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________________ लित रूप में चालू रखना; उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन न करना-यह ठहराया जाता है। देव निमित्त बोली गई बोली देवद्रव्य है अतः किसी प्रकार का परिवर्तन न किया जाय । इतर को भी भलामण करने का ठहराव किया गया। साथ ही छाणी में रहे हुए उनके शिश्य मुनि प्रतापविजयजी (पू. आ. म. श्री विजयप्रतापसूरि म. श्री) के नेतृत्व में भी वैसा ही ठहराव हुआ था। __'दैनिक पत्र' के समाचार से (६). स्वप्नादि की उपज देवद्रव्य में ही जावे तीनों श्रमण-सम्मेलन में सर्वानुमति से हुए शास्त्रानुसारी निर्णय . देवद्रव्यादि को व्यवस्था तथा अन्य भी धर्मादा खातों की आय तथा उसका सद्व्यय इत्यादि की शास्त्रानुसारी व्यवस्था के सम्बन्ध में श्रीसंघों को शास्त्रीय रीति से सुविहितमान्य प्रणालिका , के अनुसार मार्गदर्शन देने को जिनको महत्त्वपूर्ण जबाबदारी हैं उन जैनधर्म या जैनशासन के संरक्षक पूज्य आचार्य भगवन्तों ने पिछले वर्षों में तोन श्रमण-सम्मेलनों में महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शक प्रस्तावों द्वारा श्रीसंघ को जो स्पष्ट और सचोट शास्त्रानुसारी मार्गदर्शन दिया है वे महत्त्वपूर्ण उपयोगी निर्णय यहाँ प्रकाशित किये जा रहे हैं । ये निर्णय सदा के लिए भारतवर्ष के श्रीसंघों के लिए प्रेरणादायी हैं। इनका पालन करने को श्रीसंवों को अनिवार्य जबाबदारी है। स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ] [ 43
SR No.002500
Book TitleSwapnadravya Devdravya Hi Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakchandrasuri, Basantilal Nalbaya
PublisherVishvamangal Prakashan Mandir
Publication Year1984
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size8 MB
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