्था, ज्ञानद्रव्य तथा स्वप्नों की आय आदि की शास्त्रानुसारी व्यवस्था के सम्बन्ध में उन्होंने बहुत हो स्पष्ट और सचोट मार्गदर्शन दिया है, जो भारतभर के श्रीसंघों को अनन्त उपकारी परमतारक श्री जिनेश्वर भगवन्त की आज्ञा की आराधना के आराधकभाव को अखण्डित रखने के लिए जागृत बनने की प्रेरणा देता हैं। सब लोग सहृदय भाव से उस प्रश्नोतरी पर विचार करें।
. श्रीपालनपुर संघ को मालूम हो कि आपने आठ बातों का स्पष्टीकरण करने हेतु मुझे प्रश्न पूछे हैं । उनका उत्तर मेरी बुद्धि के अनुसार आपके सामने रखता हूं।
प्रश्न- १ पूजा के समय घो बोला जाता है उसको उपज किस खाते में लगाई जाय ?
उत्तर- पूजा के घी की उपज देवद्रव्य के रूप में जीर्णोद्धार आदि के कार्य में लगाई जा सकती है।
प्रश्न-२ प्रतिक्रमण के सूत्रों के निमित घो बोला जाता है, उसकी आय किस काम में लगाई जाय ?
स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ]
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उतर- प्रतिक्रमण सूत्र-सम्बन्धी आय ज्ञान खाते में-पुस्तकादि लिखवाने के काम में ली जा सकती है।
प्रश्न-३ स्वप्नों के घी की आय किस काम में ली जाय ?
उत्तर-इस सम्बन्ध के अक्षर किसी पुस्तक में मुझे दृष्टिगोचर नहीं हुए परन्तु श्री सेन प्रश्न में और श्री हीर प्रश्न नाम के शास्त्र में उपधानमाला पहनने के घो की आय को देवद्रव्य में गिनी है । इस शास्त्र के आधार से कह सकता हैं कि स्वप्नों की आय को देवद्रव्य के रूप में मानना चाहिये । इस सम्बन्ध में अकेले मेरा ही यह अभिप्राय नहीं है अपितु श्री विजयकमलसूरीश्वरजी महाराज का तथा उपाध्यायजी वीरविजयजी महाराज का और प्रवतक कान्तिविजयजी महाराज आदि महात्माओं का भी ऐसा ही अभिप्राय है कि स्वप्नों की आय को देवद्रव्य मानना । .
प्रश्न-४ केशर, चन्दन के व्यापार की आय किसमें गिनी जाय ?
उत्तर- अपने पैसों से मंगाकर केशर-चन्दन बेचा हो और उसमें जो नफा हआ हो वह अपनी इच्छानुसार खर्च किया जा सकता है। परन्तु कोई अनजान व्यक्ति मन्दिर के पैसों से खरीदी न करले यह ध्यान रखना चाहिए।
प्रश्न-५ देवद्रव्य में से पुजारी को पगार दी जा सकती है या नहीं ?
उत्तर- पूजा करवाना अपने लाभ के लिए है । परमात्मा को उसकी आवश्यकता नहीं । इसलिये पुजारी को पगार देवद्रव्य में से नहीं दी जा सकती । कदाचित् किसी वसति रहित गाँव में
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दूसरा साधन किसी तरह न बन सकता हो तो चांवल आदि की आय में से पगार दी जा सकती है ।
प्रश्न- ६ देव के स्थान पर पेटी रखी जा सकती है या नहीं ?
उत्तर - पेटी में साधारण और स्नान के पानी सम्बन्धी खाता न हो तो रखी जा सकती है परन्तु कोई अनजान व्यक्ति देवद्रव्य या ज्ञानद्रव्य को दूसरे खाते में भूल से न डाले ऐसी पूरी व्यवस्था होनी चाहिये । साधारण खाता यदि पेटी में हो तो वह देव की जगह में उपार्जित द्रव्य श्रावक-श्राविका के उपयोग में कैसे आ सकता है ? यह विचार करने योग्य है ।
प्रश्न- ७ नारियल, चांवल, बादाम की आय किसमें गिनी जाय ? उत्तर - नारियल, चांवल, बादाम की आय देवद्रव्य खाते में जमा होनी चाहिए ।
प्रश्न- ८ आंगी की बढ़ौत्री किसमें गिनी जाय ?
उत्तर - आंगी की बढ़ोत्री निकालना उचित नहीं है । क्योंकि उसमें कपट क्रिया लगती है । इसलिए जिसने जितने की आंगी करवाने को कहा है उतने पैसे खर्च करके उसकी तरफ से आंगी करवा देनी चाहिए |
सद्गृहस्थो ! जो ख़ाता डूबता हो उसकी तरफ ध्यान देने की खास आवश्यकता है । आजकल साधारण खाते की बूम सुनाई पड़ती है अतः उसे तिराने की खास जरूरत है । अतः पुण्य करते समय या प्रत्येक शुभ प्रसंग पर शुभ खाते में अवश्य रकम निकालने और निकलवाने की योजना करनी चाहिए जिससे यह खाता
स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य |
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तिरता हुआ हो जावेगा फिर उसकी बूम नहीं सुनाई देगी। यही श्रेय है।
लि. हंसविजय ( उक्त दोनों पत्र-व्यवहार की मूल हस्ताक्षर कॉपी के ब्लाक पीछे परिशिष्ट में दिये गये हैं। )
(४) स्वप्न की उपज देवद्रव्य में हो जानी चाहिये ।
* स्वप्नों की और मालारोपण की उपज देवद्रव्य में ही जानी चाहिये । इस विषय में पू. सागरानंद सूरीश्वरजी महाराज श्री का स्पष्ट शास्त्रानुसारी फरमान
स्वप्नों की आय के विषय में तथा उपधान तप की माला संबंधी आय के विषय में श्री संघ को स्पष्ट रीति से मार्गदर्शन देने हेतुपू. पाद आचार्य भगवंत श्री सागरानन्दसूरीश्वरजो महाराजश्री ने ‘साग़र समाधान' ग्रन्थ में जो फरमाया है, वह प्रत्येक धर्मराधक के लिए जानने योग्य है।
प्रश्न- २६७ उपधान में प्रवेश तथा समाप्ति के अवसर पर माला की बोली को आय ज्ञानखाते में न ले जाते हुए देवद्रव्य में क्यों ले जायी जाती है ?
समाधान- उपधान ज्ञानाराधन का अनुष्ठान है, इसलिए ज्ञान खाते में उसकी आय जा सकती है-ऐसा कदाचित आप मानते हो । परन्तु उपधान में प्रवेश से लेकर माला पहनने तक की
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क्रिया समवसरण रूप नंदि के आगे होती है । क्रियाएँ प्रभुजी के के सम्मुख की जाने के कारण उनकी उपज देवद्रव्य में ले जानी चाहिए।
प्रश्न- २९८ स्वप्नों को उपज तथा उनका घी देवद्रव्य खाते में ले जाने की शुरूआत अमुक समय से हुई है, तो उसमें परिवर्तन क्यों नहीं किया जा सकता है ?
समाधान- अर्हन्त परमात्मा की माता ने स्वप्न देखे थे, अतः वस्तुतः उसकी सारी आय देवद्रव्य में जानी चादिये । अर्थात् देवाधिदेव के उद्देश्य से ही यह आय है । ध्यान में रखना चाहिए कि च्यवन, जन्म, दीक्षा- ये कल्याणक भी श्री अरिहंत परमात्मा के ही हैं। इन्द्रादिकों ने श्री जिनेश्वर भगवान की स्तुति भी गर्भावतार से ही की है। चौदह स्तवनों का दर्शन अरिहन्त भगवान कुक्षि में आवें तभी उनकी माता को होता है। तीन लोक में प्रकाश भी इन तीनों कल्याणकों में होता है । अतः धार्मिक जनों के लिए गर्भावस्था से ही भगवान् अरिहंत भगवान हैं।
-'सागर समाधान' से
स्वप्न की उपज देवद्रव्य में हो जानी चाहिये बडोदा श्री संघ का ६०-६१ वर्ष में सर्वानुमति से किया
गया प्रस्ताव [स्वप्नों की बोली को देवद्रव्य में ले जाने की सुविहित शास्त्रानुसारी प्रणाली वर्षों से चली आ रही है । तथापि कुछ
स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ]
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वर्षों पहिले से ऐसी हलचल शुरु हुई जिससे अपने घर के खर्च में कमी न करनी पडे, धर्मादा खाते में से ही देरासरजी, उपाश्रय एवं अन्य भी अपने उपयोग में आने वाले खातों का सीधा खर्च निकल जाय तो ठीक, ऐसी कृपण तथा अनुदार मनोवृत्ति वाले दिलों की संकीर्ण वृत्ति से प्रेरित होकर अमुक वर्ग ने स्वप्नादि की उपज को साधारण खाते में ले जाने की प्रवत्ति चलाई थी जिसमें उसी वृत्ति वाले कुछ लोग सम्मिलित हुए।
उस अवसर पर पू. पाद शासन मान्य सुविहित महापुरुषों ने उसका तीव्र विरोध करना शुरु किया ताकि जमाने के नाम पर शास्त्र विरोधी प्रवृत्ति आगे न बढ़े। ऐसा ही एक प्रसंग बडौदा में ई. स. १९२० में बना। उस समय वहाँ विराजमाम पू. पाद सुविहित शासन मान्य मुनिवरों ने उसका विरोध किया था जिसका विवरण उस समय के पत्र में प्रकट हुआ था जो यहाँ दिया जा रहा है जिससे इस विषय में स्पष्ट जानकारी हो सके।]
बड़ौदा जैन संघ का पारित प्रस्ताव
ता. ३-१०-१९२० बड़ौदा में श्री पर्युषण पर्व में देवद्रव्य सम्बन्धी महेसाणा संघ की तरफ से आई हुई जाहिर विनति के सम्बन्ध में प्रश्न उठने पर पं. श्री मोहनविजयजी (स्व. आ. म. श्री विजयमोहनसूरि म. श्री) ने देवद्रव्य शास्त्राधारित आगमोक्त है इस विषय पर शास्त्रपाठों से दो घंटे तक व्याख्यान देकर मूल रिवाज को कायम रखने की सूचना की थी। अतः देवद्रव्य की आवक के सम्बन्ध में चले आते हुए रिवाज को शास्त्राधार के कारण अस्ख
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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लित रूप में चालू रखना; उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन न करना-यह ठहराया जाता है। देव निमित्त बोली गई बोली देवद्रव्य है अतः किसी प्रकार का परिवर्तन न किया जाय । इतर को भी भलामण करने का ठहराव किया गया। साथ ही छाणी में रहे हुए उनके शिश्य मुनि प्रतापविजयजी (पू. आ. म. श्री विजयप्रतापसूरि म. श्री) के नेतृत्व में भी वैसा ही ठहराव हुआ था।
__'दैनिक पत्र' के समाचार से
(६).
स्वप्नादि की उपज देवद्रव्य में ही जावे तीनों श्रमण-सम्मेलन में सर्वानुमति से हुए शास्त्रानुसारी
निर्णय
. देवद्रव्यादि को व्यवस्था तथा अन्य भी धर्मादा खातों की आय तथा उसका सद्व्यय इत्यादि की शास्त्रानुसारी व्यवस्था के सम्बन्ध में श्रीसंघों को शास्त्रीय रीति से सुविहितमान्य प्रणालिका , के अनुसार मार्गदर्शन देने को जिनको महत्त्वपूर्ण जबाबदारी हैं उन जैनधर्म या जैनशासन के संरक्षक पूज्य आचार्य भगवन्तों ने पिछले वर्षों में तोन श्रमण-सम्मेलनों में महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शक प्रस्तावों द्वारा श्रीसंघ को जो स्पष्ट और सचोट शास्त्रानुसारी मार्गदर्शन दिया है वे महत्त्वपूर्ण उपयोगी निर्णय यहाँ प्रकाशित किये जा रहे हैं । ये निर्णय सदा के लिए भारतवर्ष के श्रीसंघों के लिए प्रेरणादायी हैं। इनका पालन करने को श्रीसंवों को अनिवार्य जबाबदारी है।
स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ]
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देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य या अन्य जिनमन्दिर, उपाश्रय, ज्ञानभण्डार तथा साधारण खाता आदि के द्रव्य की आय को शास्त्रानुसार किस प्रकार सद्व्यय करना, यह श्रीसंघों की जबाबदारी है । श्रमणप्रधान श्रीसंवों को सुविहितशास्त्रानुसारी प्रणाली के प्रति वफादार रहकर पू. पाद परमगीतार्थ सुविहित आचार्य भगवन्तों की आज्ञानुसार सब धार्मिक स्थावर-जंगम जायदाद का वहीवट, व्यवस्था, संरक्षण एवं संवर्धन करना चाहिए। इस बात को लक्ष्य में लेकर ,श्री श्रमणसंघ सम्मेलन द्वारा किये गये उपयोगी निर्णय यहां प्रसिद्ध किये जा रहे हैं। उनसे सूचित होता है कि श्रीसंवों को उन निर्णयों का आवश्यकरूप से पालन करना चाहिए।
वि. सं. १६६० में राजनगर (अहमदाबाद) में एकत्रित श्रमण सम्मेलन द्वारा देवद्रव्य सम्बन्धी किया गया
.... महत्त्वपूर्ण निर्णय १. देवद्रव्य, जिन चैत्य तथा जिनमूर्ति सिवाय अन्य किसी भी
क्षेत्र में काम में नहीं लिया जा सकता। २. प्रभु के मन्दिर में या मन्दिर के बाहर-किसी भी स्थान पर
प्रभु के निमित्त जो जो बोलियाँ बोली जावें, वह सब देवद्रव्य
कहा जाता है। ३. उपधान सम्बन्धी माला आदि को उपज देवद्रव्य में ले जाना
उचित समझा जाता है। ४. श्रावकों को अपने द्रव्य से प्रभु की पूजा आदि का लाभ लेना __ चाहिए परन्तु किसी स्थान पर सामग्री के अभाव में प्रभु को
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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पूजा आदि में बाधा आती दृष्टिगोचर होती हो तो देवद्रव्य में से प्रभुपूजा आदि का प्रबन्ध कर लिया जाय । परन्तु प्रभु की पूजा आदि तो अवश्य होनी ही चाहिए।
५. तीर्थ और मन्दिर के व्यवस्थापकों को चाहिए कि तीर्थ और
मन्दिर सम्बन्धी कार्य के लिए आवश्यक धनराशि रखकर शेष धनराशि से तीर्थोद्धार और जीर्णोद्धार तथा नवीन मन्दिरों के लिए योग्य मदद देवें; ऐसी यह सम्मेलन भलामन करता है।
विजयनेमिसूरि, जयसिंहसूरिजी विजयसिद्धिसूरि, आनन्दसागर, विजयवल्लभसूरि, विजयदानसूरि, विजयनीतिसूरि, मुनि सागरचन्द, विजयभूपेन्द्रसूरि श्री राजनगर जैन संघ,
कस्तूरभाई मणीभाई वंडावीला
ता. १०-५-३४ ___(मुनि सम्मेलन के इन ठहरावों की मूल प्रति का ब्लाक परिशिष्ट में दिया गया है।)
(८) श्री शत्रुजय तीर्थ की पुनीत छाया में सिद्धक्षेत्र पालीताना में विराजमान श्री श्रमणसंघ द्वारा किये गये निर्णय
श्री सिद्धक्षेत्र पालीताना में विराजमान समस्त जैन श्वेताम्बर श्रमणसंघ, वि. सं. २००७ वैशाख सुदो ६ शनिवार से वैशाख सुदी १० बुधवार तक प्रतिदिन दोपहर में बाबु पन्नालाल की धर्मशाला में एकत्रित होकर, वि. सं. १९९० में राजनगर में
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स्वप्नद्रव्य, देवद्रव्य ।
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हुए अखिल भारतवर्षोय श्री जैन श्वेताम्बर मुनि सम्मेलन द्वारा किये गये 'धर्म में बाधाकारो राजसत्ता के प्रवेश को यह-सम्मेलन अयोग्य मानता है'-इस ११ वें निर्णय पर पूर्वापर विचारणा कर सर्वानुमति से निम्नलिखित निर्णय करता है
'यह श्रमण संघ मानता है कि जैनों की जो जो संस्थाएँ, सात क्षेत्र, धर्मस्थान, मन्दिर और उपाश्रय आदि हैं वे सब अपनेअपने अधिकार अनुसार श्रमण-प्रधान चतुर्विध संघ की मालिको की हैं। उनके वहीवटदार ( व्यवस्थापक ) उस श्रमणसंघ के शास्त्रीय आदेश के अनुसार काम करने वाले सेवाभावी सद्गृहस्थ हैं। व्यवस्थापकों को शास्त्राज्ञा तथा संघ को मर्यादा के विरुद्ध कुछ भी करने का हक नहीं है। इसी तरह सरकार को भी संघ का हक उठाकर वहीवटदारों को हो संस्थाओं के सीधे मालिक मानकर उसके द्वारा अपना हक जमाने को जरूरत नहीं है । फिर । भी यदि व्यवस्थापक या सरकार ऐसा अनुचित कदम उठावे तो उनको ऐसा करने से रोकने के लिए अपने अधिकार अनुसार सक्रिय प्रयत्न करना चाहिए।'
स्थल:-बाबु पन्नालाल की धर्मशाला वि. सं. २००७, वै. सु. १० बुध ता. १६-५-५१ भगवान् श्री महावीर भगवन्त केवलज्ञान कल्याणक.
