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ISSN No. 0971-796 X
प्राकृत किया
वर्ष 12, अंक 1,
अप्रैल-जून '2000 ई०
प्राचीन भारत
22 अप्रैल 2000 को दिल्ली के परेड ग्राउंड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक श्री कु० सी० सुदर्शन की उपस्थिति में एन०सी०ई०आर०टी० द्वारा प्रकाशित 'प्राचीन भारत' में से जैन-परम्परा के विरुद्ध प्रकाशित बातों का सप्रमाण परिचय देते हुए परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज
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आवरण पृष्ठ के बारे में
भारत सरकार के उपक्रम 'राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद्' (N.C.E.R.T) द्वारा ग्यारहवीं कक्षा के छात्रों के लिये निर्मित इतिहास-विषयक पुस्तक 'प्राचीन भारत' के लेखक प्रो० रामशरण शर्मा ने जैनधर्म और संस्कृति के सम्बन्ध में जो पाठ लिखा है, उसमें अनेकों विसंगतियाँ, पूर्वाग्रही प्रस्तुतिकरण एवं तथ्यविरुद्ध प्ररूपण प्राप्त होते हैं। जैसेकि भगवान् महावीर को जैनधर्म का प्रवर्तक कहना, उनका जन्म गंगा के मैदानी भाग में हुआ बताना, दीक्षा के उपरान्त उनकी द्वादशवर्षीय तपस्या को 'बारह वर्ष तक यहाँ-वहाँ भटकते रहना' तथा बौद्ध धर्म के साथ जोड़कर कई असंगत बातों को कहना आदि नितांत आपत्तिजनक, सांप्रदायिकता विद्वेष की भावना से प्रेरित तथा संकीर्ण मानसिकता के द्योतक बिन्दु हैं।
इसके विषय में विद्वद्वर्य श्री राजमल जी जैन, नई दिल्ली का सप्रमाण गवेषणापूर्ण आलेख प्राकृतविद्या के अंक में सर्वप्रथम प्रकाशित किया गया था, जिसमें प्रो० रामशरण शर्मा द्वारा प्रस्तुत अनेकों तथ्यविरुद्ध प्ररूपणों का आधारसहित निराकरण किया गया था। इस आलेख को पढ़कर देशभर के धर्मश्रद्धालुओं एवं बुद्धिजीवियों में खलबली मच गई, तथा चारों ओर से इस बारे में विरोध के स्वर मुखरित होने लगे। अलवर-निवासी श्री खिल्लीमल जैन एडवोकेट ने तो लेखक को विधिवत् कानूनी नोटिस देकर तथ्यों का स्पष्टीकरण माँगा। वरिष्ठ विद्वान् पं० नाथूलाल जी शास्त्री, इंदौरवालों ने इस बारे में लेख लिखकर समाज को प्रेरित किया कि ऐसी पुस्तकों का उचित तरीके से विरोध किया जाये। इसी क्रम में 22 अप्रैल 2000ई० को दिल्ली के परेड ग्राऊण्ड मैदान में आयोजित विशाल समारोह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माननीय श्री कु०सी० सुदर्शन जी को पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने इस पुस्तक के संस्करण और उसके पाठों में आगत उक्त बिन्दुओं का परिचय दिया; तब श्री सुदर्शन जी ने इस बात को गंभीरता से लिया तथा कहा कि वे केन्द्रीय मानव-संसाधन-विकास मंत्री जी से इस विषय में अपेक्षित सुधार के लिए कहेंगे। किन्तु अभी तक इस भारतीयता का नारा लगानेवाली सरकार के द्वारा भारतीय संस्कृति के विरुद्ध लिखी गयी इस पुस्तक और इसके लेखक के प्रति कोई कार्यवाही नहीं की गई है।
प्रतीत होता है कि यदि सरकार ने तत्काल इस विषय में कोई कठोर कदम नहीं उठाया तो पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी के पावन निर्देशन में सम्पूर्ण जैनसमाज इस पुस्तक की आपत्तिजनक सामग्री वाले पृष्ठों को सार्वजनिकरूप से लालकिले के मैदान में अग्नि-संस्कार करने को विवश होगी। हमें आशा है कि सरकार समय रहते चेत जायेगी और समाज को ऐसा कदम उठाने को विवश नहीं होना पड़ेगा, जिससे भारत की साम्प्रदायिक सौहार्द की शाश्वत उदात्त भावना को कोई ठेस पहुंचे। –सम्पादक
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प्राकृत-विद्या
पागद-विज्जा
।। जयदु सुद - देवदा । ।
वीरसंवत् 2526 अप्रैल - जून 2000 ई० April-June '2000
Veersamvat 2526
SOMICS
शौरसेनी, प्राकृत एवं सांस्कृतिक मूल्यों की त्रैमासिकी शोध पत्रिका
The quarterly Research Journal of Shaurseni, Prakrit & Cultural Values
मानद प्रधान सम्पादक
प्रो० (डॉ० ) राजाराम जैन
निदेशक, कुन्दकुन्द भारती जैन शोध संस्थान
प्रकाशक
श्री सुरेश चन्द्र जैन
मंत्री
श्री कुन्दकुन्द भारती ट्रस्ट
★ वार्षिक सदस्यता शुल्क ★ एक अंक
प्राकृतविद्या+अप्रैल-जून '2000
आचार्य कुन्दकुन्द समाधि संवत् 2013
ISSN No. 0971-796 X
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PRAKRIT-VIDYA Pagad-Vijja
मानद सम्पादक Hon. Editor
डॉ० सुदीप जैन DR. SUDEEP JAIN
एम.ए. ( प्राकृत), पी-एच.डी. M. A. (Prakrit), Ph.D.
वर्ष 12 अंक 1
Year 12
Issue 1
Hon. Chief Editor
PROF. (DR.) RAJA RAM JAIN Director, K.K.B. Jain Research Institute
पचास रुपये (भारत) पन्द्रह रुपये (भारत)
Publisher
SURESH CHANDRA JAIN
Secretary
Shri Kundkund Bharti Trust
6.0 $ (डालर) भारत के बाहर 1.5 $ (डालर) भारत के बाहर
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सम्पादक-मण्डल
डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री
प्रो० (डॉ०) प्रेमसुमन जैन
डॉ० उदयचन्द्र जैन
प्रबन्ध सम्पादक डॉ० वीरसागर जैन
श्री कुन्दकुन्द भारती (प्राकृत भवन) 18-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110067 फोन (011) 6564510 फैक्स (011) 6856286
Kundkund Bharti (Prakrit Bhawan) 18-B, Spl. Institutional Area
New Delhi-110067 Phone (91-11)6564510
Fax (91-11) 6856286
“संख्याप्रकृतेरिति वक्तव्यम्, इह मा भूत् । महावार्तिक: कालापकः ।” .
–(पातंजल महाभाष्य, 4/2/65) इस वाक्य में महर्षि पतंजलि ने जैन आचार्य शर्ववर्म के कातंत्रव्याकरण' का उल्लेख किया है। इसे ही कलाप' या 'कालापक' भी कहा जाता था। पं० युधिष्ठिर मीमांसक ने 'कातंत्रव्याकरण' के रचयिता का काल 1500 विक्रमपूर्व स्वीकार किया
___इसीप्रकार ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी में सम्राट् खारवेल ने लुप्त होते जैन आगमों की रक्षा के लिए जैनश्रमणों की विशाल संगीति बुलवाई थी, जिसके फलस्वरूप अवशिष्ट द्वादशांगज्ञान को चार अनुयोगों में सुरक्षित किया गया था। इसका ऐतिहासिक हाथीगुम्फा शिलालेख की पंक्ति 16 में स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
पं० हीरालाल जी सिद्धान्ताचार्य ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि कसायपाहुडसुत्त' के रचयिता आचार्य गुणधर का काल विक्रमपूर्व प्रथम शताब्दी है। लगभग यही काल आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त-भूतबलि एवं आचार्य कुन्दकुन्द का भी विद्वानों ने माना है।
इन सब तथ्यों से विक्रमपूर्व काल से ही जैनश्रमणों द्वारा ग्रंथरचना के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। इनके आधार पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि विक्रमपूर्व द्वितीय शताब्दी से धाराप्रवाह रूप से जैन-श्रमणों ने ग्रंथ-सृजन प्रारंभ कर दिया था।
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प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
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क्र.
शीर्षक
01. मंगलाचरण
02. सम्पादकीय : न धर्मो धार्मिकैर्विना
03. प्राकृत का संस्कृत से सामंजस्य
04. प्राकृतविद्या - प्रशस्तिः (संस्कृत कविता ) 05. इक्कीसवीं सदी : कातन्त्र-व्याकरण का स्वर्णयुग
06. आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की भा
07. तीर्थंकर महावीर के सिद्धांतों की प्रासंगिकता
08. 'णमोकार मंत्र' की जाप संख्या और पंच - तंत्री वीणा
09. यशस्वी - सुत के पावन संस्मरण
10. 2600वीं वीर जयंती ( हिन्दी कविता )
11. शौरसेनी प्राकृत
12. सम्राट् अशोक की जैनदृष्टि
13. जैनदर्शन में रत्नत्रय की मीमांसा भाषा का स्वरूप एवं विश्लेषण
14.
15. महाकवि स्वयंभूकृत 'पउमचरिउ' के 'विद्याधर काण्ड' में विद्याधरों का देश भारत
16. एक क्रांति का जनक: लुई ब्रेल
17. जैन - वाङ्मय में द्रोणगिरि
अनुक्रम
18. 'प्राकृतविद्या' के वर्ष 10 एवं 11 के अंकों में प्रकाशित लेखों का विवरण
'19. जैन - संस्कृति में आहार - शुद्धि
20. 'ऋषि' और 'मुनि' में अंतर
21. आचार्य यतिवृषभ के अनुसार अन्तरिक्ष - विज्ञान . एवं ग्रहों पर जीवों की धारणा
22. अध्यात्मसाधक भैया भगवतीदास एवं
उनका 'ब्रह्म विलास'
23. पुस्तक-समीक्षा
24. अभिमत
25. समाचार - दर्शन
26. इस अंक के लेखक-लेखिकायें
प्राकृतविद्या+अप्रैल-जून '2000
लेखक
डॉ० सुदीप जैन
डॉ० जानकी प्रसाद द्विवेदी
पं० वासुदेव द्विवेदी शास्त्री
प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन
डॉ॰ देवेन्द्रकुमार शास्त्री
जयचन्द्र शर्मा
प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन अनूपचन्द न्यायतीर्थ
डॉ० उदयचंद्र जैन
डॉ० दयाचन्द्र साहित्याचार्य
डॉ० (श्रीमती) माया जैन
श्रीमती स्नेहलता जैन
डॉo लालचन्द जैन
So
श्रीमती रंजना जैन
शारदा पाठक
धर्मेन्द्र जैन
(डॉ) श्रीमती पुष्पलता जैन
पृष्ठ सं०
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मंगलाचरण
सास्मरीमि तोष्टवीमि नंनमीमि भारतीम् । तंतनीमि पापठीमि बंभणीमि केवलाम् ।। देवराज-नागराज-मर्त्यराज-संस्तुताम् ।
श्रीसमन्तभद्रवाद-भासुरात्म-गोचराम् ।। 1।। अर्थ:- आत्मगोचर/आश्रय-केवलज्ञान प्रकाशित करानेवाली, देवराज (सौधर्मइन्द्रादि), नागराज (धरणेन्द्रादि), मर्त्यराज (चक्रवर्ती) द्वारा संस्तुत 'श्री समन्तभद्रवाद' नामक भारती (जिनवाणी) को बार-बार स्मरण करता हूँ, बार-बार स्तुति करता हूँ, बार-बार नमन करता हूँ, विस्तार करता हूँ, बार-बार पढ़ता हूँ, बार-बार कहता हूँ।
मातृ-मान-मेय-सिद्धि-वस्तुगोचरांस्तुवे । सप्तभंग-सप्तनीति-गम्यतत्त्व-गोचराम् ।। मोक्षमार्ग-तद्विपक्ष-भूरिधर्म-गोचराम् ।
आप्ततत्त्व-गोचरां समन्तभद्र-भारतीम् ।। 2 ।। अर्थ:- प्रमाता, प्रमाण प्रमेयसिद्धि वस्तु के गोचर/आश्रय, सप्तभंग (स्याद् अस्ति, . स्याद् नास्ति आदि), सप्तनीति (स्याद् अस्ति आदि का व्यवहार), व गम्य-तत्त्व के गोचर/आश्रय मोक्षमार्ग (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) तथा मोक्षमार्ग से विपक्षी धर्मों के गोचर उस समन्तभद्र भारती की स्तुति करता हूँ।
सूरि-सूक्ति-वंदितामुपेय-तत्त्व-भाषिणीम् । चारुकीर्ति-भासुरामुपाय-तत्त्व-साधिनीम् ।। पूर्व-पक्ष-खण्डन-प्रचण्ड-ग्विलासिनीम् ।
संस्तुवे जगद्धितां समन्तभद्र-भारतीम् ।। 3 ।। __ अर्थ:- उपेय (मोक्ष) तत्त्व कहनेवाली, उपाय (सम्यक् रत्नत्रय) तत्त्व साधनेवाली, सम्पन्न करानेवाली, सुन्दर कीर्ति को प्रकाशित करनेवाली, प्रचण्ड/तीव्रवाणी से पूर्वपक्ष/पूर्व आक्षेप का खंडन कर शोभित होने वाली जगत् का हित करनेवाली आचार्यों की सूक्तियों द्वारा वंदित उस समन्तभद्र भारती की स्तुति करता हूँ।
पात्रकेसरि-प्रभाव-सिद्धि-कारिणी स्तुवे । भाष्यकार-पोषितामलंकृतां मुनीश्वरैः ।।
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गृद्धपिच्छ-भाषितप्रकृष्ट-मंगलार्थिकाम् ।
सिद्धि-सौख्य-साधिनीं समन्तभद्र-भारतीम् ।। 4।। अर्थ:- गृद्धपिच्छ आचार्य उमास्वामी द्वारा प्रकृष्ट मंगलार्थ को कहनेवाली भाष्यकार (समन्तभद्र) मुनीश्वर द्वारा परिपोषित एवं अलंकृत, आचार्य पात्रकेसरी के प्रभाव को सिद्धि करनेवाली, सिद्धि-सौख्य के साधन-स्वरूप उस समन्तभद्र-भारती की स्तुति करता हूँ।
इन्द्रभूति-भाषित-प्रमेयजाल-गोचराम् । वर्द्धमानदेवबोध-बुद्ध-चिद्विलासिनीम् ।। यौग-सौगतादि-गर्व-पर्वताशनिं स्तुवे ।
क्षीरवार्धि-सन्निभां समन्तभद्र-भारतीम् ।। 5।। अर्थ:- भगवान् वर्द्धमान के प्रत्यक्ष/केवलज्ञान को बतानेवाली, इन्द्रभूति द्वारा कहे प्रमेयजाल के गोचर व योग, सौगतादि के गर्वरूपी पर्वतों को चूर करने में व्रज के समान, मन को आनन्दित करनेवाली, क्षीरसमुद्र के समान समन्तभद्र-भारती की स्तुति करता हूँ।
माननीति वाक्यसिद्धि-वस्तु-धर्म-गोचराम्। मानित-प्रभाव-सिद्ध-शुद्ध-सिद्धि-साधिनीम् ।। घोर-भूरि-दुःख-वार्धि-पारण-क्षमामिमाम् ।
चारु-चेतसा स्तुवे समन्तभद्र-भारतीम् ।। 6।। अर्थ:- प्रमाण व नीति-वाक्यों से सिद्ध वस्तुधर्म के गोचर/आश्रय व प्रमाणित प्रभाव से सिद्ध, शुद्ध (निर्विकार) सिद्धि को साधनेवाली, बहु घोर दुःख से पार कराने की सामर्थ्य से युक्त इस समन्तभद्र-भारती की सुन्दर मन से स्तुति करता हूँ।
सांत-साधनाद्यनन्त-मध्ययुक्त-मध्यमाम् । शून्यभाव-सर्ववेदि-तत्त्ववेदि-साधिनीम् ।। हेतु-हेतुवाद-सिद्ध-मेय-जाल-भासुराम् ।
मोक्षसिद्धये स्तुवे समन्तभद्र-भारतीम् ।। 7।। अर्थ:- सादि-सान्त, अनादि-अनन्त एवं मध्ययुक्त, मध्यवर्ती को शून्यभाव सर्वविदित तत्त्ववेदि को साधनेवाली, हेतु एवं हेतुवादसिद्धि, प्रमेयजाल प्रकाशित करनेवाली समन्तभद्र-भारती की मोक्षसिद्धि के लिए स्तुति करता हूँ।
व्यापकाद्वयाप्त-मार्गतत्त्व-युग्म-गोचराम् । पापहारि-वाग्विलास-भूषणां शुकांस्तुवे ।। श्रीकरिं च धीकरिं च सर्वसौख्य-दायिनीम् ।
नागराज-पूजितां समन्तभद्र-भारतीम् ।। 8।। अर्थ:- द्वय (इहलोक, परलोक) में विस्तार को प्राप्त मार्ग-तत्त्व के युग्म के गोचर, पाप हरने वाली, वाग्विलास को शुक (तोता) की आवाज के समान भूषण करनेवाली, उभय लक्ष्मी एवं बुद्धि को बढ़ाने वाली नागराज से पूजित उस समन्तभद्र-भारती की स्तुति करता हूँ। **
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[सम्पादकीय
न धर्मो धार्मिकैर्विना
-डॉ० सुदीप जैन
कुछ नकारात्मक चिंतनवाले व्यक्ति भले ही धार्मिक एवं सामाजिक आयोजनों की उपादेयता पर प्रश्नचिह्न अंकित करते रहें; किन्तु यह सुविदित एवं अनुभवसिद्ध तथ्य है कि इनकी व्यापक उपादेयता सदा से अक्षुण्ण रही है एवं रहेगी। वस्तुत: जैसे कोई पर्व या पारिवारिक उत्सव-प्रसंग आने पर सब लोगों को मिलने-जुलने, पारस्परिक संवादों के आदान-प्रदान एवं स्नेह-सौहार्द सुदृढ़ करने का अवसर मिलता है; इसीलिए ऐसे प्रसंग सोल्लास आयोजनपूर्वक मनाये जाते हैं। इसीप्रकार धार्मिक व सामाजिक पर्व भी धर्मानरागी समाज के मिलने, उनके पारस्परिक सौहार्द को सुदृढ़ करने तथा मनोमालिन्य दूर करके नये सिरे से धर्मप्रभावना के रचनात्मक कार्यों में जुटने का अवसर प्रदान करते हैं। इनके परिणामस्वरूप आत्मिक संस्कारों का प्रसार होता है तथा व्यक्ति आदर्श नागरिक बनकर अपना हित तो करता ही है, साथ ही समाज एवं राष्ट्र की भी उन्नति का माध्यम बनता है। ये अवसर आबालवृद्ध को एक नयी वैचारिक ऊर्जा प्रदान करते हैं, संस्कारों का बोध एवं प्रेरणा देते हैं और संगठन का महामंत्र भी सिखाते हैं।
यदि कोई व्यक्ति किसी भी प्रमाद आदि कारण से अच्छाई से दूर होकर उन्मार्गी हो रहा हो, तो ऐसे प्रसंग उसे पुन: समाज की मूलधारा में जुड़ने व सत्संस्कारों को अपनाने का अवसर प्रदान करते हैं। वस्तुत: जैनदर्शन में स्थितिकरण' एवं 'प्रभावना' नामक जो दो महत्त्वपूर्ण अंग 'सम्यग्दर्शन' के माने गये हैं, उनकी व्यावहारिक निष्पत्ति के लिए सामाजिक व धार्मिक आयोजनों का अत्यधिक महत्त्व है।
