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सूरीश्वरजी महाराजश्री पू. पाद श्री आत्मारामजी म. श्री के विद्यमानकाल में यावत् वि. सं. १९४८ में यह 'गप्पदीपिका समीर' पुस्तक प्रकाशित हुई वहाँ तक तो शास्त्रानुसारो मान्यता 'अनुसार स्वप्नों की उपज को देवद्रव्य में ले जाने की मान्यता वाले थे । तथा स्वप्न उतारने की क्रिया आदि देवद्रव्य की वृद्धि के लिए हैं, ऐसी मान्यता रखते थे, यह बात इस पुस्तक की उनके द्वारा लिखित पीठिका के लेख से स्पष्टरूप से सिद्ध होतो है । ]
(२)
वि. सं. १९९० राजनगर भ्रमण सम्मेलन में भी उन्होंने ठहराव नं. २ में अपने हस्ताक्षर किये हैं । उस ठहराव नं. २ की उप कलम १-२-३ इस प्रकार हैं :
( १ ) देवद्रव्य जिन चैत्य तथा जिनमूर्ति सिवाय अन्य किसी भी क्षेत्र में नहीं लगाया जा सकता ।
( २ ) प्रभु के मन्दिर में या बाहर चाहे जहाँ प्रभु के निमित्त जो बोली बोली जाय वह सब देवद्रव्य माना जाता है ।
( ३ ) उपधान सम्बन्धी माला आदि की उपज देवद्रव्य में ले जानी उचित है ।
उपर्युक्त ठहराव के नीचे 'विजयवल्लभसूरि' इस प्रकार वल्लभसूरि महाराज ने अपने हस्ताक्षर किये हैं । उस हस्ताक्षर के नीचे निम्न प्रकार के लेख के बाद कस्तुरभाई मणिभाई के हस्ताक्षर हैं । वह लेख इस प्रकार है :
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[ स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य