लि. श्री पालीताना स्थित समस्त श्रमण संघ की ओर से आचार्य श्री विजयवल्लभरि म. की आज्ञा से पं. समुद्रविजय (आ. म. श्री विजयसमुद्रसूरि म. श्री)
आ. श्री कोतिसागरसूरि ह. स्वयं आ. श्री विजयमहेन्द्रसूरि ह. स्वयं
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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आ. श्री विजयहिमाचलसूरि ह. स्वयं आ. विजयभुवनतिलकसूरि ह. स्वयं . आ. विजयचन्द्रसागरसूरि ह. स्वयं
वि. सं. २०१४ सन् १९५७ के चातुर्मास में श्री राजनगर (अहमदाबाद) में रहे हुए श्री श्रमण संघ ने डेला के उपाश्रय में एकत्रित होकर सात क्षेत्रादि धार्मिक व्यवस्था का शास्त्र तथा परम्परा के आधार से निर्णय किया उसकी नकल :
देवद्रव्य
१. जिन प्रतिमा, २. जैन देरासर ( मन्दिर )
देवद्रव्य की व्याख्या :
. प्रभु के मन्दिर में या मन्दिर के बाहर-चाहे जिस स्थान पर प्रभु के पंच कल्याणकादि निमित्त तथा माला परिधापनादि देवद्रव्य वृद्धि के कार्य से आया हुआ तथा गृहस्थों द्वारा स्वेच्छा से समर्पित किया हुआ धन इत्यादि देवद्रव्य कहा जाता है।
स्वप्नद्रव्य; देबद्रव्य ]
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प्रकरण [२] स्वप्न की प्राय देवद्रव्य में ही जातो है, यह बात शास्त्रानुसारी सुविहित महापुरुषों द्वारा स्वीकृत और उपदिष्ट है ।
पू. पाद न्यायाम्भोनिधि बोसवीं सदी के अद्वितीय प्रभावक आचार्यदेव श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी महाराजश्री के नाम से उनके ही समुदाय के साधु-महात्माओं की ओर से ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने स्वप्नों की आय को साधारण खाते में (जिस खाते में श्रावक-श्राविका के व्यक्तिगत उपयोग का भी समावेश होता है ) ले जाने का फरमाया है और वैसी प्रवृत्ति को उत्तेजन दिया है, इस प्रकार के भ्रामक प्रचार के विरुद्ध उन श्रीमद् के समुदाय के तथा उन श्रीमद की पाट-परम्परा में पू. पाद व्याख्यान-वाचस्पति परम शासन प्रभावक श्री आचार्यदेव व श्रीमद् विजयरामचन्द्र सूरीश्वरजी महाराजश्री ने 'जैन प्रवचन' में अधिकृत रूप से सचोट प्रतिकार किया है। उन्होंने सिद्ध किया है कि पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजयानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री अपरनाम पू. आत्मारामजी महाराजश्री स्वप्न की आय को देवद्रव्य में ले जाने की शास्त्रीय मान्यता रखते थे। 'जैन प्रवचन, में प्रकाशित वह लेख यहाँ उद्धृत किया जा रहा है:
पूज्य पांचालदेशोद्धारक, न्यायाम्भोनिधि, स्व. आचार्यदेव श्रीमद् विजयानन्दसूरीश्वरजी (आत्मारामजी) महाराज का
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स्वप्न द्रव्य विषयक स्पष्ट अभिप्राय
'स्वप्न उतारना, घी बोलना इत्यादिक धर्म की प्रभावना और जिन द्रव्य की वृद्धि का हेतु है ।
भगवान् की माता को आये हुए चवदह स्वप्न आदि की बोली की आय देवद्रव्य खाते में ले जाने से रोकने हेतु और उस आय को या उसके अमुक भाग को साधारण द्रव्य खाते में ले जाने हेतु अभी पू. पांचालदेशोद्धारक न्यायाम्भोनिधि स्व. आचार्य भगवान् श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी ( आत्मारामजी ) महाराज के नाम का उपयोग किया जा रहा है परन्तु वे स्व. महापुरुष 'स्वप्न की बोली की आय को देवद्रव्य खाते में ले जाना चाहिए' ऐसा मानते थे ।
विक्रम सं. १९४८ में श्री जैन धर्म प्रसारक सभा भावनगर की तरफ से 'ढुंढक हित शिक्षा अपर नाम 'गप्पदीपिका समीर' नाम की एक पुस्तिका अहमदाबाद के 'युनियन प्रिन्टिंग प्रेस में छपवा कर प्रकाशित हुई थी। उस पुस्तक के ८६ वें पृष्ठ पर उक्त स्व. महापुरुष का स्वप्न द्रव्य संबंधी स्पष्ट अभिप्राय, प्रकट हुआ है ।
उस पुस्तिका के अन्त में बताया गया है कि ' इत्याचार्यष्टाधिकसहस्त्रश्रियायुक्त श्रीमद् विजयानंदसूरीश्वरस्यापरनाम्ना श्रीमदात्माराम महामुने ज्येष्ठशिष्य श्रीमल्लक्ष्मीविजयः तच्छिष्यः श्रीमद् हर्षविजयः तल्लधुशिष्येन वल्लभाख्यमुनिना कृतः गप्पदीपिकासमीर नाम्नां ग्रन्थः ॥"
इससे प्रतीत होता है कि यह पुस्तिका स्व. आचार्य श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराज ने बनाई है। इस पुस्तिका में
स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ]
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उन्होंने स्थानकवासी स्व. स्वामी अमरसिंहजी द्वारा पू. स्व. आ. म. श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी महाराजा को पूछे गये सौ प्रश्नों का संग्रह किया है। इन प्रश्नोत्तरों में नौवाँ प्रश्नोत्तर इस प्रकार है:
प्रश्न ९. स्वप्न उतारना, घी चढ़ाना, फिर नीलाम करना और दो तीन रूपये मन बेचना-यह क्या भगवान् का घी कौड़ा (सौदा) है ? सो लिखिये।
उ० ९. स्वप्न उतारना, घो बोलना इत्यादिक धर्म की प्रभावना और जिन द्रव्य की वृद्धि का हेतु है। धर्म की प्रभावना करने से प्राणी तीर्थंकर गोत्र बांधता है, यह कथन श्री ज्ञाता सूत्र में हैं। और जिनद्रव्य की वृद्धि करने वाला भी तीर्थंकर गोत्र बांधता है, यह कथन भी संबोध सत्तरी शास्त्र में है। घी की बोलो के वास्ते जो लिखा हैं, उसका उत्तर. यह है कि जैसे तुम्हारे आचारांगादि शास्त्र भगवान की वाणी दो या चार रुपये में बिकती है वैसे घी का भी मोल होता है।
.ऊपर के उत्तर में, पू. स्व. आ. म. श्रीमद् विजयानन्दसूरीश्वरजी ( आत्मारामजी ) महाराज ने स्पष्टरूप से बताया है कि स्वप्न उतारना और उनकी बोली बोलना, इसमें धर्म की प्रभावना और देवद्रव्य की वृद्धि हेतु है।
- इस हेतु को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करने के पश्चात् उन्होंने फरमाया है कि, 'धर्म की प्रभावना करने से प्राणी श्री तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित करता है, ऐसा कथन श्री ज्ञातासूत्र में है और देवद्रव्य की वृद्धि करने वाला भी श्री तीर्थंकर नामकर्म उपाजित करता है-ऐसा कथन श्री सम्बोध सत्तरी शास्त्र में है।'
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इस प्रकार स्वप्न उतारना, उसकी बोली बोलना और उस बोली का द्रव्य देवद्रव्य गिना जाता है, ऐसा विधान करने के पश्चात् 'स्वप्न का नीलाम करना और दो तीन रुपये मन बेचना' कहकर स्वप्न उतारने और उसकी बोलो बोलने की धर्म प्रभावना और देवद्रव्य की वृद्धि करने वाली प्रवृत्ति का उपहास करने वाले प्रश्नकार को उन्होंने समझाया है कि 'जैसे तुम्हारे आचारांगादिशास्त्र-भगवान् की वाणी दो या चार रुपयों में बेचे जाते हैं वैसे ही बोली के घी का भी मोल होता है ।
अर्थात् पू. आ. म. श्री विजयानन्दसूरीश्वरजी (आत्मारामजी) महाराज के नाम से ऐसा कहना कि-'वे स्वप्न की आय को साधारण खाते में ले जाने में सम्मत थे', यह सत्य से दूर है। जिस किसी ने उनके नाम से भुलावे में आकर स्वप्न की आय को साधारण खाते में ले जाने की प्रवृत्ति की हो अथवा वैसी शास्त्रविरुद्ध प्रवृत्ति को सम्मति प्रदान की हो तो उन्हें अपनो उस प्रवृत्ति को अथवा अपनो उस सम्मति को वापन ले लेनी चाहिए और जो भूल हो गई है, उसे सुधार लेनी चाहिए। _. ऊपर का प्रश्नोत्तर किन संयोगों में निर्मित हुआ, उसका वर्णन उक्त 'गप्पदोपिका समीर' में विस्तार से दिया गया है। . वि. सं. १९३८ में पू.आ. म. श्री विजयानन्द सूरीश्वरजी (आत्मा रामजी) महाराज अमृतसर नगर में पधारे थे। उस समय उस नगर में स्थानकवासी स्वामी अमरसिंहजी भी विद्यमान थे। उस समय एक बार स्था. स्वामी अमरसिंहजी ने श्रावकों के समक्ष बात की कि -'जो प्रश्न आत्मारामजी मुझसे करेंगे उनका मैं शास्त्रानुसार उत्तर दूंगा।' यह बात पूज्य आ. म. श्री विजयानन्द सूरीश्वरजी महाराज को विदित होने पर उन्होने सं. १९३८ चैत्र सुदी ३ शुक्रवार को २१ प्रश्न लिखकर बीकानेर निवासी
स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ।
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छोगमल सिपाणी के साथ स्था. स्वामी अमरसिंहजी को लिखकर भेजे थे ।
जब श्रावक छोगमलजी उन २१ प्रश्नों को लेकर स्था. स्वामी अमरसिंहजी के पास गये तब उन्होंने छोगमलजी को ऐसा कहा कि 'हमारे प्रश्नों का उत्तर आत्मारामजी दें और आत्मारामजी के प्रश्नों का उत्तर मैं दूं; परन्तु एक हाथ में उत्तर लेंगे और दूसरे हाथ में उत्तर देंगे ।' श्रावक छोगमलजी ने कहा कि'यह ठीक है । आप प्रश्न लिखकर दे दीजिये ।' इस पर से स्था. स्वामी श्री अमरसिंहजी ने चैत्र सुदी ५ को १०० प्रश्न लिखकर पू. आ. म. श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी ( आत्मारामजी ) महाराज को भेज दिये ।
स्था. स्वामी अमरसिंहजी के १०० प्रश्न मिलते हो पू. आ. म. श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी महाराज ने प्रश्नों का उत्तर अपने ज्येष्ट शिष्य पू. मुनिराज श्री लक्ष्मीविजयजी महाराज के पास से लिपिबद्ध कराये और चैत्र सुदी ७ को स्था. स्वामी अमरसिंहजी के पास भेजे परन्तु स्था. स्वामी अमरसिंहजी ने अपने १०० प्रश्नों के उत्तर लिये भी नहीं और पू. आ. म. श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वरजी महाराजा द्वारा उनको पूछे गये २१ प्रश्नों के उत्तर भी उन्होंने दिये नहीं ।
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तत्पश्चात् स्था. स्वामी अमरसिंहजी द्वारा पूछे गये १०० प्रश्न और पू. आ. म. श्रीमद् विजानन्द सूरिश्वरजी महाराजा द्वारा दिये गये १०० उत्तर किस प्रकार प्रसिद्धि में आये, इसके संबंध में 'गप्प- दीपिका समीर' के कर्त्ता स्व. आ. म. श्री विजयवल्लभसूरिजी ( उस समय मुनि श्री वल्लभविजयजी ) महाराज उस पुस्तक के १२६ वें पृष्ठ पर कहते हैं कि
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1 स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य
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'महाराजश्री के दिये गये उतर सम्बन्धी बात मैंने किसी श्रावक के मुख से सुनो कि सं. १९३८ में महाराजश्री के तथा स्वामी अमरसिंहजी ढंढक के परस्पर प्रश्नोत्तर हए थे । तब मैंने महाराजश्री से विनती की कि मैं उन प्रश्नों को देखना चाहता हूं। तब महाराजश्री ने कृपा करके वे प्रश्न मंगवाकर मुझे दिये । मैंने वे सर्व प्रश्नोत्तर बांच कर फिर विनती को कि, 'यदि आप आज्ञा दें तो मेरी इच्छा है कि इस गप्पदीपिका समीर' में वे सब प्रश्नोतर सम्मिलत कर दूं । तब महाराजश्री ने फरमाया कि 'कोई आवश्यकता नहीं है । तुम्हें चाहिये तो ये अपने पास रख लो।' मैंने पुनः निवेदन किया कि-'मेरो इच्छा तो इन्हें जरूर छपवाने की है क्योंकि इन प्रश्नोत्तरों से बहुत सारे भव्य प्राणियों को लाभ प्राप्त होगा। तब महाराज श्री ने मुझ पर कृपा करके फरमाया कि-'तुम्हारी इच्छा ।, मैंने बे प्रश्नोत्तर यहां प्रस्तुत कर दिये हैं; वाचक दीर्घदृष्टि के साथ उनका अवलोकन करें।
___ उक्त उद्धरण से वाचकों को यह भी प्रतीत हो सकेगा कि-उस समय स्व. आ म. श्रीमद् विजयवल्लभसूरिजी महाराज का अभिप्राय भी यही था कि 'भगवान को माता को आये हए स्वप्न आदि को बोली से जो द्रव्य उत्पन्न हो, वह देवद्रव्य गिना जाता है।
(विक्रम सं २०२१ मगसर सुदी ९ रविवार ता. १३-१२६४ पेज ३६१-६२ । जैन प्रवचन वर्ष ३५ अंक ४१ )
[ 'जैन प्रवचन' के उपर्युक्त लेख से यह बात स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाती है कि, उसमें प्रकाशित पू. पाद आचार्य महाराजश्री विजयानन्द सूरीश्वरजी महाराजश्री के मन्तव्य को लिपिबद्ध करके पुस्तकाकार में प्रकाशित करने वाले आ.म.श्री विजयवल्लभ
स्वप्नद्रव्य, देवद्रव्य ]
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सूरीश्वरजी महाराजश्री पू. पाद श्री आत्मारामजी म. श्री के विद्यमानकाल में यावत् वि. सं. १९४८ में यह 'गप्पदीपिका समीर' पुस्तक प्रकाशित हुई वहाँ तक तो शास्त्रानुसारो मान्यता 'अनुसार स्वप्नों की उपज को देवद्रव्य में ले जाने की मान्यता वाले थे । तथा स्वप्न उतारने की क्रिया आदि देवद्रव्य की वृद्धि के लिए हैं, ऐसी मान्यता रखते थे, यह बात इस पुस्तक की उनके द्वारा लिखित पीठिका के लेख से स्पष्टरूप से सिद्ध होतो है । ]
(२)
वि. सं. १९९० राजनगर भ्रमण सम्मेलन में भी उन्होंने ठहराव नं. २ में अपने हस्ताक्षर किये हैं । उस ठहराव नं. २ की उप कलम १-२-३ इस प्रकार हैं :
( १ ) देवद्रव्य जिन चैत्य तथा जिनमूर्ति सिवाय अन्य किसी भी क्षेत्र में नहीं लगाया जा सकता ।
( २ ) प्रभु के मन्दिर में या बाहर चाहे जहाँ प्रभु के निमित्त जो बोली बोली जाय वह सब देवद्रव्य माना जाता है ।
( ३ ) उपधान सम्बन्धी माला आदि की उपज देवद्रव्य में ले जानी उचित है ।
उपर्युक्त ठहराव के नीचे 'विजयवल्लभसूरि' इस प्रकार वल्लभसूरि महाराज ने अपने हस्ताक्षर किये हैं । उस हस्ताक्षर के नीचे निम्न प्रकार के लेख के बाद कस्तुरभाई मणिभाई के हस्ताक्षर हैं । वह लेख इस प्रकार है :
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[ स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य
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'अखिल भारतवर्षीय जैन श्वेताम्बर मुनि सम्मेलन ने सर्वानुमति से इस पट्टक अनुसार नियम बनाये हैं । उसका असली पक सेठ श्री आनन्दजी कल्याणजी की पेढ़ी को सौंपा है।
- कस्तुरभाई मणिमाई श्री राजनगर जैन संघ, वंडावीला ता. १०-५-३४
[ उपरोक्त मुनि सम्मेलन के ठहराव से स्पष्ट होता है कि आ. म. श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराज स्वयं वि. सं. १९६० तक 'प्रभु के मन्दिर के बाहर या चाहे जिस स्थान पर प्रभु के निमित्त जी बोली बोली जाय वह देवद्रव्य है,' इस प्रकार शास्त्रानुसारी मान्यता वाले अवश्य थे । और उससे यह भी समझा जा सकता है कि, स्वप्न भी प्रभु के निमित्त होने से उनकी बोली को वे देवद्रव्य मानते थे । साथ ही देवद्रव्य जिन चैत्य या जिनमूर्ति के सिवाय दूसरे किसी भी क्षेत्र में काम में नहीं लिया जा सकता, ऐसी वे प्रामाणिक रूप से शास्त्रानुसारी मान्यता रखते थे, ऐसा हम अनुमान कर सकते हैं । ऐसा होते हुए भी यद्यपि उन्होंने उसके पहले भी देवद्रव्य की जैन संघ में चर्चा चलने के समय स्वप्नोंकी आय को साधारण खाते में ले जाने की शास्त्र तथा परम्परा विरुद्ध हलचल शुरु हुई थी उसमें भी सम्मति दी थी परन्तु चाहे जो कारण रहा हो उन्हें अपनी भूल समझ में आई हो उससे इस विषय में उन्होंने राजनगर भ्रमण सम्मेलन के ठहराव नं. २ के उप ठहराव नं. १-२-३ पर अपने हस्ताक्षर किये हैं । इस पर से हमें ऐसा मानने का स्पष्ट कारण मिल जाता है ।
परन्तु इसके बाद चाहे जिस कारण से उन्होंने शांताक्र ुझ जैन संघ के प्रमुख सुश्रावक जमनादास मोरारजी को जो उत्तर
स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ]
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दिया है वह उनके बदले हुए मानस का परिचायक है । उनका तथा संघ के प्रमुख श्री जमनादास मोरारजी भाई का पत्र-व्यवहार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। ]
शान्ताक्रुझ श्रीसंघ के प्रमुख श्री जमनादास मोरारजो जे. पी. द्वारा प्राचार्य म. श्री विजयवल्लभसूरिजी महा
राजश्री को लिखे गये दो पत्र ।
पत्र-१
ता. २०-९-३८ सविनय वन्दनापूर्वक लिखना है कि, यहाँ का श्रीसघ सं. १९९३ के साल तक स्वप्नों के घी की बोली का ढाई रुपया प्रति मन लेता था और उससे होने वाली आय को देवद्रव्य में ले जाता था परन्तु साधारण खाते के खर्च को निभाने के लिए चालू साल में संघ ने एक ठहराव किया कि स्वप्नों के घी की बोली का भाव २॥ रु, प्रतिमन के स्थान पर ५) रु. प्रतिमन किया जाय और उसमें से सदा की भांति ढाई रुपया देवद्रव्य में ले जाया जाय और ढाई रुपया साधारण खाते के निर्वाह हेतु साधारण खाते में ले जाया जाय । संघ द्वारा किया गया यह प्रस्ताव शास्त्र के आधार से अथवा परम्परा से ठीक माना जा सकता है या नहीं ? इस विषय में आपका अभिप्राय प्रकट करने की कृपा करें। जिससे यदि उसमें परिवर्तन करते की आवश्यकता हो तो समय पर किया जा सके । सूरत, भरुच, बडौदा, खम्भात, अहमदाबाद, महेसाण, पाटण, चाणस्मा, भावनगर आदि अन्य नगरों में क्या
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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परिपाटी है ? उन नगरों के श्रीसंघ किस प्रकार स्वप्नों के घी की बोलो की उपज का उपयोग करते है ? इस विषय में आपका अनुभव बताने की कृपा करे !
श्रीसंघ के उक्त ठहराव के अनुसार स्वप्नों की बोली के घी की उपज श्री देवद्रव्य और साधारण खाते में ले जायी जाय तो श्रीसंघ को दोष लगता है या नहीं ? इस विषय में आपका अभिप्राय बताने की कृपा करें ।
संघ - प्रमुख
जमनादास मोरारजी का सविनय वंदन !
( ४ )
( ऊपर के पत्र का शीघ्र उत्तर न आने पर शांताक्र ुज संघ ने दूसरा पत्र लिखा, जो इस प्रकार है । )
'शान्ताक्रुज संघ का दूसरा पत्र
सविनय वन्दना के साथ लिखना है कि यहां के संघ में स्वप्नों की बोली के घी का भाव २ ।। रु. प्रति मन गत वर्ष तक चल रहा था और वह आय देवद्रव्य में ले जाई जाती थी परन्तु साधारण खाते के खर्च को निभाने के लिए यहाँ के संघ ने एक ठहराव किया कि मूल के २ 11 ) रु. आवे वे हमेशा की तरह देवद्रव्य में ले जाये जावें ओर २||) रुपया जो अधिक आवे वे 'साधारण खाते में ले जाये जावें + इस प्रकार किया गया ठहराव शास्त्र के आधार से बराबर है या नहीं ? इस विषय में आपका अभिप्राय बतलाने की कृपा करें । सुरत, भरूच, बड़ौदा, खंभात, अहमदाबाद, महेसाणा, पाटण, चाणस्मा, भावनगर
स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ]
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आदि के श्री संघ स्वप्नों की बोली की उपज को किस काम में लेते हैं, वह आपके ध्यान में हो तो बताने की कृषा करें।
शान्ताक्रुझ संघ के पत्र का प्रा. म. श्री विजयवल्लभ
सूरिजी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर
ता. २८-९-१९३८ वंदे श्री वीरमानंदम्
अम्बाला सीटी (पंजाब) विजयवल्लम सूरि आदि की तरफ से
श्री बम्बई शान्ताक झ मध्ये सुश्रावक सेठ जमनादास मोरारजी जोग धर्मलाभ । ता. २०-९-३८ का आपका पत्र मिला । समाचार जाने । आपने जो बात लिखा है वह प्रथा हो अर्वाचीन है तो फिर उसका उल्लेख शास्त्र में कैसे हो सकता है ? और इसीलिए इसके लिए सब जगह एक सरीखी परम्परा दृष्टि गोचर नहीं होती। जिस संघ ने पहले से अथवा आवश्यकता समझकर बाद में जो ठहराव किया हो वह संघ उस रीति से चल सकता है। आपके संघ ने मिलकर जो ठहराव किया है उसके अनुसार चलने का हमारी समझ से आपको पूरा हक है। आजकल को प्रवृत्ति अनुसार इतना अवश्य करना चाहिए कि श्री संव के रजिस्टर में यह ठहराव लिखकर उस पर संघ के प्रत्येक व्यक्ति के अथवा तो श्री संघ के आगेवानों के हस्ताक्षर करा लिये जाय। जिस रजिस्टर में यह लेख लिखा जाय उसके अंत में यह भी लिखना चाहिए कि कालान्तर में आवश्यकता होने
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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पर श्री संघ इस ठहराव में परिवर्तन या सुधार या न्यूनाधिकता करना चाहे तो कर सकता है । यह श्री संघ के अधिकार में है ।'
[ शान्ताक्रूझ श्री संघ को आ. म. श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराज ने जो उत्तर दिया है उसमें वे कहते हैं किसंघ जिस समय जिस आवश्यकता को समझ कर जिस द्रव्य का जहां उपयोग करने का निर्णय करे, वैसा करने का उसको अधिकार है ।' इस लेख के अनुसार तो संघ को यह अधिकार मिल जाता है कि भगवान् के भंडार में आये हुए चावल, पैसे आदि कोई भी वस्तु जो भगवान् की भक्ति के लिए भक्तों ने समर्पित की हो, उसको भी अपने उपयोग में यदि वह लेवे तो कोई नियम, मर्यादा या व्यवस्था नहीं रह सकती और अति प्रवृत्ति की संभावना रहती है; संघ में कोई व्यवस्था या शास्त्रीय नियमन जैसा भी न रह पावेगा । इस बात को लक्ष्य में रखकर शान्ताक्र झ जैन संघ के प्रमुख सुश्रावक जमनादास मोरारजी जे. पी. ने उस समय आ. म. श्री विजयवलभसूरिजी म श्री के पत्र का उस समय जो स्पष्ट और व्यवस्थित उत्तर दिया वह सचमुच मननीय है और जैन संघ की शास्त्रानुसारी मर्यादा के पालन की निष्ठा का सूचक है तथा एक सुश्रावक के अवसरोचित सुसंगत कर्तव्य के अनुरूप ही है । ]
( ६ ) शान्ताक्रुझ श्री संघ द्वारा श्री. म. श्री विजयवल्लभसूरिजी म. श्री के पत्र का दिया गया श्रवसरोचित उत्तर
सविनय वन्दना पूर्वक लिखना है कि, आप श्री की ओर से ता. २८-९-३८ को लिखा हुआ पत्र मिला । उसके लिए हम आपके अत्यन्त आभारी हैं ।
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आपश्री ने बताया कि संघ जो ठहराव करे उसके अनुसार चला जा सकता है तो इस सम्बन्ध में आप श्री से नम्रता पूर्वक निवेदन है कि, जो प्रभु-भक्ति निमित्त अर्थात् आरती, पूजा आदि के लिए घी की बोली बोली जाती है, वह देवद्रव्य मे प्रत्येक स्थान में जाती है और प्रभु श्री महावीर देव माताश्री की कुक्षी में आये-यह कल्याणक का प्रसंग है और माताश्री ने तीर्थंकर के अपनी कुक्षी में आने पर महास्वप्न देखे, उन स्वप्नों से सम्बन्धित महोत्सव सुश्रावक पर्युषण में करते हैं, उसका निमित्त श्री प्रभु के सिवाय अन्य नहीं होता। ऐसे संयोगों में उस बोली की उपज को श्रावक साधारण खाते में ले जावे तो कोई दोष लगता है या नहीं ? साधारण खाते के पैसों को श्रावक अनेक प्रकार के कामों में लगाते हैं-जैसे स्नान करने, गरम पानी, साधु संतों के साथ किसी व्यक्ति को भेजने में होने वाले खर्चे में, पोस्ट के लिए टिकिट देने आदि में भी खर्च किये जाते हैं। तो स्वप्नों के घी की बोली की आय साधारण खाते में ले जाने पर कोई दोष लगता है या नहीं, इसका स्पष्ट अभिप्राय देने की . कृपा करें।
विशेषतः आपश्री को नम्रतापूर्वक निवेदन करता हूं कि, श्री ढुंढक हितशिक्षा अपर नाम गप्पदोपिका समीर सं. १९४८ के वर्ष में छपी हुई है, उसमें परम कृपालु श्री आत्मारामजी महाराजश्री ने जो उत्तर दिये हैं उसमें पृष्ठ ८६ पर 8 वें प्रश्न का उत्तर दिया है। उस सम्बन्ध में आपश्री का अभिप्राय जानने हेतु आपकी आज्ञा चाहता हूं।
आपश्री की सेवा में यह भी निवेदन है कि, आपश्री ने प्रत्युत्तर की अन्तिम दो पंक्तियों में लिखा है कि 'कालान्तर में
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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आवश्यकता समझकर श्रीसंघ ठहराव में परिवर्तन संशोधन या परिवर्धन कर सकता है ।' तो थोड़ी थोड़ी आवश्यकताओं में संघ परिवर्तन करता रहेगा तो अलग-अलग स्थानों पर उसका अलगअलग मनमाना अर्थ करके ठहराव किये जाते रहेंगे, तो इससे भविष्य में श्रावक अनेक दोषों के भागी बनेंगे, क्या ऐसा आपको नहीं लगता ?