साधर्मीजनों को धर्ममार्ग में स्थिर करना एक महनीय कार्य है। परमपूज्य आचार्य समन्तभद्र स्वामी लिखते हैं
"दर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलैः। प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञैः स्थितिकरणमुच्यते।।"
-(रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 1/16) अर्थात् जो साधर्मी श्रावकजन किसी भी कारणवश अपने यथार्थ श्रद्धान तथा आचरण
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से विचलित होते हों, तो धर्म से प्रेम रखनेवाले धर्मात्मा बंधुओं को चाहिए कि उन्हें पुन: अपने सच्चे धर्म में श्रद्धायुक्त करें तथा धर्माचरण में स्थिर (दृढ़) कर दें। यह स्थितिकरण' अंग सम्यग्दर्शन का महत्त्वपूर्ण अंग है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कविवर पं० दौलतराम जी लिखते हैं
“धर्मी-सौं गो-वच्छ-प्रीति सम कर जिनधर्म दिपावै।
__इन गुनतें विपरीत दोष वस तिनको सतत खिपावै।।" अर्थ :- धर्मात्माजनों का यह कर्तव्य है कि वे प्रत्येक साधर्मी व्यक्ति के साथ गाय और बछड़े के समान नि:स्वार्थ सहज प्रीति रखें और जिनधर्म की प्रभावना करें। तथा इन नि:शंकितादि —प्रभावना-पर्यन्त आठ अंगों से विपरीत जो शंका-कांक्षा आदि आठ दोष कहे गये हैं, उन्हें निरन्तर दूर करते रहना चाहिए।
जैसे कोई किसान अन्न के उत्पादन के लिए खेती करता है। जब उसमें साथ-साथ यदि ‘खर-पतवार' भी उत्पन्न होते हैं, तो समझदार किसान निरन्तर निराई-गुड़ाई आदि के द्वारा उन खर-पतवारों का निवारण करता रहता है। और खाद-पानी से अनाज के पौधों को खुराक भी देता रहता है। इस प्रक्रिया से अनाज के पौधों को पूर्ण पोषण मिलता है, तथा अधिक मात्रा में स्वस्थ अनाज का उत्पादन होता है। उसीप्रकार चित्तशुद्धि की प्रक्रिया में अच्छाई को अपनाने एवं दोषों के निवारण का काम साथ-साथ चलता रहता है। सद्गुणों की प्रेरणा जहाँ चित्त को संस्कारित करती है, वहीं उसमें बसी दुर्भावनाओं की दुर्गन्ध को भी दूर करती है।
यह बात शासननायक तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर के 2600वें जन्मोत्सव के पुनीत सन्दर्भ में प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह महोत्सव सम्पूर्ण जैनसमाज को जोड़ने के लिए एक
और महोत्सव है। साधर्मीवात्सल्य की भावना दृढ़ करने के लिए एवं वीतराग की धर्मप्रभावना का कार्य व्यापक स्तर पर करने के लिए यह एक सुअवसर आया है। ___ यह अवसर मात्र आयोजनप्रियता के लिए ही नहीं है। इस प्रसंग पर हमें अहिंसक जीवनपद्धति एवं स्वाध्याय का भी संकल्प लेना है। क्योंकि अहिंसा को अपनाये बिना आत्मानुशासन संभव नहीं होता है तथा आत्मानुशासन के बिना जीवन 'बिना ब्रेक की गाड़ी' के समान अपने और दूसरे – दोनों के लिए अहितकारी ही होता है। न केवल जैन-परम्परा में, अपितु वैदिक परम्परा में भी इस तथ्य को मुखर स्वीकृति प्रदान की गयी है- “अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम् ।
वाक् चैव मधुरा-सुलक्षणा प्रयोज्या धर्ममिच्छता ।।" – (मनुस्मृति, 2/159) अर्थात् धर्म की इच्छा करनेवाले गुरु का कर्तव्य है कि वह शिष्यों को अहिंसा के द्वारा ही प्राणिमात्र का कल्याण करने की शिक्षा दे। और साथ ही यह भी सिखाये कि वे मधुर एवं कोमल वाणी का प्रयोग करें, ताकि धर्म की इच्छा करनेवाले सभी लोग उसकी
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बात प्रीतिपूर्वक सुन सकें।
इसी दृष्टि से आगम-ग्रन्थों में तीन प्रकार की वाणी के प्रयोग की प्रेरणा दी है 1. प्रभुसम्मित, 2. सुहृद्सम्मित, 3. कान्तासम्मित। 'प्रभु' अर्थात् स्वामीजनों को जो प्रिय हों, ऐसे आदरयुक्त मर्यादित वचनों का प्रयोग 'प्रभुसम्मित' कहलाता है। विनम्रता के संस्कार इन वचनों से मिलते हैं। तथा 'सुहृद्सम्मित' वचन मैत्रीपूर्ण होते हैं, इनसे पारस्परिक माधुर्य, सौहार्द एवं अपनत्व की भावना बढ़ती है; ये 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना का प्रसार करते हैं। जबकि कान्तासम्मित' वचन स्त्रियों के मनोनुकूल मधुर कोमलकान्त पदावलि से युक्त एवं आत्मीयतापूर्ण होते हैं। इन तीनों प्रकार के वचनों की विशेषताओं को अपनी वाणी में समाहित करके यदि साधर्मीजन आपस में मिलेंगे व विचारों का आदान-प्रदान करेंगे; तो पारस्परिक सौहार्द व एकता की भावना को निश्चय ही बल मिलेगा तथा संगठितरूप से हमारी धर्मप्रभावना की शक्ति कई गुनी हो जायेगी।
फिर भी यदि कोई कमी रह जाये, तो उसकी पूर्ति हम स्वाध्याय' के महामंत्र से कर सकते हैं। किसी मनीषी ने कहा है कि 'अच्छाई सिखाने वाली पुस्तकों से बढ़कर मनुष्य का सच्चा मित्र अन्य कोई नहीं है।' स्वाध्याय के लिए हमारे आचार्यों और मनीषियों ने इतना विपुल परिमाण में ग्रंथों की रचना की है; किंतु आज हम मात्र उन्हें ढोक देकर (वंदन करके) ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मानने लगे हैं। किसी जैन उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है
"बस्ते बँधे पड़े हैं, अलमोफनून के।
चावल चढ़ायें उनको बस इतने काम के।।" अर्थ :- उच्च ज्ञान के ग्रंथ वेष्टनों में बंधे पड़े हुए हैं तथा हम उनको मात्र चावल चढ़ाकर प्रणाम करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं।
ये ग्रंथ पढ़ने-सीखने एवं जीवन में उतारने के लिए आचार्यों व मनीषियों ने लिखे थे। अत: हमें इन्हें पढ़ना चाहिए; जो कठिन हैं, उनका सरल प्रचलित भाषा में अनुवाद व संपादन कराके प्रकाशित करायें। आधुनिक सूचना-प्रौद्योगिकी का भी इस दिशा में अवश्य प्रयोग करना चाहिए। विद्वानों को इस कार्य में भरपूर प्रोत्साहन देकर प्रेरित करें। वीतराग धर्म की अन्तर्बाह्य प्रभावना के लिए यह अमोघ उपाय होगा।
यह 'अहिंसक युद्ध' का अवसर है, जिसमें हमें जी-जान से युद्धस्तर पर लगना तो है; किंतु किसी को चोट पहुँचाने के लिए नहीं, अपितु स्व-पर-कल्याण की भावना से, पूर्णत: समर्पित होना है। आइये ! हम इसे सही रूप में चरितार्थ करें। **
जीवन भर स्वाध्याय करें 'अहर्निश पठनपाठनादिना जिनमुद्रा भवति। -(बोधपाहुड, गाथा 19 टीका) अर्थ:-दिन-रात पढ़ने और पढ़ाने से 'जिनमुद्रा' की प्राप्ति होती है। **
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प्राकृत का संस्कृत से सामंजस्य
-डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी,
जिसे 'संस्कृतभाषा' के नाम से जाना जाता है, उसे ही प्रारम्भ में देववाणी' कहा जाता था। इस नित्य वाणी का व्यवहार सर्वप्रथम स्वयम्भू ब्रह्मा ने किया था, जिसका रूप वेदों में देखने को मिलता है। कृष्णद्वैपायन व्यास ने 'महाभारत' में कहा है
"अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा। आदौ वेदमयी दिव्या यत: सर्वा: प्रवृत्तयः ।।"
-(महाभारत - शान्ति० 224/55) भगवत्पाद शङ्कराचार्य ने 'ब्रह्मसूत्रभाष्य' (1/3/28) में अनादिनिधनरूपा इस वाणी को 'सम्प्रदाय-प्रवर्तनरूपा' कहा है। महर्षि वाल्मीकि ने इस देववाणी के दो रूपों का उल्लेख किया है- 1. द्विजाति संस्कृत तथा 2. मानुषी संस्कृत। जब हनुमान् रावण की अशोकवनिका में शिंशपा वृक्ष पर छिपकर बैठे थे, उस समय वहाँ रावण ने आकर कटुवचन-भयदर्शन आदि के द्वारा सीता को त्रास पहुँचाया। उसके चले जाने पर हनुमान् विचार करने लगे कि “यदि मैं ब्राह्मणों की तरह आभिजात्य संस्कृत का प्रयोग करूँगा, तो सीता मुझे वानर के वेष में उपस्थित रावण समझकर भयभीत हो जायेंगी।" इसलिए उन्होंने मानुषी संस्कृत में सीता के साथ वार्ता करने का निश्चय किया
"वाचं चोदाहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम्, यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम् । रावणं मन्यमानां मां सीता भीता भविष्यति ।।"
-(वा०रा०, सुन्दर० 30/17-18) . इस देववाणी का प्रयोगक्षेत्र केवल देवलोक या केवल भूलोक ही नहीं रहा, किन्तु महाभाष्यकार पतञ्जलि के अनुसार सात द्वीपों वाली पृथ्वी, तीन लोक, चार वेद, छह अंग (शिक्षा-कल्प-व्याकरण-ज्योतिष-छन्दस्-निरुक्त), रहस्य (उपनिषद्-मन्वादिस्मृतियाँ), यजुर्वेद की एक सौ एक शाखायें, सामवेद की 1000 शाखायें, ऋग्वेद की 21 शाखायें अथर्ववेद की 9 शाखायें, वाकोवाक्य (कथोपकथन प्रश्नोत्तरशास्त्र), इतिहास, पुराण तथा वैद्यकशास्त्र में इस संस्कृत भाषा का प्रयोग होता है
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'सप्तद्वीपा वसुमती त्रयो लोकाश्चत्वारो वेदा:, सांगा:, सरहस्याः, एकशतमध्वर्युशाखा:, सहस्रवर्त्मा सामवेद:, एकविंशतिधा बाह्वृच्यम्, नवधा आथर्वणो वेद:, वाकोवाक्यम्, इतिहास, पुराणम्, वैद्यकम् इत्येतावान् शब्दस्य प्रयोगविषयः' - ( महाभाष्य-पस्पशाह्निक, पृ० 64-65 )
पदमञ्जरीकार हरदत्त आदि आचार्यों ने रामायण, महाभारत आदि महाकाव्यों को भी सम्मिलित किया है, जिसके आधार पर देववाणी संस्कृतभाषा को लोकभाषा या विश्वभाषा कहने में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं हो सकती है ।
'वाल्मीकि रामायण' के उक्त वर्णन से देववाणी के दो रूप तो देखे ही गए हैं, इसके अतिरिक्त परवर्तीकाल में मनुष्यों के द्वारा इसका प्रयोग किए जाने पर ज्ञान तथा उच्चारण में शिथिलता के कारण उस देववाणी में पर्याप्त विकार उत्पन्न हुए । वाक्यपदीयकार भर्तृहरि के उल्लेख से इस तथ्य का समर्थन होता है—
“ दैवी वाग् व्यवकीर्णेयमशक्तैरभिधातृभिः ।
अनित्यदर्शिनां त्वस्मिन् वादे बुद्धिविपर्ययः । । ” – ( वा०प०, 1 / 155 ) विकारग्रस्त उस भाषा को प्राकृत नाम दिया गया और उससे भेदावबोध के उद्देश्य से देववाणी को 'संस्कृत' नाम से अभिहित किया गया। काव्यादर्श में दण्डी ने इस तथ्य का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है
“संस्कृतं नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभिः ।
तद्भवस्तत्समो देशीत्यनेकः प्राकृतक्रमः । । ” – (काव्यादर्श 1 / 33 ) इसप्रकार संस्कृतभाषा से समुद्भूत होने के कारण प्राकृतभाषा में कुछ तथा व्याकरण-विषयक नियम आदि समानरूप में देखे जाते हैं । कुछ शब्दों के भिन्न होने पर भी अर्थानुगम में सादृश्य सन्निहित है। संस्कृत के कुछ प्रातिपदिक प्राकृत में पदरूप में प्रयुक्त हुए हैं । प्राकृत में विसर्ग की मान्यता नहीं है, क्योंकि उसके स्थान में 'ए' अथवा 'ओ' हो जाता है। कोई भी शब्द मकारान्त नहीं लिखा जाता, उसके स्थान में अनुस्वार हो जाता है। अत: इस अन्तर के अतिरिक्त एतादृश शब्दों में अन्य अंश समान ही देखे जाते हैं। इस समानता के बोधक कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं—
1. वर्ण - समाम्नाय
संस्कृत के सभी व्याकरणों में वर्ण- समाम्नाय का पाठ तो अवश्य होता है, परन्तु वर्णों की संख्या तथा क्रम में कहीं अन्तर भी देखा जाता है । जैसे 'पाणिनीय वर्ण- समाम्नाय' में 42 ही वर्ण पढ़े गए हैं, परन्तु कातन्त्र में संस्करणभेद से 50, 52 अथवा 53 भी वर्ण देखे जाते हैं। प्रातिशाख्यों में 63, 64 एवं 65 भी वर्णों की मान्यता है । 'वाजसनेयी प्रातिशाख्य' भाष्य में आचार्य उव्वट ने 23 स्वर तथा 42 व्यञ्जनों का उल्लेख करके 65 वर्णों की मान्यता को स्वीकार किया है
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"त्रयोविंशतिरुच्यन्ते स्वरा: शब्दार्थचिन्तकैः।
द्विचत्वारिंशद् व्यञ्जनान्येतावान् वर्णसंग्रहः ।।" -(8/29-34) 'पाणिनीय शिक्षा' (श्लोक 3) में 63 अथवा 64 तथा वशिष्ठ-शिक्षा में 68 वर्णों का उल्लेख हुआ है। पाणिनीय शिक्षा' के अनुसार स्वयम्भू ब्रह्मा द्वारा प्रोक्त तथा शम्भुमत में भी मान्य जिन 63-64 वर्णों की चर्चा की गई है, वे केवल संस्कृत भाषा में ही स्वीकार्य नहीं है, अपितु प्राकृतभाषा में भी मूलत: मान्य हैं आंशिक अन्तर से
“त्रिषष्टिश्चतुष्षष्टि; वर्णाः शम्भुमते मता: ।
प्राकृते संस्कृते चापि स्वयं प्रोक्ता: स्वयम्भुवा ।।"- (पा०शि०, श्लोक 3) प्राकृतभाषा के वर्णों की मान्यता इसप्रकार है
27 स्वरवर्ण = अ, आ, अ३, इ, ई, इ३, उ, ऊ उ३, ऋ, ऋ, ऋ३, लु, लु, लु३, ऍ, ए, ए३, ओं, ओ, ओ३, ऐं, ऐ, ऐ३, औं, औ, औ३ । ___33 व्यंजन वर्ण = क्, ख, ग, घ, ङ् । च्, छ्, ज, झ, ञ् । ट, ठ, ड्, द, ण् । त्, थ्, द्, ध्, न्। प्, फ्, ब्, भ, म्। य, र, ल, व् । श्, ए, स्, ह।
4 अयोगवाह = अं, अ:,xक,प।
यह ज्ञातव्य है कि संस्कृत व्याकरणों में 'ल' को दीर्घ न मानने से वर्गों की संख्या 63 ही रह जाती है, परन्तु प्राकृत में उसके दीर्घ होने से 64 संख्या अक्षुण्णरूप में बनी रहती है। गोम्मटसार-जीवकाण्ड, गाथा 352 की तत्त्व-प्रदीपिका टीका के अनुसार 'लु' की दीर्घता को देशान्तर भाषाओं में स्वीकार किया गया है- 'लुवर्ण: संस्कृते दीर्घा नास्ति, तथाप्यनुकरणे देशान्तरभाषायां चास्ति ।' 2. उपसर्ग ___सामान्यत: उपसर्ग 22 माने जाते हैं— प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव, निस्, निर्,
दुस्, दुर्, वि, आङ्, नि, अधि, अति, सु, उत, अति, अभि, प्रति, परि, उप। ____इनमें 'निस्-निर्' के लिए केवल 'निर्' तथा 'दुस्-दुर्' के लिए केवल 'दुर' को भी मान लेने पर अभीष्ट सभी कार्य सम्पन्न हो जाते हैं, अत: आचार्यों ने 20 ही उपसर्ग मानने के पक्ष में अपना अभिमत व्यक्त किया है
"प्र-पराप-समन्वव-निर्दरभि-व्यधिसूदति-नि-प्रति-पर्यपयः । . उप-आडिति विंशतिरेष सखे ! उपसर्गविधि: कथित: कविना।।"
. -(कातन्त्र-विवरण पञ्जिका, 21414) इनमें निस्' तथा 'दुस्' का परिगणन नहीं किया गया है। प्राकृतभाषा में भी ये ही बीस 'उपसर्ग' मान्य हैं। आचार्य शाकटायन धातु के साथ योग होने के कारण 'अच्छ, श्रत्, अन्त:' को भी उपसर्ग मानते थे
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“अच्छश्रदन्तरित्येतानाचार्य: शाकटायन: ।
उपसर्गान् क्रियायोगान् मेने ते तु त्रयोऽधिका: ।।" - (बृहदेवता, 2/94-95) 3. कारक
संस्कृत के सभी शाब्दिकाचार्यों ने छह ‘कारक माने हैं— कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान तथा अधिकरण। 'सम्बन्ध' तथा 'सम्बोधन' को कारक नहीं माना जाता है। इन छह मान्य कारकों के 23-24 भेदों का उल्लेख प्राप्त होता है, तदनुसार अपादान 3 प्रकार का, सम्प्रदान 3, अधिकरण 6, करण 2, कर्म 7 तथा कर्ता 3 प्रकार का कहा गया है। इसे सोदाहरण इस रूप में समझा जा सकता है— विविध अपादान – (द्र०, वा०प० 3/7/136)
1. निर्दिष्ट-विषय - ग्रामाद् आगच्छति । 2. उपात्त-विषय - बलाहकाद् विद्योतते विद्युत् ।
3. अपेक्षित-क्रिय - पाटलिपुत्रात् (आगच्छामि)। त्रिविध सम्प्रदान - (द्र०, वा०प० 3/7/129)
1. अनिराकर्तृ - सूर्यायाय॑ ददाति । 2. प्रेरक - विप्राय गां ददाति।
3. अनुमन्तृ - उपाध्यायाय गां ददाति। षोढा अधिकरण - (द्र०, म०भा० 6/1/72; पाणिनीय व्याकरण का अनुशीलन, पृ० 158).
