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________________ 'यहाँ एक दूसरा भयंकर पाप भी प्रविष्ट हुआ है उसका उल्लेख मैंने पिछले 'जैन' पत्र में किया है। उस लेख को बराबर पढ़ना । वह पाप आपके यहां तो नहीं होगा, ऐसा मुझे विश्वास है । यदि हो तो मुझे सूचित करना ।' पू आ. श्री कोर्तिसागरसूरिजी महाराज की ओर से . ह. मुनि त्रैलोक्य सागर का धर्मलाभ वि. सं. २०२२ भादवा व १०, सागर का उपाश्रय, पाटन उक्त रीति से शासन मान्य और सुविहित परम्परानुसार स्वप्न तथा पालने की उपज देवद्रव्य में जानी चाहिए । इस प्रणाली का राधनपुर के शासन प्रेमी जैन संघ ने हिम्मत तथा दृढ़ता के साथ पू. समर्थ वक्ता पंन्यासजी महाराज श्री कनकविजयजी गणिवर श्री के सजोर उपदेश तथा निर्भय प्रेरणा से जो सुन्दर शुरुआत की है । उस प्रणाली को अब सदा के लिए श्री संघ बनाये रखे । राधनपुर में शेषकाल में तथा चातुर्मास में पधारने वाले पू. पाद सुविहित आचार्यदेवादि मुनिभगवंत इस शास्त्रानुसार प्रणाली के प्रचार हेतु और इसे वेग मिले तथा शासन प्रेमी संघ को प्रोत्साहन मिले इस तरह उपदेश देते रहे दृढ़ता से सजोर प्रेरणा करते रहे तो आशा की जा सकती है कि अभी जो चार आनो वर्ग तथा दोनों गच्छों को संघ की पेढ़ी के व्यवस्थापक पू. आचार्यदेवादि सुविहित भगवंतों से निरपेक्ष होकर अपनी मनमानी से शास्त्र, शासन तथा सुविहित परम्परा की जान बूझकर अवगणना करके दो चार व्यक्तियों के प्रभाव तथा शर्म से प्रेरित होकर अशास्त्रीय तथा वर्तमान तपागच्छ के लगभग सभी पू. पाद सुविहित आचार्य भगवंतों की आज्ञा के 74 1 [ स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य
SR No.002500
Book TitleSwapnadravya Devdravya Hi Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakchandrasuri, Basantilal Nalbaya
PublisherVishvamangal Prakashan Mandir
Publication Year1984
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size8 MB
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