कृपा करके आपश्री सम्पूर्ण विचार करके उत्तर देकर आभारी करें ।
स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ]
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प्रकरण [ ३ ]
देवद्रव्यं केवल देव की भक्ति-निमित्त हो लगाया जा सकता है ।
प्रभु
[ उपर्युक्त लेखों से यह बात सिद्ध होती है कि, स्वप्न उतारने की प्रथा जब से शुरु हुई तब से यह बात निश्चित-सी है कि स्वप्न की बोली में जो द्रव्य बोला जाता है वह देवद्रव्य ही गिना जाता है । इसमें यह बात भी स्वतः सिद्ध है कि, के निमित्त प्रभुभक्ति के लक्ष्य से जो बोली श्री जिनमन्दिर में या उपाश्रय में या किसी भी स्थान पर बोली जाय उनकी आय देवद्रव्य में ही गिनी जाती है । सेन प्रश्न जैसे प्रामाणिक और सुविहित परम्परा-मान्य प्राचीन ग्रन्थ में भी माला की उपज को ज्ञानद्रव्य या साधारण द्रव्य में न ले जाने का बताकर पू. सुविहित शिरोमणि आचार्य भगवन्त श्री विजयसेन सूरीश्वरजी महाराज ने 'माला की उपज को देवद्रव्य में ले जाने का' स्पष्ट विधान किया है । ]
सेन प्रश्न के दूसरे उल्लास में पं. श्री आनन्दविजयजी गणि ने प्रश्न किया है कि 'माला सम्बन्धी सोना, चांदी, सूत्र आदि द्रव्य को देवद्रव्य गिना जाय या साधारण द्रव्य ? उसके उतर में पू. आ. म. श्री विजय सेनसूरिजी महाराज ने स्पष्ट रीति से बताया है कि, 'वह सब देवद्रव्य गिना जाय' । ( सेन प्रश्न : भाषान्तर पेज ६९ ) जब इस प्रकार भगवान् के समक्ष बोली जाने
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वाली माला का द्रव्य देवद्रव्य गिना जाता है तो भगवान् के निमित्त जो द्रव्य बोला जाता है वह तो स्पष्टरूप से देवद्रव्य है, इसमें विशेष स्पष्टता की कोई आवश्यकता नहीं रहती है । साथ ही उस दूसरे उल्लास में आगे बढ़कर पं- श्री कनकविजयजी गगिकृत प्रश्न के उत्तर में पू. आ. श्री विजयसेनसूरि म. श्री स्पष्ट रीति से फरमाते हैं कि देवद्रव्य केवल देव के निमित्त ही काम में लिया जा सकता है ।
( सेन प्रश्न उल्लास २ पेज ८८ गुजराती अनुवाद)
[ इन दोनों प्रश्नोत्तरों से स्पष्ट समझा जा सकता है कि स्वप्न-द्रव्य देवद्रव्य ही है । और उसका उपयोग केवल देव की भक्ति के सिवाय अन्यत्र कहीं नहीं हो सकता । उसमें भी जिनमन्दिर, जिनमूर्ति तथा जीर्णोद्धारादि कार्यों में ही उसका उपयोग होता है । अथवा देवनिमित्त के कार्यों में उपयोग हो सकता है । परन्तु स्वयं के लिए प्रभु-पूजा हेतु केशर-वन्दन आदि या पुजारी को देने के लिए - इस प्रकार के कारणों के होने पर अपवाद के सिवाय, उसका उपयोग नहीं हो सकता । जहाँ तीर्थ आदि स्थलों पूजा आदि के लिए देवद्रव्य का विवशता से उपयोग करना पड़े, तो उसको छोड़कर अपने द्वारा की जाने वाली प्रभु पूजा के कार्य में देवद्रव्य का उपयोग नहीं किया जा सकता ।
माला की उपज की तरह स्वप्न द्रव्य भी देवद्रव्य गिना जाता है, इस मान्य बात का अधिक पिष्ट पेषण करना व्यर्थ है । हाथ में रहे हुए कंकण को देखने के लिए कांच की क्या जरूरत है ?
ऐसा होते हुए भी राधनपुर में वर्षों से ऐसी अशास्त्रीय प्रणाली शुरु हुई है जिसके परिणाम स्वरूप सुविहित आचार्यदेव
स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ]
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आदि महापुरुष भी पर्युषण महापर्व में स्वप्न वाचन के पश्चात् स्वप्न उतारने के समय उपस्थित ही नहीं रहते थे। क्योंकि संघ के कितने ही कदाग्रह वाले भाइयों की जड़ता के कारण स्वप्नों की आय साधारण खाते में ले जाई जाती थी जिसका पू. भवभीरु सुविहित महापुरुषों ने बहुत विरोध किया । अन्ततः स्वप्न दर्शन के समय उपस्थित न रहने रूप असहकार के कारण वि. सं २०२२ में शास्त्रविहित सुविहित महापुरुषों द्वारा मान्य परिणाम सामने आया।
जैन शाला में वि. सं २०२२ के चातुर्मास में हमने अलग स्थान पर स्वप्न उतारने का निर्णय किया और उसकी आय देवद्रव्य में ही और वह भी प्रारम्भ में राधनपुर के जिनालय में जीर्णोद्धार आदि में उपयोग करना ठहराया। प्रारम्भ में सख्त विरोध के बावजूद शास्त्रानुसारी सुविहित परम्परा को शिरोधार्य करने वाले शासन प्रेमी श्री संघ की दृढ़ता के कारण वह प्रयत्न सफल रहा । अन्ततः थोड़े समय बाद समस्त राधनपुर जैन संघ ने सर्वानुमति से स्वप्न की आय को देवद्रव्य में ले जाने का निर्णय लिया।
शासनप्रेमी श्रीसंघ ने जो प्रवृत्ति दृढ़ता के साथ अडिग रहकर प्रारम्भ को, यद्यपि प्रारम्भ में बहुत विरोध का सामना करना पड़ा तथापि उसका परिणाम शास्त्रानुसारी सुविहित परम्परामान्य प्रणाली के स्वीकार के रूप में ही आया।
वि. सं. २०२२ के राधनपुर चातुर्मास में स्वप्न की आय को देवद्रव्य में ले जाने की शास्त्रीय प्रणाली का पहली बार शुभारम्भ हुआ, उस समय के वातावरण को स्पष्ट करने वाला विवरण राधनपुर निवासी श्री शासनप्रेमी ने 'कल्याण' मासिक
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के नवम्बर १९६६ के अंक में प्रकाशित किया है उसको यहाँ उद्धृत किया जाता है। ] शास्त्रानुसारी सुविहित प्रणाली को साहसपूर्वक निडरता से प्रचारित करना आवश्यक है
( श्री शासनप्रेमी, राधनपुर ) चालू वर्ष में राधनपुर में चातुर्मासार्थ विराजमान पू. पंन्यासजी महाराज श्री कनकविजयजी गणिवर श्री ( वर्तमान में आ. विजय कनकचन्द्रसूरिजी म.) ने हिम्मत तथा दृढता के साथ राधनपुर में कितनेक वर्षों से घुसी हई स्वप्नों की आय को साधारण खाते में ले जाने को अनिष्ट और शास्त्र-सिद्धान्त विरोधी कुप्रथा का दृढ़ता के साथ विरोध करके, विजय तथा सागर गच्छ के व्यवस्थापकों तथा श्रीसंघ को शास्त्रानुसारी सुविहित प्रणाली के समर्थन में व्याख्यान के पाट पर से पू. आत्मारामजी म. के लेख, पू. आ. म. श्री विजयवल्लभसूरिजी म. के लेख, प्र. शान्तमूर्ति मुनिराजश्री हंसविजयजी म. के लेख, तथा पू. आ. म. श्री विजयसिद्धिसूरीश्वरजी म., पू. आ. म. श्री विजयनीतिसूरीश्वरजी म., पू. आ. म. श्री विजयदर्शनसूरीश्वरजी म., पू. आ. म. श्री. विजयमोहनसूरीश्वरजी म., पू. आ. म. श्री ऋद्धिसागरसूरिजी म., पू. आ. म. श्री कोर्तिसागर सूरीश्वरजी म., पू. आ. म. श्री विजयकनकसूरीश्वरजी म., पू.आ.म.श्री विजय लब्धिसूरीश्वरजी म., पू. आ. म. श्री विजय प्रेमसूरीश्वरजी म. आदि लगभग तपागच्छ के सभी आचार्य भगवन्तों का पत्र-व्यवहार तथा सं. १९९० के राजनगर मुनि सम्मेलन के ठहराव आदि प्रमाण, दलील और युक्तियों से स्वप्नों को आय देवद्रव्य में जानी चाहिए, यह सचोट और निर्भयता के साथ प्रतिपादित किया।
स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ।
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परिणामस्वरूप राधनपुर जैन संघ के पचहत्तर से अधिक प्रतिशत व्यक्तियों ने बहुत वर्षों के बाद पहली बार स्वप्न उतार कर उनकी बोली देवद्रव्य में ले जाने का निर्णय किया और तदनुसार पू. पंन्यासजी महाराज श्री की शुभनिश्रा में चतुर्विध संघ की उपस्थिति में स्वप्न उतारे और उसमें पिछले कई वर्षों में नहीं हुई ऐसी अच्छी से अच्छी देवद्रव्य की आमदनी हुई जिसे देवद्रव्य खाते में ले जाकर उसे राधनपुर में हो खर्च करने का निर्णय लिया। कतिपय आग्रहो मानस रखने वाले वर्ग ने पू. मुनिराजश्री की अनुपस्थिति में स्वप्न उतारकर उनकी बोली केवल अपने कदाग्रह को पुष्ट करने हेतु साधारण खाते में ले जाकर अपनी शास्त्रविरोधी बात को पकड़ कर रखी।
राधनपुर में आज १० वर्ष पूर्व इसी प्रकार पू. पंन्यासजी महाराजश्री की सचोट प्रेरणा से कतिपय वर्षों से नहीं निकलती रथयात्रा पर्युषण पर्व की आराधना के उद्यापन रूप में भादवा सुदी ५ को भक्तिभावित भाग्यशालियों ने अपने हाथों से रथ को खींचकर निकाली। उस समय भी अमुक दो आनो भाग लोगों का विरोध था परन्तु उसके बाद अब तो वह रथयात्रा समस्त राधनपुर जैन संघ उत्साह के साथ भा. सु. ५ को धामधूमपूर्वक निकालता है।
वहाँ विजयगच्छ तथा सागरगच्छ संघ के व्यवस्थापक उस रथयात्रा महोत्सव को शानदार रोति से मनाते हैं । इस वर्ष भी पांच रथों के साथ रथयात्रा निकाली गई। सागरगच्छ जैन संघ को पेढ़ी ने रथयात्रा निकालो और उसमें रु. १४००) को देवद्रव्य की आय हुई। भक्तिभावित भाग्यशालियों ने रयों को अपने कंधे पर उठाकर रथयात्रा में प्रभुभक्ति का लाभ लिया। एक भी रथ में बैल नहीं जोड़े गये थे।
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इसी प्रकार इस वर्ष पू. पंन्यासजी महाराजश्री ने हिम्मतपूर्वक राधनपुर संघ में वर्षों से चली आ रहो अशास्त्रीय कुप्रथा का विरोध कर, शास्त्रानुसारो प्रणाली शुरु करने में जो दृढता का परिचय दिया वह प्रशंसनीय है । यद्यपि राधनपुर संघ में से अमुक तत्त्वों ने उनके सामने विरोध का तूफान खड़ा करने का प्रयत्न किया तथापि पू. पंन्यासजी महाराजश्रो ने तथा संघ ने शान्ति, विवेक. उदारता, बुद्धिमता तथा विचक्षणता से उसमें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की, यह सचमुच एक चमत्कार ही कहा जा सकता है।
राधनपुर में इतना विशाल वर्ग इस प्रकार शान्तिपूर्वक उल्लास एवं उत्साह के वातावरण में चतुर्विध, संघ के साथ बैठकर स्वप्न उतार कर देवद्रव्य में उसकी आय ले जाने की शास्त्रमान्यप्रणाली डालने में सफल होगा, ऐसो बात स्वप्न में भी कोई मानने को तैयार न था। फिर भी ऐसी बात बनी है, इसका श्रेय पू. पंन्यासजी महाराजश्री तथा शासनप्रेमो श्रीसंघ के अग्रगण्य व्यक्तियों की लगन, हिम्मत तथा निर्भयता को है।
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राधनपुर में हुई इस शुभ शुरुआत की अहमदाबाद में विराजमान पू. गच्छाधिपति आ. म. श्री विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज, बम्बई में विराजमान पू. आ. म. श्री विजय-रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज, पू. पं. म. श्री मुक्तिविजयजी गणिवर ( वर्तमान के पू. आ. म. श्री विजयमुक्तिचन्द्र सूरीश्वरजी म. ) और पू. म. श्री रविविजयजी गणिवर ( वर्तमान में पू. आ. म. श्री विजय रविचन्द्र सूरीश्वरजी महाराजश्री ) ने अपने हार्दिक शुभाशीष भेजकर प्रशंसा की है। साथ हो इस प्रणालो को सदा के लिए चालू रखने हेतु राधनपुर संघ को प्रेरणा प्रदान की है।
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अहमदाबाद में विराजमान पू. आ. म. श्री विजयशान्तिचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजश्री के विद्वान् प्रभावक शिष्यरत्न पू. पंन्यासजी म. श्री सुज्ञानविजयजी गणिवर श्री ( पू. आ. म. श्री विजयसोमचन्द्र सू. म. श्री ) ने, जो शेषकाल में वैशाख महीने में राधनपुर पधारे थे और जिन्होंने इस कुप्रथा का बहिष्कार करने हेतु संघ को दृढ़ता और निर्भयता की प्रेरणा दी थी, भी अपना शुभ संदेश इस प्रसंग पर भेजा था ।
उस सन्देश में उन्होंने पूज्य पंन्यासजी महाराजश्री का उक्त प्रणाली की शुभ शुरुआत करने हेतु अभिनन्दन किया है जो उनके गुणानुरागी मानस को तथा शासन मान्य प्रणाली के प्रचार हेतु लगन को सूचित करता है । वे अपने सन्देश में कहते हैं कि, 'आपश्री ने राधनपुर में साहस करके मार्गरक्षण का जो भागीरथ प्रयत्न निर्भयतापूर्वक किया है उसके लिए आपश्री को बहुत-बहुत धन्यवाद है । आपश्री का प्रयत्न शासनदेव की कृपा से बहुत ही सफल रहा है । ऐसा लक्ष्य देने वाले आपश्री जैसे विरल व्यक्ति ही होते हैं । दाक्षिण्यता में खिंचकर श्रावकों को अच्छी लगने वाली बात कहकर वाहवाही लूटने वाले व्यक्ति शासन की यथार्थ प्रणालियों को खोते जा रहे हैं । आप पूज्य श्री शासन-पक्ष को मजबूत बनाने हेतु समुचित प्रयास करेंगे, ऐसी आशा भी असंभक्ति नहीं ।'
ता. ७-१०-६६ ( वि. सं. २०२२ )
इसी तरह पाटन - सागर के उपाश्रय में विराजमान सरलस्वभावी सिद्धान्तनिष्ठ पू. आ. म. श्री कीर्तिसागर सूरीश्वरजी महाराज तथा उनके विद्वान् शिष्यरत्न पू. मुनिराज श्री त्रैलोक्यसागरजी महाराज ने भी राधनपुर में शुरु हुई इस शुभ प्रणाली
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का स्वागत करते हुए अपनी गुणानुरागिता एवं शास्त्रनिष्ठा व्यक्त की है, जो सचमुच प्रशंसनीय है । वे कहते हैं कि, 'स्वप्नों के द्रव्य में परिवर्तन करवाया, यह बहुत ही सुन्दर कार्य हुआ है परन्तु कृपया यह बतावें कि यह इसी वर्ष के लिए है या हमेशा के लिए ? यहाँ २५ प्रतिशत ज्ञान में और २५ प्रतिशत उपाश्रय
जाता है । महेनत बहुत की परन्तु यह जो देवद्रव्य में हानि होती है वह कहीं से भी प्राप्त कर जीर्णोद्धार की पूर्ति कर दी जाय ऐसा संघ को कहकर व्याख्यान वांचा है, इसलिए हमारे निमित्त से हानि नहीं होगी । वरघोड़ा की प्रणाली चालू की है यह भी बहुत उत्तम कार्यं किया है। शासन की शोभा में अभिवृद्धि है । ऐसे कार्य करके शासन की सेवा बजावें । यही ।
भा. व. २ सं. २०२२
सागर का उपाश्रय, पाटन
एक पर समुदाय के तथा सागर से भिन्न विजय शाखा के साधु ने दृढता रखकर, वर्षों से चली आती हुई शास्त्रविरोधी • प्रणाली का निर्भयता से विरोधकर, शास्त्रानुसारी प्रथा साहसपूर्वक शुरु की इसके लिए पू. आचार्य भगवन्त श्री कीर्तिसागरसूरीश्वरजी जैसे महापुरुष उस कार्य की तथा उस शुभ कार्य को शुरु करने वाले पू. पंन्यासजी महाराजश्री को जिस प्रकार हृदय के उल्लास के साथ बिना आमन्त्रण के स्वयमेव प्रशंसा करते हैं, शुभाशीर्वाद भेजकर पीठ थपथपाते हैं, वह कह देता है कि जैनशासन जयवन्त रहता है
इस वर्ष पाटण के सागर उपाश्रय में रहकर उन्होंने भी वहाँ जो स्वप्नों की उपज के अमुक भाग को साधारण खाते में ले जाने की वर्षों से चली आ रही प्रथा को जिसे वहाँ चातुर्मास करने वाले पू. मुनि भगवन्त निभाते रहे हैं, उसका दृढता से
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विरोध कर इस वर्ष के लिए तो देवद्रव्य के भक्षण पाप से संघ को बचाने में भगीरथ पूरुषार्थ कर सफलता प्राप्त की है।
जब राधनपुर में विजय गच्छ संघ और सागर गच्छ संघदोनों संघों के व्यवस्थापकों में से एक स्वप्नों की उपज का १० आनो भाग और दूसरा १६ आनी साधारण खाते में ले जाता है ।
और वह साधारण अर्थात उपाश्रय में खर्च किया जाता है, साधुसाध्वी की वैयावच्च में, उपाश्रय के नौकर को वेतन देने में खर्च किया जाता है-इस प्रकार चतुर्विध संघ देवद्रव्य के भक्षण का महान् दोषो बनता है । यह बात उनके ध्यान में आने पर उन्होंने निर्भयता पूर्वक राधनपूर के विजयगच्छ संघ के तथा सागरगच्छ संघ के वहीवटदारों को जो स्पष्ट, सचोट तथा शास्त्रानुसारी पत्र लिखा था वह उनकी शासननिष्ठा तथा सुविहित परम्परा के लिए लगन को बताता है।
विजयगच्छ संघ के कार्यवाहकों को पत्र लिखते हुए वे स्पष्ट कहते हैं कि,
'वहाँ स्वप्नों के पैसों का अमूक भाग सर्व सामान्य साधारण खाते में जाता है, यह अयोग्य है । क्योंकि स्वप्नों के पैसों का थोड़ा भी भाग सर्वसामान्य साधारण खाते में जाता हो, ऐसा एक भी गांव मिलना मुश्किल है। अत: बहुत ही विचार करना चाहिये ।
___ अहमदाबाद में सब जगह जीर्णोद्धार में जाता है। बीजापुर, साणंद, ऊंझा, डीसा, भावनगर, सिहोर, राजकोट, माटुंगा, बोरीवली, दादर, सायन, भायखला, महेसाणा आदि बड़े-बड़े नगरों में भी देवद्रव्य में जाता है, कहीं कहीं अमुक भाग साधारण
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में जाता है परन्तु वह साधारण सर्वसामान्य नहीं; परन्तु देरासर के साधारण में जाता है अर्थात् केसर-घो-पुजारी का पगार आदि में जाता है । इसलिये यह शासन की प्रणाली एक धारा में चली आ रही हैं, इसमें आ जाना ही हितकारी है।'
गतवर्ष में बोजापुर में हमारी और कैलाससागरजी की निश्रा में बहुत वर्षों से विपरीत चली आती हुई प्रणाली को बदल कर स्वप्नों के पैसे देवद्रव्य में ले जाने का ठहराव हुआ था। इस वर्ष हमने यहाँ भी व्याख्यान में जाहिर किया था कि देवद्रव्य में जितना नुक्सान पड़ेगा उतनो भरपाई कहीं से भी करानी होगी। इस प्रकार निश्चित करके ही व्याख्यान चालू किया था। उसमें से २५ प्रतिशत को जबाबदारी मैंने ली थी। इससे इस वर्ष स्वनिमित्त देवद्रव्य को एक लाल पाई की भी हानि नहीं हुई।
इस विषय में लगभग एक सप्ताह तक व्याख्यान चलाया था।। मूख्य ट्रस्टियों के विचार परिवर्तन करने के हुए हैं परन्तु संघ का का काम होने से एक अग्निकण सौ मन जुवार का नाश करता है, ऐसा होने से धीरे धीरे लाइन पर आ जावेंगे।
__आपको भी मिथ्या चली आती हुई प्रणाली को बदलकर अच्छे मार्ग पर आ जाना चाहिए । सबके साथ मिल जाना ही योग्य है । गिरते हुए का उदाहरण नहीं लेना चाहिए । उदाहरण तो चढ़ते हुए का ही लेना चाहिए।
ह. त्रैलोक्यसागर का धर्मलाम
भादवा वदी १० (वि. सं. २०२२) पाटन, सागर का उपाश्रय
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- इसी प्रकार उन्होंने राधनपुर सागरगच्छ के संघ के वहीवटदारों को भी हिम्मतपूर्वक इस शास्त्र-विरोधी प्रणाली को बिल्कुल छोड़कर देवद्रव्य भक्षण के महापाप से स्वयं बचने और संघ को बचाने हेतु पत्र लिखा था; वह भी अनेक रीति से प्रेरक
और शासनप्रेमी संघ को शास्त्रानुसारी प्रणाली में स्थिर रखने वाला है। ___ उस पत्र में वे कहते हैं कि,
'वहां स्वप्नों के पैसों का अमुक भाग सर्वसामान्य साधारण खाते में जाता है, यह जानकर बहुत ही दुःख हुआ है । हीरों की खान जैसे आपके क्षेत्र में यह शोभायोग्य नहीं है । कदाचित् ऐसा लगता हो कि बहुत वर्षों से यह चला आ रहा है। अब इसे बदलें तो नाक जाता है, तो यह भ्रमणा है ।'
'गौतम स्वामी भी भूल को माफी मांगने एक गृहस्थ के पास गये । उन्हें तो लाभ देखना था । वे पापभोरु थे। पाप की शंका वाला कार्य महापुरुष भी नहीं करते। अतः सर्वसामान्य साधारण में (वह स्वप्नराशि) ले जाना अयोग्य है।'
'क्योंकि स्वप्नों के पैसों का थोडा भाग भी सर्व-सामान्य साधारण में जाय, ऐसा सौ में से एक गांव भी मिलना कठिन है । अतः बहुत विचार करना । कडवी दवा सगी माता हो पिला सकती है, वह परिणाम में सुख देने वालो होतो है । पीठ थपथपाने वाले बहुत मिलेंगे परन्तु दुःख में भागोदार बनने को कोई खड़ा नहीं रहता।'
'अहमदाबाद में सब जगह जीर्णोद्धार में जाता है । बीजापुर, महेसाणा, साणंद, ऊंझा, डिसा, भावनगर, राजकोट, सीहोर
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माटुंगा, कपडवंज, सायन, बोरीवली, दादर, भायखला आदि बड़े-बड़े नगरों में देवद्रव्य में हो जाता है। किसी किसी जगह अमुक भाग साधारण में जाता है परन्तु वह साधारण सर्वमान्य नहीं, परन्तु देरासर के साधारण में जाता है अर्थात् केसर-घीपुजारी की पगार आदि में जाता है।' _ 'यह शासन को प्रणालिका एक धारा से चली आ रही है, इसमें आ जाना हो हितकारी है। गिरते हुए का उदाहरण नहीं लिया जाता । उदाहरण चढ़ते हुए का ही लेना चाहिए।'
'गत वर्ष बीजापुर में हमारी और आ. कैलास सागरसूरि को निश्रा में बहुत वर्षों से विपरीत चली आ रही प्रणाली में परिवर्तन करके स्वप्नों के पैसों को देवद्रव्य में कायमी तौर पर ले जाने का ठहराव कराया था।'