1. औपश्लेषिक - कटे शेते कुमारः। 2. सामीपिक - वटे गाव: सुशेरते। 3. अभिव्यापक – तिलेषु विद्यते तैलम् । 4. वैषयिक
हृदि ब्रह्मामृतं परम्। 5. नैमित्तिक - युद्धे संनह्यते धीरः।
6. औपचारिक - अङ्गुल्यग्रे करिणां शतम् । द्विविध-करण - (द्र०, कातन्त्र व्याख्या 2/4/12) 1.बाह्य
दात्रेण धान्यं लुनाति। 2. आभ्यन्तर - मनसा मेरुं गच्छति। सप्तविध कर्म – (द्र०, वा०प० 3/7/45-46) 1. निवर्त्य
कटं करोति। 2. विकार्य
ओदनं पचति। 3. प्राप्य
आदित्यं पश्यति। 4. उदासीन ग्रामं गच्छन् वृक्षमूलान्युपसर्पति।
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5. अनीप्सित
- अहिं लङ्घयति। 6. संज्ञान्तरानाख्यात - गां दोग्धि पयः। 7. अन्यपूर्वक
ग्राममधिशेते। त्रिविध कर्ता – (द्र०, वा०प० 3/7/125; व्याकरण दर्शनेर इतिहास, पृ० 265-67)
1.अभिहितकर्ता - देवदत्त: पचति। 2. अनभिहितकर्ता
देवदत्तेन पच्यते। 3. कर्मकर्ता
पच्यते ओदन: स्वयमेव। प्राकृत में संस्कृत के ही समान छह कारकों की मान्यता है और जिन कारकों में जिन विभक्तियों के विधान का निर्देश संस्कृत में है, प्राय: प्राकृत में भी तदनुसार विभक्तियाँ की जाती हैं। प्राकृत में षष्ठी विभक्ति के रूप चतुर्थी के समान होते हैं। जहाँ द्विकर्मक धातुओं का प्रयोग होता है, वहाँ संस्कृत के अनुसार ही अपादानादि कारकों की अविवक्षा में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग देखा जाता है। 4. स्त्री-प्रत्यय ___पाणिनीय 'अष्टाध्यायी' में आठ 'स्त्री-प्रत्यय' कहे गए हैं— टाप, चाप, डाप, डीप, डीए, डीन, ऊ, ति। आचार्य शर्ववर्मा मुख्यत: दो ही प्रत्यय स्वीकार करते हैं- आ तथा ई। ऊङ्, ति की चर्चा कातन्त्र के व्याख्याकारों ने की है। प्राकृत में तीन ही प्रत्यय होते हैं- आ, ई तथा ऊ। संस्कृत की तरह प्राकृत में भी अकारान्त शब्दों से स्त्रीलिंग बनाने के लिए 'आ' प्रत्यय किया जाता है। जैसे— बाल से बाला, अचल से अचला इत्यादि । संस्कृत के राजन्, ब्रह्मन्, हस्तिन् आदि नकारान्त शब्दों से स्त्रीलिंग रूप बनाने के लिए ई प्रत्यय प्राकृत में किया जाता है। जैसे— राजन् से राज्ञी-राणी, ब्रह्मन् से ब्राह्मणी-बंभणी तथा हस्तिन् से हस्तिनी-हत्थिणी। अकारान्त शब्दों से ई-प्रत्यय —कुमार से कुमारी, काल से काली, हरिण से हरिणी, हंस से हंसी, सारस से सारसी आदि।।
संस्कृत के कुछ शब्दों से स्त्रीलिंगरूप बनाने के लिए ङीष् (ई) प्रत्यय के अतिरिक्त 'आनुक्' (आन्) का आगम भी करना पड़ता है। जैसे— इन्द्र से इन्द्राणी, रुद्र से रुद्राणी, भव से भवानी इत्यादि। प्राकृत में एतदर्थ ई-प्रत्यय से पूर्व 'आण' को जोड़ दिया जाता है। जैसे- इंदाणी, भवाणी, आयरियाणी इत्यादि। संस्कृत के अनुसार धर्मविधिपूर्वक विवाहित पत्नी को 'पाणिगृहीती भार्या' तथा अन्य विधि से विवाहिता पत्नी को पाणिगृहीता भार्या' कहते हैं, तदनुसार प्राकृत में भी दो रूप होते हैं— पाणिगहीदी, पाणिगहीदा। 'चन्दमुही-चन्दमुहा, गोरमुही-गोरमुहा, वज्जणहा-वज्जणही' आदि दो-दो रूप वाले शब्द प्राकृत में संस्कृत के नियमानुसार ही सिद्ध होते हैं। 5. बहुल संज्ञा/बाहुलकविधि
संस्कृत व्याकरण में बहुल' या 'बाहुलक विधि' के चार भेद बनाए गए हैं- 1. कहीं
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पर सूत्रनिर्दिष्ट विधि की प्रवृत्ति, 2. कहीं पर अप्रवृत्ति, 3. कहीं पर विकल्प से प्रवृत्ति तथा 4. कहीं पर सूत्रनिर्दिष्ट विधि की अपेक्षा किसी अन्य कार्य की प्रवृत्ति
“क्वचित् प्रवृत्ति: क्वचिदप्रवृत्ति: क्वचिद् विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ।।"
–(द्र०, व्याकरण-दर्शनेर इतिहास, पृ० 240, टि०, अभियुक्तवचन) जैसे— 'स्नान्ति अनेनेति स्थानीयं चूर्णम् । दीयते अस्मै इति दानीयो विप्रः ।' यहाँ अनीयर् प्रत्यय “तयोरेव कृत्यक्तखला:” (अ0 3/4/70) के निर्देशानुसार भाव-कर्म अर्थ में होना चाहिए, परन्तु उस अर्थ में प्रवृत्ति न होकर करण, सम्प्रदान कारक में हुई है। 'बहुल' के उक्त चार अर्थों में विभाषा' या 'विकल्प' अर्थ अधिक प्रसिद्ध है। आचार्य हेमचन्द्र ने आर्ष प्राकृत (अधिक प्राचीन या आगमिक प्राकृत) के विषय में कहा है कि उसमें प्राकृत के नियम विकल्प से प्रवृत्त होते हैं— “आर्षं प्राकृतं बहुलं भवति, तदपि यथा— स्थानं दर्शयिष्याम: । आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते।)”
-('आर्षम्' 8/1/3 की वृत्ति) 6. हलन्त स्त्रीलिंग शब्दों के आकारान्त रूपों में समानता
संस्कृत व्याकरण में आचार्य भागुरि के दो विशेष अभिमत समादृत हैं1. 'अव-अपि' उपसर्गों के अकार का लोप तथा 2. हलन्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों का दीर्घ आकारान्त होना। जैसे— अवगाह्य-वगाह्य, अपिधानम्-पिधानम् । वाच्-वाचा, दिश्-दिशा, निश्-निशा।
“वष्टि भागरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः।
आपं चैव हलन्तानां यथा वाचा निशा दिशा।।" प्राकृत में 'गिरा, धुरा, पुरा, अच्छरसा (अप्सरस्), दिसा, क्षुहा (क्षुध्), संपया (संपद्), तडिआ (तडित्), सरिआ (सरित्) आदि शब्दरूप उक्त नियम का ही अनुसरण करते हैं, भले ही कहीं अन्तिम 'र' को 'रा', 'स्' को 'सा' तथा 'त्' को 'आ' आदेश का विधान किया गया हो। 7. प्रकृतिभाव ___ संस्कृत-व्याकरण के अनुसार 'प्रगृह्यसंज्ञक' शब्दों में तथा 'प्लुत' में सन्धि नहीं होती है। एतदर्थ पाणिनि का सूत्र है- "प्लुतप्रगृह्या अचि नित्यम्” (अ० 6/1/125)। कातन्त्रकार ने बिना ही प्रगृह्यसंज्ञा' किए 'प्रकृतिभाव' का विधान किया है। 'वर्णसमाम्नाय' में प्लुतवर्णों का पाठ न होने से 'अनुपदिष्ट' पद के द्वारा उनका बोध कराया गया है। प्रथम सूत्र में आचार्य शर्ववर्मा ने ओकारान्त अ-इ-उ-आ निपातों का उल्लेख कर उनमें प्रकृतिभाव का निर्देश किया है- “ओदन्ता अ इ उ आ निपाता: स्वरे प्रकृत्या” – (कात०व्या० 1/3/1)। प्राकृतभाषा में प्रकृतिभावरूपी सन्धि-निषेध संस्कृत की अपेक्षा
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अधिक पाया जाता है। अत: संस्कृत में अनेकत्र जहाँ स्वरसन्धि का विधान है, प्राकृत में वहाँ पर भी प्रकृतिभाव प्रवृत्त होता है। जैसे- वनेऽटति>वणे अडइ, एकोऽत्र>एओ एत्थ, भवतीह>होइ इह' इत्यादि; परन्तु ओकारान्त 'निपात' में 'प्रकृतिभाव' का विधान समान रूप में देखा जाता है। जैसे- अहो आश्चर्यम्>अहो अच्छरिअं। 8. तर-तमभाव ___ संस्कृत के अनुसार दो में से एक का निर्धारण करने में 'डतरच्-तरप्' प्रत्यय तथा बहुतों में से एक का निर्धारण करने में ‘डतमच्-तमप्' प्रत्यय होते हैं। जैसे— 'अनयो: कतरो वैष्णव:, कतमो भवतां कठः । अयमेषामतिशयेनाढ्य: आढ्यतमः, अयमनयोरतिशयेन लघुर्लघुतरः, उदीच्या:, प्राच्येभ्य: पटुतरा:' इत्यादि। एतदर्थ पाणिनि के सूत्र हैं"किंयत्तदो निर्धारणे द्वयोरेकस्य डतरच्, वा बहूनां जातिपरिप्रश्ने डतमच्, अतिशायने तम बिष्ठनौ, द्विर्वचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ” (अ० 5/3/92, 83, 55, 4/11)। प्राकृत में उक्त के समान ही एक से तथा सबसे श्रेष्ठता को बताने के लिए क्रमश: तर अर, तम अम्, ईयसुन्-ईअस और इष्ठन् = इट्ट का प्रयोग होता है। जैसे- तीक्ष्णतर तिक्खअर, तीक्ष्णतम तिक्खअम। अधिकतर अहिअअर, अधिकतम=अहिअअम आदि। 9. 'भिस्' आदि प्रत्ययों के लौकिक वैदिक शब्द _ अकारान्त शब्दों से 'भिस्' को 'एस्' आदेश वेद में विकल्प से होता है— देवै:, देवेभिः । वेद में 'ड' को 'क' आदेश भी देखा जाता है— “अग्निमीळे पुरोहितम् ।" हस्व अकारान्त शब्दों से टा को इन आदेश हस्व इकारान्त शब्दों से 'टा' को 'ना' आदेश एवं समास के लिए 'स' संज्ञा का भी प्रयोग संस्कृत में देखा जाता है। प्राकृत में भी इन सभी विधियों का अनुसरण किया गया है। इस संक्षिप्त लेख में प्राकृत के कुछ ही तत्त्वों का संस्कृत के साथ सामञ्जस्य प्रस्तुत किया जा सका है। इनका विस्तार परवर्ती लेख में यथावसर किया जाएगा।
जिनोपदिष्ट शास्त्रों की माध्यम भाषायें ___ “पाइय भासा-रइया, मरहट्ठय-देसि-वण्णय-णिबद्धा। सुद्धा सयलकहच्चिय, तावस-जिण-सत्थ-वाहिल्ला ।।"
- (उद्योतनसूरि, कुवलयमालाकहा', अनुच्छेद 7. पद्य 11, पृष्ठ 6) अर्थ:—प्राकृतभाषा अर्थात् शौरसेनी प्राकृत में रचित, महाराष्ट्रीप्राकृत एवं देशी वर्णो (दश्यपदों) में निबद्ध समस्त कथायें शुद्ध अर्थात् निर्दोष ही हैं। जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा उपदिष्ट एवं तपस्वी आचार्यों के द्वारा प्रणीत शास्त्रों की माध्यमभाषायें भी ये ही हैं।
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प्राकृतविद्या-प्रशस्ति:
-पं० वासुदेव द्विवेदी शास्त्री
अतिरुचिर-वर्ण-पत्रक-मुद्रण-सौन्दर्य-चारुतर-चित्रैः।
प्रसभं मनो हरन्ती 'प्राकृतविद्या' चिरं जयतात् ।। 1।। अर्थ:- अत्यन्त रुचिर वर्णों से युक्त पृष्ठों एवं सुन्दर मनोहर मुद्रित चित्रों से मन को स्वभावत: मोहित करती हुई यह 'प्राकृतविद्या' निरन्तर उत्कर्षशालिनी हो।
केयं प्राकृतभाषा कुत आयाता स्वरूपमस्या: किम् ।
इति विमृशन्ती विशदं 'प्राकृतविद्या' चिरं जयतात् ।। 2 ।। __अर्थ:- यह प्राकृतभाषा क्या है? कहाँ से आयी है? इसका स्वरूप क्या है? — ऐसे प्रश्नों पर विशद विचार करती हुई यह 'प्राकृतविद्या' निरन्तर उत्कर्षशालिनी हो।
___विविधैः रुचिरतरंगैः प्राकृतवाणी सुधापगोच्छलितैः ।
खेलन्ती विबुधैः सा 'प्राकृतविद्या' चिरं जयतात् ।। 3 ।। अर्थ:- अमृत की विविध मनमोहक तरंगों से विद्वानों के साथ क्रीड़ा करती वह 'प्राकृतविद्या' निरन्तर उत्कर्षशालिनी हो।
आगमगुम्फित-तत्त्वैर्मूलाचारैर्मुनीन्द्र चरितैश्च ।
जीवन-दिशो दिशन्ती 'प्राकृतविद्या' चिरं जयतात् ।। 4।। अर्थ:- आगमों से युक्त तत्त्वों, मूलाचारों और श्रेष्ठ मुनियों के आचरणों से जीवनदर्शन का उपदेश देती हुई यह 'प्राकृतविद्या' निरन्तर उत्कर्षशालिनी हो।
रचयित्वा ललिताभा नित्यं नव-नव-निबन्धमणिमाला: ।
विदुषो विभूषयन्ती 'प्राकृतविद्या' चिरं जयतात्।। 5।। ___ अर्थ:- सुन्दर स्वरूपवाली वाणी से नित्य नवीन निबन्धों की मणिमाला को रचकर विद्वानों का विभूषित करती हुई यह 'प्राकृतविद्या' निरन्तर उत्कर्षशालिनी हो।
अभिनव-प्राकृत-कविता-कुसुम-पराग-प्रमोदमादधती।
विद्वज्जन-मधुपानां 'प्राकृतविद्या' चिरं जयतात् ।। 6।। अर्थ:- नवीन प्राकृत-कवितारूपी कुसुम-पराग की सुगन्ध को धारण करती हुई मधुपरूपी विद्वज्जनों को आह्लादित करती हुई यह 'प्राकृतविद्या' निरन्तर उत्कर्षशालिनी हो।
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अनुसन्धित्सु - जनानां प्राकृतवाच: करस्थदीप इव ।
दधती पर: प्रकाशं 'प्राकृतविद्या' चिरं जयतात्।। 7।।
अर्थः— अनुसन्धाताओं तथा प्राकृत बोलने वाले व्यक्तियों के हाथ में लिये हुये दीप के समान श्रेष्ठ प्रकाश को धारण करती हुई यह 'प्राकृतविद्या' निरन्तर उत्कर्षशालिनी हो । आबाल्याज्जिनवाणीरक्तं चेतो मदीयमधुनापि ।
रमयन्ती हृद्येयं ‘प्राकृतविद्या' चिरं जयतात् ।। 8 ।। अर्थ:- बालकों से जिन तक की वाणी से अनुरक्त मेरे चित्त को इस समय आनन्द प्रदान करती हुई यह 'प्राकृतविद्या' निरन्तर उत्कर्षशालिनी हो ।
- (हिन्दी अनुवाद : डॉ० सन्तोष शुक्ल, नई दिल्ली)
आंवला, अनेक रोगों की एक दवा
आंवला को आयुर्वेद में 'अमृतफल' या 'धायीफल' के नाम से जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि आंवला 'धाय' अर्थात 'नर्स' की भाँति मनुष्य का पालन-पोषण करता है । वैज्ञानिक विश्लेषणों से पता चलता है कि आंवले में जितने रोग नाशक, रक्तशोधक, आरोग्य - वर्धक तथा पौष्टिक तत्त्व होते हैं, उतने किसी अन्य फल में नहीं पाये जाते हैं । महर्षि चरक के अनुसार “विश्व की ज्ञात औषधियों में आंवले का स्थान सर्वोपरि है । "
| आंवला का वानस्पतिक नाम 'फाइलैन्थस इम्बिलिका' है । वनस्पति विज्ञान इसे पुष्पधारियों के एक द्विबीजपत्री कुल 'युफोरबियेसी' के अन्तर्गत मानता है। आंवला विटामिन 'सी' का भण्डार है। इसकी प्रति 100 ग्राम मात्रा में 600 मिलीग्राम विटामिन 'सी' होता है, जो कि सुखाने या उबालने से नष्ट नहीं होता है। आंवले से प्राप्त विटामिन 'सी' नींबू, संतरा, केला, टमाटर आदि की अपेक्षा अधिक उत्तम माना जाता है। एक आंवले में बीस संतरों के बराबर विटामिन 'सी' का होना वनस्पतिशास्त्रियों के लिए अचरज की बात है । इसमें 0.5% प्रोटीन, 0.1% वसा, 0.75% कैल्शियम, 0.02% फास्फोरस और 1.2% लौहतत्त्व पाये जाते हैं। इसमें अम्ल और कषाय रस की अधिकता के कारण यह पाचक और संग्राहक होता है। आंवले में पाये जाने वाले अम्लरस की प्रमुख विशेषता है कि यह शरीर की किसी झिल्ली को कोई हानि नहीं पहुँचाता है । इसीलिए इसका सेवन भोजन से पहले, भोजन के साथ और भोजन के बाद सुविधाजनक कभी भी किया जा सकता है। आंवले को चबाकर खाने से दांतों में 'पायरिया रोग' नहीं होता है। कच्चे हरे आंवले को बारीक काटकर मिश्री के साथ खाने से पेट के रोगों में लाभ मिलता है। हरे आंवले के नियमित सेवन से कफ दूर हो जाता है, खून की गर्मी शान्त होती है और हड्डियां मजबूत होती हैं। आंवले का सेवन गाय के दूध साथ करने से नेत्र के रोगों से मुक्ति मिलती है। आंवले का उबटन यदि नियमित रूप से प्रयोग किया जाये, तो त्वचा में प्राकृतिक निखार और लावण्य आता है । मस्तक पर आंवले के चूर्ण का लेप करने से सिरदर्द में आराम मिलता है। आंवले का सेवन हृदय रोगों में फायदा पहुँचाता है और 'यकृत' को ताकत देता है ।
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इक्कीसवीं सदी : कातन्त्र व्याकरण का स्वर्णयुग
- प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन
श्रुतपंचमी - महापर्व के सुअवसर पर पिछली 6 तथा 7 जून को श्री कुन्दकुन्दं भारती, नई दिल्ली के सौजन्य से 'अखिल भारतीय शौरसेनी प्राकृत संसद' के तत्त्वावधान एवं परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के पावन सान्निध्य में स्थानीय 'गुरु नानक फाऊडेण्शन' के ऑडिटोरियम में राष्ट्रिय भावात्मक एकता तथा अखण्डता के प्रतीक 'कातन्त्र-व्याकरण' पर एक राष्ट्रिय सेमिनार का आयोजन किया गया, जिसमें देश के विशेषज्ञ - विद्वानों ने निम्नलिखित विषयों पर अपने - अपने शोध - निबन्धों का वाचन किया— 1. डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी
कातंत्र - व्याकरण की विषय- विवेचना-पद्धति
(सारनाथ, वाराणसी)
2. डॉ० रामसागर मिश्र ( लखनऊ ) 3. प्रो० जैन (लखनऊ) वृषभप्रसाद 4. प्रो० प्रेमसुमन जैन (उदयपुर)
5. प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन ( आरा )
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6. डॉ0 सुदीप जैन (दिल्ली)
7. प्रो० गंगाधर पण्डा (वाराणसी) 8. डॉ० प्रकाशचन्द्र जैन ( गाजियाबाद )
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9. डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री ( दिल्ली) 10. प्रो० विद्यावती जैन ( आरा, बिहार )
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11. डॉ० उदयचन्द्र जैन (उदयपुर)
12. डॉ० विजयकुमार जैन ( लखनऊ )
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कातंत्र - व्याकरण की परम्परा एवं महत्त्व कातंत्र पर कुछ विचार
