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परम्परा में यह पुस्तक सर्वोपकारी साहित्य की एक और कड़ी जोड़ने वाली है ।
महत्त्वपूर्ण और मननीय मार्गदर्शन देने वाली इस पुस्तक के सम्पादन - संकलन के लिए जैनसंघ, स्वर्गस्थ प्रशान्त मूर्ति सुप्रसिद्ध साहित्यकार परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजयकनकचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के अत्यन्त ऋणी रहेंगे ।
आज से पांच वर्ष पूर्व गुजराती में प्रकाशित यह पुस्तक अब हिन्दी में अनुवादित होकर पुनः प्रकाशित हो रही है यह एक हिन्दी भाषी विशाल प्रदेश के लिए उपकारी कार्यं हो रहा है । यद्यपि इस पुस्तक के संयोजक - सम्पादक पू. आचार्यदेवश्री आज क्षरदेह से विद्यमान नहीं हैं परन्तु ऐसे प्रकाशनों में प्रतिबिम्बित होने वाले उनके अक्षर-देह के अस्तित्व को मिटा सकने की शक्ति काल में भी नहीं है । पूज्यश्री के स्वर्गवास के पश्चात् हिन्दी में धर्म का मर्म प्रकाशित हुआ था और आज यह दूसरी पुस्तक प्रकाशित हो रही है ।
देवद्रव्य की परम पवित्रता समझने के लिए इसके संरक्षण से बंधने बाले प्रकृष्टं पुण्य को और भक्षण से लगने वाले प्रबल पाप को जानने के लिए तथा देवद्रव्य विषयक अनेकानेक बातों की सही सही समझ पाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति इस पुस्तक को पढ़े और उसके मार्गदर्शन को व्यवहार में उतारे, इसी अभिलाषा के साथ, इसके सम्पादक - संयोजक पूज्य स्वर्गीय आचार्यदेवश्री के चरणों में वन्दनावलि को पुष्पाञ्जलि समर्पित करते हुए आनन्द का अनुभव करता हूं ।
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वि. सं. २०४० श्रा. सु. ५ सिद्धक्षेत्र पालीताना
- मुनि पूर्णचन्द्रविजय