'इस वर्ष (पाटन-सागर के उपाश्रय में) हमने भी व्याख्यान में जाहिर किया था और देवद्रव्य में जितना नुकसान पड़े उसकी भरपाई करा देना, ऐसा निश्चित करके ही व्याख्यान चालू किया था। उसमें से २५ प्रतिशत की जबाबदारी ट्रस्टियों, ने ली थी ओर २५ प्रतिशत की मैंने ली थी। इससे इस वर्ष हमारे निमित्त से देवद्रव्य को एक पाई का भो नुक्सान नहीं पहुंचा है। इस सम्बन्ध में लगभग एक सप्ताह तक व्याख्यान भी चलाया था। मुख्य ट्रस्टियों के विचारों में परिवर्तन आया है । परन्तु संघ का काम होने से एक अग्निकण' सौ मन जुवार का नाश करता है, ऐसा होने से धीरे-धीरे लाइन पर आ जावेगा । आपको भी चलो आ रहो गलत प्रणाली को बदल कर सही मार्ग पर आ जाना चाहिए और सबके साथ मिल जाना चाहिए यही योग्य है।'
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'यहाँ एक दूसरा भयंकर पाप भी प्रविष्ट हुआ है उसका उल्लेख मैंने पिछले 'जैन' पत्र में किया है। उस लेख को बराबर पढ़ना । वह पाप आपके यहां तो नहीं होगा, ऐसा मुझे विश्वास है । यदि हो तो मुझे सूचित करना ।'
पू आ. श्री कोर्तिसागरसूरिजी महाराज की ओर से . ह. मुनि त्रैलोक्य सागर का धर्मलाभ
वि. सं. २०२२ भादवा व १०, सागर का उपाश्रय, पाटन
उक्त रीति से शासन मान्य और सुविहित परम्परानुसार स्वप्न तथा पालने की उपज देवद्रव्य में जानी चाहिए । इस प्रणाली का राधनपुर के शासन प्रेमी जैन संघ ने हिम्मत तथा दृढ़ता के साथ पू. समर्थ वक्ता पंन्यासजी महाराज श्री कनकविजयजी गणिवर श्री के सजोर उपदेश तथा निर्भय प्रेरणा से जो सुन्दर शुरुआत की है । उस प्रणाली को अब सदा के लिए श्री संघ बनाये रखे । राधनपुर में शेषकाल में तथा चातुर्मास में पधारने वाले पू. पाद सुविहित आचार्यदेवादि मुनिभगवंत इस शास्त्रानुसार प्रणाली के प्रचार हेतु और इसे वेग मिले तथा शासन प्रेमी संघ को प्रोत्साहन मिले इस तरह उपदेश देते रहे दृढ़ता से सजोर प्रेरणा करते रहे तो आशा की जा सकती है कि अभी जो चार आनो वर्ग तथा दोनों गच्छों को संघ की पेढ़ी के व्यवस्थापक पू. आचार्यदेवादि सुविहित भगवंतों से निरपेक्ष होकर अपनी मनमानी से शास्त्र, शासन तथा सुविहित परम्परा की जान बूझकर अवगणना करके दो चार व्यक्तियों के प्रभाव तथा शर्म से प्रेरित होकर अशास्त्रीय तथा वर्तमान तपागच्छ के लगभग सभी पू. पाद सुविहित आचार्य भगवंतों की आज्ञा के
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विरुद्ध स्वप्नों की उपज को देवद्रव्य के बदले साधारण में और वह भी चतुर्विध संघ के उपयोग में आवे उस साधारण खाते में ले जाने को कुप्रथा से चिपक कर समस्त संघ को देवद्रव्य के भक्षण के महापाप के भागीदार बना रहे हैं, उन सबको सद्बुद्धि प्राप्त हो और वे सन्मार्ग पर लौटे ! इसके लिये आज शास्त्रीय प्रणाली का हिम्मत और दृढ़ता के साथ निर्भय होकर प्रचार करने का प्रत्येक शासन प्रेमी धर्मात्मा का कर्तव्य है।
(ता. २०-११-६६ के कल्याण से साभार)
प्रारम्भ में बताये हए अनुसार राधनपूर के वि. सं. २०२२ के चातुर्मास में श्री सुविहित परम्परा में मानने वाले, शास्त्रानुसारो श्रद्धा रखने वाले श्री शासन प्रेमी श्री संघ की दृढ़ता से थोड़े वर्षों बाद विजयगच्छ तथा सागरगच्छ के जिन संघों ने स्वप्न को आय को देवद्रव्य में ले जाने का शास्त्रानुसारी निर्णय कर वर्षों से चली आती हुई संसारवर्धक पाप परम्परा की कारणभूत कुप्रथा का दृढता से त्याग किया, इसके लिए उन्हें जितना धन्यवाद दिया जाय, वह कम है।
जब राधनपुर के चातुर्मास में पू. पाद परम तारक परम गुरुदेवों की पूण्यमयी कृपा दृष्टि से स्वप्नों की उपज को साधारण में ले जाने की कुप्रथा का हमने विरोध करके शासन प्रेमी श्री संघ को हिम्मत दिलाकर अलग स्थान पर स्वप्न-दर्शन-स्वप्न उतारने का शुभ कार्य करने को प्रेरणा दो । उसके विरोध में राधनपुर में कितनेक कदाग्रही भाइयों ने जाहिर में विरोध करने के लिए हेन्डबिल (पर्चा) निकाला था उसे हम नीचे उद्घृत करके उसका उत्तर भी इसके बाद प्रस्तुत कर रहे हैं।] स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ]
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राधनपुर का पर्चा
ता. ६-९-६६ श्री राजनगर साधु सम्मेलन का स्वप्नों के घी संबंधो
असली-ठहराव
'जिस गांव में जिस प्रकार स्वप्नों की बोली का घी जिस खाते में ले जाया जाता हो वहां वह उसी प्रकार ले जाया जाय ।' • उक्त ठहराव ३१ मार्च १९३४ सं. १९९० चैत्र वदो १ शनिवार के दिन अखिल हिन्द मुनि सम्मेलन में हुआ था। अर्थात् स्वप्नों का घी देवद्रव्य में ले जाने के सम्बन्ध में जो प्रचार मूनि-सम्मेलन के नाम से राधनपुर में किया जा रहा है वह जैन संघ के संगठन का खण्डन करने जैसा है, यह हम श्री संघ को सूचित करते हैं।
राधनपुर में भी श्री सागर संघ ने सं. १६४३ भादवा सुदी १के दिन स्वप्नों का घी साधारण में ले जाने का सर्वानुमति से ठहराव किया है और पूज्य आत्मारामजी महाराज ने इस ठहराव को करने में कोई गलतो का न होना बताया है तथा कहा है कि श्री संघ ऐसा ठहराव कर सकता है। इसलिए स्वप्नों के घी के सम्बन्ध में जब तक असलो ठहराव है, वहां तक कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता सिवाय इसके कि अखिल भारत का श्री संघ इस प्रकार का ठहराव करे अथवा तो पूज्य आचार्य देव सर्वानुमति से निर्णय देवे । आज भी कई नगरों ओर गांवों में स्वप्नों के घी के विषय में अलग अलग ठहराव चल रहे हैं।
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[ स्वप्नद्रव्य, देवद्रव्य
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अतः राधनपुर के प्रत्येक जैन-भाई बहिन से विनति है कि रिवाज के अनुसार सागरगच्छ और विजयगच्छ में स्वप्न उतारे जावेंगे तो सब अपने-अपने संघ में जाकर आनन्द पूर्वक स्वप्नों का घी बोले और संघ में शान्ति बनी रहे ऐसा वर्ताव करे । यह हमारी भावभीनी अपील हैं।
लि. संघ के सेवक रतिलाल प्रेमचंद शाह,
देवेन्द्र बापुलाल शाह हिम्मतलाल भुदरदास पटवा, डॉ. चीमनलाल भुदरदास मक्तिलाल लेरचंद भाई
कीरतीलाल शिवलाल पारी हरगोवनदास चीमनदास पटवा, रतिलाल मणिलाल पटवा शेठ विट्टलदास धरमचंद, अरविंदलाल माणेकलाल भणसाली
राधनपुर श्री संघ में जब हमने उक्त रोति से सुविहित महापुरुषों द्वारा मान्य कल्याणकारी प्रणाली के अनुसार वि. सं. २०२२ के चातुर्मास में पर्युषणा महापर्व में स्वप्नों की उपज को देवद्रव्य में ले जाने का दृढ़ निर्णय कर लिया तो उसके विरोध रूप में उपरोक्त हेन्डबिल लगभग पर्युषणापर्व की आराधना के दिनों में प्रसिद्ध हुआ। उस समय हमें तो आराधना करनी थी और शासन प्रेमो श्री संघ को शान्ति से सुविहित परम्परांमान्य कल्याणकारी आराधना करवानी थी, इसलिए राधनपुर संघ का वातावरण दूषित न हो जाय और निरर्थक आराधना के वातावरण में विक्षेप न पड़े, अतः हेन्डबिल का जवाब न देने का निर्णय किया। तथापि असत्य का प्रतिकार करना भी सत्य की रक्षा और शास्त्रानुसारी सिद्धान्त की रक्षा का हेतु होने से आराधना ही है, यह हमारी निर्भयता पूर्ण मान्यता थी।
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स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ]
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इसलिए उक्त झूठ का प्रतिकार हो, यह इच्छनीय है,
ऐसा हमें लगा । सचमुच जैन शासन जयशील रहता है । इस सत्य की प्रतीति कराने वाला प्रसंग उस समय बना जबकि पाटण ( गुजरात ) सागर मच्छ के उपाश्रय में उस समय वि. सं. २०२२ के चातुमासार्थ विराजमान पू. आचार्य महाराजश्री कीर्तिसागरसूरि महाराजश्री ने राधनपुर के भाइयों के नाम से प्रकाशित झूठ से भरे पर्चे का सचोट, स्पष्ट, निर्भयतापूर्वक शास्त्रानुसारी प्रतिकार करके जैन शासन के सनातन सिद्धान्त की रक्षा के साथ शासन मान्य सुविहित परम्परानुसारी शास्त्रीय प्रणाली का प्रचार करने के द्वारा शासन प्रेमी संघ को प्रेरणा तथा मार्गदर्शन देने का एक धर्माचार्य के नाते अनुपम शासनप्रभावक कार्य किया है उसकी जितनी अनुमोदना - प्रशंसा की जाय वह कम है ।
उन्होंने राधनपुर के भाइयों के पर्चे का जो जबाब पर्चे द्वारा दिया वह इस प्रकार था :
( ४ )
असल ठहराव के नाम से फैलायी गई भ्रमणा का सचोट जवाब
प्राचार्य कीर्तिसागरसूरि आदि ठाणा ३
सागर का उपाश्रय, पाटन
राधनपुर मध्ये सुश्रावक को धर्मलाभ | यहां देवगुरु धर्म शान्ति होगो ? शान्ति हो !
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२०२२ आसोज वदी ११
रतिलाल प्रेमचन्द आदि भाइयों प्रसाद से शान्ति है। वहां भी
[ स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य
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आपकी तरफ से ता. ६.९-६६ को प्रकाशित असल ठहराव ता. १-११-६६ को मेरे हाथ में आया। पढ़कर बहुत दुःख हुआ। क्योंकि आपके पर्चे में राजनगर साधु सम्मेलन के नाम से हलाहल झूठ वाला लेखन बाहर पड़ा है। मैंने स्वयं पट्टक मंगवाकर पढ़ा है । उसमें ११ मुद्दों पर चर्चा हैं । दूसरा मुद्दा देवद्रव्य सम्बन्धी है; वह इस प्रकार है:
कलम . -'प्रभु के मन्दिर में या मन्दिर के बाहर, चाहे जिस स्थान पर प्रभु के निमित्त से जो जो बोली बोली जाय वह सब देवद्रव्य गिना जाय।'
१ प्रश्नः- (१४) स्वप्न किस कारण से आये ?
उत्तर:-भगवान् गर्भ में पधारे इसलिए १४ स्वप्न आये। २ प्रश्नः-पालना किसका ?
उत्तरः-त्रिशला का नहीं ? नंदिवर्धन का नहीं ? परन्तु प्रभु का पालना है।
. उल्टे मार्ग पर चलने वाले को जो पाप होता है उससे अनेक गुना पाप उल्टो बात रखने वाले को लगता है। यह तो उत्सूत्र प्ररूपणा कही जा सकती है । आगे चलकर श्री आत्मारामजी का जो मन्तव्य बताया है वह भी उनके साहित्य को असत्य ठहराता है । क्योंकि
अमृतसर में स्थानकवासी साधु अमरसिंहजी ने १०० प्रश्न पूछे हैं। उनके उत्तर आत्मारामजी महाराज ने दिये हैं और उनके शिष्य लक्ष्मीविजय जो महाराज ने उनका संग्रह किया है । आचार्य वल्लभसूरिजी ने 'ढुंढक हितशिक्षा' पुस्तक के पृष्ठ ८४ पर उनको
स्वप्नद्रव्य, देवद्रव्य ।
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प्रकट किये हैं। उनमें ९ वें प्रश्न में पूछा है कि 'आप स्वप्न उतारते हो और नीलाम करते हो, वह किसलिए ? उसके उत्तर में श्री आत्मारामजी महाराज ने बताया है कि, 'शासन की शोभा के लिए तथा देवद्रव्य की वृद्धि के लिए हम स्वप्न उतारते हैं।' उनकी मान्यता को आचार्य कमलसरि, उपाध्याय वीरविजयजी महाराज, प्रवर्तक कान्तिविजयजी महाराज, मुनि मविजयजी महाराज, मुनि चतुरविजयजी महाराज, शिष्य-प्रशिष्य मानते आये हैं । यह उनके पत्रों से सिद्ध होता हैं । वे पत्र हमारे पास हैं । ( जिनको देखना हो, देख सकते हैं। )
- आपने आगे लिखा है कि, 'आचार्य सर्वानुमति से निर्णय देवें तो हो ठहराव में परिवर्तन किया जा सकता है।' इस अपने वाक्य से हो आप बँध जाते हैं । क्योंकि आपने १९४३ के साल में ठहराव किया है; ऐसा आप कहते हैं, तो पू. आत्मारामजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् १६६० के वर्ष में राजनगर सम्मेलन में आचार्यों ने सर्वानुमति से ठहराव किया है कि, 'प्रभुनिमित्त जो जो बोली बोली जाय वह सब देवद्रव्य कहा जाता है।' इससे पूर्व की मान्यताएँ, प्रमाण और प्रणालियाँ रद्द हो जाती हैं एवं पट्टक प्रमाण बन जाता है। इसलिए आपको अपने शब्दों से ही वैसा परिवर्तन कर लेना चाहिए । एक छोटा बालक भी यह समझ सकता है परन्तु भवभीरुता बिना यह समझ में नहीं आता।
पर्चे के अन्त में लिखा है कि-'आप भी कई शहरों और गावों में अलग-अलग रिवाज है।' यह लिखना भी अतिशयोक्ति है क्योंकि भारत में जैनों की वसति वाले जितने शहर और गांव हैं, उनकी गिनती करें तो, स्वप्न और पालने के पैसे ज्ञान खाते में, उपाश्रय में, या सर्वसामान्य साधारण खाते में ले जाने वाले
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शहर या गांव पांच प्रतिशत भी मिलना मुश्किल है । सज्जन लोग गिरते हुए का उदाहरण नहीं लिया करते । विवेकी मनुष्य विष खाने की इच्छा नहीं करता।
विपरीत प्ररूप्रणा सम्यक्त्व का नाश करती है, भवभ्रमण को बढ़ाती है । मरीची एक ही वाक्य झुठा बोला तो अनन्त संसार बढ़ गया। हित दृष्टि से यह लिखा जा रहा है । अतः भूल का प्रायश्चित्त कर, क्षमा मांगकर शुद्धि करना हो हितकर और कल्याणकारी है। हमने यहाँ पर्युषण में स्वप्न-निमित्त जो देवद्रव्य को नुक्सान होगा उसकी भरपाई कर दिये जाने की शर्त पर व्याख्यान में जाहिरात करके पर्व की आराधना की थी।
अतः संघ विचार करके पुरानी प्रणाली में परिवर्तन करे। गतवर्ष आचार्य भगवन्त की निश्रा में बिजापुर में बहुत समय से चली आ रही गलत प्रणाली को बदल कर स्वप्न के पैसे कायमी रूप से देवद्रव्य में ले जाने का ठहराव कराया था। वहाँ संघ के बारह आनी भाग ने स्वप्न अलग उतार कर देवद्रव्य की वृद्धि की, यह प्रशंसनीय और अनुमोदनीय है ।
द. मुनि त्रैलोक्यसागर का धर्मलाभ
राधनपुर के कतिपय भाइयों के पर्चे के उत्तर में तथा उनके द्वारा फैलाये गये भ्रम का सचोट प्रतिकार शास्त्रानुसार करने के उद्देश्य से पू. आ. म. श्री कीर्तिसागरसूरीश्वरजी महाराजश्री की ओर से उनके विद्वान धर्म की दृढ़ भावना वाले सत्यप्रिय मुनिराजश्री त्रैलोक्यसागरजी महाराज ने उपरोक्त पर्चे का प्रकाशन करवाया। तत्पश्चात् इस बात पर विशेष प्रकाश डालने वाली छोटी-सी पुस्तिका भी प्रकाशित करवाई। उसमें उन्होंने
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इसी बात का समर्थनकरने वाला लेख पुस्तक के प्रारम्भ में लिखा है । उसमें का कितना ही अंश तो उपरोक्त पर्चे में उल्लिखित बात का पुनरावर्तन है तथापि वह अवतरण उपयोगी और प्रासंगिक होने से यहाँ पुनः उद्धृत करना उचित समझते हैं ।
राधनपुर के पर्चे का मुंहतोड़ जबाब
प्राचार्य कीतिसागरसूरि आदि सागर का उपाश्रय, पाटण
सं. २०२२ आसोज राधनपुर का पर्चा ता. १-११-६६ को मेरे हाथ में आया । उसको पढ़कर बहुत दुःख हुआ । क्योंकि उस पर्चे में सम्मेलन के पट्टक के नाम पर हलाहल झूठा बयान है । पट्टक मंगवाकर पढ़ा। उसमें ११ मुद्दे हैं । दूसरा मुद्दा देवद्रव्य के संबध में है। उसकी दूसरी कलम इस प्रकार है :
'प्रभु के मन्दिर में या मन्दिर के बाहर, चाहे जिस स्थान पर प्रभु के निमित्त जो बोली बोली जाय वह सब देवद्रव्य कहा जाता है।'
विपरीत मार्ग पर चलने वाले को पाप लगता है उसकी अपेक्षा अनेक गुना पाप विपरीत बात प्रस्तुत करने वाले को लगता है । यह तो उत्सूत्र प्ररूपणा है।
आगे जाकर श्री आत्मारामजी म. का जो मन्तव्य बताया है वह भी साहित्य को देखते हुए असत्य ठहरता है क्योंकि अमृतसर में अमरसिंहजी स्थानकवासी साधु ने १०० प्रश्न पूछे थे उनका उत्तर आत्मारामजी म. ने दिये हैं। उनके शिष्य लक्ष्मी
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विजयजी महाराज ने उनका संग्रह किया है और आचार्य वल्लभसूरि ने ढुंढक हितशिक्षा पुस्तक में पृष्ठ ८३ पर उन्हें प्रकट किया है। उनमें से नौवें प्रश्न में पूछा गया है कि 'आप स्वप्न उतारते हो, नीलाम करते हो, वह किसलिए? उसके उत्तर में आत्मारामजी म. ने कहा कि, 'शासन की शोभा के लिए और देवद्रव्य की वृद्धि के लिये हम स्वप्न उतारते हैं।'
उनकी आज्ञा को आ. कमलत्रि म,, उपाध्याय वीरविजयजी, प्रवर्तक शान्तिविजयजी, मुनि हसविजयजी, मुनि चतुरविजयजी आदि शिष्य-प्रशिष्य पालते आये हैं । यह उनके पत्रों से सिद्ध होता है । वे पत्र हमारे पास हैं। (जो देखना चाहें देख सकते हैं।)
उन पत्रों में से एक नमुना :
भाननगर से मुनि भक्तिविजयजी द्वारा लिखे हुए पत्र का उत्तर देते हुए मुनि चतुरविजयजी लिखते हैं कि 'पाटण संघ की तरफ से आपके लिखे अनुसार ठहराव हआ हो ऐसा हमारे सुनने में या अनुभव में नहीं आया है परन्तु पोलिया के उपाश्रय में अर्थात् यती के उपाश्रय में बैठने वाले स्वप्नों की आय में से अमुक भाग उपाश्रय खाते में लेते है, ऐसा सुनने में आया है।' ' 'जब पाटण के संघ में ऐसा ठहराव हुआ ही नहीं तो गुरु की अनुमति-सम्मति कहां से हो सकती है ? यह स्वयं विचार कर लेना चाहिए । विघ्नसन्तोषी, व्यक्ति दूसरों को हानि करने हेतु यद्वा तद्वा करें, उससे क्या? यदि किसी के पास महाराज के हाथ की लिखित कलम निकले तब तो ठीक, अन्यथा लोगों के गप्पों पर विश्वास नहीं करना।'
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- मेरी जानकारी में तो किसी भी समय ऐसा प्रसंग नहीं आया जब स्वप्नों के पैसों को उपाश्रय में खर्च करने की सम्मति दी हो।
. द. मुनि चतुरविजय ( ता. ७-६-१७ के पत्र में )
इसी प्रकार मुनि श्री हँसविजयजी से पालनपुर के श्रीसंघ ने आठ प्रश्न पूछे थे। उनमें से तोसरे प्रश्न में पूछा गया है किस्वप्नों के घी की आय किसमें लगाई जाय ? उत्तर में कहा गया है कि, 'इस सम्बन्धी अक्षर किसी पुस्तक में मुझे दृष्टिगोचर नहीं हए परन्तु सेन प्रश्न और हीर प्रश्न नाम के शास्त्र में उपधान माला पहिनने के घी को उपज को देवद्रव्य में गिनो है। इस शास्त्र के आधार से कह सकता हूं कि स्वप्नों की उपज को देवद्रव्य माना जाय।
। 'इस विषय में मेरे अकेले का हो ऐसा अभिप्राय है, ऐसा नहीं समझना चाहिए। पू. आचार्य श्री कमलसूरिजी तथा उपाध्याय श्री वीरविजयजो तथा प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी आदि महात्माओं का भी ऐसा ही अभिप्राय है कि स्वन्नों की आय को देवद्रव्य माना जाय।
आप आगे चलकर लिखते हो कि, 'आचार्य सर्वानुमति से निर्णय देवें तो ही ठहराव में परिवर्तन किया जा सकता है।' इस प्रकार के आपके वचनों से आप स्वयं बँध जाते हो क्योंकि आपने १९४३ के वर्ष में ठहराव किया है और आत्मारामजी म. के स्वर्गवास के पश्चात् सं. १९९० के सम्मेलन में आचार्यों ने सर्वानुमति से ठहराव किया है कि, 'प्रभु निमित्त जो जो बोली बोली जाय वह सब देवद्रव्य कहा जाता है। इससे पूर्व की मान्यताएँ,
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अभिप्राय प्रणालियाँ आदि रद्द हो जाती हैं और पट्टक प्रमाण बन जाता है।
( विशेष बात यह है कि सर्व आचार्यों की सम्मति के बिना आप ठहराव भी नहीं कर सकते । ऐसा ठहराव करना पहली भूल है और उसे न बदलना दूसरी भूल हो रही है । )
अतः आपके वचनों से ही आपको परिवर्तन करना चाहिए। एक छोटा बालक भी समझ सके ऐसी बात है परन्तु पापभीरुता बिना समझ में नहीं आती।
. अन्त में लिखा है कि 'आज कई शहरों और गांवों में अलगअलग रिवाज है।' यह भी अतिशयोक्ति है । क्योंकि भारत में जैनों की वसति वाले जितने शहर और गाँव हैं उनकी गिनती करने वर स्वन्नों के पैसे उपाश्रय, ज्ञान, या सर्वसामान्य साधारण खाते में ले जाये जाते हों ऐसे शहर या गांव पांच प्रतिशत भी मिलना मुश्किल है। . विपरीत प्ररूपणा सम्यक्त्व का नाश करने वाली है। मरोची एक वाक्य झूठा बोला तो उसका अनन्त संसार बढ़ गया। . यह हितदृष्टि से लिखा जा रहा है । अतः भूल की क्षमा मांग कर शुद्धि कर लेना कल्याणकारी है।
- हमने भी यहां पर्युषण में स्वप्न-पालना निमित्त जो देवद्रव्य को नुक्सान पहुंचेगा उसको भरपाई कर दी जावेगी ऐसी व्याख्यान में जाहिरात करने के पश्चात् स्वप्न उतारने में भाग लिया था। .