कातंत्र - व्याकरण और कथात्मक तथ्य
अद्यावधि अप्रकाशित कातन्त्र-विस्तर : एक
अध्ययन
कातन्त्र-व्याकरण की मूल - परम्परा एवं वैशिष्ट्य
कातन्त्र-व्याकरण की अपूर्वता
शर्ववर्म-प्रणीत कातन्त्र - व्याकरण में वर्ण-विचार
कातन्त्र - व्याकरण की प्राचीनता कातन्त्र-व्याकरण-सम्बन्धी कुछ दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ
राजस्थान के शास्त्र - भण्डारों में उपलब्ध कातन्त्र - व्याकरण
कातंत्र - व्याकरण का पालि - व्याकरणों पर प्रभाव
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13. डॉ० सुषमा सिंघवी (उदयपुर) – Some special features of Katantra
Grammar 14. डॉ० रमेश कुमार पाण्डेय (दिल्ली) – कातंत्र-व्याकरण का नाट्यशास्त्र पर प्रभाव
: एक अनुशीलन 15. प्रो० धर्मचन्द्र जैन (कुरुक्षेत्र) - कातंत्र-व्याकरण एवं उसकी उपादेयता 16. प्रो० एम०डी० बसंतराज (मैसूर) – कातन्त्र-व्याकरण इन दि व्यू ऑफ जैन
ट्रेडीशन 17. डॉ० अश्विनी कुमार दास (दिल्ली) – पाणिनीय व्याकरण और कातन्त्र-व्याकरण
का तुलनात्मक वैशिष्ट्य 18. डॉ० रमेशचन्द्र जैन (बिजनौर) – कातन्त्र व्याकरण : पाणिनीय व्याकरण के
आलोक में। चारों सत्रों में आचार्यश्री विद्यानन्द जी की कातन्त्र-व्याकरण-सम्बन्धी विचारोत्तेजक समीक्षाओं के अतिरिक्त भी बीच-बीच में आकस्मिक सरस एवं रोचक टिप्पणियों तथा अन्त्य-मंगल के रूप में कातन्त्र-व्याकरण के वैशिष्ट्य एवं वर्तमान वैज्ञानिक सन्दर्भो में उसकी महत्ता तथा उपयोगिता पर प्रकाशन डालने से उपस्थित विद्वान् तथा श्रोतागण मन्त्रमुग्ध होते रहे।
निबन्ध-वाचन 4 सत्रों में सम्पन्न हुआ, जिनमें अध्यक्षता क्रमश: (1) प्रो० (डॉ०) वाचस्पति उपाध्याय, कुलपति, (नई दिल्ली), (2) डॉ० सत्यरंजन बनर्जी (कलकत्ता), (3) प्रो० (डॉ०) नामवर सिंह (सुप्रसिद्ध समालोचक एवं प्राच्य भाषाविद, नई दिल्ली), (4) प्रो० डॉ० प्रेमसिंह (सुप्रसिद्ध भाषाविद्, नई दिल्ली) ने की।
सत्रों का संचालन क्रमश: डॉ० सुदीप जैन, प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन, प्रो० (डॉ०) प्रेमसुमन जैन तथा डॉ० सुदीप जैन ने किया। सेमिनार के निष्कर्षों एवं भावी योजनाओं पर डॉ० सुदीप जैन ने प्रकाश डाला।
सेमिनार में पठित उक्त बहुआयामी शोध-निबन्धों का प्रकाशन भी शीघ्र किया जायेगा, जिससे प्राच्यविद्या-रसिक विद्वानों को उसकी गरिमा का परिचय मिल सके।
मध्यकालीन भारतीय इतिहास के अध्ययन से विदित होता है कि यह काल राजनैतिक अस्थिरता का काल अवश्य था, फिर भी सामाजिक एवं साहित्यिक चेतना उस समय भी सर्वथा लुप्त न हो सकी थी। जनता में स्वाभिमान के साथ-साथ अपने राष्ट्र, समाज एवं साहित्यिक अभ्युदय के प्रति मांगलिक भावना स्थिर थी। ‘मालवा' के प्रमुख सांस्कृतिक-केन्द्र 'उज्जयिनी' नगरी पर चालुक्यवंशी नरेश सिद्धराज जयसिंह ने आक्रमण कर जब उसे पराजित किया और उस पर अपना अधिकार किया, तो नगर-परिक्रमा के क्रम में उसने उज्जयिनी के विशाल ग्रन्थागार का भी अवलोकन किया। उसमें सावधानीपूर्वक अत्यन्त सुरक्षित एक ऐसे ग्रन्थ की ओर उसका ध्यान गया, जिसके वेष्ठन पर लिखा था
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‘मालवा का गौरव-ग्रन्थ' । जब उसे उसने खोलकर देखा, तो बहुमूल्य हीरे-मोतियों से जटित एक हस्तलिखित ग्रन्थ मिला वह राजा भोजराज कृत 'सरस्वतीकण्ठाभरण' नाम का व्याकरण-ग्रन्थ था, तथा सार्वजनिक स्वीकृति के साथ उसे 'मालवा का गौरव ग्रन्थ' घोषित किया गया था ।
सिद्धराज जयसिंह उसे देख - पढ़कर हक्का-बक्का रह गया । मालवा का गौरव-ग्रन्थ तो हो, और गुजरात का गौरव-ग्रन्थ न हो -यह कैसे सम्भव है? वह अपनी राजधानी अणहिलपुर- पाटन वापिस आया। रात भर उसे नींद नहीं आई। अगले दिन वह अपने गुरुदेव आचार्य हेमचन्द्र के श्रीचरणों में लोट गया और अपने मन की व्यथा-कथा सुनाते हुए उसने कहा कि “गुरुदेव ! मुझे इस समय इस बात की अधिक प्रसन्नता नहीं है कि मैंने मालवा पर विजय प्राप्त कर ली। बल्कि मुझे तो इस बात का दुःख हो गया है कि मालवा के गौरव-ग्रन्थ के समान ही गुजरात का अभी तक कोई भी गौरव-ग्रन्थ नहीं लिखा गया? इस कमी से मैं ही नहीं, बल्कि हमारा सारा गुजरात-देश अपमानित होने का अनुभव कर रहा है। अत: गुरुदेव ! अब आप ही इस अपमान से हमारे राज्य को उबार सकते हैं। आपकी सुविधानुसार सभी आवश्यक लेखनोपकरण सामग्री तैयार करा दी गई है । अत: आप यह कार्य शीघ्र ही सम्पन्न करने की महत्ती कृपा कीजिये ।"
आचार्य हेमचन्द्र ने एकाग्रमन से कार्यारम्भ किया और लगभग एक वर्ष की अवधि में अपना सारा ग्रन्थ तैयार कर लिया, जिसका भरी विद्वत्सभा में आद्योपान्त्य वाचन किया गया और सर्वसम्मति से उसका नामकरण किया गया— - 'सिद्धहैमशब्दानुशासन' और हर्षध्वनिपूर्वक उसे 'गुजरात का गौरव - ग्रन्थ' के नाम से घोषित किया गया ।.
इसप्रकार हमारी दृष्टि में अभी तक उक्त दो ग्रन्थ 'गौरव-ग्रन्थ रत्न' के रूप में आये हैं— (1) मालव-गौरव ग्रन्थरत्न, एवं ( 2 ) गुजरात-गौरव ग्रन्थरत्न ।
मध्यकालीन प्रमुख पाण्डुलिपियों के साथ-साथ कातन्त्र - व्याकरण की प्राचीन पाण्डुलिपियाँ भी चीन, मंगोलिया, तिब्बत, भूटान, अफगानिस्तान, बर्मा, सिलोन तथा अनेक योरोपीय देशों में पहुँचती रही हैं और वहाँ उन्होंने इतनी लोकप्रियता प्राप्त की कि उनमें से अनेक देशों में शिक्षा-संस्थानों के पाठ्यक्रमों में सदियों पूर्व से ही उसे स्वीकृत कर, उसका अध्ययन-अध्यापन - कार्य भी प्रारम्भ किया गया, जो वर्तमान में भी चालू है । उक्त देशों की स्थानीय भाषाओं में उस पर विविध टीकायें भी लिखी गई हैं और सर्वेक्षणों से विदित हुआ है कि अकेले विदेशों में ही उक्त ग्रन्थ-सम्बन्धी विभिन्न पाण्डुलिपियों की संख्या 300 के लगभग है । भारतीय प्राच्य शास्त्र - भण्डारों में भी अभी तक के सर्वेक्षणों के अनुसार उसकी मूल तथा उनकी विविध टीकाओं - सम्बन्धी पाण्डुलिपियों की संख्या लगभग एक सहस्र है ।
अब प्रश्न यह है कि उक्त 'सरस्वती - कण्ठाभरण' एवं 'सिद्धहैमशब्दानुशासन' तो केवल अपने-अपने राज्यों के गौरव - ग्रन्थरत्न के रूप में सम्मान्य थे; किन्तु 'कातन्त्र
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व्याकरण' की देश-विदेश में लोकप्रियता देखकर उसे कहाँ का गौरव-ग्रन्थ माना जाय? क्या केवल भारत का? क्या केवल एशिया का? अथवा समूचे विश्व का? युगों-युगों से वह ग्रन्थ निश्चितरूप से सामान्यजन के गले का हार बना रहा है। बहुत सम्भव है कि उसका अध्ययन यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी किया हो। पिछली लगभग तीन सदियों में सर विलियम जोन्स, जूलियस एग्लिग, आल्सडोर्फ, तथा देश-विदेश के अनेक प्राच्यविद्याविदों तथा डॉ० ए०बी० कीथ, पं० युधिष्ठिर मीमांसक तथा डॉ० सूर्यकान्त ने भी किया। और इस सदी के उत्तरार्ध में डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी तथा डॉ० रामसागर मिश्र ने भी विशेष रूप से किया और अपने दीर्घकालीन गम्भीर चिन्तन-मनन के बाद उन सभी ने एक स्वर से उसकी प्राचीनता, मौलिकता और सार्वजनीनता सिद्ध कर उसे लोकोपयोगी बतलाते हुए उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
इन तथ्यों के आलोक में कातन्त्र-व्याकरण की मौलिकता तथा सार्वजनीन गुणवत्ता के कारण उसकी लोकप्रियता को ध्यान में रखते हुए यदि उसे 'विश्व-साहित्य का गौरव-ग्रन्थ' माना जाये, तो क्या कोई अत्युक्ति होगी?
सेमिनार में पठित प्राय: सभी निबन्ध मौलिक एवं शोध-परक थे, जो परिश्रमपूर्वक तैयार किये गये थे। ____डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी एवं डॉ० रामशंकर मिश्र ने निबन्ध प्राच्य-भारतीय व्याकरण-ग्रन्थों के साथ तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक थे, जिनमें उन्होंने सामान्य जनमानस की दृष्टि से ग्रन्थ की सरलता, संक्षिप्तता एवं अर्थलाघव जैसी विशेषताओं पर अच्छी प्रकाश डाला। डॉ० रामसागर मिश्र ने शारदा-लिपि में प्राप्त शिष्यहितावृत्ति' तथा शिष्यहितान्यास' नामक व्याख्यापरक कृतियों की विशेषताओं पर पाण्डित्यपूर्ण चर्चा की। __ पाण्डुलिपियों के सर्वेक्षण-सम्बन्धी तीन निबन्ध भी प्रस्तुत किये गये, जिन्होंने प्राय: सभी का ध्यान आकर्षित किया, जिनमें से उदयपुर विश्वविद्यालय के डॉ० उदयचन्द्र जैन ने एक विशिष्ट सूचना यह दी कि कातन्त्र-व्याकरण पर लिखित एक टीका 'कातन्त्र-मन्त्र-प्रकाश-बालावबोध' की टीका प्राकृतभाषा मिश्रित है। इस कोटि का यह सम्भवत: प्रथम उपलब्ध ग्रन्थ है।
आरा (बिहार) की प्रो० (श्रीमती) विद्यावती जैन ने अपने निबन्ध में विविध शास्त्र-भाण्डरों में सुरक्षित लगभग 88 पाण्डुलिपियों का विवरण प्रस्तुत किया। उसी क्रम में अद्यावधि अज्ञात 'दुर्गवृत्ति द्वयाश्रय-काव्य की भी सूचना दी, जिसका अपरनाम 'श्रेणिकचरित महाकाव्य' बतलाया। इसमें 'श्रेणिक चरित' के 18 सर्ग कातन्त्र-व्याकरण' के नियमों को ध्यान में रखकर लिखे गये हैं। अभी तक हेमचन्द्राचार्यकृत 'कुमारपालचरित' 'द्वयाश्रय काव्य' के नाम से प्रसिद्ध था, किन्तु अब उक्त नूतन शोध-सूचनानुसार, 'दुर्गवृत्ति द्वयाश्रय काव्य' भी सम्मुख आया है। प्राच्य साहित्य-जगत् के लिये यह एक रोचक नवीनतम सूचना है, जो स्वयं में ही एक गौरव का विषय है। यही नहीं श्रीमती
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जैन ने एक ऐसी पाण्डुलिपि की भी सूचना दी है, जिसका नाम है—“कलाप-व्याकरणसन्धि-गर्भित-स्तवः” । जो 23 पद्य प्रमाण है। इसके लेखक ने उक्त स्तव (स्तोत्र) "सिद्धो वर्णसमाम्नाय" आदि कलाप (कातन्त्र) व्याकरण के सन्धि-सूत्रों की पादपूर्ति की दृष्टि से तैयार किया था। ____ एक तीसरी अप्रकाशित पाण्डुलिपि, जिसका कि नाम 'कातन्त्र-विस्तर' है (जिसका परिमाण 500 पृष्ठ है) और जो कातन्त्र व्याकरण' पर श्रीवर्धमान द्वारा लिखित वृत्ति है, उसका परिचय प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन ने प्रस्तुत किया। इस पाण्डुलिपि की विशेषता यह है कि उसके लेखक ने कातन्त्र-व्याकरण के सूत्रों पर तो अपनी विशिष्ट स्वतन्त्र वृत्ति लिखी ही, साथ ही समकालीन अर्थनीति, राजनीति, समाजिक-रीति-रिवाजों, लोकजीवन तथा भूगोल के विविध रूपों की परिभाषायें भी प्रस्तुत की हैं। जिनके विश्लेषणों ने श्रोताओं को काफी प्रभावित किया।
कातन्त्र-व्याकरण सम्भवत: गुप्तकाल के बाद से भारतीय साहित्यिक इतिहास की दृष्टि से ओझल होने लगा था। इसके कारण खोज के विषय हैं। किन्तु उपलब्ध तथ्यों के अनुसार गुप्तकाल के बाद वैयाकरण दुर्गसिंह द्वारा किये गये कातन्त्र-व्याकरण के वैज्ञानिक मूल्यांकन के कारण उसकी लोकप्रियता काफी बढ़ीं; तत्पश्चात् 'वादिपर्वतवज्र' विरुदधारी भावसेन-त्रैविद्य ने भी उस पर एक विस्तृत वृत्ति लिखी। इसप्रकार जहाँ तक मेरी जानकारी है, 12वीं-13वीं सदी से कातन्त्र का अच्छा प्रचार हुआ। दुर्गसिंह एवं भावसेन त्रैविद्य ने उस पर वृत्तियाँ लिखकर कातन्त्र-व्याकरण के महत्त्व एवं उनके आन्तरिक सौन्दर्य को ही प्रकाशित नहीं किया, बल्कि उन्होंने व्याकरण के क्षेत्र में एक ऐसे कातन्त्र-आन्दोलन' का सूत्रपात किया, जिसने कि बिना किसी आम्नाय-भेद के अनेक वैयाकरणों एवं साहित्यकारों को आकर्षित और समीक्षात्मक लेखन-कार्य हेतु प्रेरित किया। अपभ्रंश कवि भी उससे प्रभावित हुए बिना न रह सके।
‘पासणाहचरिउ' (अद्यावधि अप्रकाशित-अपभ्रंश महाकाव्य) का लेखक विबुध श्रीधर (13वीं सदी) जब हरियाणा से भ्रमण करने हेतु दिल्ली आया, तो उसे वहाँ की सड़कें उतनी ही सुन्दर लगी थीं, जैसी कि जिज्ञासुओं के लिये कातन्त्र-व्याकरण की पंजिका-वृत्ति। उस 'कातन्त्र-आन्दोलन' का ही यह सुफल रहा कि पिछले लगभग 6-7 सौ वर्षों में देश-विदेशों में लगभग 200 से ऊपर विविध टीकायें, भाष्य, वृत्तियाँ, अवचूर्णियाँ, टिप्पणियाँ, टीकाओं पर भी टीकायें एवं वृत्तियाँ पर भी अनेक वृत्तियाँ एवं टिप्पणक आदि लिखे गये। एक प्रकार से यह काल वस्तुत: कातन्त्र-व्याकरण के बहुआयामी महत्त्व के प्रकाशन का स्वर्णकाल ही था। इसकी सरलता, संक्षिप्ता स्पष्टता, लौकिकता तथा उदाहरणों की दृष्टि से स्थानीयता तथा स्थानीय समकालीन लोक संस्कृति के साथ-साथ उसमें भूगोल, अर्थनीति, समाजनीति, राजनीति आदि के समाहार के कारण वह ग्रन्थ निश्चय ही विश्वसाहित्य के शिरोमणि ग्रन्थ-रत्न के रूप में उभरकर सम्मुख आया है।
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कातन्त्र-व्याकरण पर वृत्तियाँ लिखकर दुर्गसिंह एवं भावसेन विद्य ने परवर्ती टीकाकारों की लेखनी के लिये प्रशस्त राजमार्ग का निर्माण कर एक पौष्टिक पाथेय भी तैयार कर दिया था। यह भी तथ्य है कि मालव तथा गुजरात के उक्त गौरवग्रन्थों पर कातन्त्र-व्याकरण की छाया है। यह उनके तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट विदित होता है।
जैसाकि ऊपर लिखा जा चुका है, कातन्त्र-व्याकरण के एक प्राचीन प्रमुख टीकाकार हैं— भावसेन त्रैविद्य (विद्य अर्थात् 1. शब्दागम अर्थात् व्याकरण, 2. तर्कागम अर्थात् न्याय-दर्शन, और 3. परमागम अर्थात् आगम-साहित्य के निष्णात विद्वान्)। उन्होंने शाकटायन-व्याकरण-टीका, प्रमा-प्रमेय, भुक्ति-मुक्ति-विचार प्रभृति विविध-विषयक नौ ग्रन्थों का भी पाण्डित्यपूर्ण प्रणयन किया था। उनके अनुसार 'कातन्त्र-व्याकरण' के लेखक शर्ववर्मा दिगम्बर जैनाचार्य थे। उन्होंने लिखा है कि युगादिदेव ऋषभदेव ने व्याकरण का ज्ञान सर्वप्रथम अपनी कुमारी पुत्रियों के लिये कराया था, जो कौमार' या 'कलाप' के नाम से ज्ञात रहा। तत्पश्चात् परम्परया वह ज्ञान पाणिनी-पूर्वकालीन शर्ववर्म को मिला। शर्ववर्म ने भी उसे संक्षिप्त तथा लोकोपयोगी बनाकर कातन्त्र-व्याकरण' के नाम से प्रसिद्ध किया। ईसापूर्व की सदियों में वह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय था कि महर्षि पतंजलि (ई०पू० तीसरी सदी) को भी लिखना पड़ा था कि- “ग्राम-ग्राम एवं नगर-नगर में कलाप (कातन्त्र) का पाठ होता रहता है।"
उक्त नेशनल सेमिनार की मूल प्रेरणा परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी की थी। उन्होंने अपने गुरुकुलीय बाल्य-जीवन से ही कातन्त्र-व्याकरण' का एक रटन्त-विद्या के रूप में अध्ययन किया होगा। किन्तु आगे चलकर उसमें उन्हें उसकी ऐतिहासिकता की झाँखी दिखाई पड़ने लगी। उसका उन्होंने निरन्तर ही तुलनात्मक अध्ययन, मनन एवं चिन्तन तो किया ही, उसे एक महनीय गौरव-ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित भी किया और जन-जन तक उसकी महिमा को प्रकाशित करने हेतु अ०भा० शौरसेनी प्राकृत संसद् को उसके आयोजन की प्रेरणा दी, साथ ही, श्रीकुन्दकुन्द भारती ट्रस्ट के दृष्टियों को भी प्रेरित किया कि वह जैन समाज के गौरव-ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध कातन्त्र-व्याकरण पर एक नेशनल सेमिनार का आयोजन करें, जिससे कि पिछली कई सहस्राब्दियों से भारतीय साहित्य एवं इतिहास के निर्माण में उसके बहुआयामी योगदान के पक्षों को प्रकाशित किया जा सके। इसमें सन्देह नहीं कि उक्त आयोजन से आचार्य विद्यानन्द जी की अभिलाषा आंशिक रूप में ही सही, पूर्ण हुई होगी। फिर भी, विद्वानों की यह राय बनी है कि उसमें समग्रता की दृष्टि से आगामी दो वर्षों के भीतर पुन: एक नेशनल सेमिनार का आयोजन किया जाय, जिससे कि विद्वद्गण पुन: उस विषय पर शोधकार्य कर सकें और अगले कार्यक्रम में वे अपना चिन्तन प्रस्तुत कर सकें।
