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________________ खम्भात, आसोज सुदी १ आचार्य विजय क्षमाभद्रसूरि की ओर से ! सुश्रावक देवगुरु भक्तिकारक सेठ जमनादास मोरारजी योग्य धर्मलाभ सहित विदित हो कि आपका पत्र मिला । समाचार जाने । वहां के संघ द्वारा किया गया नया प्रस्ताव शास्त्रीय दृष्टि से ठीक नहीं है। क्योंकि देवद्रव्य के नाम से उपार्जित रकम का कोई भी भाग देवमन्दिर और मूर्ति के निर्वाह के अतिरिक्त अन्य खाते में नहीं प्रयुक्त किया जाना चाहिये । देने वालों की भावना भी देवद्रव्य के उद्देश्य से होती है । श्रावक के वार्षिक ग्यारह कर्तव्यों में से देवद्रव्य की वृद्धि रूप कर्तव्य पालन के निमित्त ही पूर्व-पूरुषों ने ऐसी प्रवृत्तियाँ प्रचलित की हैं। अनेक पेढ़ियों के संचालक बड़े-बड़े व्यापारी भी इस लोक की प्रामाणिकता के लिए प्रत्येक का हिसाब अलग-अलग और साफ सुथरा रखते हैं। रकम इस प्रकार एक दूसरे में नहीं मिलाई जा सकती है । इसी तरह धार्मिक खातों में भी स्पष्ट और अलग-अलग जमा खर्च होना चाहिये। साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि बहुत से बोली बोलने वाले देवपूजा को जीर्णोद्धार आदि खाते में खर्च के लिये निर्धारित या अलग निकाली हई रकम में से ही बोली बोलते हैं-अपने खर्च खाते से नहीं । कुछ पेढ़ियों में आय या बचत का अमुक भाग देव के नाम पर जमा होता रहता है और प्रसंगप्रसंग वह दिया जाता रहता है। यह बात लक्ष्य में रखने पर, लोगों की मूल भावना को ठेस पहुंचाने वाला और आगे नये आने वाले अनजान व्यक्तियों को देवद्रव्य में से इधर-उधर आडे-टेढे मार्गों में रकम खर्च करने की पिछले दरवाजे से छूट देने वाला प्रस्ताव उचित नहीं माना जा सकता। . - - 12 ] [ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
SR No.002500
Book TitleSwapnadravya Devdravya Hi Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakchandrasuri, Basantilal Nalbaya
PublisherVishvamangal Prakashan Mandir
Publication Year1984
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size8 MB
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