__ इस वर्ष राधनपुर संघ के बारह आनी भाग ने अलग स्वप्न उतार कर उसकी आय को देवद्रव्य में ले जाने का निर्णय किया है, वह प्रशंसनीय है।
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.
गत वर्ष हमारी निश्रा में बीजापुर में बहुत समय से चली आ रही विपरीत प्रणाली को बदल कर स्वप्नों के पैसों को कायमी रूप से देवद्रव्य में ले जाने का निर्णय करवाया था।
इसी प्रकार बम्बई लालबाग में भी आ. रामचन्द्रसूरि के सदुपदेश से स्वप्नों को बोलो के पैसे कायमी रूप से देवद्रव्य में ले जाने का निर्णय किया गया था। .
सं. २०२० के वर्ष में मलाड़ में भी पंन्यास सुदर्शनविजयजी के सदुपदेश से स्वप्नों की बोली पर लगाया गया अधिभार (सरचार्ज) सदा के लिए रद्द कराया गया था।
इसी प्रकार पार्ला (इर्लाब्रिज) और मलाड़ में बोली पर लगाया हुआ सरचार्ज भी उन्होंने रद्द करवाया है।
द. : मुनि त्रैलोक्यसागर
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प्रकरण [४]
[ पूज्य आचार्य म. श्री कोतिसागरसूरीश्वरजी महाराज ने राधनपुर के कतिपय भाइयों द्वारा फैलायी गई भ्रमणा का जो स्पष्ट और सचोट प्रतिकार उपरोक्त पर्चे एवं पुस्तिका द्वारा किया, इसी तरह शासन मान्य सुविहित परम्परानुसारी प्रणाली के अनुसार स्वप्नों की उपज को देवद्रव्य में ले जाने की शास्त्रीय मान्यता रखने वाले गीतार्थ पू. आचार्यादि महापुरुषों ने भी राधनपुर के रतिलाल प्रेमचन्द आदि भाइयों के उस पर्चे का उत्तर स्पष्ट एवं सचोट रीति से देकर शासनमान्य सुविहित शास्त्रीय प्रणाली को जो पुष्टि प्रदान की है, उसके लिए उन सुविहित महापुरुषों की अपूर्व एवं अनुपम शासन रक्षा की हार्दिक लगन तथा स्वप्न की आय को देवद्रव्य में ही ले जाने की शास्त्रानुसारी प्रणाली को अखण्ड बनाये रखने की भावना की जितनी उपबृहणा (प्रशंसा) करें उतनी कम है।
राधनपुर के पर्चे का जबाव देने वाले तथा उसका सचोट प्रतिकार करने वाले अभिप्राय जिन जिन सुविहित महापुरुषों ने प्रकट किये हैं और जो पू. आ. म. श्री कीर्तिसागरसूरीश्वरजी म. श्री की ओर से प्रकाशित पुस्तिका में प्रकाशित हुए हैं, वे यहाँ उद्धृत किये जा रहे हैं। [ये अभिप्राय वि. सं. २०२२ में व्यक्त किये गये हैं।]
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पूज्यपाद शासनमान्य सुविहित आचार्यदेव आदि
के अभिप्राय
(१)
पू. आ. विजय शान्तिचन्द्रसूरिजी म. ,
.., अहमदाबाद, सारंगपुर आसोज वदी ७ राधनपुर के संघ द्वारा छपाया गया पर्चा झूठ से भरा है उसकी सिद्धि के लिए हमने एक पूर्वापर उदाहरणसहित पर्चा तैयार किया है।
पू. आत्मारामजी तथा आ. वल्लभसूरिजी स्वप्नों की आय को देवद्रव्य में ले जाने की मान्यता रखते थे, ऐसा स्पष्ट प्रमाण पूर्वापर उदाहरणों के साथ इस पर्चे में देने की भावना है । साथ हो साथ सम्मेलन के नियम का भंग पू. आत्मारामजी और आ. वल्लभसूरीजी के नाम पर वे नहीं कर सकते।
लि. पंन्यास सुज्ञानविजय
पू. प्राचार्य कैलास सागरसूरिजी म., सीहोर
आसोज वदी ७ स्वप्नों की आय के विषय में मुनि सम्मेलन का प्रस्ताव निम्न अनुसार है।
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'प्रभु के मन्दिर में या मन्दिर के बाहर चाहे जिस स्थान पर प्रभुजी के निमित्त जो जो बोली बोली जाय वह सब देवद्रव्य कहा जाता है ।
उक्त ठहराव के अनुसार वर्ताव करना चाहिये । इससे विपरीत आचरण, शास्त्र तथा परम्परा की आज्ञा के विरूद्ध ही कहा जाएगा ।
राधनपुर संघ के भाइयों द्वारा की गई जाहिरात मुनि सम्मेलन द्वारा सम्मत नहीं है ।
( ३ )
पू. पंन्यासजी म. श्री कंचनविजयजी म. धानेरा ( पू. आ. म. श्री विजयकनकप्रभ सू. म. )
आसोज वदी ७ आपने जो राधनपुर के पर्चे का विरोध किया है वह समुचित है। हम इस विषय में आपसे सम्मत हैं ।
धर्मपुरी कहे जाने वाले राधनपुर नगर में पट्टक और पू. आत्मारामजी महाराज के बहाने अनर्थ हो रहा है अतः साधुभगवंतों को यथा योग्य करके उनको ठिकाने लाना चाहिए ।
( ४ )
पू. पं. म. श्री राजेन्द्रविजयजी म. जावाल ( मारवाड़) ( पू. आ. म. श्री विजय राजेन्द्रसूरिजी म )
आसोज वदी ७
राधनपुर के हेन्ड बिल में
मुनि सम्मेलन के असल ठहराब के नाम से जो पंक्ति लिखो गई है वह सर्वथा मिथ्या है; ऐसा ठहराव हुआ ही नहीं ।
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पू. पं. म. श्री प्रभावविजयजी म. उरण . (पू. आ. म. श्री वि. प्रसन्नचन्द्र सू. म. ) ..
___ आसोज वदी ७ राधनपुर का पर्चा पढ़कर दुःख के साथ कहना पड़ता है कि राधनपुर जैसे धार्मिक क्षेत्र के लिए तो ऐसा ठहराव या यह वृत्ति लांछनरूप ही है।
मुनि सम्मेलन ने जो ठहराव किये थे उसमें आत्मारामजी म. के विजयवल्लभ सूरि महाराज तथा मुनिराज श्री विद्याविजयजी आदि मुनिवर्य उपस्थित ही थे । उन सबके समक्ष द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का अनुसरण करके ही ठहराव किये गये हैं। इसलिए हमें तथा प्रत्येक संघ को सम्मेलन के ठहरावों के अनुसार ही वर्ताव करना चाहिए । यही उचित है । शासनदेव सबको सद्बुद्धि दें, यही अन्तरेच्छा।
...पू. प्रा. म. वि. भुवनतिलकसूरिजो भ.
... बम्बई-दादर आसोज वदी ८ श्री प्रभुजी के पांचों कल्याणक सम्बन्धी बोलियां जहां कहीं बोली जाय वे सब देवद्रव्य ही हैं । प्रभुजी के निमित्त से स्वप्न आये हैं अतः स्वप्न-पालना आदि का द्रव्य देवद्रव्य गिना जाना चाहिये और उसे देवद्रव्य में ले जाने का प्रयास करना चाहिए। मुनि सम्मेलन में इसी आशय का ठहराव हुआ है। राधनपुर के कुछ भाइयों ने जो ठहराव प्रकाशित किया है, वह विरुद्ध है । उसके साथ मेरा विरोध है ।
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( ७ )
पू. पंन्यासजी म. श्री अशोकविजयजी म..
डेला का उपाश्रय, अहमदाबाद
आसोज वदी ८
यहाँ सब उपाश्रय में जो स्वप्नों की बोली, बोली जाती M है वह सब रकम देवद्रव्य में जाती है और यहां भी आनन्दजी कल्याणजी को जीर्णोद्धार कमिटि को वह रकम सौंपी जाती है । बाहर भी प्रभु के निमित्त जो बोलो बोली जाती है, वह सब देवद्रव्य में ही जाती है ।
मुनि सम्मेलन के पट्टक में भी इसी तरह का ठहराव है। आपश्री ने स्वप्नों की उपज को साधारण में ले जाने वालों के. प्रति विरोध प्रकट किया है, वह उचित ही है ।
( ८ )
पू. गरिणवर्य श्री श्रभयसागरजी म. कपडवंज ( पू. पं. स. श्री अभयसागरजी म.)
आसोज वदी ८
राधनपुर का पर्चा पढ़कर बहुत ही दुःख हुआ । अभिनिवेश के कारण जीव कालदोष से कैसी बेहूदी बातों का प्रचार करते हैं । शासनदेव से प्रार्थना है कि उनको मोह को निद्रा में से जागृत करे, बहुत ही अवांछनीय खोटे प्रयत्न से वे अपने आपको बचावें |
स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ]
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पू. पंन्यासजो म. श्री राजविजयजी म. महेसाणा (पू. आ. म. श्री बि. राजतिलक सू. म.)
आसोज वदी ९ राधनपुर संघ की ओर से प्रकाशित हेन्ड बिल पढ़ा। उन्होंने सर्वथा झूठा लेख लिखकर दूसरे संघों को भ्रम में डालने का बालिश प्रयत्न किया है। सं. १९९० के साधु सम्मेलन में सर्वानुमति से स्वप्नादिक को जो बोली मन्दिर के बाहर प्रभुजी के निमित्त से बोली जाय वह सब देवद्रव्य में जाय, इस प्रकार सब आचार्यों के हस्ताक्षरों से युक्त पटक जाहिर हआ है। स्व. प्नादिक की बोली का सब द्रव्य देवद्रव्य में जाता है यही सत्य है। उसे साधारण में ले जाने का राधनपुर के भाइयों का आग्रह मिथ्या है।
पू. आत्मारामजी म. के नाम से भयंकर झूठा लेख लिखकर दूसरों को उन्मार्ग में ले जाने का भ्रामक प्रयास किया है ।
(१०) पंन्यास निपुणमुनि (महुवा) (पू. आ. म. श्री निपुण तम सूरि म.)
आसोज वदी ९
राजनगर में श्रमण संघ ने जो ठहराव किया है उससे हम सब सहमत हैं।
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यू. पंन्यासजी मंगलविजयजी म. पादरली (मारवाड़) (आ. म. श्री वि. मंगलप्रभसूरि म.-पू. आ. म. श्री विजयनीति सूरीश्वरजी म. के गच्छनायक)
___आसोज वदी ९ राधनपुर के पर्चे को पढ़कर यह बताना जरूरी हो गया है कि कंटक बहुल शासन में स्वार्थो सुधारवादी आप्त पुरुषों की मर्यादा का नाश करते हैं । अज्ञानी स्वच्छंद मतियों के टोले संघ बनकर प्रामाणिक पुरुषों की न्यायदृष्टि का लोप करते हैं और शासन की-संघ को छिन्नभिन्न दशा कर डालते हैं। तथापि प्रभु का जयशील शासन इकवीस हजार वर्ष तक चलने वाला है । गीतार्थ संवेगी श्रमणसंघ की छत्रछाया में चलने वाला संघ ही सच्चा प्रामाणिक संघ है । अतः भवभीरुओं को तर्कवाद में, पक्षवाद में न पड़ते हुए स्वार्थ परायण व्यक्तियों पर दया करते हुए स्वदयापूर्वक वर्ताव करना चाहिये । गौतम स्वामी या सिद्धसेन दिवाकरसूरि जैसे व्यक्ति प्रमादवश भूल कर सकते हैं परन्तु भवभीरु होने से कदाग्रही नहीं होते । जब कि वर्तमान तर्कवादी समाचार पत्रों या पर्चों द्वारा यद्वा तद्वा प्रचार करते हैं और आप्त मर्यादा का नाश करने में गौरव समझते है । यह कृष्णपक्षियों का प्रचार कंटक बहुल रूप है। ,
चवदह स्वप्नों को प्रभु के च्यवन कल्याणक रूप मानकर अहमदाबाद का संघ आज तक उस राशि को देवद्रव्य में ही ले जाकर जीर्णोद्धार में खर्च करता है।
डेला के उपाश्रय में प्रायः पंन्यासजी म. रूपविजयजी के समय देवद्रव्य की वृद्धि का हेतु च्यवन कल्याणक मनाकर च्यवन
स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ]
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कल्याणक और जन्म कल्याणक मनाया जाता है और उस डेला की मर्यादा के अनुसार अहमदाबाद का संघ पूर्व मर्यादा में ही आराधक हुआ है, अतः भवभीरु तो 'सहाजनो ये न गतः स पन्थाः ' का अनुसरण करता है ।
(१२)--
पू. आचार्य म. प्रतापसूरिजी म.
शान्ताक्रूझ, बम्बई आसोज वदी ९
राधनपुर के भाई या कोई भी व्यक्ति मनः कल्पित बातें संसार सम्बन्धी चाहे जो करे परन्तु आगम, शास्त्र में मनमानी नहीं चल सकती । आराधक भव्य आत्मा तो केवली भगवन्त के आगम-शास्त्र और उनकी आज्ञा में गीतार्थ भगवन्तों को परम्पराआचरणा अनुसार हो चलते हैं और चलना चाहिये - इसमें अपनी कल्पना या मनमानी तनिक भी काम नहीं आती। जो लोग अलगअलग निराधार प्रमाण किसी के नाम से देते हैं वे अपनी आत्मा को ठगते हैं । ज्ञानी भगवन्त उन पर दया करने की बात कहते हैं ।
मैं पूज्य ज्येष्ठ गुरुओं की धारणा के आधार पर मानता हूं कि स्वप्न - अर्थात् तीर्थंकर देव की माता को आये हुए चवदह स्वप्नों की उपज तथा पालने की उपज - चाहे वह एक पाई-पैसा हो या लाखों रुपये हों - पूरी की पूरी देवद्रव्य खाते की हो है । मेरी बुद्धि के अनुसार दृढतापूर्वक मैं उनको चुनौती देता हूं जो इसमें परिवर्तन करते हैं । जो लोग आराधना की तरफ दृष्टिपात न करते हो और अपनो सत्ता, वहीवट या इच्छा के अनुसार चलते हों वे भले ही इसे न मानें परन्तु मैं तो तनिक भी उनसे सहमत नहीं हो सकता ।
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[ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
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(१३)
पू. चिदानन्द मुनिजी म. वापी
( पं. म. श्री चिन्दानन्द मुनिजी )
आसोज वदी १०
इस काल में बहुत से भारीकर्मा जीव वक्र और जड़ गुण के प्रताप से श्री देवद्रव्य जैसे पवित्र द्रव्य का दुरुपयोग करके शासन की आशातना का महाभयंकर पाप ले रहे हैं । शासनदेव उनको सद्बुद्धि दें। इस अवसर पर अपना कर्त्तव्य है कि शक्ति लगाकर उन्हें इस पाप से रोकें ।
(१४) पू. पंन्यासजी म. श्री भद्रंकरविजयजी म. (आ. लब्धिसूरिजी म. के) ( पू. आ. म. श्री वि. भद्रंकर सू. म. ) सोलार
आसोज वदी १०
राधनपुर के भाइयों नें मुनि सम्मेलन के नाम से स्वप्नों का घी साधारण में ले जाने का ठहराव ढूंढ निकाला है परन्तु उन ठहरावों को नकल को देखते हुए ऐसा कोई ठहराव हुआ ही नहीं है । परन्तु लोगों में प्रिय बनने के लिए राधनपुर के इन भाइयों ने मनघडन्त ठहराव कर लिया है; सो ज्ञानें ।
( १५ )
आचार्य म. श्री विजयदेवेन्द्रसूरि म.
भुज (कच्छ) आसोज वदी १०
राधनपुर का पर्चा पढ़कर हमें भी दुःख हुआ है कि राधनपुर जैसी धर्मधुरी नगरी के श्रावकों ने पू. आत्मारामजी म. सा. के नाम से पर्चे में जो लिखा है और जिस ठहराव का उल्लेख
स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ]
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किया है, वह उचित नहीं है। ऐसे महापुरुष के नाम से ऐसा खोटा लिखना राधनपुर जैसी धर्म नगरी के श्रावकों के लिए शोभा रूप नहीं है अतः उस भूल को सुधार लेना चाहिए ।
(१६)
सिद्धान्त महोदधि आचार्य श्री विजयप्रेमसूरि म.
दशा पोरवाड सोसायटी, अहमदाबाद आसोज व. ११
1
राधनपुर वालों ने सम्मेलन के ठहराव के रूप में छापे हुए अक्षर मिथ्या है । सम्मेलन ने ऐसा ठहराव किया ही नहीं । इसके विपरीत उपधान माल आदि उपज देवद्रव्य में ले जाने का ठहराया । आदि पर से स्वप्न द्रव्य को देवद्रव्य में लेने की सूचना को है । राधनपुर के अमुक व्यक्ति पू. आत्मारामजी म. सा. के नाम से स्वप्न द्रव्य साधारण में लेने का रिवाज चला रहे है वह भी दंभ है ।
( १७ )
पू. आचार्य म. यशोदेवसूरि म.;
मालेगाव (महाराष्ट्र ) आसोज वदी ११
सं. १९९० में अहमदाबाद में अखिल भारतीय मुनि सम्मेलन हुआ था । उसमें पट्टक रूप में जो ठहराव हुए हैं उनमें देवद्रव्य सम्बन्धी जो ठहराव हुआ है उससे राधनपुर के हेन्ड बिल का ठहराव विरुद्ध है । इसलिए राधनपुर के हेन्ड बिल प्रकाशित करने वाले रतिलाल प्रेमचंद आदि ने श्रमण - सम्मेलन का पूरी तरह द्रोह किया है, ऐसा में अनुभव करता हूं । ऐसा करके वे घोर पाप के भागी भी बने हैं ।
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(१८)
पू. पंन्यासजी सुदर्शन विजयजी म. ( पू. आ. म. श्री वि. सुदर्शनसूरि म. )
इर्लाब्रिज (वीलेपार्ला ) बम्बई आसोज वदी ११
पू. आत्मारामजी महाराज के नाम से जो बात कही गई है वह पहले 'प्रबुद्ध जीवन' में भी छपी है । उसके प्रश्नकार में प्रबुद्ध जीवन के १६-१-६५ के अंक में सुबोधचन्द्र नानालाल ने आचार्य वल्लभसूरि द्वारा प्रकाशित ढुंढक हित शिक्षा नामक पुस्तक में से पू. आत्मारामजी म. के शब्द उद्धृत किये हैं- जिसमें स्पष्ट लिखा है कि- 'सपने उतारना, घी बोलना इत्यादि धर्म की प्रभावना और जिन द्रव्य की वृद्धि का हेतु है ।' इतने स्पष्ट विधान के होते हुए उनके नाम से मिथ्या प्रचार करना केवल अपना ठहराव ही है, ऐसा मुझे लगता है ।
( १९ )
पू. आ. जयंतसूरि म. तथा पू. आ. विक्रमसूरि म.
धुलिया (खानदेश) कार्तिक सुदी २
राधनपुर से ता. ६-६ - ६६ का 'राजनगर साधु सम्मेलन का स्वप्नों के घी के सम्बन्ध में अलग ठहराव' नामक हेण्ड बिल में राजनगरं मुनि सम्मेलन का ठहराव लिखने में आया है वह सर्वथा मन घडन्त है। देवद्रव्य के विपरीत ऐसे लेख छपवा कर जनता को उल्टे रास्ते ले जाने का दुष्ट प्रयत्न शासन की प्राप्ति को दुर्लभ बनाता है ।
सम्मेलन का ठहराव तो है - प्रभु के निमित्त जो जो बोली बोली जाय वह देवद्रव्य कहा जाता है । स्वप्न की बोली प्रभु के निमित्त होती है अतः देवद्रव्य में ही जानी चाहिये ।
स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ]
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(२०) पू. आ. म. विजयलक्ष्मणसूरि महाराज, सिरोही (राजस्थान)
का. सु. ४ 'प्रभु के मन्दिर में या मन्दिर के बाहर चाहे जहाँ प्रभु के निमित्त जो जो बोली बोली जाय वह सब देवद्रव्य कहा जाता है।' यह बात सर्वथा सत्य और उचित है।
(२१) . पू. उपाध्यायजी म. धर्मसागरजी म.
का. सु. ४ राधनपुर के कुछ भाइयों का स्वप्न द्रव्य संबंधी चर्चा योग्य नहीं है । सं १९९० के पट्टक में स्पष्ट है कि (२) प्रभु के मन्दिर में या बाहर चाहे जिस स्थान पर प्रभु के निमित्त जो बोली बोली जाय वह देवद्रव्य गिना जाय।
तत्त्पश्चात् सं २०१४ में समग्र श्रमण संघ ने मिल कर स्पष्ट लिखित घोषणा की है कि प्रभु के मन्दिर या मन्दिर के बाहर चाहे जिस जगह प्रभु के पांच कल्याणक निमित्त तथा माल परिधानादि देवद्रव्य वृद्धि के कार्य से आया हुआ द्रव्य, देवद्रव्य कहा जाय।
इसमें मुनि पुण्य विजयजी आदि सब के हस्ताक्षर हैं । उन्होंने सम्मिलत रह कर ही यह लिखवाया है।
इससे राधनपुर वाले भाइयों की यह दलील-'समग्र श्रमण संघ सर्वानुमति से निर्णय दें'-यह बात भी आ जाती है ।
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(२२) पू. आचार्य महाराज माणिक्यसागरसूरिजो म. जामनगर (पू. सागरजी म. श्री के समुदाय के गच्छनायक) का. सु. ५
राजनगर साधु सम्मेलन के पट्टक में 'प्रभु के मन्दिर में या मन्दिर के बाहर चाहे जिस जगह प्रभु के निमित्त जो बोली बोली जाय वह सब देवद्रव्य कहा जाय'-इस प्रकार लेख है । पर्चे में पट्टक के नाम से जो लेख लिखा है वह मिथ्या है।
(२३)
पू. आचार्य म. जम्बूसूरिजी महाराज,
पालीताणा का. सु. ५
राधनपुर के हेण्डबिल में जो अखिल सम्मेलन के ठहराव से 'स्वप्नों की बोली का घी जिस गाँव में जिस खाते में ले जाया जाता हो वहाँ उसी प्रकार ले जाया जाय' कहा गया है, वह ठीक नहीं हैं।
राधनपुर के पर्चे में सं. १९४३ भा. सु. १ को पू. आत्मारामजी महाराज की सम्मति से स्वप्नों का घी साधारण में ले जाने का संघ ने ठहराव किया है, ऐसा लिखा गया है परन्तु उसमें पू. आत्मारामजो म. की सम्मति वाली बात हमको सत्य नहीं लगती। यह पूरा ठहराव संशयास्पद है। उससे प्रभावित नहीं होना चाहिये । क्योंकि पू. आत्मारामजी म. श्री ने ढुंढणी पार्वती.. बाई के प्रश्न के उत्तर में स्वप्न-पालना का घी देवद्रव्य में ले जाने का लिखा है । आ० श्री विजयवल्लभसूरिजी (उस समय मुनिश्री)
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के नाम से प्रकाशित 'गप्पदीपिका समीर' नामक पुस्तक देख लेना । पू. गुरुदेव के चातुर्मास में सागरसंघ ने राधनपुर में ठहराव किया हो इतने मात्र से उनकी सम्मति नहीं मानी जा सकती । संभवतः वे जानते भी नहीं होंगे (कि ऐसा ठहराव किया गया है ।)
(२४)
पू. आचार्य म. मेरुप्रभविजयसूरिजी महाराज, बोरीवली (बम्बई) का. सु. ६ स्वप्नों के पैसे देवद्रव्य में जाने हैं, इसलिए राधनपुर के पर्चे में जो लिखा है वह असत्य है । श्रमण संघ ने उस प्रकार का कोई ठहराव नहीं किया है । उस पर्चे की कोई कीमत नहीं है ।
(२५)
पूज्य पंन्यासजी म. विनयविजयजी म.