समापन-सत्र में विद्वानों ने अपने-अपने विचार भी व्यक्त किये थे, जिनके कुछ निष्कर्ष निम्न प्रकार है
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(1) दो वर्षों के भीतर-भीतर कातन्त्र-व्याकरण विषयक एक राष्ट्रिय संगोष्ठी का
आयोजन पुन: किया जाय। (2) श्री कुन्दकुन्द भारती प्रांगण में शीघ्र ही निर्मित कराये जाने वाले 'खारवेल भवन'
में एक कातन्त्र पुस्तकालय की स्थापना की जाय, जिसमें देश-विदेश में उपलब्ध सभी कातन्त्र-सम्बन्धी पाण्डुलिपियों की मूल अथवा माइक्रोफिल्मिंग प्रतिलिपियों का संग्रह
किया जाय, (3) कातन्त्र-व्याकरण के बहुआयामी शोधपरक मूल्यांकन-हेतु एक कातन्त्र-परिषद् की ___ स्थापना की जाये, जिसके माध्यम से कातन्त्र का बहुआयामी शोधकार्य गतिशील बना
रहे तथा उसका प्रकाशन होता रहे। (4) कातन्त्रकालीन भारत' नामक एक सर्वोपयोगी ग्रन्थ की रचना की जाय, जिसमें
भारतीय इतिहास, संस्कृति तथा उसके विविध अंगों को ससन्दर्भ प्रकाशन हो। (5) पूर्वोक्त कातन्त्र-विस्तर, दुर्गवृत्ति द्वयाश्रय काव्य एवं प्राकृत मिश्रित बालावबोध टीका
का सम्पादन एवं प्रकाशन शीघ्र ही किया जाय।
कुंबले ने कहा : शाकाहारी बनो आजकल बड़े क्रिकेटरों के नाम मैच फिक्सिंग से जोड़े जा रहे हैं, एक क्रिकेटर का नाम शाकाहार से जुड़ रहा है। लेग-स्पिनर अनिल कुम्बले आजकल जमकर शाकाहार की वकालत कर रहे हैं।
'पीपुल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल' की एक विज्ञप्ति के अनुसार अनिल कुम्बले का कहना है कि “शाकाहार पशुओं की रक्षा करता है। उनका यह भी मानना है कि शाकाहारी भोजन में सभी तरह के जरूरी विटामिन और प्रोटीन होते हैं। इसमें वसा, कोलेस्ट्रोल मांस से कम होते हैं।"
कुम्बले ने शाकाहार को बढ़ावा देने के लिए हाल ही में एक विज्ञापन के लिए भी काम किया है। यह विज्ञापन क्रिकेट स्टेडियमों में अगले कुछ महीनों में दिखाई देगा। इस विज्ञापन में यह गेंदबाज बल्ला हाथ में लिए है और कह रहे हैं कि 'शाकाहारी हो जाओ'।
भारत से पहले पेटा के अभियान के चलते अमेरिका में 1 करोड़ 70 लाख अमेरिकी शाकाहारी हो चुके हैं। इंग्लैंड में हर सप्ताह औसतन 2000 लोग शाकाहार को अपना रहे हैं। भारत में पेटा ने जनवरी में अपना अभियान शुरू किया था। इस अभियान में अमिताभ बच्चन, महिमा चौधरी, जूही चावला आदि कई भारतीय सितारे भी शामिल हो चुके हैं।
-(साभार उद्धृत, नवभारत टाईम्स, 2 अगस्त 2000) **
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आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की भाषा
-डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री विगत पाँच दशकों में भारतीय विद्या के क्षेत्र में किये गये शोध-कार्यों से दो महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रकाशित होकर सामने आये हैं— प्रथम आचार्य कुन्दकुन्द का जन्म आन्ध्रप्रदेश में हुआ था और उनके नाम पर उस ग्राम का नाम, उस बस्ती को कोण्डकुंदि' कहते हैं। द्वितीय यह कि आचार्य कुन्दकुन्द का जन्म उस समय हुआ था, जब आन्ध्र प्रदेश में सातवाहन नृपति का शासन-काल था। भारतीय इतिहासविदों के अनुसार यह सुनिश्चित है कि आचार्य कुन्दकुन्द गुप्तकाल के पूर्व हुए।' यह भी निश्चित होता है कि आन्ध्र में 'गुन्टुपल्ली' के शिलालेखों के अनुसार ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दी में वहाँ पर जैनधर्म का प्रचार-प्रसार हो चुका था, जिसे प्रसृत करने में कोण्डकुन्दाचार्य का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। वे उसके मुखिया थे। 'सातवाहन वंश' की स्थापना ई०पू० 210 में हुई थी। आन्ध्रप्रदेश पर अधिकार हो जाने के पश्चात् वह 'आन्ध्रवंश' के नाम से प्रसिद्ध हो गया।' अत: पुराणों में उसका उल्लेख 'आन्ध्रवंश' के नाम से किया गया है। वेल्लारिपुर' में उपलब्ध शिलालेख में आन्ध्रप्रदेश को 'सातवाहनिहार' कहा गया है। सातवाहनों के सम्पूर्ण शिलालेख प्राकृतभाषा में लिखित प्राप्त होते हैं। एक भी शिलालेख तेलुगु भाषा में लिखा गया आज तक प्राप्त नहीं हुआ।
यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि भारतवर्ष के प्राचीनतम शिलालेख प्राकृतभाषा में उपलब्ध होते हैं। यहाँ तक कि 'भारतवर्ष' शब्द का प्राचीनतम उल्लेख कलिंग-देश खारवेल के शिलालेख में 'भरधवस' रूप में किया गया है। सबसे अधिक आश्चर्यकारी यह है कि सम्राट् खारवेल तथा सातवाहनवंशी राजाओं के शिलालेख प्राकृत में उपलब्ध होते हैं। मूल सातवाहन वंश में 19 राजा हुए होंगे जिनमें शिवस्वाति (78 ई०), शिवश्री (165 ई०) और शिवस्कन्द (172 ई०) भी हैं, जो तीन सौ वर्षों के भीतर हुए। नहपान या नरवाहन की तिथि 124 ई० है। नरवाहन के काल में आचार्य भूतबलि-पुष्पदन्त हुए। अत: आचार्य कुन्दकुन्द उनके पूर्व हुए थे। नन्दिसंघ की पट्टावली के अनुसार विक्रमसंवत् 49 में कोण्डकुन्द को आचार्यपद से अलंकृत किया गया था। ग्यारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने श्रमण (सामायिकचारित्र) दीक्षा धारण की थी और चवालीसवें वर्ष में आचार्य
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पदवी से उन्हें अलंकृत किया गया था। अत: ई०पू० 08 में वे आचार्य हुए थे। शिलालेखों के अनुसार उनका जन्म माघ शुक्ल पंचमी, विक्रम संवत् 05 में हुआ था। इसप्रकार उनकी जन्मतिथि कालगणना के अनुसार ईस्वी पूर्व 52 निर्धारित है। ____ गुप्तकाल के पूर्व तक के लगभग दो दर्जन से अधिक ऐसे प्राकृत के शिलालेख कर्नाटक प्रदेश में उपलब्ध हैं, जिनसे मौर्य, चुट, सातवाहन, पल्लव और कदम्ब राजाओं के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है। कर्नाटक के प्राचीनतम शासक सातवाहन थे, जिन्होंने प्रशासनिक भाषा के रूप में प्राकृत का प्रयोग किया था और जनता के लिए भी प्राकृत की ही स्वीकृति प्रदान की थी। अत: यह स्पष्ट है कि सातवाहनों के राज्यकाल में ही प्राकृतभाषा का विकास हुआ। राजा सातवाहन ने अपने अन्त:पुर में प्राकृत को व्यवहार की भाषा के रूप में प्रचलित किया था। सातवाहन राजाओं ने ई०पू० 230 से ई०पू० 220 तक अर्थात् चार सौ वर्षों से अधिक राज्य किया। इस वंश के तीस राजाओं ने राज्य किया। पहले इनकी राजधानी महाराष्ट्र में 'पैठन' (प्रतिष्ठानपुर) थी, फिर क्रमश: हैदराबाद, कृष्णा और गोदावरी तट तक राज्य विस्तृत हो गया। ___ दक्षिण भारत के विभिन्न प्रदेशों की राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति के अध्ययन से भी इस तथ्य की संपुष्टि होती है कि अपने युग में आचार्य कुन्दकुन्द का दक्षिण भारत में विशेष प्रभाव था। श्री रामास्वामी आयंगर महोदय के अनुसार आचार्य कुन्दकुन्द का युग ई०पू० प्रथम शताब्दी से लेकर ईस्वी प्रथम शताब्दी का पूर्वार्द्ध रहा है और वे 'द्रविड़संघ' के मुखिया रहे हैं। यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि प्राचीनतम अभिलेख अधिकतर प्राकृत में और कुछ संस्कृत में उपलब्ध होते हैं; न कि क्षेत्रीय भाषाओं में। दिगम्बर जैनों ने आगम या श्रुत को संरक्षित करने के लिये जैन-शौरसेनी या शौरसेनी . प्राकृत में रचना की थी। ___ इसमें कोई सन्देह नहीं है कि मत-भेद के कारण दिगम्बर-श्वेताम्बरों के विचारों में ही नहीं, कहीं-कहीं आचरण में और भाषा में भी परिवर्तन स्पष्ट लक्षित होने लगा। 'णिग्गंठ' (निर्ग्रन्थ) शब्द का अर्थ जो महात्मा गौतमबुद्ध के समय में दिगम्बर अपिरग्रही साधु' का वाचक था, वह कालान्तर में 'श्रमण परिव्राजक' का अर्थ देने लगा और पक्ष-व्यामोह होने पर अल्प वस्त्रादि का प्रयोग करने पर भी उसे 'परिग्रह' से रहित समझा जाने लगा। अत: दण्ड-वस्त्रधारी साधु-सन्त भी 'णिग्गंठ' (निर्ग्रन्थ) कहे जाने लगे। इसप्रकार परवर्तीकाल में शब्द अर्थ-विशेष में रूढ़ हो गये। अत: ऊपर से समान प्रतीत होने पर भी प्राकृतभाषा में ही दार्शनिक और पारिभाषिक शब्दावली में कई तरह
की भिन्नता, सूक्ष्मता तथा गम्भीरता लक्षित होती है। ___डॉ० जॉर्ज ग्रियर्सन ने प्राकृत के उपलब्ध साहित्य के आधार पर प्राकृतों का विभाजन दो रूपों में किया है- पश्चिमी और पूर्वीय प्राकृत। यद्यपि यह बहुत स्थूल विभाजन है,
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फिर भी भौगोलिक दृष्टि से यह उचित है। वैदिक काल से ही पूर्वी और पश्चिमी बोलियों में भेद बराबर बना रहा है। डॉ० ग्रियर्सन का विचार स्पष्ट है कि पश्चिमी प्राकृत में मुख्य शौरसेनी' है, जो शूरसेन या गांगेय-दोआब तथा निकटवर्ती प्रदेश के मध्यवर्ती क्षेत्र की भाषा है। ___ यह एक आश्चर्यजनक तथा विश्वसनीय तथ्य है कि दिगम्बर जैन आगम-ग्रन्थों या श्रुत-जिनवाणी अथवा उनकी आनुपूर्वी में रचे गये अधिकतर ग्रन्थों की भाषा 'शौरसेनी' है। दक्षिण भारत में ई०पू० तृतीय शताब्दी लगभग से लेकर प्रथम-द्वितीय शताब्दी के सम्राट अशोक के तथा अन्य शिलालेखों के उपलब्ध होने से यह निश्चित होता है कि उस युग में प्राकृत का ही प्रमुख प्रचलन था। 'कसायपाहुडसुत्त' की भाषा से तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने आचार्य गुणधर के भावों का ही नहीं, भाषा का भी संयोजन तथा अनुगमन किया है।" पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री के शब्दों में "कुन्दकुन्द के उपलब्ध ग्रन्थों में ‘पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार', 'समयसार', 'नियमसार'
और 'अष्टपाड' अतिप्रसिद्ध हैं। इन सबकी भाषा शौरसेनी प्राकृत है।" शौरसेनी प्राकृत के सामान्य नियम इसप्रकार हैं
(1) अनादि में विद्यमान असंयुक्त 'त' को 'द' होता है। जैसे—'धातु' के स्थान पर 'धातु' (पंचास्तिकाय 78), संघाद, णियद (पंचा० 79), परिणदं (पंचा० 84), पसजदि (पंचा० 94), चेदण (पंचा० 97), जीविद (पंचा० 30), चेदग (पंचा० 68), अविदिद (प्रवचन० 57), तदा, तदिय, आपदण (बोधo 5, 6), चेदय (बोध० 7), सब्भूद (प्रवचन० 18) समक्खाद (प्रवचन० 36),समस्सिद (समाश्रित, प्रवचन० 65), समदा (समता, नियम० 124), समभिहद (प्रवचन० 30) इत्यादि।
(2) किसी भी शब्द के प्रारम्भ में स्थित 'त' वर्ण को 'द' नहीं होता। उदाहरण के लिए- तण (तृण), तुम्ह, तुरिय, तेल, तोच, तणू (तनु), तच्च (तत्त्व), तत्तो आदि ।
(3) विकल्प से कहीं-कहीं आदि के 'त' को 'द' हो जाता है। जैसेकि— दाव (तावत्)।
(4) क्रिया-रूपों में शौरसेनी में संस्कृत के 'ति', 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'दि', 'द' का प्रयोग होता है। यथा- हसदि (हसति), भण्णदे (समय० 66), कुणदि (बोध 56), कुव्वदि (स० 301), खणदि (लिंग० 15) पडिवज्जदि (पंचा० 137), धुद (त्यक्त) (निर्वाणभक्ति 2), घिप्पदि (समय० 296), करेदि (समय० 230), गच्छदि (नियम० 182), लिप्पदि (बोध० 46), परिणभदि (समय० 76), उप्पज्जदे (समय० 217), उप्पज्जदि (समय० 76-79), सेवदि (लिंग 7) णस्सदि (पंचा० 17), विज्जदि (प्रवचन० 17), णादि (पंचा० 162), णादेदि (समय० 189), णासदि (सुत्त० 34), णासेदि (समय० 158, 159); णिग्गहिदा (पंचा० 141), णिग्गदो (समय० 47), णिज्जदु (समय० 209),
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णिच्छिदा (समय० 31), णिट्ठिदो (प्रवचन० 53), परिभमदि (वारसाणु० 24) जुंजदि, हिंडदि, हवेदि, हवदि, होदि, प्रभृति । ___पूर्वकालिक क्रिया कर' के अर्थ में 'दूण' प्रत्यय का प्रयोग शौरसेनी प्राकृत में विशेष रूप से पाया जाता है। उदाहरण के लिये, णादूण (समय० 34, 72) पस्सिदूण (समय० 189), होदूण (मोक्ख० 49, सील० 10), पढिदूण (मोक्ख० 106) आदि। यद्यपि प्राकृत के सभी व्याकरणों में यह सामान्य नियम मिलता है कि दो स्वरों के मध्यवर्ती 'क, ग, च, ज, त, द, प' का प्राय: लोप हो जाता है और सामान्य रूप से उसके स्थान पर अर्द्धस्वर (य, व्) का आगम अर्थात् 'यश्रुति-वश्रुति' या 'इ' हो जाता है। किन्तु विशेष रूप से शौरसेनी में मध्यम तथा अन्त्यवर्ती 'त' का 'द' हो जाता है। जैसेकि—'माता-पिता' के लिए मादा-पिदर' (वारसाणु० 21), 'धातु' के लिए 'धादु' (वारसाणु० 41), 'मति' के लिए मदि' (नियम० 22, लिंग 3, 4), 'रति' के लिए 'रदि' (प्रवचन० 64), 'रत्न' के लिए 'रदण' (प्रवचन० 30), 'भूत' के लिए 'भूद' (पंचा० 60), 'सत्' के लिए सद' (पंचा० 55), 'समता' के लिए 'समदा' (नियम 124), 'हित' के लिए 'हिद' (पंचा० 122), 'मुहित' के लिए 'मुहिद' (प्रवचन० 43), 'प्रभृति' के लिए पहुदि' (नियम० 114), (प्रवचन० 14, 15), 'वियुक्त' के लिए विजुद' (पंचा० 32), 'विदित' के लिए विदिद' (प्रवचन० 78), 'ध्याता' के लिए 'धुद', 'अतीत' के लिए 'अतीद'
इत्यादि।
इसीप्रकार क्रियापदों में भी पद के अन्तिम वर्ण 'त' के स्थान पर 'द' हो जाता है। यथा— 'भाषित' के लिए 'भासिद' (पंचा० 60), 'घात' के लिए 'घाद', 'जीवित' के लिए 'जीविद' (प्रवचन० 55), 'दशित' के लिए दसिद' (समय० 12), 'धुत' के लिए 'धुद' . (त्यक्त), (निर्वाण भ० 2), 'धौत' के लिए 'धोद' (प्रवचन० 1), 'प्रणत' के लिए 'पणद' (प्रवचन० 3), 'भरित' के लिए 'भरिद' (सील० 28), निर्गत' के लिए 'णिग्गद' (समय० 47), 'स्थित' के लिए ठिद' (समय० 187), 'निष्ठित' के लिए णिट्ठिद' (प्रवचन० 53), 'परिस्थित' के लिए परिट्ठिद' (भाव० 95, 163), 'आगत' के लिए 'आगद' (प्रवचन० 84), 'अनाहत' के लिए 'अणारिहद' (समय० 347, 348), 'अकृत' के लिए 'अकद' (पंचा० 66), 'पूर्वगत' के लिए 'पुव्वगद' (पंचा० 160), 'संयुत' के लिए संजुद' (पंचा० 68, प्रवचन० 14), 'पठित' के लिए 'पढिद' (पंचा० 57), 'प्रणिपत्' के लिए 'पणिवद' (प्रवचन० 63) प्रभृति ऐसे रूप हैं। ___ यह एक विचित्र और आश्चर्यजनक तथ्य है कि आज तक आचार्य कुन्दकुन्द के मूल पाठों की सुरक्षा नहीं की गई। लगभग इक्कीस सौ वर्षों में भाषा में अनेक प्रकार के परिवर्तन हुए। युग-युगों में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के लिपिकार बदलते रहे। उनमें भी दक्षिण भारत के लिपिकारों से उत्तर भारत के लिपिकारों में सदा अन्तर बना रहा।
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दक्षिण भारत की प्रतिलिपियों में प्राचीन लिपि की पूर्ण जानकारी न होने से जहाँ वर्तनी या वर्ण-सम्बन्धी भेद लक्षित हुए, वहीं उत्तर भारत की प्रतिलिपियों में उच्चारण-विषयक भेद निरन्तर होने से वर्तनी तथा भाषा में भी परिवर्तन और विशेषकर प्राकृत भाषागत परिवर्तन स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। संस्कृत का व्याकरण जटिल तथा नियमों में आबद्ध होने से तथा क्षेत्रगत विभेद नहीं होने से उसमें किंचित्-परिवर्तन हुए, जो कालान्तर में शास्त्रीय पण्डितों द्वारा शुद्ध किए जाते रहे। इसप्रकार के प्रयत्न प्राकृतभाषा में विरल हुए, और जो किए गए, वे उन संस्कृत-विद्वानों ने किए जो प्राकृतभाषा को संस्कृत-छाया तथा संस्कृत व्याकरण की कसौटी पर कसकर समझने वाले थे। जब तक किसी भाषा की प्रकृति तथा रूप-रचना आदि का भलीभाँति ज्ञान न हो, तब तक वह पूर्णरूप से समझ में नहीं आती।
