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________________ इस प्रकार स्वप्न उतारना, उसकी बोली बोलना और उस बोली का द्रव्य देवद्रव्य गिना जाता है, ऐसा विधान करने के पश्चात् 'स्वप्न का नीलाम करना और दो तीन रुपये मन बेचना' कहकर स्वप्न उतारने और उसकी बोलो बोलने की धर्म प्रभावना और देवद्रव्य की वृद्धि करने वाली प्रवृत्ति का उपहास करने वाले प्रश्नकार को उन्होंने समझाया है कि 'जैसे तुम्हारे आचारांगादिशास्त्र-भगवान् की वाणी दो या चार रुपयों में बेचे जाते हैं वैसे ही बोली के घी का भी मोल होता है । अर्थात् पू. आ. म. श्री विजयानन्दसूरीश्वरजी (आत्मारामजी) महाराज के नाम से ऐसा कहना कि-'वे स्वप्न की आय को साधारण खाते में ले जाने में सम्मत थे', यह सत्य से दूर है। जिस किसी ने उनके नाम से भुलावे में आकर स्वप्न की आय को साधारण खाते में ले जाने की प्रवृत्ति की हो अथवा वैसी शास्त्रविरुद्ध प्रवृत्ति को सम्मति प्रदान की हो तो उन्हें अपनो उस प्रवृत्ति को अथवा अपनो उस सम्मति को वापन ले लेनी चाहिए और जो भूल हो गई है, उसे सुधार लेनी चाहिए। _. ऊपर का प्रश्नोत्तर किन संयोगों में निर्मित हुआ, उसका वर्णन उक्त 'गप्पदोपिका समीर' में विस्तार से दिया गया है। . वि. सं. १९३८ में पू.आ. म. श्री विजयानन्द सूरीश्वरजी (आत्मा रामजी) महाराज अमृतसर नगर में पधारे थे। उस समय उस नगर में स्थानकवासी स्वामी अमरसिंहजी भी विद्यमान थे। उस समय एक बार स्था. स्वामी अमरसिंहजी ने श्रावकों के समक्ष बात की कि -'जो प्रश्न आत्मारामजी मुझसे करेंगे उनका मैं शास्त्रानुसार उत्तर दूंगा।' यह बात पूज्य आ. म. श्री विजयानन्द सूरीश्वरजी महाराज को विदित होने पर उन्होने सं. १९३८ चैत्र सुदी ३ शुक्रवार को २१ प्रश्न लिखकर बीकानेर निवासी स्वप्नद्रव्य; देवद्रव्य । [51
SR No.002500
Book TitleSwapnadravya Devdravya Hi Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakchandrasuri, Basantilal Nalbaya
PublisherVishvamangal Prakashan Mandir
Publication Year1984
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size8 MB
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