राजगृही, (बिहार)
का. सु. १३
स्वप्नों की बोली के घी को देवद्रव्य में ले जाने का वंश परम्परा का रिवाज है ।
(२६)
पू. आ. म. रामसूरिजी म. ( हेलावाला )
पाटण ( गुज.) का. सु. १५ भगवन्त के जन्मबोले जाने वाला
श्री पर्युषण पर्व में परमात्मा श्री वीर वांचन के दिन स्वप्नादि निमित्त बोली रूप में द्रव्य, देवद्रव्य ही होना चाहिए । अन्य रूप में उसे गिनने से सिद्धान्त और परम्परा का विरोध होगा । अतः स्वप्नादि द्रव्य को देवद्रव्य ही स्वीकार करना चाहिए ।
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(२७) पू. आचार्य म. श्री विजय ॐकारसूरिजो म.
• पाटण
का. व. १ _ 'जिस गांव में स्वप्नों की बोली का घी जिस खाते में ले जाया जाता हो उस अनुसार ले जाना' इस प्रकार साधु सम्मेलन ने ठहराव किया है, ऐसा जो राधनपुर वालों ने पर्चे में छपवाया है, वह सत्य नहीं है। क्योंकि आज भी आनन्दजी कल्याणजी की पेढी पर मूल नकल मौजूद है। उसमें उक्त प्रकार की बात सर्वथा नहीं है । सम्मेलन के ठहराव में जो बात नहीं है, उसे सम्मेलन के नाम से प्रस्तुत करना बहुत ही अघटित है। अतः ऐसी मतिकल्पना से खड़ी की गई बातों से जनता को भ्रम में न डालें, यही उनके लिए भी उचित है।
(२८) पू. पंन्यासजी म. सुबोधसागरजी म.
अहमदाबाद . (पू. आ. म. श्री सुबोधसागर सू. म.)
का. व. २ . आप पूज्यश्री ने राधनपुर संघ के श्रावकों को स्वप्नों की बोली की उपज को देवद्रव्य में ले जाने के विषय में जो सदुपदेश देकर शासनोन्नति का कार्य किया है तथा जो जवाब दिया है वह जानकर हमें बहुत ही प्रसन्नता हुई है। हम अन्तःकरणपूर्वक उसकी अनुमोदना करते हैं।
(२९) पू. आचार्य म. विजयरामचन्द्रसूरि महाराज, लालबाग (बम्बई)
. का. व. २ राधनपुर के सु. रतिलाल प्रेमचन्द आदि के हस्ताक्षर से प्रकाशित पर्चे में जो मुनि सम्मेलन का ठहराव छपा है वह सम्मे
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लन की पुस्तिका से मिथ्या सिद्ध हो जाता है और पंचाल देशोद्धारक न्यायाम्भोनिधि स्व. आराध्यपाद आ० भ. श्री विजयानन्दसूरीश्वरजी (आत्मारामजी) महाराज के नाम से जो लिखा है वह गप्पदीपिका में छपे हुए प्रश्नों से असत्य सिद्ध हो जाता है । उस तरह उक्त दोनों आधारों से राधनपुर का लेख झूठा सिद्ध होता है।
पू. पंन्यासजी म. श्री भद्रंकरविजयजी म. जैन विद्याशाला (पू.आ.म. श्री वि.भद्रंकर सू. म. बापजी म. के) अहमदाबाद
__आसोज वदी ७ राधनपुर के भाइयों द्वारा छपाया हुआ पर्चा पढ़कर दुःख हुआ। आजकल जैन संघ में दिन-प्रतिदिन अराजकता बढ़ रही . है । इसलिए किसी को कोई रोक नहीं सकता।
उक्त रीति से सम्मेलन के ठहराव के नाम से सत्य से सर्वथा दूर पर्चा छपवाने का दुःसाहस क्यों करना पड़ा, यह समझ में नहीं आता । पिछले कितनेक वर्षों से संघ के उद्धार और श्रावकों के उद्धार के नाम से शुरु हुई प्रवृत्तियों से संघ या श्रावकों का थोड़ा भी हित नहीं हुआ। विष खाकर जीने की इच्छा कभी सफल नहीं होती । देव-गुरु आदि की सेवा-भक्ति करके सुख पाया जा सकता है । देवद्रव्य का भक्षण करने से कभी किसी का उद्धार नहीं हुआ। यदि ऐसा हो तो वीतराग के वचन मिथ्या हो जावे।
राधनपुर के अमुक वर्ग का देवद्रव्य । स्वप्न द्रव्य ) को साधारणा में ले जाने का आग्रह अमुक वर्षों से चालू हुआ है और अधिक समूह का विरोध होने पर भी वह आग्रह छूटता नहीं है ।
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फलस्वरूप राधनपुर संघ का अमुक वर्ग इस अशास्त्रीय प्रवृत्ति से आर्थिक स्थिति, धर्मश्रद्धा आदि से उत्तरोत्तर क्षीण होता जा रहा है । अब भी यदि वे संब का कल्याण चाहते हैं तो शीघ्र से शीघ्र इस भूल को सुधार लें, यही हितावह है।
शासनदेव उनको सद्बुद्धि दे और संघ के कल्याण के लिए भी संघ में क्लेश बढ़ाने के बजाय संघ में ऐक्य और शान्ति के प्रयत्न करें, इसमें सबका-संघ का-शासन का हित है।
पर्चे में सन् १९३४ ( सं. १९९० ) में मुनि सम्मेलन का ठहराव हुआ, ऐसा बताया हैं और नीचे सं. १९४३ में राधनपुर के संघ द्वारा ठहराव किये जाने और पू. आत्मारामजी म. द्वारा सम्मति दिये जाने का उल्लेख है-ये दोनों बातें विरुद्ध हैं। क्योंकि सं. १९४३ के बाद और पू. आत्मारामजी म. के स्वर्गवास के बाद मुनि मुम्मेलन तो सं. १९९० में हुआ है । उसमें समग्र संघ ने ठहराव किया है इससे उसके पहले किसी संघ ने कोई ठहराव किया हो या किसी आचार्य ने कोई अभिप्राय दिया हो तो वह भी रद्द हो जाता है । मुनि सम्मेलन के ठहराव को मानने हेतु प्रत्येक गांव का संघ बाध्य है । यह विचार करना चाहिए।
[स्वप्न द्रव्य को देवद्रव्य ही मानने वाले और निश्चित रूप से बिना किसी हिचक के इसके पक्ष में अपने विचार प्रकट करने वाले श्रमण भगवन्तों के अभिप्राय ऊपर दिये गये हैं। उन श्रमण भगवन्तों में से आज कितने ही मुनि भगवन्त पू. आचार्य पद पर विराजमान हैं। अतः यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है कि स्वप्नों की उपज को देवद्रव्य मानने के
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सम्बन्ध में वर्तमान में विद्यमान लगभग सब आचार्य भगवन्त एक मत के हैं; उनमें कोई मान्यता भेद नहीं है ।
स्व. पू. आ. म. श्री विजयनेमिसूरि म., स्व. पू. आ. म. सागरानन्दसूरि म. आदि आचार्य भगवन्तों का भी अभिप्राय यही था कि स्वप्नों की आय देवद्रव्य में हो जावे । वि. सं. १९९० के राजनगर के श्रमण सम्मेलन में भी यही निर्णय हुआ था । तदुपरान्त पू. सागरानन्दसूरिजी महाराज ने स्वप्नद्रव्य को लेकर 'सिद्धचक्र' (पाक्षिक वर्ष १, अंक ११, पेज २५८ ) में जो स्पष्ट कहा है वह निम्न प्रश्नोत्तरी से जानना चाहिए । ]
श्री सागरजी महाराजश्री क्या फरमाते हैं ? प्रश्न २९८ - स्वप्नों की उपज और उसका घी देवद्रव्य खाते में ले जाने की शुरुआत अमुक समय पर हुई है तो उसमें परिवर्तन क्यों नहीं हो सकता ?
समाधान - अर्हत् परमात्मा की माता ने स्वप्न देखे थे अतः वस्तुतः उसकी सब उपज देवद्रव्य में ही जानी चाहिए अर्थात् देवाधिदेव के उद्देश्य से ही यह उपज है ।
ध्यान में रखना चाहिये कि च्यवन - जन्म - दीक्षा ये कल्याणक भी श्री अरिहन्त भगवान के ही हैं । इन्द्रादिकों ने भी श्री जिनेश्वर भगवान की स्तुति भी गर्भावतार से ही की है । चवदह स्वप्नों का दर्शन भी अर्हद् भगवान कूंख में आते हैं तब होता है; तीन जगत् में प्रकाश भी इन तीनों कल्याणकों में होता है । अतः धर्मिष्ठों के लिए वे गर्भावस्था से ही भगवान् है ।
उक्त सभी पू. पाद शासन स्तम्भ आचार्यदेवादि सुविहित श्रमण भगवन्तों के अभिप्रायों के सम्बन्ध में अब कुछ अधिक
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लिखने की आवश्यकता रहती नहीं । तथापि पिछले कुछ वर्षों से स्व. पू. पाद आचार्यदेवों में केवल आ. म. श्री वि. वल्लभसूरि म. तथा आ. म. श्री वि. धर्मसूरि म. के शिष्य मुनिश्री विद्याविजयजी म.-उन दोनों के अभिप्राय शान्ताकु झ श्रीसंघ के प्रश्न के उत्तर में पूज्य सुविहित महापुरुषों की शास्त्रीय विचारधारा से अलग दिशा में रहे हैं।
जब शान्ताक झ श्रीसंघ ने मुनि श्री विद्याविजयजी महाराज को पत्र लिखकर पूछा कि, 'स्वप्न की बोली के घी का भाव अभी २॥) रु. प्रतिमन है उसके बदले ५) पांच रूपया प्रतिमन करके हमेशा की तरह रु. २॥) देवद्रव्य में और २॥) रु. साधारण खर्च को निभाने के लिए साधारण खाते में ले जाने विषयक ठहराव श्रीसंघ करे तो शास्त्र आधार से अथवा परम्परा से यह उचित है या नहीं ? इस प्रश्न के उत्तर में मुनिश्री विद्याविजयजी महाराज ने शान्ताकु झ में रहने वाले एक भाई को सम्बोधित करके समस्त श्रीसंघ को उत्तर दिया है। वह इस प्रकार हैं :मु. श्री विद्याविजयजी म. का शान्ताक्रुझ संघ को
उत्तर __*- श्रीमद् विजयधर्मसूरि गुरुभ्यो नमो नमः *जैन मन्दिर, रणछोड़ लाइन, करांची . ता. १४-१०-३८
श्रीयुत् महाशय,, जीवराज छगनलाल देसाई आदि संघ समस्त, मु. शान्ताक झ। ..
धर्मलाभ के साथ विदित हो कि आपका पत्र मिला। पूज्यश्री विद्याविजयजी महाराजश्री को तबियत में दिन प्रतिदिन अच्छा सुधार हो रहा है । परन्तु अभी कमजोरी बहुत है । आशा
स्वप्नद्रव्य, देवद्रव्य ।
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है कि गुरुदेव की कृपा से थोड़े दिनों में आराम हो जायेगा। चिन्ता न करें।
___ श्रीमान् विद्याविजयजी महाराजश्री की तबियत पहले बहुत ही नरम हो गई थी। अभी सुधार पर है परन्तु अभी अशक्ति बहुत है जिससे शय्या पर हैं । आपका पत्र उनको मैंने बताया। उन्होंने लिखवाया है कि, आपने शान्ताकु झ संघ ने जो ठहराव किया है वह उचित है । इसमें शास्त्रीय दृष्टि से और परम्परा से किसी प्रकार का दोष या बाधा नहीं है। संघ अपनो अनुकूलता के लिए सात क्षेत्रों को सजीवन रखने के लिए अनुकूलतानुसार ठहराव कर सकता है और रिवाजों में परिवर्तन कर सकता है। इसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं है, सो जानियेगा। धर्म कार्य में उद्यम करना। सबको धर्म लाभ कहना। .
गुजरात काठियावाड के किसी किसी गाँव में तो स्वप्नों को सब उपज साधारण में ले जायो जातो है। किसो गांव में आधीआधी दोनों खातों में ले जायी जाती है। अपनी-अपनी अनुकूलता के अनुसार संघ निर्णय लेते हैं। संघ अपनी अनुकूलता से ठहराव करके तदनुसार वर्ताव करे इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं है। यह जानियेगा।
लि. जयन्त विजय [ मुनि श्री विद्याविजयजी की तरफ से लिखाये हुए इस पत्र के उत्तर में शान्ताक झ श्री संघ की तरफ से भी जबाब लिखा गया था जो आ. म. श्री विजयवल्लभसूरिजो म. के पत्र के जवाब इस पुस्तिका में प्रकाशित हुआ है। उसी भाव का उत्तर लिखा गया था।
मुनि श्री विद्याविजयजी म. भी १९९० के श्रमण-सम्मेलन के समय राजनगर में थे। उस सम्मेलन के ठहराव में स्पष्ट
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रोति से कहा गया है कि 'प्रभु के मन्दिर में या बाहर चाहे जिस स्थान पर प्रभु के निमित्त जो जो बोली बोली जाय वह सब देवद्रव्य कहा जाता है-' तो फिर स्वप्न की बोली की उपज को साधारण में ले जाने की बात वे कैसे कर रहे हैं ? यह समझ में नहीं आता।
इन्हीं मुनिराजश्री विद्याविजयजी म. के गुरु महाराज काशीवाले आ. म. श्री विजयधर्मसूरिजी, कितने ही वर्ष पहले से यह मान्यता रखते थे कि 'कई गांवों में स्वप्न आदि की उपज को साधारण खाते में ले जाने की योजना चल रही है परन्तु मेरी मान्यतानुसार वह ठीक नहीं है।' वे ऐसा शास्त्रीय अभिप्राय रखते थे।
पालनपुर के श्री संघ को नया शहर (ब्यावर) से उन्होंने जो पत्र लिखा था वह नीचे उद्धृत किया जा रहा है जिसमें उन्होंने यह बात कही है। उनका पत्र इस प्रकार है:पू. मुनिराज श्री धर्मविजयजी म. (प्रा. म. श्री वि.
__ धर्मसूरि म.) का पत्र
'श्री नया शहर से लि. धर्मविजयादि साधु सात का श्री पालनपुर तत्र देवादि भक्तिमान् मगनलाल कक्कल दोशी योग्य धर्मलाभ वांचना । आपका पत्र मिला । घी सम्बन्धी प्रश्न जाने प्रतिक्रमण संबंधी तथा सूत्र संबंधी जो बोली हो वह ज्ञान खाते में ले जाना उचित है। स्वप्न सम्बन्धी घी की उपज स्वप्न बनवाने, पालना बनवाने आदि में खर्च करना उचित है। शेष पैसे देवद्रव्य में लेने की रीति प्रायः सब स्थानों पर है। उपधान में जो उपज हो वह ज्ञान खाते तथा कुछ नाण आदि की उपज
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देवद्रव्य में जाती है । विशेष आपके यहां महाराजश्री हंसविजयजी म. विराजमान हैं उनको पूछना एक गांव का संघ कल्पना करे वह नहीं चल सकता । साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका संघ जो करना चाहे वह कर सकता है। आज कल साधारण खाते में विशेष पैसा न होने से कई गांवों में स्वप्न आदि की उपज साधारण खाते में लेने की योजना करते हैं परन्तु मेरी समझ से यह ठीक नहीं है । देवदर्शन करते हुए याद करना।
- इस प्रकार आ., म. श्री वि. धर्मसूरि महाराज ने मुनि धर्मविजयजी के नाम से आचार्य पदवी पहले लिखे हुए पत्र में स्पष्ट कहा है कि 'स्वप्न सम्बन्धी घी की उपज का स्वप्न बनवाने, पालना बनवाने आदि में खर्च करना चाहिए बाकी के पैसे देवद्रव्य में ले जाने को पद्धती सर्वत्र मालूम होती है। तदुपरान्त वे इस पत्र में स्पष्ट कहते हैं कि-'एक गांव का संघ कल्पना करे वह चल नहीं सकता।' इसी तरह वे आगे कहते हैं कि 'आजकल साधारण खाते में विशेष पैसा न होने से कुछ गांवों में स्वप्न आदि को योजना करते हैं परन्तु यह ठीक नहीं।'
__ कहां उस समय के मुनि श्री धर्मविजयजी म. के ये विचार ! और कहां उनके शिष्य मुनि श्री विद्याविजयजी के विचार !! सुज्ञ वाचक, दोनों की तुलना अपनी स्वतंत्र विवेक बुद्धि से कर सकते हैं।
इसी तरह आ. म. श्री वि वल्लभसूरि महाराज के, जब वे मुनि वल्लभविजयजी थे उनके विचार स्वप्न द्रव्य के विषय में तथा साध्वीजी द्वारा पुरुषों की सभा में व्याख्यान वाचने को अशास्त्रीय प्रणाली के विषय में किस प्रकार सुविहित महापुरुषों की शास्त्रानुसारी प्राचीन प्रणाली के अनुरूप तथा कल्याणकारी आत्माओं के लिए मार्ग दर्शक रूप थे, वे उन श्री द्वारा लिखित पुस्तक के निम्न अवतरण पर से स्पष्ट समझा जा सकता हैं।
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मु. श्री वल्लभविजयजी म. के साध्वीजी के व्याख्यान
संबंधी शास्त्रानुसारो विचार _ 'ढुंढक हितशिक्षा अपर नाम गप्प दीपिका समीर (ढुंढकमती आर्या पार्वती की बनाई हुई ज्ञान दीपिका-वास्तविक गप्प दोपिका खंडन) प्रगटकर्ता-श्री जैन धर्म प्रसारक सभा भावनगर । कीमत आठ आना । संवत् १९४८. अहमदाबाद, युनियन प्रिंटिंग प्रेस, लेखक मुनि वल्लभविजयजी।
'उक्त पुस्तक में वे कहते हैं कि'
'विदित हो कि इस हुण्डावसर्पिणी काल में बहुत सी बातें आश्चर्यकारी हो गई हैं और होती चली जाती हैं। उनमें से एक यह भी बात सुज्ञजनों के हृदय में आश्चर्यजनक है कि स्त्रियाँ भी पुरुषों की सभा में बैठकर व्याख्यान करती है और प्रश्नोत्तर रूप खण्डन-मण्डत की पुस्तकें भी रचती हैं । जैसे पार्वती नामक ढुंढणी ने ज्ञान-दीपिका नामक पुस्तक रची है । आश्चर्य तो यह है कि जैन शासन में हजारों साध्वियां हो गई हैं पर किसी साध्वी की रची हई कोई पुस्तक वाचने में और सुनने में नहीं आयी है। महावीर स्वामी की छत्तीस हजार साध्वियों ने अनेक प्रकार से तप किये हैं तथा एकादशांग शास्त्र पढ़े हैं पर किसी साध्वी ने कोई पुस्तक नहीं रची है और न पुरुषों की सभा में बैठकर धर्मोंपदेश किया है । क्योंकि श्री नन्दीजी सूत्र में ऐसा पाठ है कि जिस तीर्थंकर के शासन में जितने शिष्य चार प्रकार की बुद्धि से सहित होते हैं उस तीर्थंकर के शासन में उतने हजार या लाख प्रकीर्णक शास्त्र होते हैं परन्तु साध्वियों के रचे हुए शास्त्र का कहीं शास्त्र में वर्णन नहीं है।' स्वप्नद्रव्य, देवद्रव्य ]
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'जैन मत के अतिरिक्त अन्य मतों में भी हमने नहीं सुना कि स्त्री का रचा हुआ अमुक शास्त्र है या अमुक स्त्री ने पुरुषों को सभा में व्याख्यान किया; या स्त्री को पुरूषों की सभा में व्याख्यान करने की आज्ञा है। अब पाठकजनों ! विचार करना चाहिए कि पार्वती ढुंढणी ने जो पुस्तक रची है वह जैन मत के शास्त्र को आज्ञा से रची है तब-तो शास्त्र का पाठ दिखाना चाहिये । यदि शास्त्र की आज्ञा के बिना ही रची है तब तो शास्त्राज्ञा के भंग के लिए प्रायश्चित्त लेना चाहिए। शायद पार्वती ढुंढणी ने ऐसा विचार किया हो कि 'भगवंत की आज्ञा भंग करण रूप दूषण मुझे लगा तो क्या हुआ ? मेरी पण्डिताई तो ढुंढक लोगों में प्रकट हो गई।' परन्तु ऐसा विचार बुद्धिमानों का तो नहीं है।
पूर्व पक्ष:-क्या अमरसिंह ढुंढक के समुदाय में कोई पुस्तक रचने योग्य ढुंढक साधु नहीं था जिससे पार्वती ढुंढणी को ज्ञानदीपिका पुस्तक रचनी पड़ी।
उत्तर:-यह तो मानना ही पड़ेगा कि अमरसिंह का कोई भी चेला पुस्तक रचने में समर्थ नहीं था तब तो स्त्री अथवा पार्वती ढुंढणी को पुस्तक रचनी पड़ी।
प्रश्नः-पार्वती ने पुस्तक रची है सो अच्छा काम किया या नहीं ?