आचार्य कुन्दकुन्द के अकेले ‘पंचास्तिकाय' में शौरसेनी के ही शब्दरूप सभी प्रतियों तथा प्रकाशित संस्करणों में समान रूप से लक्षित होते हैं। उदाहरण के लिए— आगासं (गाथा सं० 22,98, 100), चेदा, हवदि (27,38), उवओगविसेसिदो (27), लहदि (28), जादो, पप्पोदि (29), जीविदो (30), परिणदा, असंखादा (31), चिट्ठदि (34), चेदयदि,
चेदग (38), मदि, सुद (41), णियदं (46), जदि, गुणदो (50), विवरीदं (51), बहुगा (52), पसजदि (54), इदि (60), सदो असदो (61), मिस्सिद (62), करेदि पढिदं (63), कम्मकदं (64), लोगो (70), हिंडदि (75), गदिं (79), कारणभूदं (93), लोगमेत्ता (94), देदि, णिहद (111) इत्यादि। ___ पाठान्तरों में भी शौरसेनी प्राकृत.के मध्यम तथा अन्त्य वर्ण 'त' को नियमित रूप से 'द' ही उपलब्ध होता है। जैसेकि— ‘पंचास्तिकाय' की गाथा 33 में दो पाठ मिलते हैं- पहासयदि, पभासयदि। दोनों में 'द' सुरक्षित हैं। इसीप्रकार कुदोचि, कदाचि में मध्यम 'द' बराबर है। तथा संस्कृत के तवर्ग वर्गों में 'त' को 'द' समान रूप से शौरसेनी प्राकृत में देखा जाता है। यथा- इदरं>इतरं (37), अणण्णभूदं>अनन्यभूतं (40), समुवगदो (76), भणिदो (77), सव्वदो (79), कारणभूदं (93), ठिदि (93, 94), ठाणं (96), इदि (102), णियद (107), एदे (109) आदि।
क्रियापदों में वर्तमानकालिक अन्य पुरुष के संस्कृत भाषा के 'ति' प्रत्यय के स्थान पर शौरसेनी प्राकृत में सर्वत्र 'दि' पाया जाता है। उदाहरण के लिये- गदा (गता: 71), वनादि (व्रजति 76), देदि (ददाति 99), मुयदि (मुंचति 110), गाहदि (गाहते 110), हद (हत: 111), करेदि (करोति, 63, 95), गच्छदि (गच्छति 95), पढिदं (93), हिंडदि (75), संभवदि (13, 14), कुणदि (21), लहदि (28), जादि, पप्पोदि (29), जीवदि (30), पहासयदि (33), चिट्ठदि (34), जुज्जदि (37), उप्पादेदि (36), चेदयदि (38), कुव्वदि (53), भणिदं (60), समादियदि (समाददाति 106)।
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शौरसेनी प्राकृत में मध्यम 'क' के लिए सर्वत्र 'ग' होता है। जैसेकि 'आकाश' के लिए ‘आगास' (104)। इसीप्रकार 'अवकाश' के लिए ओगास (7), 'अवगास' (गा० 99 ), 'एकत्व' के लिए 'एगत्त', 'प्रकाशक' के लिए 'पगासग' (गा० 57 ), 'लोक' के लिए 'लोग' (70, 98, 101) जायदि ( गा० 86 ), परिणदं (91), 'साकार' के लिए 'सागार' इत्यादि ।
'शेषं शौरसेनीवत्' नियम के अनुसार प्राकृत के सभी नियम जो शौरसेनी प्राकृत में निर्दिष्ट हैं, उनका प्रयोग आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में देखा जाता है। अत: इसमें कोई सन्देह नहीं है कि प्राचीन दिगम्बर आगम-ग्रन्थों की रचना शौरसेनी में लगभग ई०पू० तृतीय शताब्दी के पश्चात् प्रथम आचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवली के अनन्तर आचार्य गुणधर के 'कसायपाहुडसुत्त' से लिखित द्रव्यश्रुत की रचना आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य धरसेन के शिष्य पुष्पदन्त - भूतबली को प्राप्त हुई और वही अविकलरूप से शौरसेनी भाषा के माध्यम से प्रवर्तमान है।
'श्रुतपंचमी' के पावन पर्व पर पण्डितों, विद्वानों तथा स्वाध्यायी साधु-सन्तों का यह महान दायित्व है कि उस अखण्ड श्रुत की रक्षा का संकल्प कर तथा उस दिशा में प्रेरणा कर 'ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी तिथि' को सार्थक बनायें ।
सन्दर्भग्रंथ सूची
1. भगवत शरण उपाध्याय : गुप्तकाल का सांस्कृतिक इतिहास, लखनऊ, 1969, पृ० 379 2. डॉ० बी०एस०एल० हनुमन्थराव: रिलीजन इन आन्ध्रा, त्रिपुरसुन्दरी 1973, पृ० 10। 3. हरिदत्त वेदालंकार : भारत का सांस्कृतिक इतिहास, दिल्ली 1992, पृ० 99।
4. सत्यकेतु विद्यालंकार : प्राचीन भारत, मसूरी, 1981, पृ० 307
5. पुरुषोत्तमलाल भार्गव : प्राचीन भारत का इतिहास, दिल्ली 1992, पृ० 251 ।
6. द्रष्टव्य है - हम्पा नागराजय्या का लेख 'इन्फ्लुएन्स ऑफ प्राकृत ऑन कन्नड लैंग्वेज एण्ड लिटरेचर'। एन०एन० भट्टाचर्य (सं० ) : जैनिज्म एण्ड प्राकृत इन एन्शियेन्ट एण्ड मेडिकल इण्डिया, पृ० 114।
7. वाचस्पति गैरोला : भारतीय संस्कृति और कला, द्वि०सं०, लखनऊ, पृ० 334 ।
8. बालशौरि रेड्डी : तेलुगु साहित्य का इतिहास, हिन्दी समिति लखनऊ, द्वि०सं०, पृ० 23 । 9. रामास्वामी आयंगर : स्टडीज़ ऑफ साउथ इण्डिया इन जैनिज्म, 1922, मद्रास, पृ० 8-9 । 10. द क्लासिकल एज, भारतीय विद्याभवन, पृ० 325,418 ।
11. जी०ए० ग्रियर्सन : लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया, जिल्द 1, भा० 1, दिल्ली । पुर्नमुद्रित
संस्करण 1967, पृ० 123 ।
12. सं० डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री : 'बारसाणुर्वेक्खा' की प्रस्तावना, पृ० 43 । 13. पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्ताचार्य : दक्षिण भारत में जैनधर्म, पृ० 141।
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तीर्थंकर महावीर के सिद्धांतों की प्रासंगिकता
जैनधर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान् महावीर अपने युग के महान् विचारक थे। वे युगद्रष्टा महापुरुष और श्रेष्ठ धर्मप्रवर्तक थे। जैनधर्म के अनुसार प्रत्येक तीर्थंकर धर्म के संस्थापक न होकर मात्र धर्मप्रवर्तक होते हैं। तीर्थंकर महावीर' भी ऐसे ही धर्मप्रवर्तक थे, जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती 23 तीर्थंकरों की परम्परा को आगे बढ़ाया। वे चित्त की शुद्धता, आचरण की पवित्रता तथा इन सबसे ऊपर मानवता के प्रचारक थे। आत्महित के साथ लोकहित का उपदेश देना उनका वैशिष्ट्य था। उन्होंने दलित मानवता के उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने प्राणीमात्र के कल्याण की बात की। उनके सिद्धांतों में निहित सार्वजनीन एवं हितकारी भावनाओं के कारण ही समन्तभद्राचार्य जी ने उनके तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ' की संज्ञा दी है। उनके सिद्धांतों का प्रभाव सार्वत्रिक एवं सार्वकालिक है।
वर्तमान भौतिकता के प्रति व्यामोह एवं आपाधापी के इस युग में तीर्थंकर महावीर के संदेश हमें दिशाबोध देने में समर्थ हैं। उनके सिद्धांत सुख-शांति की चाह में भटकती पीढ़ी को शांति का पान कराने में सक्षम हैं। महावीर' निर्ग्रन्थ थे, वे आंतरिक एवं बाह्य ग्रंथि (गांठ) से रहित थे। “जिसके भीतर और बाहर ग्रंथि नहीं रही, जो भीतर-बाहर स्वच्छ एवं निर्मल हो, जिसकी अहंता और ममता नि:शेष हो गई हो, वही 'निर्ग्रन्थ' कहलाता है।"' उनके विचार अहंकार और ममता से रहित (नि:शेष) व्यक्तित्व के विचार थे। उनकी सोच रचनात्मक थी, चूँकि 'विरोध से विरोध उत्पन्न होता है', अत: उन्होंने विरोधों में सांमजस्य की बात कही। उन्होंने स्वयं कभी किसी का विरोध नहीं किया और न ही किसी के विरोध या निषेध का विचार दिया। उन्होंने विरोधों में रचनात्मक रूप से समन्वयवादी दृष्टिकोण रखा, विध्वंसात्मक नहीं। जिसमें टकराव के स्थान पर आपसी सौमनस्य का भाव विद्यमान है। उन्होंने 'अनेकान्त' एवं 'स्याद्वाद' सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इन सिद्धांतों से हमें सहिष्णुतापूर्वक समन्वय का संदेश मिलता है। प्रत्येक वस्तु में अनेक धर्म (गुण) होते हैं, उसे अनेक दृष्टिकोणों से देखना व जानना 'अनेकान्त' है।
रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में – “अनेकान्त चिन्तन की अहिंसामयी प्रक्रिया का नाम है। अत: चित्त से पक्षपात की दुरभिसंधि निकालो और दूसरे के दृष्टिकोण के विषय
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को भी सहिष्णुतापूर्वक खोजो । वह भी वहीं लहरा रहा है। 2
भगवान् महावीर ने 'अनेकान्त' सिद्धान्त का कथन करके विश्वधरातल पर 'सर्वधर्मसमभाव' का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया । 'स्याद्वाद' सिद्धान्त अनेकान्त - चिन्तन की अभिव्यक्ति की शैली है । अनेक धर्मात्मक वस्तु के कथन करने की समीचीन पद्धति है, जो सामंजस्य की द्योतक है । 'स्यात्' शब्द सापेक्षात्मक है । सर्वथा 'ही' के स्थान पर 'भी' शब्द को भी जोड़ता है। अपनी दृष्टि को विशाल, विचारों को उदार, वाणी को आग्रहहीन, निष्पक्ष एवं नम्र बनाकर अपना सद्- अभिप्राय प्रकट करना 'स्याद्वाद' है। '
वर्तमान में एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र से, एक राज्य को दूसरे राज्य से, एक समाज को दूसरे समाज से, एक परिवार को दूसरे परिवार से, यहाँ तक कि एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से जो विरोध आपसी मतभेद, हठवादिता, मनमुटाव एवं टकराव का वातावरण बन रहा है, उसे महामना तीर्थंकर महावीर के 'समन्वयवादी' विचारों से ही रोका जा सकता है।
तीर्थंकर महावीर के उपदेश 'सर्वकल्याण' की भावना से अनुप्राणित हैं। सभी प्राणियों के हित की भावना या कामना उनके संदेश का मूलभाव है। उनका भवकल्याणसंबंधी विचार विशेष वर्ग, जाति वर्ण, देश और समय की सीमाओं से परे है। उनका उपदेश सबके लिए है। उसमें सबके हित और सुख की भावना समाहित है।
भगवान् महावीर श्रेष्ठ दार्शनिक थे । उन्होंने मानवीय सोच के कई नए मानदंड स्थापित किए। अहिंसा का दर्शन (विचार) उनमें से एक है। उन्होंने अहिंसा के विचार को विस्तृत फलक पर व्याख्यायित किया । यह विश्व का श्रेष्ठ दर्शन है । यह जाति, वर्ग, संप्रदाय से ऊपर उठा अत्यंत व्यापक विचार है। इसका मूल लक्ष्य मानव की व्यावहारिक धरातल की विषमताओं का शमनकर एक ऐसी जमीन को तैयार करना है, जिसमें केवल प्रेम और विश्वास की फसल लहलहा सके। उन्होंने 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का उद्घोष किया। उनका मानना था कि “प्रत्येक आत्मा में अमृतत्व की शक्ति प्रच्छन्नरूप से विद्यमान है। प्रत्येक आत्मा अपनी यह शक्ति प्रकट कर सकती है। एक आत्मा को सुख-दु:ख की जैसी अनुभूति होती है, वैसी ही अन्य आत्मा की भी होती है ।” आत्मिक जुड़ाव से अनुस्यूत 'जियो और जीने दो' उनका सूत्र - वाक्य था ।
तीर्थंकर महावीर ने अहिंसा की भावभूमि पर संस्थित 'सत्त्वेषु मैत्री' का संदेश दिया, जिसमें प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव रखने की भावना समाहित है । मन, वचन और काया (शरीर) से कुछ भी ऐसा मत करो, जिससे दूसरों को पीड़ा हो, उनका अकल्याण या अहित हो। वर्तमान में बढ़ती हुई हिंसक प्रवृत्ति, दया - रहित परिणाम, बैर-विरोध, घृणा, वैमनस्यता एवं अमानवीय सोच को अहिंसा की शक्ति (भावना) के द्वारा बदला जा सकता है। उनकी अहिंसा में प्रकृति के सूक्ष्म जीव के प्रति भी दयाभाव विद्यमान है। उन्होंने न
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केवल आचार, वरन् विचारों के क्षेत्र में भी अहिंसा की बात कही है। “इतिहासकार भी यह स्वीकार करते हैं कि वैदिक ब्राह्मणों को महावीर की अहिंसा और जीवन सिद्धांतों से प्रभावित होकर यज्ञ-यागादि का रूप बदलना पड़ा। उसके बाद जो वैदिक-साहित्य निर्मित हुआ, उसमें 'ज्ञानयज्ञ' को प्रमुखता दी गई, 'कर्मयज्ञ' को महत्त्व दिया गया और आधिभौतिक स्वरों के स्थान पर आध्यात्मिक स्वर गूंजने लगे। आचार और विचार दोनों में ही 'अहिंसा' को मान्यता दी गई।""
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी भी भगवान् महावीर के 'अहिंसा' दर्शन से प्रभावित हुए थे। उन्होंने भगवान् महावीर की अहिंसक, त्यागपूर्ण जीवन शैली एवं सद्विचारों को चरितार्थ किया था। भारत के संविधान की मूलप्रति के मुखपृष्ठ पर चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर' का दिगम्बर मुद्रा में ध्यानस्थ-चित्र अंकित है। उसमें उल्लिखित है“Vardhamana Mahavir, the 24th Tirthankara in a meditative posture, another illustration from the Calligraphed edition of the Constitution of India. Jainism is another stream of spiritual renaissance which seeks to refine and sublimate man's conduct and emphasises Ahimsa, nonviolence, as the means to achieve it. This became a potent weapon in the hands of Mahatma Gandhi in his political struggle against the British Empire”
“जैनमत आध्यात्मिक पुनर्जागरण की एक विशिष्ट धारा है, जो कि मनुष्य के आचार-विचार को उदात्त बनाने के साथ-साथ इसकी प्राप्ति के लिए अहिंसा पर बल देता है। अहिंसा महात्मा गाँधी के हाथों में ब्रिटिश साम्राज्य से राजनैतिक संघर्ष करने में सशक्त अस्त्र बनी।"
महात्मा गाँधी ने अहिंसा के बल पर भारत को गुलामी से मुक्त कराया और विश्व स्तर पर पराधीन राष्ट्रों में भी इसी शस्त्र के द्वारा स्वाधीनता की चेतना जागृत की।
तीर्थंकर महावीर का विलक्षण व्यक्तित्व था। वे विशेष ज्ञान-ज्योति से सम्पन्न थे। उनके सिद्धांत 'आत्मवाद' पर आधारित थे। वे आत्मा की अनंत शक्तियों पर विश्वास करते थे। उन्होंने आत्मिक शक्ति का परिचय पाने के लिए पुरुषार्थ' पर बल दिया। उन्होंने आत्मा को अपना चरम एवं परम उत्कर्ष करने का आत्मविश्वास जगाया। जिससे मनुष्य अपने पुरुषार्थ के माध्यम से अंतर में बैठे ईश्वरत्व को पा सकता है।" जो अपने आपको पा लेता है, वही ईश्वर बन जाता है।"" वास्तव में, "ईश्वर उन शक्तियों का उच्चतम शालीनतम और पूर्णतम व्यक्तीकरण है, जो मनुष्य की आत्मा में निहित होती है।
कर्मवादी तीर्थंकर भगवान् महावीर का मानना है कि "अच्छे-बुरे कर्म एवं उनके परिणाम के लिये आत्मा स्वयं उत्तरदायी है।" उन्होंने सम्पूर्ण मानव-जाति को ऐसे कर्म
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करने के लिये प्रेरित किया, जिनमें सामाजिक विकास के साथ-साथ आत्मिक विकास का भाव निहित हो। उन्होंने मनुष्य को शांति, विकास और मोक्ष (मुक्ति) प्राप्ति का पथ प्रशस्त किया, जो वास्तव में बाहर से भीतर की यात्रा' का मार्ग है। जो सत्य, निष्ठा, लोककल्याण आदि मार्गों से होते हुये 'अंतर (भीतर) के 'आत्म-साक्षात्कार' का रास्ता है। इसके द्वारा उन्होंने जनमानस को स्वावलम्बन तथा स्वाधीनभाव का महत्त्व समझाया।
तीर्थंकर महावीर ने मनुष्य को पाप-कर्मों में प्रवृत्त न होने की सलाह दी। 'घृणा पाप से करो, पापी से नहीं' —यह उनका सिद्धान्त-वाक्य है। इसके द्वारा उन्होंने मनुष्य को दुष्कर्मों से बचने की बात कही। साथ ही पापी (बुरे) व्यक्ति को भी चारित्रिक शुद्धि के द्वारा उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी दृष्टि में वह व्यक्ति सुधार के पश्चात् सामाजिकरूप से तिरस्कृत या उपेक्षा का पात्र नहीं है। उनका अन्य सिद्धांत है—“मनुष्य जन्म से नहीं, कर्म से महान् बनता है।" यह सूत्रवाक्य व्यक्ति को उच्चकर्म करने के लिए प्रेरित करता है। तीर्थंकर महावीर की दृष्टि में कर्म की श्रेष्ठता ही महानता का मापदण्ड है। जिसके कर्म श्रेष्ठ हैं, वह व्यक्ति महान् (उच्च) है। सत्कर्मों के द्वारा कोई भी व्यक्ति महान् बन सकता है। तीर्थंकर महावीर का यह विचार उन मनुष्यों के दम्भ को तोड़ता है, जो जन्म से कुलीन होकर निकृष्ट कार्यों में संलग्न हैं।
