SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महत्त्वपूर्ण एवं मननीय मार्गदर्शन ( लेखक : पू. विद्वद्वर्य सिद्धहस्त लेखक मुनिराज श्री पूर्णचन्द्रविजयजी महाराज ) जहाँ देह है वहां रोग की संभावना रहती है और रोग होने पर उसकी औषधि भी होती है । इसी तरह जहाँ समाज है वहाँ कोई न कोई समस्या होती ही है और जहाँ समस्या होती है तो उसका समाधान भी होता है । यह एक माना हुआ सत्य है । जैन संघ अन्ततः व्यक्ति-व्यक्ति की जोड़ से बना हुआ एक समाज ही है । अतः इसके सामने भी समस्याएँ हों, प्रश्न हों और चर्चा- विचारणा हों यह असंभवित नहीं । शास्त्रीय समाधान की अपेक्षा रखने वाले अनेक प्रश्नों में से एक प्रश्न है कि :- स्वप्नद्रव्य को देवद्रव्य गिना जाय या नहीं ? स्वप्न की बोली में चार्ज बढ़ाकर उस बढ़ी हुई रकम को साधारण खाते में खताया जा सकता है या नहीं ?' यह प्रश्न बहुत पुराना नहीं है । पिछले पचास वर्ष से ही यह चर्चा चली है । इस चर्चा के चालक कौन थे और उसके पीछे क्या अभिप्राय था ? इसकी विचारणा को अलग रखकर, इस प्रश्न का शास्त्र सम्मत समाधान क्या है, यह जानना तो आवश्यक ही है ! 'स्व'नद्रव्य देवद्रव्य ही है' पुस्तिका द्वारा इस प्रश्न पर सुन्दर प्रकाश डाला जा रहा है। इस प्रश्न के शास्त्रीय समाधान के लिए हुए निर्णयों और प्रयासों को सब सरलता से समझ सकें, इस तरह शब्दस्थ करके पुस्तकाकार में प्रकाशित करने की अनि
SR No.002500
Book TitleSwapnadravya Devdravya Hi Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakchandrasuri, Basantilal Nalbaya
PublisherVishvamangal Prakashan Mandir
Publication Year1984
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy