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'स्वप्न द्रव्य देवद्रव्य ही है' इस विषय पर प्रस्तुत पुस्तिका में लेख, अभिप्राय, तथा, पत्र व्यवहार आदि प्रकाशित हुए हैं, इस पर से यह समझा जा सकता है कि जो स्वप्नों की बोली को साधारण खाते में ले जाने की बालिश और सर्वथा मनघडन्त बातें करके पू. सुविहित महापुरुषों द्वारा एकमत से प्रमाणित की गई शास्त्रानुसारी प्राचीन प्रणाली के विरोध में यद्वा तद्वा प्रचार कर रहे हैं वह कितना अनुचित, अप्रमाणिक तथा शास्त्र विरुद्ध है । अतः इस पुस्तक में एक बात जो पूनः पूनः दोहराई गई है उसके सार को स्पष्ट रूप से समझकर शास्त्रानुसारी परम्परा को अखण्ड रूप से पालते हुए आराधक भाव को निर्मल रखकर स्वपर कल्याणकर जैन शासन की निष्ठा के प्रति प्रामाणिक रहते हुए भवभीरु जीवों को वर्ताव करना चाहिए । यही हमारे कहने का सार है।
विशेष वि. सं. २०२२ में राधनपुर के शासनप्रेमी भाइयों ने हमारी निश्रा में कितने हो वर्षों से चली आ रही अशास्त्रीय प्रणाली को सर्प कंचुकी की तरह छोड़कर हिम्मत करके शास्त्रानुसारी परम्परा का पालन किया, वैसे ही सर्व आराधक आत्माओं को दृढ़ता से पालन करना चाहिए।
ऐसे अवसर पर पू. सुविहित महापुरुष भी अवसरोचित प्रेरणा तथा मार्गदर्शन दृढ़तापूर्वक देते रहे हैं । इससे कहा जा सकता है कि जैन शासन सचमुच जयशील रहता है। राधनपुर में वि. सं. २०२२ में जब शास्त्रानुसारी प्राचीन परम्परा का दृढ़तापूर्वक प्रारम्भ हुआ उस अवसर पर वहां के दोनों सागरगच्छ तथा विजयगच्छ संघ को सम्बोधित करते हुए पू. आ. म. श्रो विजय शान्ति चन्द्र सूरीश्वरजी महाराजश्री तथा उन श्रीमद्
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स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य ]
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