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________________ 'अखिल भारतवर्षीय जैन श्वेताम्बर मुनि सम्मेलन ने सर्वानुमति से इस पट्टक अनुसार नियम बनाये हैं । उसका असली पक सेठ श्री आनन्दजी कल्याणजी की पेढ़ी को सौंपा है। - कस्तुरभाई मणिमाई श्री राजनगर जैन संघ, वंडावीला ता. १०-५-३४ [ उपरोक्त मुनि सम्मेलन के ठहराव से स्पष्ट होता है कि आ. म. श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराज स्वयं वि. सं. १९६० तक 'प्रभु के मन्दिर के बाहर या चाहे जिस स्थान पर प्रभु के निमित्त जी बोली बोली जाय वह देवद्रव्य है,' इस प्रकार शास्त्रानुसारी मान्यता वाले अवश्य थे । और उससे यह भी समझा जा सकता है कि, स्वप्न भी प्रभु के निमित्त होने से उनकी बोली को वे देवद्रव्य मानते थे । साथ ही देवद्रव्य जिन चैत्य या जिनमूर्ति के सिवाय दूसरे किसी भी क्षेत्र में काम में नहीं लिया जा सकता, ऐसी वे प्रामाणिक रूप से शास्त्रानुसारी मान्यता रखते थे, ऐसा हम अनुमान कर सकते हैं । ऐसा होते हुए भी यद्यपि उन्होंने उसके पहले भी देवद्रव्य की जैन संघ में चर्चा चलने के समय स्वप्नोंकी आय को साधारण खाते में ले जाने की शास्त्र तथा परम्परा विरुद्ध हलचल शुरु हुई थी उसमें भी सम्मति दी थी परन्तु चाहे जो कारण रहा हो उन्हें अपनी भूल समझ में आई हो उससे इस विषय में उन्होंने राजनगर भ्रमण सम्मेलन के ठहराव नं. २ के उप ठहराव नं. १-२-३ पर अपने हस्ताक्षर किये हैं । इस पर से हमें ऐसा मानने का स्पष्ट कारण मिल जाता है । परन्तु इसके बाद चाहे जिस कारण से उन्होंने शांताक्र ुझ जैन संघ के प्रमुख सुश्रावक जमनादास मोरारजी को जो उत्तर स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ] [55
SR No.002500
Book TitleSwapnadravya Devdravya Hi Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakchandrasuri, Basantilal Nalbaya
PublisherVishvamangal Prakashan Mandir
Publication Year1984
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size8 MB
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