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इससे यह स्पष्ट है कि स्वप्न द्रव्य सुविहित परम्परानुसार देवद्रव्य ही है तो उसका सदुपयोग देव की भक्ति के निमित्त के अतिरिक्त अन्य कार्यों में किन्हीं भी संयोगों में नहीं हो सकता ।
देवद्रव्य को श्रावक स्वयं ब्याज से ले या नहीं ? श्रावक देवद्रव्य ब्याज से दिया जा सकता है या नहीं ? तथा देवद्रव्य को वृद्धि या रक्षा कैसी करना ? इसके सम्बन्ध में 'सेनप्रश्न' में दूसरे उल्लास में, पं. श्री जय विजयजी गणिकृत प्रश्नोत्तर हैं । दूसरे प्रश्न के उत्तर में स्पष्ट कहा गया है कि,
'मुख्यरूप से तो देवद्रव्य के विनाश से श्रावकों को दोष लगता है परन्तु समयानुसार उचित ब्याज देकर लिया जाय तो महान् दोष नहीं परन्तु श्रावकों के लिए उसका सर्वथा वर्जन किया हुआ है, वह निःशुत्व न आ जाय, इसके लिए है। साथ हो जैन शासन में साधु को भी देवद्रव्य के विनाश में दुर्लभ बोधिता और देवद्रव्य के रक्षण का उपदेश देने में उपेक्षा करने से भवभ्रमण बताया है । अतः सुज्ञ श्रावकों को भी देवद्रव्य से व्यापार न करना हो युक्तियुक्त है । क्योंकि किसी समय भी प्रमाद आदि से उसका उपभोग न होना चाहिए । देवद्रव्य को अच्छे स्थान पर रखना, उसको प्रतिदिन सार सम्भाल करनो महानिधान की तरह उसकी रक्षा करनी, इनमें कोई दोष नहीं लगता परन्तु तीर्थंकर नामकर्म के बंध का कारण होता है । जैनेतर को वैसा ज्ञान नहीं होने से निःशुकता आदि असम्भव है । अतः गहनों पर ब्याज से देने में दोष नहीं । अभी ऐसा व्यवहार चलता है ।' .
( सेनप्रश्न पुस्तक पेज १११ )
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इस पर ने स्पष्ट है कि, देवद्रव्य का उपयोग श्रावक के लिए व्यापारादि के हेतु ब्याज से लेने में भी दोष है । तो फिर
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[ स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य