उत्तर:-जैन शास्त्रानुसार तो यह काम अच्छा नहीं किया है।'
इस प्रकार आ. म. श्री वि. वल्लभसूरि महाराज ने वि. सं. १९४८ में लिखी पुस्तक में स्पष्ट रीति से साध्वीजी द्वारा
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पुरुषों को सभा में व्याख्यान वांचने को प्रणाली का विरोध शास्त्रानुसार व्यक्त कर अपना मन्तव्य सचोट एवं निर्भयता से प्रकट किया है। बाद में वे स्वप्न की उपज के सम्बन्ध में अपने विचार इस पुस्तक में स्पष्ट करते हैं । पृष्ठ ८६ पर इस प्रकार लिखा है:
स्वप्नों की उपज देवद्रव्य में हो जाती है
प्रश्न ९:-स्वप्न उतारना, घी चढ़ाना, फिर नीलाम करना और दो तीन रुपये मन बेचना, यह क्या ? भगवान् का घी सौदा है क्या ? सो लिखो।
उत्तर :-स्वप्न उतारना घी बोलना इत्यादि धर्म की प्रभावना और जिनद्रव्य की वृद्धि का हेतु है । धर्म की प्रभावना करने से प्राणी तीर्थंकर गोत्र बांधता है, यह कथन श्री ज्ञातासूत्र में है और जिनद्रव्य की वृद्धि करने वाला भी तीर्थंकर गोत्र बांधता है, यह कथन भी संबोध सत्तरी शास्त्र में है। और घी बोलने वास्ते लिखा है इसका उत्तर जैसे तुम्हारे आचारांगादि शास्त्र भगवान की वाणी है । यह चार रूपये में बिकती है ऐसे घी का मोल पड़ता है।
प्रश्न १०:-माला नीलाम करनी, प्रतिमाजो की स्थापना करनी और भगवानजी का भंडारा रखना कहाँ लिखा है ?
उत्तर ११:-मालोद्घाटन करना, प्रतिमाजी स्थापना करनी तथा भगवानजी का भंडारा रखना यह कथन 'श्राद्ध विधि' शास्त्र में है।
(यह बात पहले भी एक बार स्पष्ट की गई है तथापि विशेष स्पष्टता के लिए आ. म. श्री विजयवल्लभसूरि म. श्री
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के अपने विचार स्वप्नद्रव्य के विषय में कितने स्पष्ट सचोट तथा सुविहित महापुरुषों की शास्त्रमान्य प्रणाली के साथ सुसंगत थे, यह सुज्ञवाचक वर्ग अधिक स्पष्टता से निःशंक रूप से समझ सके इसलिए बार-बार इस पुस्तक में पिष्ट पेषण लगे तब भी प्रस्तुत किये हैं। इससे समझा जा सकता है कि स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ही है । यह बात ठेठ पुराणकाल से चली आ रही सुविहित शास्त्रानुसारी परम्परा से मान्य है।
राधनपुर जैसे कुछ गांवों में वर्षों से जो अशास्त्रीय प्रणाली न जाने किस कारण से शुरु हुई उसे शास्त्रीय तथा परम्परानुसारी के रूप में प्रचारित करने वालों की बात कितनी मिथ्या, निस्सार तथा वाहियात है, यह ऊपर के सब लेखों से तथा राधनपुर के कुछ भाइयों द्वारा प्रकाशित हेन्डबिल के जबाब में पू. सुविहित आचार्यादि श्रमणसंघ ने जो सचोट तथा स्पष्ट प्रतिकार किया है, उस पर से समझा जा सकता है।
पर्वाधिराज की शास्त्रानुसारी आराधना होने के बाद वि. सं. २०२२ के वर्ष में राधनपुर के शासनप्रेमी संघ ने उस हेन्डबिल का जो उत्तर दिया वह भी प्रासंगिक होने से यहां दिया जा रहा है। राधनपुर के कुछ भाइयों के हेन्डबिल का सचोट
प्रतिकार राजनगर में एकत्रित श्री मुनि सम्मेलन ने 'स्वप्न द्रव्य, देवद्रव्य गिना जाता है' ऐसा सर्वानुमति से ठहराया था।
श्री आत्मारामजी महाराज का अभिप्राय भी यही था कि "स्वप्न उतारना, घी बोलना आदि धर्म की प्रभावना और जिनद्रव्य की वृद्धि का हेतु है।"
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शेठ रतिलाल प्रेमचन्द शाह और दूसरे नौ गृहस्थों के हस्ताक्षर से ता. ६-९-६६ को 'श्री राजनगर साधु सम्मेलन का स्वप्नों के घी सम्बन्धी असल ठहराव' इस शीर्षक से प्रकाशित हेन्डबिल के लेख से खड़ी हुई गैरसमझ को दूर करने के लिये निम्न खुलासा प्रकट करने में आता है :
(१) प्रस्तुत हेन्डबिल को शुरुआत में लिखा गया है कि 'जिस गांव में जिस रीति से स्वप्नों की बोली का घी जिस खाते में ले जाया जाता हो वहां उसी तरह से ले जाया जाय' इस प्रकार का ठहराव ३१ मार्च १९३४ चैत्र वदो १ शनिवार के दिन अखिल हिन्द मुनि सम्मेलन में हुआ था।"
परन्तु श्री अखिल हिन्द मुनि सम्मेलन के ठहराव के नाम से लिखी गई ऊपर की बात सत्य से सर्वथा दूर है। ऐसा 'अखिल भारतवर्षीय श्री जैन श्वेताम्बर मुनि सम्मेलने पट्टक रूपे सर्वानुमते करेल निर्णयों' नामक अहमदाबाद श्रीसंघ की तरफ से छपायी हुई पुस्तिका को देखने से स्पष्ट प्रतीत हो जाता है । अहमदाबाद श्री शेठ आणंदजी कल्याणजी को पेढी पर असल पट्टक है और उसे देखने से स्पष्ट मालूम पड़ेगा कि इस हेन्डबिल में बताई हुई ऊपर की बात सत्य नहीं है।
श्री मुनि सम्मेलन द्वारा सर्वानुमति से किये गये निर्णयों में से देवद्रव्य सम्बन्धी निर्णय की कलम २ में ऐसा कहा गया है कि
क. (२) 'प्रभु के मन्दिर में या मन्दिर के बाहर चाहे जिस स्थान पर प्रभु के निमित्त से जो जो बोली बोली जाय वह सब देवद्रव्य कहा जाता है।'
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ऊपर के निर्णय के अनुसार स्वप्न की बोली की उपज देवद्रव्य गिनी जाय, ऐसा श्री मुनि सम्मेलन ने सर्वानुमति से ठहराया है। क्योंकि स्वप्न की बोली प्रभु के निमित्त से बोली जाती है।
इसके सिवाय श्री मुनि सम्मेलन के द्वारा पट्टक रूप में सर्वानुमति से किये हुए निर्णयों के नीचे नौ पू. वृद्ध आचार्यदेवों के हस्ताक्षर हैं और वहाँ 'इस्वी सन् १९३४ एप्रिल मास ता. ५ गुरुवार' यह दिन बताया गया है। (२) प्रस्तुत हेण्डबिल में दूसरी बात यह लिखी है कि 'राधनपुर . में भी श्री सागरसंघ ने १९४३ भादवा सुदी १ के दिन स्वप्नों के घी को साधारण में ले जाने का सर्वानुमति से ठहराव किया है और पूज्य आत्मारामजी महाराज ने 'इस प्रस्ताव को करने में कोई गलती नहीं है और श्रीसंघ ऐसा ठहराव कर सकता हैऐसा अभिप्राय दिया है।"
ऊपर की बात पू. श्री आत्मारामजी महाराज के नाम से कही गई है वह भी मिथ्या है । यह बात पू. श्री आत्मारामजी महाराज के वि. सं. १९३८ में लिखे हुए और वि. सं. १९४८ में प्रकाशित प्रश्नोत्तरों को देखने से मालूम पड़ती है।
ऊपर के दोनों स्पष्टीकरणों को ध्यान में लेकर किसीकिसी स्थल पर स्वप्न की उपज को देवद्रव्य सिवाय के खाते में ले जाई जाती हों तो उसे सुधार लेने की विनति । स्वप्न की उपज को देवद्रव्य खाते ले जाने का ठहराव करके देवद्रव्य के भंग अथवा देवद्रव्य के भोग के पाप से बचने हेतु विनति है। .
लि. शासनप्रेमी संघ, राधनपुर
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'स्वप्न द्रव्य देवद्रव्य ही है' इस विषय पर प्रस्तुत पुस्तिका में लेख, अभिप्राय, तथा, पत्र व्यवहार आदि प्रकाशित हुए हैं, इस पर से यह समझा जा सकता है कि जो स्वप्नों की बोली को साधारण खाते में ले जाने की बालिश और सर्वथा मनघडन्त बातें करके पू. सुविहित महापुरुषों द्वारा एकमत से प्रमाणित की गई शास्त्रानुसारी प्राचीन प्रणाली के विरोध में यद्वा तद्वा प्रचार कर रहे हैं वह कितना अनुचित, अप्रमाणिक तथा शास्त्र विरुद्ध है । अतः इस पुस्तक में एक बात जो पूनः पूनः दोहराई गई है उसके सार को स्पष्ट रूप से समझकर शास्त्रानुसारी परम्परा को अखण्ड रूप से पालते हुए आराधक भाव को निर्मल रखकर स्वपर कल्याणकर जैन शासन की निष्ठा के प्रति प्रामाणिक रहते हुए भवभीरु जीवों को वर्ताव करना चाहिए । यही हमारे कहने का सार है।
विशेष वि. सं. २०२२ में राधनपुर के शासनप्रेमी भाइयों ने हमारी निश्रा में कितने हो वर्षों से चली आ रही अशास्त्रीय प्रणाली को सर्प कंचुकी की तरह छोड़कर हिम्मत करके शास्त्रानुसारी परम्परा का पालन किया, वैसे ही सर्व आराधक आत्माओं को दृढ़ता से पालन करना चाहिए।
ऐसे अवसर पर पू. सुविहित महापुरुष भी अवसरोचित प्रेरणा तथा मार्गदर्शन दृढ़तापूर्वक देते रहे हैं । इससे कहा जा सकता है कि जैन शासन सचमुच जयशील रहता है। राधनपुर में वि. सं. २०२२ में जब शास्त्रानुसारी प्राचीन परम्परा का दृढ़तापूर्वक प्रारम्भ हुआ उस अवसर पर वहां के दोनों सागरगच्छ तथा विजयगच्छ संघ को सम्बोधित करते हुए पू. आ. म. श्रो विजय शान्ति चन्द्र सूरीश्वरजी महाराजश्री तथा उन श्रीमद्
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के विद्वान प्रखर शासन प्रेमी शिष्यरत्न पंन्यासजी म. श्रीसुज्ञान विजयजी गणिवर (वर्तमान में आ. म. वि. सोमचन्द्र सू. म.) ने जो पत्र लिखा था वह भी प्रस्तुत पुस्तिका के विषय को परिपुष्ट करने वाला होने से नीचे उद्धृत किया जाता है। पू. प्रा. म. श्री विजय शान्तिचन्द्रसूरिजी म.श्री का .
प्रेरणादायी पत्र
अहमदाबाद सारंगपुर तलीआनी पोल श्रावक शेरी पूज्य पाद आचार्यदेव श्री विजयशान्तिचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहेब की तरफ से
श्री राधनपुर नमस्कार महामंत्र स्मारक सागरगच्छ संघ के सुश्रावक वर्ग योग्य धर्मलाभ के साथ लिखना है कि यहां पू. श्री देवगुरु की कृपा से सुख शाता है । धर्म के प्रभाव से वहां भी सूख शाता वर्तो। वि. सूचना मात्र से आपका श्री संघ अपना कर्तव्य समझें इसलिए यह पत्र लिखा जा रहा हैं। स्वप्नों की उपज पूरी की पूरी देवद्रव्य में जाती है ऐसा शास्त्रसिद्ध मार्ग है । सं. १९९० के सम्मेलन में भी यह नियम स्पष्ट रूप से समझाया गया है। वर्तमानकाल में एक भी आचार्य का प्रमाण नहीं है कि स्वप्न में से एक पाई भी साधारण में ले जाई जाय । वैशाख मास में आपको पं.स. वि. ने यह बात लिखित प्रमाण आदि द्वारा स्पष्ट रूप से समझायी थी कि पू. आचार्य आत्मारामजी महाराज तथा पू. वल्लभसूरिजी महाराज स्वप्न की उपज देवद्रव्य में ले जाने का स्पष्ट विधान करते हैं। यह उनके अर्थात् पू. आत्मारामजी म. प्रश्नोत्तरों की पुस्तक जो पूज्य वल्लभसूरिजी द्वारा छपवायी गई है और सं. १९४८ में जैन
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धर्म प्रसारक सभा, भावनगर तरफ से ढुंढक हित शिक्षा अपर 'नाम गप्पदीपिका समीर' नाम से प्रकाशित हुई है उसके प्रश्न नं. ९ में स्पष्ट समझाया है। इसलिए पू. स्व. आ. श्री विजयानन्दसूरि तथा पू. आ. श्री वल्लभसूरिजी महाराज ने आपके संघ को स्वप्नों की उपज में से चार आनी, छह आनी या दस आनी साधारण में ले जाने की सम्मति दी है, यह बात कोई भी बुद्धिमान इस युग में नहीं मान सकता । तथापि कोई आचार्य स्वप्न की उपज को साधारण में ले जाने से सम्मत हए हो, ऐसा कोई प्रमाण आप बतावें तो उस पर विचार किया जा सकता है।
वि. किसी भी समय, किसी भी क्षेत्र में शासन की कोई भी व्यवस्था कदाचित् द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव के अनुसार यदि संशोधित, परिवर्तित या परिवद्धित करनी पड़े तो वह कौन कर सकता है ? ऐसा परिवर्तन आचार्य भगवन्तों के प्रधानत्व में श्री संघ आचार्यदि की सम्मति से शास्त्र को बाधा न पहुंचाते हुए ही कर सकता है । इस प्रसंग पर पं. धी कनकविजयजी गणिवर ने तो शासन की निष्ठा को बहुत ही सुन्दरता के साथ निभाया है और सत्यमार्ग का रक्षण भी बहुत अच्छी तरह से किया है । अब स्वप्न की उपज को देवद्रव्य में ले जाने के लिए आपके वहाँ के सूश्रावकों को सम्मत हो जाना चाहिए । यही आपके लिए हितावह है और शासन की उन्नति तथा सिद्धान्त का रक्षण करने के लिए मिथ्या परम्परा के पाप से बचने का यही एक सन्मार्ग है।
वर्तमान में कोई भी आचार्य भगवन्त आदि स्वप्न की बोली साधारण में ले जाने की सम्मति देते नहीं, भूतकाल में किसी आचार्य भगवन्त ने ऐसी सम्मति दी भी नहीं । अतः आज्ञा प्रधान सैद्धान्तिक मार्ग में किसी भी प्रकार के कदाग्रह के वश
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होने में आपकी शोभा नहीं है । अतः अब भी आप सब एकमत होकर परम तारक आप्त आगम से सम्मत हो सकें ऐसी एक शुभाभिलाषा है । (वि. सं. २०२२ आ. व. ५)
( उक्त सब लेखों पर से यह बात स्पष्ट है कि, स्वप्न की उपज की तरह उपधान की माला की उपज तथा अन्य भी देवद्रव्य की उपज प्रभु-भक्ति के निमित्त जो कोई बोली बोली जाय उस देवद्रव्य का उपयोग जिनमन्दिर के जीर्णोद्धार आदि प्रभु की भक्ति के कार्य में किया जाय परन्तु अपने कर्तव्य के रूप में प्रभु की पूजा की सामग्री केसर आदि में या पूजा करने के लिए रखे पुजारी को वेतन देने में उस देवद्रव्य का उपयोग न हो, यह खास रूप से ध्यान रखना आवश्यक है।
श्रावक संघ का कर्तव्य श्री जिनपूजा है। उस कर्तव्य का पालन अपनी पूर्वपुण्य से प्राप्त सुन्दर सामग्री से प्रभु पूजा करनी चाहिये; देवद्रव्य की उपज में से सामग्री लाकर नहीं। तथा दूसरों की सामग्री से भी नहीं । जिन पूजा रूप श्रावक कर्तव्य तो लक्ष्मी की मूर्छा उतारकर श्रावक धर्म की आराधना के लिए है, नहीं कि लक्ष्मी की ममता को पंपाल कर उसकी मूर्छा बढ़ाने के लिए।
इस प्रसंग पर पू. पाद परमशासन प्रभावक व्याख्यान वाचस्पति परम गुरुदेव आचार्य म. श्रीमद् विजयरामचन्द्र सूरीश्वरजी महाराजश्री ने पालीताणा की श्री सिद्धक्षेत्र की पुण्य पवित्र भूमि पर इस सम्बन्ध में प्रेरक एवं वेधक वाणी में जो सचोट मार्गदर्शन स्पष्ट रूप से दिया है वह बहुत ही मननीय और चतुर्विध संघ के लिए उपकारक होने से यहाँ उद्धत किया जा रहा है जिसे सब कोई विवेकपूर्वक वांचे विचारें, ऐसी अपेक्षा अवश्य रखी जाती है। ]
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श्रावक परिग्रह के विष को उतारने हेतु भगवान्
की द्रव्य-पूजा करे! 'आज इतने सारे जैनों के जीवित होते हुए भी और उसमें समृद्धिशाली जैनों के होने पर भी एक बूम ऐसी भी चल पड़ी है कि-'इन मन्दिरों की रक्षा कौन करेगा ? कौन इन्हें सम्भालेगा? भगवान् की पूजा के लिए केसर आदि कहाँ से लावें? अपनी कही जाने वाली भगवान् की पूजा में भी देवद्रव्य का उपयोग क्यों न हो? इससे आजकल ऐसा प्रचार भी चल रहा है कि- भगवान् की पूजा में देवद्रव्य का उपयोग शुरु करो।' कहीं कहीं तो ऐसे लेख भी होने लगे हैं कि-मन्दिर की आवक में से पूजा की व्यवस्था करनी ! ऐसा जब पढ़ते हैं या सुनते हैं तब ऐसा लगता है कि क्या जैन समाप्त हो गये हैं ? देवद्रव्य पर सरकार की नीयत बिगड़ी है, ऐसा कहा जाता है, परन्तु आज ऐसी बातें चल रही हैं जिनसे लगता है कि देवद्रव्य पर जैनों की नीयत भी बिगड़ी है। नहीं तो, भक्ति स्वयं को करनी है और उसके देवद्रव्य काम में लेना है, यह कैसे हो सकता है ? आपत्तिकाल में देवद्रव्य में से भगवान् की पूजा करवाई जाय, यह बात अलग है और श्रावकों को पूजा करने की सुविधा देवद्रव्य में से दी जाय, यह बात अलग है । जैन क्या ऐसे गरीब हो गये हैं कि अपने द्रव्य से भगवान की पूजा नहीं कर सकते ? और इसलिये देवद्रव्य में से उनसे भगवान् की पूजा करवानी है ? जैनों के हृदय में तो यही बात होनी चाहिये कि 'मुझे मेरे द्रव्य से ही भगवान् की द्रव्यपूजा करनी है।' देवद्रव्य की बात तो दूर रही, परन्तु अन्य श्रावक के द्रव्य से भी पूजा करने को कहा जाय तो जैन कहते कि-'उसके द्रव्य से हम पूजा करें तो उसमें हमें क्या लाभ ? हमें तो हमारी सामग्री से पूजा-भक्ति करनी है !
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श्रावक द्रव्य पूजा किसलिए करता है ? आरम्भ और परिग्रह में ग्रस्त, जो शक्ति होने पर भी द्रव्यपूजा किये बिना भाव पूजा करता है, तो वह पूजा वन्ध्या गिनी जाती है | श्रावक परिग्रह के विष को उतारने के लिए भगवान् की द्रव्यपूजा करे । परिग्रह का जहर ज्यादा है न ? इस जहर को उतारने के लिए द्रव्यपूजा है । मन्दिर में जावे और कोई केसर की वाटकी दे तो उससे पूजा करे, तो इसमें उसके परिग्रह का जहर उतरा क्या ? अपना द्रव्य उपयोग में आवे तो ऐसी भावना हो सकती है किमेरा धन शरीरादि के लिये तो बहुत उपयोग में आ रहा है, उसमें धन जा रहा है और पाप बढ़ रहा है जबकि तीन लोक के नाथ की भक्ति में मेरा जो कुछ धन लगता है, वह सार्थक है ।' अपने द्रव्य से पूजा करने में, भाव वृद्धि का जो प्रसंग है, वह पराये द्रव्य से पूजा करने में नहीं । भाव के पैदा होने का कारण ही न हो तो भाव पैदा कैसे हो सकता हैं ?
N
प्रश्न - सुविधा के अभाव में जो जिनपूजा किये बिना रह जाते हों, उन्हें यदि सुविधा दी जाय तो लाभ होता है या नहीं ?
उत्तर - श्री जिनपूजा करने की सुविधा कर देने का मन होना अच्छा है; आपको ऐसा विचार आवे कि - 'हम तो हमारे द्रव्य से प्रतिदिन श्री जिनपूजा करते हैं; परन्तु बहुत से ऐसे हैं जिनके पास ऐसी सुविधा नहीं है; वे भी श्री जिनपूजा के लाभ से वंचित न रह जाय तो अच्छा ।' तो यह विचार आपको शोभा देता है; परन्तु ऐसा होने के साथ ही आपको यह भी विचार आना चाहिए कि, 'अपने द्रव्य से श्री जिनपूजा करने की सुविधा जिनके पास नहीं है, उनको हमारे द्रव्य से पूजा करने की सुविधा कर देनी चाहिए ।' ऐसा मन में आने पर, 'जिनके पास पूजा करने की
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सुविधा नहीं, वे भी पूजा करने वाले बने, इसके लिए भी हमें हमारे धन का व्यय करना चाहिए-'ऐसा निर्णय जो आप करें तो वह आपके लाभ का कारण है। परन्तु श्री जिनपूजा करने वाले का अपना मनोभाव कैसा हो, उसकी यह बात है।
प्रश्न- दूसरे के द्रव्य से पूजा करने वाले को अच्छा भाव नहीं ही आता है क्या ?
