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म., विद्वद्वर्य मुनिराजश्री पुण्यविजयजी म.श्री के गुरुदेव थे। ) उन्होंने ता. ७-६-१७ को बम्बई से भावनगर में विराजित मुनिराजश्री भक्तिविजयजी म.श्री पर पत्र लिखा है, जिसमें स्वप्नद्रव्य की उपज को उपाश्रय में ले जाने सम्बन्धी पाटन संघ के ठहराव की बात को स्पष्टरूप से नकारा गया है । इसको देखते हुए आज सागर के उपाश्रय में चल रही वह कुप्रथा सर्वथा अशास्त्रीय और मुनिराजश्री चतुरविजयजी म. द्वारा प्रकट की गई हकीकत से सर्वथा विपरीत है । यह बात सागर के उपाश्रय पाटण के वहीवटदारों को ध्यान में लेकर समझने जैसी है और उस कुप्रथा को छोड़ने हेतु प्रेरणा देने वाली है।
सारांश यह है कि, प्रवर्तक वयोवृद्ध मुनिराजश्री कान्तिविजयजी म., मुनिराजश्री हंसविजयजी म; मुनिराजश्री चतुरविजयजी म. आदि पू. पाद आत्मारामजी महाराजश्री के शिष्यप्रशिष्यों की परम्परा में शास्त्रमान्य सुविहित महापुरुषों की परम्परानुसार स्वप्न द्रव्य की उपज देवद्रव्य में ही ले जाने की शास्त्रीय प्रथा थी। उपाश्रय में ले जाने की बात का स्पष्ट रीति से इस पत्र-व्यवहार में उन्होंने निषेध किया है। जिससे यह बात स्पष्ट होती है।
अन्त में, राजनगर ( अहमदाबाद ) में वि. सं. १९९० में हुए मुनि सम्मेलन के ठहरावों की मूल नकल और उसमें पू. पाद आ. म. श्री आदि के स्वयं के हस्ताक्षरों सहित का ब्लाक इस
स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ]
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