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________________ रीति से उसे उपयोग में लेने वाला देवद्रव्य के नाश के पाप का भागीदार होता है । धर्म की आराधना में सदा उद्यत रहो यही सदा के लिए शुभाभिलाषा है। द. : चारित्रविजय के धर्मलाभ ( स्व. उपाध्यायजी श्री चारित्रविजयजी गणिवर ) (५) श्रावण सुद ७ शुक्रवार ता. ६-८ - ५४ गुडा बालोतरा ( राजस्थान ) पूज्य आचार्य महाराजश्री विजय महेन्द्रसूरीश्वरजी म. आदि की तरफ से - - वेरावल मध्ये सुश्रावक शाह अमीलाल रतिलाल योग धर्मलाभ । आपका पत्र मिला । पढ़कर समाचार ज्ञात हुए । उत्तर में लिखा जाता है कि उपधान की आय देवद्रव्य में जाती है ऐसा ही प्रश्न में उल्लेख है । दूसरी बात यह है कि स्वप्नों क आय के लिए स्वप्न उतारना जब से शुरु हुआ है तब से यह आम - दनी देवद्रव्य में ही जाती रही है । इसमें से देरासर के गोठी को तथा नौकरों को पगार ( वेतन ) दिया जाता है । साधु सम्मेलन में इस प्रश्न पर चर्चा हुई थी । परम्परा से यह राशि देवद्रव्य में गिनी जाती रही है इसलिए देवद्रव्य में ही इसे ले जाने हेतु उपदेश देने का निर्णय किया गया । यहाँ सुखशान्ति है, वहाँ भी सुखशान्ति वरते । धर्मध्यान में उद्यम करना । नवोन ज्ञात करना । द. : 'मुनिराज श्री अमृतविजयजी' स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य | [17
SR No.002500
Book TitleSwapnadravya Devdravya Hi Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakchandrasuri, Basantilal Nalbaya
PublisherVishvamangal Prakashan Mandir
Publication Year1984
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size8 MB
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