उत्तर- दूसरे के द्रव्य से श्री जिनपूजा करने वाले के लिए अच्छा भाव आने का कारण ही क्या ? अपने पास श्री जिनपूजा के लिए खर्च किया जा सके-इतना द्रव्य नहीं और श्री जिनपूजा से वंचित रहना भी पसन्द नहीं, इसलिए यदि वह पराये द्रव्य से श्री जिनपूजा करता हो तो उसे-'पूजा में पराया द्रव्य काम में लेना पड़ता है और अपना द्रव्य काम में नहीं ले सकता-'यह खटकता है, ऐसा निश्चित होता है, अर्थात् उसकी इच्छा तो अपने द्रव्य से पूजा करने की हुई न ? शक्ति नहीं है, इसीलिए पर के द्रव्य से पूजा करता है न ? अवसर मिले तो वह अपने द्रव्य से पूजा करने में नहीं चूकता। ऐसी मनोवृत्ति हो तो अच्छा भाव आ सकता है। क्योंकि जिसने परिग्रह की मूर्छा उतार कर पूजा का साधन दिया, उसकी वह अनुमोदना करता ही है। परन्तु विचारने योग्य बात तो यह है कि-आज जो लोग अपने द्रव्य का व्यय किये बिना ही पूजा करते हैं, वे क्या इतने गरीब हैं कि-पूजा के लिए कुछ खर्च नहीं कर सकते ? जो श्रावक धनहीन हों, उनके लिए तो शास्त्र में कहा है कि -ऐसे श्रावकों को घर पर सामायिक करनी चाहिये । फिर यदि किसी का ऐसा देना न हो जिसके कारण धर्म की लघुता का प्रसंग उपस्थित हो, तो वह श्रावक सामायिक में रहा हुआ और ईर्यासमिति आदि के उपयोग वाला बना हुआ श्री
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जिनमन्दिर में जाय । श्री जिन मन्दिर में जाकर वह श्रावक देखे कि- 'यहाँ मेरे शरीर से बन सके ऐसा किसी गृहस्थ का. देवपूजा की सामग्री का कोई काम है ? जैसे कि किसी धनवान श्रावक ने प्रभुपूजा के लिए फूल लिये हों और उन फूलों की गूंथनी करनी हो। ऐसा कोई कार्य हो, तो वह श्रावक सामायिक पार कर, उस कार्य द्वारा द्रव्यपूजा का भी लाभ ले ले । शास्त्र ने यहां स्पष्ट किया है कि - द्रव्यपूजा की सामग्री अपने पास है नहीं और द्रव्यपूजा के लिए जरूरी सामग्री का खर्च निर्धनता के कारण स्वयं नहीं कर सकता है, तो सामायिक पार कर दूसरे की सामग्री द्वारा वह इस प्रकार का लाभ ले, वह योग्य ही है । और शास्त्र ने . ऐसा भी कहा है कि - 'प्रतिदिन अष्ट प्रकारी आदि पूजा न कर सकता हो तो कम से कम अक्षत पूजा के द्वारा भी पूजन का आचरण करना चाहिए ।'
[ जैन प्रवचन, वर्ष ४३, अंक १६ ]
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प्रकरण [५] देवद्रव्य की रक्षा तथा उसका सदुपयोग
___ कैसे करना? स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ही है, यह विषय इस पुस्तिका में स्पष्ट और सचोट रीति से शास्त्रानुसारी परम्परा से जो सुविहित पापभीरु महापुरुषों द्वारा विहित है-प्रतिपादित और सिद्ध हो चुका है। अब प्रश्न यह होता है कि देवद्रव्य की व्यवस्था और उसकी रक्षा किस प्रकार की जाय ? उसका सदुपयोग किस तरह करना ? इस सम्बन्ध में पू. सुविहित शिरोमणि आचार्य भगवन्त श्री विजयसेनसूरीश्वरजी महाराज ने श्री 'सेनप्रश्न' ग्रन्थ में जो फरमाया है, उन प्रमाणों द्वारा इस विषय की स्पष्टता करना आवश्यक होने से वे प्रमाण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं। सेनप्रश्न :- उल्लास दूसरा पं. श्री कनकविजयजी गणिकृत। . प्रश्नोत्तर - जिनमें ३७ वां प्रश्न है कि, 'ज्ञानद्रव्य देवकार्य में लगाया जा सकता हैं या नहीं ? यदि देवकार्य में लगाया जा सकता है तो देवपूजा में या प्रासादादि के निर्माण में ? इस प्रश्न के उत्तर में स्पष्टरूप से बताया गया है कि, 'देवद्रव्य केवल देव के कार्य में लगाया जा सकता है और ज्ञानद्रव्य ज्ञान में तथा देवकार्य में लगाया जा सकता है। साधारण द्रव्य सातों क्षेत्र में काम आता है। ऐसा जैन सिद्धान्त है....।'
( सेन प्रश्न : पुस्तक : पेज ८७-८८ )
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इससे यह स्पष्ट है कि स्वप्न द्रव्य सुविहित परम्परानुसार देवद्रव्य ही है तो उसका सदुपयोग देव की भक्ति के निमित्त के अतिरिक्त अन्य कार्यों में किन्हीं भी संयोगों में नहीं हो सकता ।
देवद्रव्य को श्रावक स्वयं ब्याज से ले या नहीं ? श्रावक देवद्रव्य ब्याज से दिया जा सकता है या नहीं ? तथा देवद्रव्य को वृद्धि या रक्षा कैसी करना ? इसके सम्बन्ध में 'सेनप्रश्न' में दूसरे उल्लास में, पं. श्री जय विजयजी गणिकृत प्रश्नोत्तर हैं । दूसरे प्रश्न के उत्तर में स्पष्ट कहा गया है कि,
'मुख्यरूप से तो देवद्रव्य के विनाश से श्रावकों को दोष लगता है परन्तु समयानुसार उचित ब्याज देकर लिया जाय तो महान् दोष नहीं परन्तु श्रावकों के लिए उसका सर्वथा वर्जन किया हुआ है, वह निःशुत्व न आ जाय, इसके लिए है। साथ हो जैन शासन में साधु को भी देवद्रव्य के विनाश में दुर्लभ बोधिता और देवद्रव्य के रक्षण का उपदेश देने में उपेक्षा करने से भवभ्रमण बताया है । अतः सुज्ञ श्रावकों को भी देवद्रव्य से व्यापार न करना हो युक्तियुक्त है । क्योंकि किसी समय भी प्रमाद आदि से उसका उपभोग न होना चाहिए । देवद्रव्य को अच्छे स्थान पर रखना, उसको प्रतिदिन सार सम्भाल करनो महानिधान की तरह उसकी रक्षा करनी, इनमें कोई दोष नहीं लगता परन्तु तीर्थंकर नामकर्म के बंध का कारण होता है । जैनेतर को वैसा ज्ञान नहीं होने से निःशुकता आदि असम्भव है । अतः गहनों पर ब्याज से देने में दोष नहीं । अभी ऐसा व्यवहार चलता है ।' .
( सेनप्रश्न पुस्तक पेज १११ )
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इस पर ने स्पष्ट है कि, देवद्रव्य का उपयोग श्रावक के लिए व्यापारादि के हेतु ब्याज से लेने में भी दोष है । तो फिर
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देवद्रव्य से बंधवाये गये मकान, दुकान या चाली में श्रावक कैसे रह सकते हैं ? निःशूकता दोष लगने के साथ ही, उसके भक्षण का, अल्पभाड़ा देकर या विलम्ब से भाड़ा देकर उसके विनाश के दोष की बहुत सम्भावना रहती है । 'सेनप्रश्न' में स्पष्ट बताया। है कि 'साधु भी यदि देवद्रव्य के रक्षण का उपदेश न करें या उसकी उपेक्षा करे तो भवभ्रमण बढ़ता है।' इसीलिये पू. पाद आचार्यादि श्रमण भगवन्त 'स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ही है' उसका विनाश होता हो तो अवश्य उसका प्रतिकार करने के लिए दृढतापूर्वक उपदेश करते हैं ।
देवद्रव्य की रक्षा करने से तो तीर्थंकर नामकर्म के बंध का कारण बनता है अर्थात् देवद्रव्य जहां साधारण में ले जाया जाता हो वहां श्री चतुर्विध संघ को, जिनाज्ञारसिक संघ को उसका प्रतीकार करना चाहिए। यह उसका धर्म है, कर्त्तव्य हैं, वह श्री जिनेश्वर भगवन्त की आज्ञा की आराधना है, यह पू. आ म. श्री विजयसेनसूरीश्वरजी महाराजश्री के द्वारा फरमाये हुए उपर्युक्त विधान से स्पष्ट होता है ।
'श्रावक अपने घर मन्दिर में प्रभुजी की भक्ति के लिए प्रभुजी के आभूषण करावे, कालान्तर में गृहस्थ कारण होने पर अपने किसी प्रसंग पर उन्हें काम में ले सकता है या नहीं ? पं. श्री विनयकुशल गणि के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए 'सेनप्रश्न' में श्री सेनसूरिजी म. श्री फरमाते हैं कि
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'यदि देव के निमित्त ही कराये गये आभूषण हो तो अपने उपयोग में नहीं लिये जा सकते ।'
( सेनप्रश्न : प्रश्न : ३९, उल्लास : ३,
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पेज २०२ )
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इस पर से यह स्पष्ट है कि देव के लिए कराये गये, देव की भक्ति के लिए कराये गये आभूषण, घर मन्दिर में देव को समर्पित करने के उद्देश्य से कराये गये आभूषण श्रावक की अपने उपयोग में लेना नहीं कल्पता तो स्वप्न की बोली प्रभुभक्ति निमित्त प्रभु के च्यवन कल्याणक प्रसंग को लक्ष्य में रखकर बोली जाने के कारण देवद्रव्य गिनी जाती है, उसका उपयोग साधारण खाते में कभी नहीं हो सकता, यह बात खासतौर से ध्यान में रख लेनी चाहिए। . 'सेनप्रश्न' के तीसरे उल्लास में पं. श्री श्रुतसागरजी गणिकृत प्रश्नोत्तर में प्रश्न है कि, 'देवद्रव्य की वृद्धि के लिए उस धन को श्रावकों द्वारा ब्याज से रखा जा सकता है या नहीं? और रखने वालों को वह दूषणरूप होता है या भूषणरूप ? इस प्रश्न का उत्तर पू. आ म. श्री विजयसेन सूरीश्वरजी महाराज स्पष्ट । रूप से फरमाते हैं कि,
श्रावकों को देवद्रव्य ब्याज से नहीं रखना चाहिए क्योंकि नि.शूकत्व आ जाता है। अतः अपने व्यापार आदि में उसे ब्याज से नहीं लगाना चाहिये। 'यदि अल्प भी देवद्रव्य का भोग हो जाय तो संकाश श्रावक की तरह अत्यन्त दुष्ट फल मिलता है।' ऐसा ग्रन्थ में देखा जाता है।
(सेनप्रश्न : प्रश्न २१, उल्लास : ३, पेज २७३ )
इससे पुनः पुनः यह बात स्पष्ट होती है कि, दैवद्रव्य की एक पाई भी पापभीरु सुज्ञ श्रावक अपने पास ब्याज से भी नहीं रखे । तो जो बोली बोलकर देवद्रव्य की रकम अपने पास वर्षों तक बिना ब्याज से केवल उपेक्षा भाव से रखे रहते हैं, भुगतान
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नहीं करते हैं, उन विचारों की क्या दशा होगी ? इसी तरह बोली में बोली हुई रकम को अपने पास मनमाने ब्याज से रखे रहते हैं, उनके लिए वह कृत्य सचमुच सेनप्रश्नकार पूज्यपादश्री फरमाते हैं उस तरह 'दुष्ट फल देने वाला बनता है' यह निश्शंक है। - ‘देवद्रव्य के मकान में भाड़ा देकर रहना चाहिये या नहीं ? इस विषय में पं. हर्षचन्द्र गणिवर कृत प्रश्न इस प्रकार हैं :
'किसी व्यक्ति ने अपना घर भी जिनालय को अर्पण कर दिया हो, उसमें कोई भी श्रावक किराया देकर रह सकता है या नहीं ? इस प्रश्न के उत्तर में पू. आ. म. श्री सेनसूरिजी फरमाते हैं कि-'यद्यपि किराया देकर उसमें रहने में दोष नहीं लगता तो भी बिना किसी विशेष कारण के उस मकान में भाड़ा देकर भी रहना उचित नहीं लगता क्योंकि देवद्रव्य के भोगं आदि में निःशूकता का प्रसंग हो जाता है ।
(सेनप्रश्न, उल्लास ३ पेज २८८ ) पू. आ. म. श्री वि. सेनसूरिजी महाराज ने जो जगद्गुरु आ. म. श्री विजयहीरसूरि म. श्री के पट्टालंकार थे-कितनी स्पष्टता के साथ यह बात कही है । आज यह परिस्थिति जगहजगह देखने में आती है। देवद्रव्य से बंधवाये हुए मकानों में श्रावक रहकर समय पर भाड़ा देने में आनाकानी करते हैं, उचित रीति से भी किराया बढ़ाने में. टालमटोल करते हैं और देवद्रव्य की सम्पत्ति को नुक्सान पहुंचता है, इस विषय में उन्हें तनिक भी खेद नहीं होता। देवद्रव्य के रक्षण की बात तो दूर परन्तु उसके भक्षण तक की निःशूकता आ जाती है । यह कई जगह देखने में जानने में आया है । इस दृष्टि से पू. आ. म. श्री ने स्पष्टता
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करके बता दिया है कि "यह उचित नहीं लगता' यह बहुत ही समुचित है।
देवद्रव्य के विषय में उपयोगी कई बातें बारबार यहाँ इसीलिये कहनी पड़ रही हैं कि, 'सुज्ञ वाचकवर्ग के ध्यान में यह बात एकदम स्पष्ट रीति से दृढ़ता के साथ आ जावे कि देवद्रव्य की रक्षा के लिए तथा उसके भक्षण का दोष न लग जावे इसके लिए 'सेनप्रश्न' जैसे ग्रन्थ में कितना भार दिया गया है ।
अभी कई स्थानों पर गुरुपूजन का द्रव्य वैयावच्च में ले जाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है । परन्तु सही तौर पर गुरुपूजन का द्रव्य देवद्रव्य ही गिना जाता है । इस बात की स्पष्टता करना यहाँ प्रासंगिक मानकर उस सम्बन्ध में पु. पाद जगद्गुरु तपागच्छाधिपति आचार्य म. श्री होरसूरीश्वरजी म. श्री को पूछे गये प्रश्नों के उत्तर रूप 'हीर प्रश्न' नामक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ में से प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे है
-:
' हीर प्रश्न के तीसरे प्रकाश में पू. पं. नागर्षिगणि के तीन प्रश्न इस प्रकार हैं- ( १ ) गुरु पूजा सम्बन्धी स्वर्ण आदि द्रव्य गुरुद्रव्य कहा जाय या नहीं ? ( २ ) पहले इस प्रकार की गुरुपूजा का विधान था या नहीं ? ( ३ ) इस द्रव्य का उपयोग किसमें किया जाय ? यह बताने की कृपा करें ।
उक्त प्रश्नों का उत्तर देते हुए पू. आ. म. जगदगुरु विजय हीरसूरीश्वरजी म. श्री फरमाते हैं कि 'गुरु पूजा संबंधी द्रव्य स्वनिश्राकृत न होने से गुरुद्रव्य नहीं होता जबकि रजोहरण आदि स्वनिश्राकृत होने से गुरुद्रव्य कहे जाते हैं ।
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( २ ) पू. आ. म. श्री हेमचन्द्रसूरि महाराजश्री की कुमारपाल महाराजा ने स्वर्ण-कमलों से पूजा की थी, ऐसे अक्षर कुमारपाल प्रबंध में है । तथा धर्मलाभ 'तुम्हें धर्म का लाभ मिले' इस प्रकार दूर से जिन्होंने हाथ ऊंचे किये हैं, ऐसे पू. श्री सिद्धसेन सूरिजी म. को विक्रमराजा ने कोटि द्रव्य दिया ।' 'इस गुरु पूजा रूप द्रव्य का उस समय जीर्णोद्धार में उपयोग किया गया था । ऐसा उनके प्रबन्ध आदि में कहा गया है । इस विषय में बहुत कहने योग्य है । कितना लिखें.... । (हीर प्रश्न : प्रकाश ३ : पेज १९६)
उपरोक्त प्रमाण से स्पष्ट है कि पू. आ. म. श्री विजयहीर सूरीश्वरजी महाराज श्री जैसे समर्थ गीतार्थ सूरिपुरन्दर भी गुरुपूजन के द्रव्य का उपयोग जीर्णोद्धार में करने का निर्देश करते हैं । इससे स्वतः सिद्ध हो जाता है कि गुरुपूजा का द्रव्य देवद्रव्य ही गिना जा सकता है ।
इस प्रसंग पर यह प्रश्न होता है कि- गुरुपूजन शास्त्रीय है कि नहीं ? यद्यपि इस प्रश्न के उद्भव का कोई कारण नहीं है क्योंकि उपरोक्त स्पष्ट उल्लेख से ज्ञात होता है कि पूर्वकाल में गुरुपूजन की प्रथा चालू थी तथा नवांगी गुरुपूजन की भी शास्त्रीय प्रथा चालू थी । इसीलिए पू. आ. म. की सेवा में पं. नागणिवर ने प्रश्न किया है कि 'पूर्वकाल में इस प्रकार के गुरुपूजन का विधान था या नहीं ?' उसका उत्तर भी स्पष्ट दिया गया है कि, 'हाँ परमार्हत श्री कुमारपाल महाराजा ने गुरुपूजन किया है।' तो भी इस विषय में पं. श्री वेलर्षिगणि का - एक प्रश्न है कि, 'रूपयों में गुरुपूजा करना कहाँ बताया है ?' प्रत्युत्तर में पू. आ. म. श्री होरसूरीश्वरजी महाराज श्री फरमाते हैं कि, 'कुमारपाल राजा श्री हेमचन्द्राचार्य की सुबर्ण - कमल से
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पालनपुर के श्री संघ द्वारा पूछे गये प्रश्न और पू. मुनिराजश्री हंस विजयजी महाराज द्वारा दिये गये उत्तर उनश्री के हस्ताक्षरों में यहाँ प्रथम बार ही प्रसिद्ध हो रहे हैं। प्रसिद्ध हो रही इस प्रश्नोत्तरी में से स्वप्नों की उपज तथा देवद्रव्य आदि की व्यवस्था के सम्बन्ध में बहुत कुछ जानने को मिलता है । पालनपुर के श्रीसंघ ने कुल आठ प्रश्न पूछे हैं । उनमें वर्तमान में चर्चनीय बहुत सी बातों का शास्त्रानुसारी संतोषजनक प्रत्युत्तर उनसे मिल जाता है। इस पुस्तिका में उनके मूल हस्ताक्षरों के ब्लाक भी छपे हैं जिनसे स्पष्ट प्रतीति होती है कि- पू. पाद आत्मारामजी महाराजश्री के समुदाय में स्वप्न की उपज देवद्रव्य ही गिनती थी तथा अन्य भी देवद्रव्य आदि की व्यवस्था में पहले से ही शास्त्रानुसारी प्ररूपणा चालू थी ।'
- बाद में चाहे जिन कारणों से आ. म. श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराजश्री की मान्यता में परिवर्तन आया परन्तु वह प्. पाद आत्मारामजी महाराजश्री के समुदाय की शास्त्र मान्य प्रणाली से विरुद्ध और अशास्त्रीय था, यह कहने में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है, ऐसा अवश्य माना जा सकता है ।
*
जो ब्लाक यहाँ दिये जा रहे हैं, वे पू. पाद आत्मारामजी महाराजश्री के शिष्यरत्न प्रवर्तक मुनिराज श्री कान्तिविजयजी महाराज श्री के विद्वान शिष्यरत्न मुनिराज श्री चतुरविजयजी महाराजश्री के हस्ताक्षरों के दो ब्लाक है । ( श्री चतुरविजयजी
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म., विद्वद्वर्य मुनिराजश्री पुण्यविजयजी म.श्री के गुरुदेव थे। ) उन्होंने ता. ७-६-१७ को बम्बई से भावनगर में विराजित मुनिराजश्री भक्तिविजयजी म.श्री पर पत्र लिखा है, जिसमें स्वप्नद्रव्य की उपज को उपाश्रय में ले जाने सम्बन्धी पाटन संघ के ठहराव की बात को स्पष्टरूप से नकारा गया है । इसको देखते हुए आज सागर के उपाश्रय में चल रही वह कुप्रथा सर्वथा अशास्त्रीय और मुनिराजश्री चतुरविजयजी म. द्वारा प्रकट की गई हकीकत से सर्वथा विपरीत है । यह बात सागर के उपाश्रय पाटण के वहीवटदारों को ध्यान में लेकर समझने जैसी है और उस कुप्रथा को छोड़ने हेतु प्रेरणा देने वाली है।
सारांश यह है कि, प्रवर्तक वयोवृद्ध मुनिराजश्री कान्तिविजयजी म., मुनिराजश्री हंसविजयजी म; मुनिराजश्री चतुरविजयजी म. आदि पू. पाद आत्मारामजी महाराजश्री के शिष्यप्रशिष्यों की परम्परा में शास्त्रमान्य सुविहित महापुरुषों की परम्परानुसार स्वप्न द्रव्य की उपज देवद्रव्य में ही ले जाने की शास्त्रीय प्रथा थी। उपाश्रय में ले जाने की बात का स्पष्ट रीति से इस पत्र-व्यवहार में उन्होंने निषेध किया है। जिससे यह बात स्पष्ट होती है।
अन्त में, राजनगर ( अहमदाबाद ) में वि. सं. १९९० में हुए मुनि सम्मेलन के ठहरावों की मूल नकल और उसमें पू. पाद आ. म. श्री आदि के स्वयं के हस्ताक्षरों सहित का ब्लाक इस
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पालनपुर संघ के प्रश्नों का पू. मुनिराजश्री हंसविजयजी म. द्वारा दिये गये उत्तर
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૧
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છે. ન એ અઈ બાબતને લેવા અને ક% છે તેને ઉત્તમ માની મામ કો અપની અા નિવેદન 3. • અશ્વ પુન બને છે
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उत्तर प्रतिक्रमा। सूत्रोंसंबंधी उप 4.2 ज्ञान खति पुस्तहाहि सावधाना दाममा वापरी शहायछ ..
प्रश्न- ७ खुदवाना घाना ५ि० शेर्मा
धन्यस्थी धपाय.
उत्तर याबाबतना कक्षको अधी पुस्तक मा मारा लेवामा खाध्या नोन पागे शन प्रश्नमा मन श्री गुरु प्रश्न नामा शास्त्रमा अदधानमा यह स्थाना धीनी दीपन हंबहुव्यमा भएको
सीधे ते शायना साधारे उदी
'
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छु सुनाना अपन हेपहुच्य तरीह शरणर्थी या खाखतया मारो मेहसानाला सवतले भेयो खलिद्राय
छ उमस- श्री दिस
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છે અરીમદ ન ઉપાધ્યા વારિ ૩ જ સ્થાન ૧. કલન. રવિ
વેક મહાન વિશે માત્માન પણ તિ- અનિતા છે. યુપના ઉપવિધ્ય ન ગણવીજન અર ફડના ૧૪
" , શેર કરવી નિર- તનપેસ બંજી જ સૂઇ
ધરી છે જેમાં પહેલે ન પોતાની ઈચ્છા છે, તેમ પાય પણે * કોઈ અજાણ મધ્યસ રા પર ૮ નદી ગયેજ ન હોય તેવી ખાતરી છે
જોઈએ- દેવલબેન ભરીને પારકન
છે ?
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ઉજવે પુજાવવી એ તાના લાભ માટે છે '
પરતભાને નેની દવા નથી, વાર્તા પૂજામા પર દેçવ્યા અપ. કાય નહિ, ધરિ બહિના 1 જામ બનું જ રીતે બની શકે નહિ. આખા કહેન
ઉપ- ક જે આપી શકાય છે. કને ૬ વિકી કો રખાયાં ન નાય વેરબા સાથે અને નાના પી
હસંબંધી ખાનું નયને રેખા રાવ પણ કે અભણ નરવ દેવ્યને દિવ્ય બીજ ખાનામાં ભૂલ નાખે નંદ, નિત ધુર બંબન અહેવો
જોઈ, આધારનું ખાનું મને એ દિની જમા ઉપર પ્રવ્ય -1
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ITY. કલ કી ને વાતે ખાઈ.
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કછ • નાવિયેસખા બદામ ,
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ઉત્તર ના ખા દાન દેવવ્ય ખી
જમા થવી જીયો–
કદ અને દ્ધા કાળ,
કાર:
મ મ હ બ બી ના, પણ તેમાં બલિ 410 ani ozenin ginahina
હોય તેટલા ધનથી તેના તરફ આંગળી ની દેવી જોઇએ
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सह गृहस्थी छुटेखाई भाईयो ईडन हेपाहव्यनी
५-५
वृद्धि तराई सक्षराखेको परंतु तेथी दांत
खेच षिधी योक्यनीती, खलु धनु होय ते तरई ध्यान ध्यानी खास यायदि हता छ वास्तं हाखाना साधारण खातानी घूम તરવું ફરવાની ખાસ ૩૨૭ . તેથી
पाछे नेथलेने
पुण्य हस्ती दखल या हरेक प्रसं
शुभ यात आवश्य रहम डढिया दुखा
क्या तक्धीन दरकी तेही या जानु नातू यह कहो, रजने तेवी धूम हि पर। नाधर्श नहि भर श्रच्छ Suryork
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