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________________ रोति से कहा गया है कि 'प्रभु के मन्दिर में या बाहर चाहे जिस स्थान पर प्रभु के निमित्त जो जो बोली बोली जाय वह सब देवद्रव्य कहा जाता है-' तो फिर स्वप्न की बोली की उपज को साधारण में ले जाने की बात वे कैसे कर रहे हैं ? यह समझ में नहीं आता। इन्हीं मुनिराजश्री विद्याविजयजी म. के गुरु महाराज काशीवाले आ. म. श्री विजयधर्मसूरिजी, कितने ही वर्ष पहले से यह मान्यता रखते थे कि 'कई गांवों में स्वप्न आदि की उपज को साधारण खाते में ले जाने की योजना चल रही है परन्तु मेरी मान्यतानुसार वह ठीक नहीं है।' वे ऐसा शास्त्रीय अभिप्राय रखते थे। पालनपुर के श्री संघ को नया शहर (ब्यावर) से उन्होंने जो पत्र लिखा था वह नीचे उद्धृत किया जा रहा है जिसमें उन्होंने यह बात कही है। उनका पत्र इस प्रकार है:पू. मुनिराज श्री धर्मविजयजी म. (प्रा. म. श्री वि. __ धर्मसूरि म.) का पत्र 'श्री नया शहर से लि. धर्मविजयादि साधु सात का श्री पालनपुर तत्र देवादि भक्तिमान् मगनलाल कक्कल दोशी योग्य धर्मलाभ वांचना । आपका पत्र मिला । घी सम्बन्धी प्रश्न जाने प्रतिक्रमण संबंधी तथा सूत्र संबंधी जो बोली हो वह ज्ञान खाते में ले जाना उचित है। स्वप्न सम्बन्धी घी की उपज स्वप्न बनवाने, पालना बनवाने आदि में खर्च करना उचित है। शेष पैसे देवद्रव्य में लेने की रीति प्रायः सब स्थानों पर है। उपधान में जो उपज हो वह ज्ञान खाते तथा कुछ नाण आदि की उपज - स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ] [ 107
SR No.002500
Book TitleSwapnadravya Devdravya Hi Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakchandrasuri, Basantilal Nalbaya
PublisherVishvamangal Prakashan Mandir
Publication Year1984
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size8 MB
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