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________________ प्रकट किये हैं। उनमें ९ वें प्रश्न में पूछा है कि 'आप स्वप्न उतारते हो और नीलाम करते हो, वह किसलिए ? उसके उत्तर में श्री आत्मारामजी महाराज ने बताया है कि, 'शासन की शोभा के लिए तथा देवद्रव्य की वृद्धि के लिए हम स्वप्न उतारते हैं।' उनकी मान्यता को आचार्य कमलसरि, उपाध्याय वीरविजयजी महाराज, प्रवर्तक कान्तिविजयजी महाराज, मुनि मविजयजी महाराज, मुनि चतुरविजयजी महाराज, शिष्य-प्रशिष्य मानते आये हैं । यह उनके पत्रों से सिद्ध होता हैं । वे पत्र हमारे पास हैं । ( जिनको देखना हो, देख सकते हैं। ) - आपने आगे लिखा है कि, 'आचार्य सर्वानुमति से निर्णय देवें तो हो ठहराव में परिवर्तन किया जा सकता है।' इस अपने वाक्य से हो आप बँध जाते हैं । क्योंकि आपने १९४३ के साल में ठहराव किया है; ऐसा आप कहते हैं, तो पू. आत्मारामजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् १६६० के वर्ष में राजनगर सम्मेलन में आचार्यों ने सर्वानुमति से ठहराव किया है कि, 'प्रभुनिमित्त जो जो बोली बोली जाय वह सब देवद्रव्य कहा जाता है।' इससे पूर्व की मान्यताएँ, प्रमाण और प्रणालियाँ रद्द हो जाती हैं एवं पट्टक प्रमाण बन जाता है। इसलिए आपको अपने शब्दों से ही वैसा परिवर्तन कर लेना चाहिए । एक छोटा बालक भी यह समझ सकता है परन्तु भवभीरुता बिना यह समझ में नहीं आता। पर्चे के अन्त में लिखा है कि-'आप भी कई शहरों और गावों में अलग-अलग रिवाज है।' यह लिखना भी अतिशयोक्ति है क्योंकि भारत में जैनों की वसति वाले जितने शहर और गांव हैं, उनकी गिनती करें तो, स्वप्न और पालने के पैसे ज्ञान खाते में, उपाश्रय में, या सर्वसामान्य साधारण खाते में ले जाने वाले - 80 ] | स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
SR No.002500
Book TitleSwapnadravya Devdravya Hi Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakchandrasuri, Basantilal Nalbaya
PublisherVishvamangal Prakashan Mandir
Publication Year1984
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size8 MB
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