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________________ शहर या गांव पांच प्रतिशत भी मिलना मुश्किल है । सज्जन लोग गिरते हुए का उदाहरण नहीं लिया करते । विवेकी मनुष्य विष खाने की इच्छा नहीं करता। विपरीत प्ररूप्रणा सम्यक्त्व का नाश करती है, भवभ्रमण को बढ़ाती है । मरीची एक ही वाक्य झुठा बोला तो अनन्त संसार बढ़ गया। हित दृष्टि से यह लिखा जा रहा है । अतः भूल का प्रायश्चित्त कर, क्षमा मांगकर शुद्धि करना हो हितकर और कल्याणकारी है। हमने यहाँ पर्युषण में स्वप्न-निमित्त जो देवद्रव्य को नुक्सान होगा उसकी भरपाई कर दिये जाने की शर्त पर व्याख्यान में जाहिरात करके पर्व की आराधना की थी। अतः संघ विचार करके पुरानी प्रणाली में परिवर्तन करे। गतवर्ष आचार्य भगवन्त की निश्रा में बिजापुर में बहुत समय से चली आ रही गलत प्रणाली को बदल कर स्वप्न के पैसे कायमी रूप से देवद्रव्य में ले जाने का ठहराव कराया था। वहाँ संघ के बारह आनी भाग ने स्वप्न अलग उतार कर देवद्रव्य की वृद्धि की, यह प्रशंसनीय और अनुमोदनीय है । द. मुनि त्रैलोक्यसागर का धर्मलाभ राधनपुर के कतिपय भाइयों के पर्चे के उत्तर में तथा उनके द्वारा फैलाये गये भ्रम का सचोट प्रतिकार शास्त्रानुसार करने के उद्देश्य से पू. आ. म. श्री कीर्तिसागरसूरीश्वरजी महाराजश्री की ओर से उनके विद्वान धर्म की दृढ़ भावना वाले सत्यप्रिय मुनिराजश्री त्रैलोक्यसागरजी महाराज ने उपरोक्त पर्चे का प्रकाशन करवाया। तत्पश्चात् इस बात पर विशेष प्रकाश डालने वाली छोटी-सी पुस्तिका भी प्रकाशित करवाई। उसमें उन्होंने स्वप्नद्रव्य, देवद्रव्य ] [81
SR No.002500
Book TitleSwapnadravya Devdravya Hi Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakchandrasuri, Basantilal Nalbaya
PublisherVishvamangal Prakashan Mandir
Publication Year1984
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size8 MB
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