तीर्थंकर महावीर ने 'अपरिग्रह' तथा 'परिग्रह-परिमाणवत' का उपदेश दिया। अपनी आवश्यकताओं को कम से कम करो, धन संग्रह की लालसा पर अंकुश रखो और उसे सीमा में बाँध दो, यह परिग्रह परिमाण व्रत' है। मनुष्य की इच्छायें असीम व अनंत होती हैं। उनकी पूर्ति के लिए वे अन्याय, अत्याचार एवं अनुचित साधनों का प्रयोग करते हैं। वर्तमान समय में जीवन की आपाधापी तथा राजनैतिक एवं आर्थिक क्षेत्र में बढ़े हुए भ्रष्टाचार को रोकने में 'अपरिग्रह' या 'सीमित सम्पत्ति का सिद्धान्त' अमोघ-अस्त्र साबित हो सकता है।
भगवान् महावीर ने स्त्रियों की स्वतंत्रता पर जोर दिया। उन्होंने धार्मिक क्षेत्र में भी स्त्रियों को चरम आत्मोत्थान के लिये दिशाबोध दिया। उनके 'नारी स्वातंत्र्य' के विचारों से प्रेरित होकर स्त्रियों ने उनके समवशरण में आर्यिका (साध्वी) दीक्षा लेकर संसार बंधन से मुक्ति का मार्ग अपनाया। आर्यिका चंदना' को उनके समवशरण' में प्रथम 'गणिनी आर्यिका बनने का गौरव प्राप्त हुआ। आज संपूर्ण विश्व भी अनुभव करने लगा है कि नारी के सहयोग के बिना संसार की वास्तविक प्रगति नहीं है। नारी-सहयोग को लेकर विश्व राष्ट्र स्तर पर बनाई गई संस्थायें इसका जीवन्त प्रमाण है। भगवान महावीर के 'जीव-साम्य' के सिद्धान्त ने युगांतकारी परिवर्तन किया। उन्होंने विश्वस्तर पर मनुष्यों के बीच विषमता की खाई पाटकर उन्हें समता (समानता) के धरातल पर उपस्थित किया।
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उन्होंने 'प्रकृतिचक्र के महत्त्व' को प्रतिपादित किया तथा प्रकृति के साथ मानव का आत्मीय संबंध जोड़े जाने पर बल दिया है। उनका यह विचार 'पर्यावरण संरक्षण' की दृष्टि से अत्यंत प्रासंगिक है । यदि इस विचार की उपेक्षा की जाती है, तो उसके दूरगामी परिणामों को भोगने के लिये मानव-जाति अभिशप्त होगी ।
तात्पर्य यह है कि महावीर तीर्थंकर या उपदेशक ही नहीं, स्वयं एक जीवन-शैली है। यह जीवन-शैली खरी, अनुभूत आत्मचिंतन से मथी शैली है । इस कारण वह कथनी-करनी के अंतर से परे अधिक विश्वसनीय अधिक व्यावहारिक है । वर्तमान मानव के जटिल जीवन के संदर्भ में महावीर की यह जीवन-पद्धति प्रतिक्षण वरेण्य है। यदि हम वास्तविक सुख-शांति की कामना करना चाहते हैं, तो इस जीवन-शैली के अलावा दुनिया का कोई भी ऐसा विकल्प नहीं है, जो हमें अपना अपेक्षित महत्त्व दे सके। भौतिक विकास के चरम सुखों को भोग चुके यूरोपीय देशों के लोग आज जिस योग, ध्यान, शांति की कक्षाओं की खोज में घूम रहे हैं, उन्हें वास्तविक सुख तीर्थंकर महावीर की इस जीवन-शैली से मिल सकता है। महावीर ने तो जीवन को सरल और सहजभाव से जीने का मार्ग आज से वर्षों पहले खोल दिया था । अब देखना यह है कि हमारी दृष्टि उस मार्ग पर कब पड़ती है और कब हम (मानव-जाति) अपने अमूल्य जीवन को सार्थक कर सकते हैं ।
संदर्भग्रंथ सूची
1. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास (भाग - एक ), बलभद्र जैन, पृष्ठ 374।
2. संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, पृ० 153 ।
3. जैन विषय-वस्तु से संबद्ध आधुनिक महाकाव्यों में सामाजिक चेतना (शोध-प्रबंध) श्रीमती सुशीला सालगीथा, पृ० 23 1
4. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास ( भाग 1 ), बलभद्र जैन, पृ० 381-382।
5. प्राकृतविद्या (त्रैमासिकी शोध पत्रिका), अक्तूबर-दिसम्बर 1997, आवरण पृष्ठ। 6. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा ( भाग 1 ), डॉ० नेमिचंद्र जैन । 7. भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का विकास, बी०एन० लूनिया, पृ० 102 |
वाक्-निग्रह को व्रत माना है
“भासं विणयविहूणं, धम्मविरोही विवज्जदे वयणं । पुच्छिदमपुच्छिदं वा ण वि ते भासति सप्पुरिसा । ।"
- ( आचार्य कुन्दकुन्द, मूलाचार 8/88 ) अर्थ:- वे सत्यपुरुष विनयहीन भाषा नहीं बोलते हैं । जो धर्म से सम्मत और अविरोधिनी होती है, वही भाषा वे (मुनि) बोलते हैं।
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'णमोकार मंत्र' कीजाप-संरख्या और पंच-तंत्री वीणा
-जयचन्द्र शर्मा इस महामंत्र के प्रत्येक अक्षर में दैविक शक्ति है। अक्षर-शक्ति से समस्त संसार का व्यापार चलता है। अक्षर चाहे किसी भी भाषा के हों, वे शक्तिविहीन नहीं हैं। अक्षरों का जब उच्चारण करते हैं, तब एक प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है। उस ध्वनि में कोमलता, मधुरता एवं कठोरता के भाव पाये जाते हैं। मंत्र के जाप में कोमलता एवं मधुरता के भाव होने पर ही उसका प्रभाव होता है। मुख से मधुर ध्वनि के साथ मंत्र को प्रगट किया और अन्तरावस्था में कठोरता के भाव भरे हैं, ऐसी भावना को समाप्त करने के लक्ष्य से ऋषियों, मनीषियों ने मंत्रों की जाप-संख्या अधिकाधिक अर्थात् लाखों एवं करोड़ों तक का उल्लेख किया है।
अक्षरांक-शक्ति का उपयोग चेतन एवं अचेतन पदार्थों के प्रभाव को जानने के लिये किया जाता है। योगी एवं वैज्ञानिक अपने विषयों की गहराई तक पहुँचने के लिये अक्षरांक-शक्ति का सहारा लेते हैं। उन ध्वनियों में रस है, रंग है और परमात्मा से साक्षात्कार कराने की अभूतपूर्व शक्ति है। इस शक्ति को प्राप्त करने की दृष्टि से प्राचीन ऋषि-मुनियों ने मंत्र, यंत्र एवं तंत्र विद्याओं को आधार माना है। मंत्र-विद्या' सत्-गुण प्रधान है। अत: मंत्र के जाप से आत्मा में कोमलता के भाव उत्पन्न होते हैं, जो भगवान् को भी प्रिय हैं।
महामंत्र का जाप कितनी संख्या में किया जाये, उसका फल उक्त संख्याओं की शक्ति अनुसार जापकर्ता को होगा। किस लाभ के लिये कितने जाप किये जायें, इस संबंध में जैन साहित्य एवं विद्वानों के लेखों का अध्ययन किया जाना अपेक्षित है।
जाप की संख्याओं की जानकारी के संबंध में दो प्रकार के विधि-विधान का आधार लिया जाये, तो वैज्ञानिक दृष्टि से अप्रमाणिक नहीं माने जा सकते। प्रथम प्रकार 'गुणोत्तर-प्रणाली' एवं द्वितीय प्रकार है 'अक्षरांक-प्रणाली।'
गुणोत्तर-प्रणाली - महामंत्र के प्रत्येक पद के अक्षरों का गुणा करें। जैसे णमो अरिहंताणं', इस पद में सात अक्षर हैं। इनकी सात संख्याओं का गुणनफल निकालें
1x2x3x4x5x6x7%D5040
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जाप में ॐ का उपयोग करते हैं, तो एक अंक बढ़ जाता है; इस आठवें अंक को उपर्युक्त संख्या से गुणा करने पर निम्न संख्या प्राप्त होगी
5040x8 = 40320 द्वितीय में पाँच अक्षर हैं – ‘णमो सिद्धांण' । इसका गुणनफल
1x2x3x4x5 = 120 तृतीय पद ‘णमो आयरियाणं' के सात अक्षर हैं। इसका गुणनफल
___1x2x3x4x5x6x7 = 5040 चतुर्थ पद ‘णमो उवज्झायाणं' के भी सात अक्षर हैं। इसका गुणनफल
1x2x3x4x5x6x7 = 5040 अंतिम पांचवें पद ‘णमो लोए सव्व साहूणं' में नौ अक्षर हैं। इसका गुणनफल
___1x2x3x4x5x6x7x8x9 = 362880 उपर्युक्त पाँचों पदों की संख्याओं का जो योग आये, महामंत्र का जाप उतना किया जाये। पाँचों संख्याओं का योग-40320+120+5040+5040+362880 = 373400
तीन लाख तहेत्तर हजार चार सौ जाप करनेवाले व्यक्ति को स्वास्थ्यलाभ, पुत्रलाभ, धनलाभ, समाज में यशलाभ आदि निश्चित होगा- इसमें सन्देह नहीं।
अक्षरांक-विधि – महामंत्र के प्रत्येक पद के अक्षरों को मातृकाओं के अनुसार क्रमानुसार लिखने पर जो संख्या आये वह संख्या मंत्र जाप से होने वाले लाभ से संबंधित होगी। अक्षरों की संख्या हिन्दी वर्णमाला' के 16 स्वर 'अ' से 'अं' तक, 'क-वर्ग' से 'प-वर्ग' तक के व्यंजन एवं 'य' से 'ह' तक के वर्गों के आधार पर प्रस्तुत की जाये। जैसे णमो में 'ण' का अक्षर 'ट-वर्ग' का पाँचवाँ अक्षर एवं 'मो' का 'म' अक्षर 'प-वर्ग' का पाँचवाँ अक्षर है। णमो शब्द की संख्या 55 हुई। अरिहंताणं की संख्या में अ-1, रि-2, हं-4, ता-1, और ण-5 के अंक हैं। पूरे पद की संख्या हुई 5512415 पचपन लाख बारह हजार चार सौ पन्द्रह।
पाँचों पदों की संख्या एवं योग क्रम सं० पद
अक्षर संख्या संख्याओं का योग 1. णमो अरिहंताणं 5512415 = 23=2+3 = 5 2. ' णमो सिद्धाणं
55345 = 22%32+2=4 3. णमो आइरियाणं 5521215 = 21%2+1=3 4. णमो उवज्झायाणं 5554415 = 29=2+9 = 11 = 1+ 1 = 2 5. णमो लोएसव्वसाहूणं 553234345 = 34=3+4 = 7
उपर्युक्त पदों में सबसे कम संख्या 55345 द्वितीय पद की है। पद संख्या पाँच के अंकों की संख्या पचपन करोड़, बत्तीस लाख, चौंतीस हजार, तीन सौ, पैंतालीस है। जो
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अन्य पदों की संख्याओं से बहुत अधिक हैं। लाभ - 1. द्वितीय पद की संख्यानुसार महामंत्र का जाप करने से मन स्थिर होगा,
धार्मिक भाव जागृत होंगे और आत्मा को शांति मिलेगी। 2. णमो अरिहंताणं द्वारा उत्पन्न संख्याओं के जाप से स्वास्थ्यलाभ, तृतीय पद
की संख्याओं का जाप करने से धन, लाभ चतुर्थ पद की संख्याओं का जाप करने से वंशवृद्धि (पुत्रलाभ) तथा पंचम पद की संख्या का जाप करने से
मोक्ष होना निश्चित है। पाँचों पदों के संख्याओं का योग क्रम 5, 4,3, 2, 7 है। इस संख्या का योग 21 = 2 + 1 = 3 बनता है। 3 का अंक द्वितीय पद एवं पंचम पद की संख्या के मध्य में है। पंचम पद की संख्या में 3 का अंक तीन स्थानों पर है। उनका अक्षर तीन-तीन अंकों की दूरी पर है। अत: इस अंक का महत्त्व अंकन-प्रणाली में सर्वाधिक है। ___ महामंत्र के अक्षर संख्याओं में एक से पाँच के अंक हैं। प्रत्येक पद का प्रथम एवं अंतिम अंक भी पाँच ही है। पाँच की संख्या में पाँच तत्त्व, महामंत्र के पाँच पद, पंच परमेष्ठी, पंच तंत्री-वीणा, पाँच प्रकार की वायु, पाँच देवी-देवताओं आदि की जानकारी मिलती है।
तीन का अंक द्वितीय एवं पंचम पद के अतिरिक्त अन्य पदों की संख्याओं में नहीं है। सबसे कम एवं सबसे अधिक संख्या वाले इन पदों के अंकों द्वारा ध्वनि-शक्ति से कोमलता एवं मधुरता-संबंधी जानकारी मिलती है, उस पर आगे प्रकाश डाला जा रहा है।
प्रत्येक अक्षर में तीन प्रकार की ध्वनियाँ पायी जाती हैं— उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित । ध्वनियों के आधार पर उन ध्वनियों के गुण, स्वभाव, प्रमाणादि की जानकारी मिलती है। उन ध्वनियों का संख्याओं से भी सम्बन्ध हैं। कोमल ध्वनि का जब प्रयोग किया जाता है, तब उक्त ध्वनि के अन्तराल में संवादात्मक ध्वनि के सहयोग से मधुर ध्वनि (स्वयंभू-नाद) उत्पन्न होती है। उक्त ध्वनि को योगी ही सुनते हैं, जिसे अनाहत नाद कहा जाता है। अक्षरांक विधि के आधार पर महामंत्र का द्वितीय पद विशेष महत्त्वपूर्ण है। पद की संख्या - 55345 का योग 22 है। ___ नाद-विशेष अर्थात् समुधुर नाद की बाईस ध्वनियाँ मानव के शरीर (कायपिण्ड) में बाईस नाड़ियों में स्थित है, जिन्हें 'श्रुति' कहते हैं। उन श्रुतियों को तीन भागों में विभाजित कर उन पर संगीत के सप्त स्वरों को मनीषियों ने स्थापित किया है। संगीतकला का प्रभाव श्रुतियों के स्वभावानुसार होता है।
महामंत्र के प्रत्येक पद के अक्षरों को प्रभावित करने का कार्य 'श्रुति' करती है। 'नाद' का यह सूक्ष्म स्वरूप 'अनाहत नाद' से संबंध स्थापित कराता है। उक्त पद में 'तीन' का अंक मध्य स्थान पर है। यह अंक तीन लोक, संगीत के तीन ग्राम (षड़ज, मध्यम, गंधार ग्राम), तीन लय, तीन नाड़ियाँ (इड़ा, पिंगला, सुषुप्ता) आदि की जानकारी
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कराता है। चार के अंक से चार गति, चार दिशायें, मूलाधार कमलदल की चार पंखुड़ियाँ, उस पर स्थित चार अक्षर, चार मात्रायें आदि की जानकारी मिलती है।
णमो सिद्धाणं में ‘स' और 'ध' दोनों अक्षर संगीत के स्वर भी हैं। सा (षड़ज ) की चार श्रुतियां एवं 'ध' (धैवत) की तीन श्रुतियाँ हैं। तीन एवं चार के अंक उक्त पद में भी हैं। षड़ज स्वर अचल है, उसी प्रकार सिद्ध (साधक) भी अचल है । 'सा' का स्थान छंदोवती श्रुति पर एवं 'ध' का स्थान 'रम्या' नामक श्रुति पर है । 'छंदोवती' का अर्थ है छंदबद्ध, कवित्रि एवं छेदन करनेवाली तथा 'रम्या' का अर्थ है सुन्दर । महामंत्र, छंदवृद्ध, सुन्दर एवं
डी को जागृत करनेवाला है। छंदोवती का स्थान मानव शरीर में नाभि है । इस श्रुति से पूर्व तीव्रा, कुमुद्रती, मन्दा नामक तीन श्रुतियां 'षडज स्वर' से संबंधित हैं । तीव्रा का संबंध 'मूलाधार चक्र' से है । 'छंदोवती' की ध्वनि षड़ज स्वर जो ओंकारस्वरूप 'ॐ' है, मन्दा तथा कुमुद्रनी की ध्वनियों का छेदन करती हुई तीव्रा को प्रभावित करती है। तीव्रा का अर्थ तेज एवं प्रकाश है। अत: तीव्रा के तेज प्रकाश से कुण्डलिनी जाग्रत होती है ।
णमोकार महामंत्र में 'णमो' शब्द का उच्चारण ओंकारस्वरूप है । 'र' हृदय तंत्री को झंकृत करता है और 'मो' मधुर ध्वनि के कारण 'ॐ' की ध्वनि को धारण कर लेता है । हिन्दी वर्णमाला का यह 25वां व्यञ्जन है। 25 का योग 2 + 5 = 7 है। सात स्वरों में सूर्य की सप्त रश्मियों का प्रभाव होने से पंचतंत्री वीणा (कायपिण्ड ) की झंकार का आनन्द साधु-संत एवं योगी प्राप्त करते हैं । सांसारिक व्यक्ति मोह-माया के चक्कर में फंसा रहने से वह मंत्र - साधना के माध्यम से क्षणिक लाभ के लक्ष्य से मंत्र का जाप करता है, उसे लाभ अवश्य होता है; पर वह पंच तंत्री वीणा की झंकार का आनन्द नहीं ले सकता । क्योंकि महामंत्र के पाँचों पद पंचतत्त्वों से सम्बन्धित हैं । सम्पूर्ण मंत्र में आकाशतत्व- 17, वायुतत्त्व-7, जलतत्त्व-5, अग्नितत्त्व - 2 और पृथ्वीतत्त्व - 4 हैं। कुछ विद्वानों ने आकाशतत्त्व की संख्या 12 मानी है। उन्होंने 'णमो' शब्द को मिश्रित कर आकशतत्त्व की संख्या एक मानी है; जबकि 'ण' और 'म' ध्वनि के रंग, वार एवं राशि पृथक्-पृथक् हैं।
उपर्युक्त तत्त्वों की संख्याओं के अनुसार वीणा वाद्य पर 17 सुन्दरियों (परदे) पर सप्त स्वरों को दर्शाया जाता है। 5 का अर्थ है पंचम का तार, 2 का अर्थ जोड़े के नाद और 'म' का अर्थ मध्यम स्वर अर्थात् बाज का तार से संबंध बनाता है । अत: महामंत्र के पांचों पद तंत्री-वीणा के अनुरूप हैं । वीणा का यह बाह्यरूप नहीं है; इसका संबंध अन्तरात्मा से है । - ( साभार उद्धृत : अर्हत् वचन, वर्ष 12, अंक 2, पृष्ठ 45-48 )
सन्दर्भ
1. संगीत - रत्नाकर। 2. भारतीय श्रुति-स् - स्वर - रागशास्त्र । 3. नाद - योग। 4. ॐ नाद - ब्रह्म (मराठी पत्रिका) । 5. अमृत कलश । 6. समस्या समाधान पत्रिका । 7. संगीत - मासिक ।
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यशस्वी सुत के पावन संस्मरण
' -प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन सन् 1954 के दिसम्बर मास की घटना है, मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 'एम०ए०' तथा 'शास्त्राचार्य' की उपाधि प्राप्तकर किसी सर्विस की खोज के लिये व्यग्र था। श्रद्धेय साहू शान्तिप्रसाद जी के आदरास्पद विद्वान् प्रो० (पं०) पन्नालाल जी धर्मालंकार (मालथौन) से मैंने अपनी व्याकुलता बतलाई और उन्होंने मुझे तत्काल ही एक पत्र देकर श्रद्धेय साहू शान्तिप्रसाद जी के पास कलकत्ता भेज दिया। उस समय 'भारतीय ज्ञानपीठ' का प्रधान कार्यालय कलकत्ता में था। तथा साहू जी सपरिवार वहीं निवास करते थे। मैं सहमा-सहमा साहू जी के कार्यालय (11 क्लाइव रो) में पहुँचा और पण्डितजी का वह पत्र उन्हें देकर उनके चेहरे के भावों को पढ़ने का प्रयत्न करने लगा। उन्होंने कुछ विचार कर मुझे अगले दिन अपने निवास स्थान (अलीपुर रोड़) पर पुन: मिलने का आदेश दिया। आशा एवं निराशा के द्वन्द्व में डूबता-उतराता हुआ अगले दिन मैं उनके आवास पर पहुँचा। अपनी पैनी दृष्टि से मेरे अन्तर्बाह्य का परीक्षण कर उन्होंने मुझे अपने ज्येष्ठ पुत्र साहू अशोक कुमार जी के पास भेजा। साहू अशोक जी से यही मेरी प्रथम पहिचान-भेंट थी। आयु में कुछ समकक्ष होने तथा उनका स्वभाव कुछ मृदुल, संवेदनशील तथा हँसमुख रहने के कारण मुझे ऐसा विश्वास होने लगा कि मैं अपनी प्रतिभा से उन्हें प्रभावित कर लूँगा तथा मुझे उनके यहाँ किसी विभाग में सर्विस भी मिल जायेगी।
