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( उक्त अभिप्राय पू. आ. म. श्री विजय नेमिसूरीश्वरजी म. श्री के पट्टालंकार पू. आ. म. श्री विजय अमृतसूरीश्वरजी म. श्री के पट्टालंकार स्व. पू. आ. म. श्री विजय धर्मधुरन्धर सूरीश्वरजी म. का है | )
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राजकोट ता. ८-८-५४
पं. कनकविजय गणि आदि ठाणा ६ की तरफ से तत्र देव गुरु भक्तिकारक श्रमणोपासक सुश्रावक अमीलाल रतिलाल योग्य धर्मलाभ पूर्वक लिखना है कि यहाँ देवगुरु कृपा से सुख शाता है । आपका ता. ४-८-५४ का पत्र मिला । उत्तर में लिखना है कि स्वप्न, पारणा इन दोनों की आय देवद्रव्य में गिनी जाती है । अब तक सुविहित शासनमान्य पू. आचार्य देवों का यही अभिप्राय है । श्री तीर्थंकर देवों की माता इन स्वप्नों को देखती है । अतः उस निमित्त जो भी बोली बोली जाती है वह शास्त्र दृष्टि से तथा व्यवहारिक दृष्टि से देवद्रव्य ही गिनी जाती है ।
सेन प्रश्न के तीसरे उल्लास में पं. विजयकुशलगणिकृत प्रश्न ( ३९ वें प्रश्न) के उत्तर में बताया गया है कि देव के लिए आभूषण करवाये हो वे गृहस्थ को नहीं कल्पते हैं। क्योंकि उनका उद्देश्य और संकल्प देव-निमित्त है अतः गृहस्थ को उनका उपयोग नहीं कल्पता है । उसी प्रकार संघ के बीच में स्वप्नों या पारणों के निमित्त जो बोली बोली जाती हैं वह स्पष्ट रूप से देव निमित्त होने से उसकी आय देवद्रव्य मानी है । सं १९९० के साधु सम्मेलन में भी पू. आचार्य देवों ने मौलिक - रीति से
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[ स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य