साक्षात्कार के रूप में अशोक जी ने सबसे पहले मेरा पारिवारिक परिचय पूछा। पुन: मेरे विद्यार्थीकाल में विशेषज्ञ विद्वानों के साथ मेरे सम्पर्कों की जानकारी लेकर मेरे निबन्धादि लेखन के अनुभव तथा मेरी अभिरुचियों के विषय पूछे। उस समय मैं यही अनुभव कर रहा था कि इन प्रश्नों के माध्यम से अशोक जी मेरे संस्कारों, निष्ठाओं, प्रकृति, चरित्र एवं प्रवृत्तियों का परीक्षण कर रहे थे। संस्कृत, प्राकृत भाषाओं तथा जैनधर्म के मूलग्रन्थों की जानकारी भी मुझसे पूछी और उन्होंने मुझे कुछ ऐसा आभास दिया कि वे सर्विस के लिए मेरा नाम साहू शान्तिप्रसाद के लिये अनुशंसित करने जा रहे हैं। उन्होंने मुझे अगले दिन ही ज्ञानपीठ कार्यालय में अपने पूज्य पिता जी से मिलने की सलाह दी।
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अगले दिन मैं पुन: ज्ञानपीठ कार्यालय में जाकर श्रद्धेय साह जी से मिला। उन्होंने अत्यन्त स्नेहपूर्वक मुझे नियुक्ति-पत्र दिलवा दिया, जिसके अनुसार मुझे ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 'ज्ञानोदय' (मासिक, सचित्र-पत्रिका) के सम्पादक-कार्यालय में कार्य करना था। 'ज्ञानोदय' अपने समय की हिन्दी-जगत् की एक उच्चस्तरीय प्रतिष्ठित पत्रिका के रूप में प्रसिद्ध थी। उसके लेखों का सम्पादन, उन पर टिप्पणियाँ, विशिष्ट स्तम्भों के लिये सामग्री संचित कर टिप्पणियों का लेखन, कवियों एवं लेखकों से पत्राचार एवं पत्रिका प्रकाशन सम्बन्धी कार्यों के लिये मुझे अधिकृत किया गया। उक्त जिम्मेदारियों के अतिरिक्त एक जिम्मेदारी मेरी यह भी थी कि सप्ताह में दो दिन मुझे साहू जी के आवास पर जाना पड़ता था। साहू-परिवार प्रारम्भ से ही स्वाध्यायशील एवं विद्यारसिक था। साहू अशोक जी पर अपने माता-पिता के संस्कारों की गहरी छाप थी। उनकी अपनी आवासीय लायब्रेरी भी थी, जिसमें उच्चकोटि के प्राय: सभी भाषाओं एवं धर्मों के ग्रन्थ एवं जर्नल आदि थे, जिनकी संख्या 7-8 हजार के लगभग रही होगी। उसकी व्यवस्था एवं संवर्धन कार्य भी मेरे जिम्मे था। साहू अशोक जी नियमितरूप से लायब्रेरी में बैठते थे। वे भारतीय इतिहास, जैन संस्कृति, साहित्य, सिद्धान्त, आचार, अध्यात्म जैसे विषयों का अध्ययन किया करते थे और मैं भी उनकी इच्छा के अनुरूप सन्दर्भ खोजकर उनके ज्ञानार्जन में सहायता किया करता था। उनके सम्मुख एक सर्विसमैन के अतिरिक्त यद्यपि मेरी कोई हैसियत न थी, फिर भी मैंने देखा कि वे कितने सहृदय, समभावी तथा कितने कद्रदाँ थे और विद्वत्ता के लिये कितना आदर-सम्मान दिया करते थे।
किन्तु यह क्रम अधिक दिनों तक न चल सका। कलकत्ता का भीड़भरा अतिव्यस्त जीवन मुझे पसन्द नहीं आया। वस्तुत: मैं किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक होने के स्वप्न संजाये हुए था। उस संकल्पना के आगे पत्रकारिता अथवा किसी कार्यालय में केवल कलम-घिसाई करते रहने में मेरी विशेष रुचि नहीं थी। संयोग से मुझे मध्यप्रदेश के एक गवर्नमेंट कॉलेज में प्राध्यापकी मिल जाने के कारण मैं 'भारतीय ज्ञानपीठ' की सर्विस छोड़कर जब मध्यप्रदेश आने लगा, तब श्रद्धेय अशोक जी ने कुछ विशेष आश्वासन देकर मुझे रोकने का प्रयत्न किया; किन्तु मैं न रुक सका और उन्हें तथा श्रद्धेय साहू जी को प्रणामकर उनकी सहमति तथा स्वीकृति लेकर चला आया।
दीर्घान्तराल के बाद भी मैंने देखा कि साहू अशोक जी निरन्तर ही मेरे प्रति स्नेहादर का भाव रखते रहे। जब भी मैं अपनी कोई समस्या लेकर उनके पास आया, उन्होंने उसे प्राथमिकता के साथ सहर्ष पूर्ण किया।
सन् 1980 के आसपास एक बार उन्होंने अपनी इच्छा व्यक्त की कि भारत की प्रमुख जैन-संस्थाओं एवं शोध-संस्थानों की गतिविधियों की जानकारी एकत्रित की जाय। इसके लिये उन्होंने मुझे एक रिपोर्ट अपने सुझावों के साथ भेजने का अनुरोध
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किया। संस्थानों से पत्राचार कर तथा उनके कार्यकलापों को एकत्रित कर रिपोर्ट तैयार करने में कुछ समय अवश्य लग गया; किन्तु जब मैंने तैयार कर अपने सुझावों के साथ उसे उन्हें प्रेषित की, तो तुरन्त ही उसकी प्राप्ति-सूचना देते हुए उन्होंने बड़ा आभार माना।
उस समय दिल्ली के 'महावीर-मेमोरियल' का निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ ही था और उसको वे अन्तर्राष्ट्रिय स्तर के शोध एवं सन्दर्भ-केन्द्र के रूप में विकसित करना चाहते थे, किन्तु जहाँ तक मुझे जानकारी है कुछ अन्तर्विरोधों या अन्य किन्हीं कारणों से वे सम्भवत: वैसा नहीं कर सके।
'प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली' की स्थिति सन् 1980 के दशक में चिन्ताजनक हो रही थी। वे उसे एक उन्नत एवं पूर्ण विकसित राष्ट्रिय स्तर के प्राकृत एवं जैन शोध-संस्थान के रूप में देखना चाहते थे; किन्तु बिहार की गिरती राजनैतिक स्थिति के कारण वे चाहकर भी उसके विकास के लिये कुछ न कर पाये, उन्हें इसका अत्यन्त दु:ख रहा।
श्रद्धेय साहू शान्तिप्रसाद जी के दु:खद निधन के बाद कुछ ऐसा अनुभव होने लगा था कि उनके रिक्त-स्थान की पूर्ति लगभग असम्भव है। किन्तु साहू अशोक जी ने सम्भवत: उनकी दाह-क्रिया के समय यह संकल्प लिया था कि पिताजी के निधन के बाद वे उनके अधूरे कार्यों को पूर्ण करने का प्रयत्न करेंगे। और, इसमें सन्देह नहीं कि चाहे सामाजिक गौरव-की अभिवृद्धि का प्रश्न हो, चाहे जैन तीर्थों की सुरक्षा का प्रश्न हो, चाहे जैन-प्रतिभाओं के विकास का प्रश्न हो या जिनवाणी के उद्धार का प्रश्न हो, उन्होंने हर प्रकार से उनकी प्रगति एवं विकास की दिशा में अनवरत कार्य करते रहे।
साहू अशोक जी प्रारम्भ से ही स्वाध्यायशील एवं आत्मचिन्तक थे। आयुष्यवृद्धि के साथ-साथ उनकी यह प्रवृत्ति गहराती ही गई। वे परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी के परम भक्त थे। वे उनके दर्शनों के लिये निरन्तर ही व्यग्र रहा करते थे और उन्हें जब भी समय मिलता, वे प्रात:काल कुन्दकुन्द भारती अथवा जहाँ कहीं भी आचार्यश्री विराजमान रहते, वहाँ आकर पूज्य आचार्यश्री के चरणस्पर्श करते और अपनी कुछ आध्यात्मिक, ऐतिहासिक या सामाजिक उत्थान-सम्बन्धी शंकायें उनके सम्मुख समाधान-हेतु प्रस्तुत करते। ऐसे प्रसंगों में मुझे भी कभी-कभी उनके साथ बैठने का सौभाग्य मिलता रहा।
एक बार अशोक जी बहुत ही प्रमुदित मुद्रा में थे। उन्होंने आचार्यश्री से प्रश्न किया कि "रहस्यवाद क्या है?" आचार्यश्री ने उसी मुद्रा में उत्तर भी दिया और कहा कि "रहस्यवाद है गूंगे का गुड़” । इस सहज प्रश्नोत्तरी से मानों हँसी का एक फव्वारा ही फूट पड़ा। बाद में आचार्यश्री ने स्वानुभूति की गहराईपूर्वक एक चतुर चितेरे की भाँति आत्मा
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और शरीर के भेद-विज्ञान का निरूपण किया और बतलाया कि जैन रहस्यवादी धारा में शुद्धात्मभावों के अनन्त-वैभव के साथ ज्ञान की अखण्ड व्यापकता विद्यमान रहती है। जब भेदानुभूति द्वारा शरीर और आत्मा की पृथक्ता स्पष्ट हो जाती है, तो आत्मा शुद्ध परमतत्त्व में लीन हो जाती है। इसी प्रसंग में उन्होंने अपनी स्वविरचित कविता के एक पद्य का सस्वर पाठ करते हुए आत्मा के प्रतीक माने जाने वाले हंस, शुद्धज्ञान के लिये प्रयुक्त दीपक, अज्ञान के प्रतीक तिमिर, शरीर के प्रतीक तेल एवं सांसारिक विषय वासनाओं की सारहीनता के लिये तूल जैसे मान्य रहस्यवादी प्रतीकों के उदाहरण प्रस्तुत किये।
जो व्यक्ति चतुर्दिक वैभव से घिरा हो, भौतिक विषय वासनायें जिसके चरण चूमती रहती हों, और अपने उद्योगों के प्रबन्धन-सम्बन्धी विकट समस्यायें जिसके सम्मुख बिखरी पड़ी हों, ईर्ष्यालु एवं विद्वेषी जन-समूह जिसकी खींचतान में षडयन्त्र-रत हों; फिर भी यह आश्चर्य का विषय है कि उन्होंने कभी भी अपना मानसिक सन्तुलन नहीं खोया। बल्कि समताभाव के साथ अन्त-अन्त तक वे समाज एवं संस्कृति के पुनरुत्थान में लगे रहे। उनकी अवधारणाशक्ति, स्मृति की तीक्ष्णता अपूर्व थी और विचारों की अभिव्यक्ति के लिये उनके पास शब्द-भण्डार की कमी नहीं रहती थी। __ कुन्दकुन्द भारती ट्रस्ट के अध्यक्ष होने तथा परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी के परमभक्त होने के नाते वे कुन्दकुन्द भारती द्वारा आयोजित प्राय: प्रत्येक आयोजन में सम्मिलित होते तथा प्रसंगानुकूल अपने विचार रोचक-शैली में अवश्य व्यक्त किया करते थे। शौरसेनी-प्राकृतागमों का उन्होंने केवल विषय की दृष्टि से स्वाध्याय किया होगा, भाषा की दृष्टि से नहीं; फिर भी, 'श्रुतपचंमी-पर्व' की स्मृति में कुन्दकुन्द भारती में जब शौरसेनी प्राकृत-सम्बन्धी 'राष्ट्रिय कवि-सम्मेलन एवं संगोष्ठी' का आयोजन होता, तो वे सभी कवियों की शौरसेनी प्राकृत में ग्रन्थित कविताओं के अर्थ को समझने का मनोयोगपूर्वक प्रयत्न किया करते थे और यदि किसी शब्द का अर्थ समझ में नहीं आता था, तो वे बाद में उसी कवि से बेहिचक उस विशेष शब्द का अर्थ पूछकर अपनी शंका का समाधान कर लिया करते थे।
एक बार दिल्ली के परेड-ग्राउण्ड में आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के दीक्षा-दिवस का आयोजन था, जिसमें माननीय श्री बलराम जाखड़, राजेश पायलट, शिवराज-पाटिल, कल्लप्पा अवाडे सहित देश के कोने-कोने से अनेक राजनेता एवं समाजनेता पधारे थे। श्रीकम्मोजी की धर्मशाला में हम लोग शौरसेनी प्राकृत की प्राचीनता तथा सरसता पर बातचीत कर रहे थे। भीतरी-कक्ष में पूज्य आचार्यश्री विराजमान थे। इतने में ही साहू अशोक जी आचार्यश्री के दर्शनार्थ पधारे; किन्तु शौरसेनी शब्द सुनते ही हम लोगों से पूछने लगे कि "शौरसेनी-प्राकृत कितनी प्राचीन है तथा व्युत्पत्ति की दृष्टि से उसकी
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पहिचान क्या है?" हम लोगों ने यह सोचकर कि इन्होंने केवल शिष्टाचारवश या सामान्य जानकारी प्राप्त करने की दृष्टि से ही यह प्रश्न किया है । अतः चलते-चलते उन्हें संक्षेप
कुछ बतला दिया। किन्तु हम लोग उस समय आश्चर्यचकित रह गये, जब उन्होंने पूज्य आचार्यश्री के प्रति विनयांजलि के प्रसंग में शौरसेनी प्राकृतभाषा और साहित्य के विषय में एक रोचक प्रवचन ही प्रस्तुत कर दिया ।
साहू अशोक जी तीर्थराज सम्मेद शिखर को जैन संस्कृति, इतिहास एवं जैनसमाज का प्राचीनतम शास्त्रीय महाकाव्य मानकर चलते रहे और अपने मृत्यु - पूर्वकाल तक उसे एक राष्ट्रिय धरोहर मानकर उसके विकास के लिये उन्होंने जो कुछ किया, उससे सारा राष्ट्र पूर्णतया अवगत है 1
साहू अशोक जी एवं उनके परिवार के कार्य-कलापों को देखकर 13वीं सदी के देश-विदेश में विख्यात महासार्थवाह साहू नट्टल का बरबस स्मरण आ जाता है, जो कि दिल्ली के निवासी थे। वे श्रावक - शिरोमणी, तीर्थभक्त, जिनवाणी - रसिक, समाजनेता, मुनिभक्त तथा साहित्य एवं साहित्यकारों के प्रति अनन्य आदर-स्नेहभाव रखते थे । उक्त दोनों परिवारों की मानसिकता तथा संरचनात्मक सहज - प्र - प्रवृत्तियों की तुलना करने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह साहू - परिवार कहीं उक्त साहू नट्टल की वंश-परम्परा से सम्बन्धित तो नहीं?
भौतिक रूप में आज भले ही साहू अशोक जी हमारे बीच नहीं हैं; किन्तु उनके बहुआयामी संरचनात्मक यशस्वी कार्यों की एक दीर्घ श्रृंखला हमारे सम्मुख है, जो आगामी पीढ़ी के लिए प्रेरणा-स्रोत का कार्य करेगी। उनके यशस्वी व्यक्तित्व के निर्माण में उनकी सहधर्मिणी यशस्विनी एवं चिन्तनशीला आदरणीया इन्दु जी जैन के योगदान को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता। दोनों ही वस्तुत: एक दूसरे के पूरक थे; किन्तु दुर्भाग्य से साहू अशोक जी के बाद उनके समस्त उत्तरदायित्वों का बोझ अकेले ही इन्दुजी पर आ पड़ा है, फिर भी उन्होंने अभी तक जिस धैर्य, जिस कौशल, जिस साहस, जिस निर्भीकता एवं दूरदृष्टि से कार्यों का संचालन किया है, और वर्तमान में भी कर रही है उससे पूर्ण विश्वास है कि वे निरन्तर ही उसी स्फूर्ति से दृढ़ संकल्प के साथ उन कार्यों को आगे भी संचालित करती रहेंगी और सामाजिक इतिहास के निर्माण में मील - पत्थर सिद्ध होंगी ।
श्री कुन्दकुन्द भारती के साथ प्रारम्भ से ही साहू-परिवार के, विशेष रूप से श्री साहू अशोक जी के घनिष्ठ सम्बन्ध रहे हैं । अतः कुन्दकुन्द भारती ने अपने प्रांगण में उनका एक कलापूर्ण भव्य स्मारक बनाने का निर्णय लेकर उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करने का प्रयत्न किया है, और वह उनके सत्कार्यों के इतिहास के लेखन का प्रथम अध्याय सिद्ध होगा, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है ।
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2600वी वीर-जयंती
-अनूपचन्द न्यायतीर्थ 2600वीं जन्म-जयंती, महावीर भगवान की। लायी है सन्देश 'अनूपम', ज्योति जलाओ ज्ञान की ।। 1।। दूर करो अज्ञान-अन्धेरा, रूढ़ि-अंधविश्वास को । सत्य-अहिंसा शंखनाद से, गुंजा दो आकाश को ।। 2 ।। क्रोध मान माया को छोड़ो, लोभ पाप की खान है। सात्त्विकता जीवन में लाओ, इस ही में उत्थान है।। 3 ।। तोड़ो मत जोड़ो ही जोड़ो, यह सच्चा अभियान है। प्रेमभाव से रहना सीखो, यही राष्ट्र की शान है।। 4।। ऊँच-नीच का भेद नहीं हो, सर्वजीव-समभाव हो । सब धर्मों का आदर करना, मानवमात्र स्वभाव हो ।। 5।। भौतिकता की चकाचौंध में, नहीं भटकना पंथ से । जीवन सफल बनाओ अपना, पढ़-पढ़ सच्चे ग्रंथ से ।। 6।। दीन दुःखी की सेवा करना, सबसे पहिला काम हो । न्यायमार्ग से कभी न डिगना, कैसा भी अंजाम हो ।। 7।। स्वाभिमान से जीवन जीओ, सादा उच्च विचार हो । ऐसी संगति सदा बैठिये, जिसमें नहीं विकार हो ।। 8 ।। सद्भावना ऐसी मानो, सर्वसुखी संसार हो । शिथिलाचार पनप नहिं पावे, कहीं न भ्रष्टाचार हो ।। 9।। रहो सदा कर्त्तव्यपरायण, विज्ञ विवेकी शूर हो।। धर्मनीति पर चलो निरंतर, कष्ट-आपदा दूर हो ।। 10।। मार्ग-प्रदर्शक बने विश्व का, सब देशों का ताज हो। करुणा, दया और अनुकम्पा-पूर्ण समग्र समाज हो ।। 11।। भारतीय संस्कृति में पूरा, रचा-बसा इन्सान हो। सहृदयी सज्जन गुणग्राही, अति उदार गुणवान हो ।। 12 ।।
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शौरसेनी प्राकृत
है। अश्वघोष,
इसका प्रयोग संस्कृत नाटकों के प्राकृतभाषा के गद्यांशों में हुआ भास, कालिदास के नाटकों और बहुत से नाटकों में इस भाषा के उदाहरण प्राप्त होते
हैं
। इस भाषा की उत्पत्ति शूरसेन या मथुरा प्रदेश में हुई है । वररुचि ने शौरसेनी को संस्कृत से उत्पन्न माना है । इस भाषा के लक्षण एवं उदाहरण वररुचि, हेमचन्द्र, क्रमदीश्वर, लक्ष्मीधर, मार्कण्डेय आदि वैयाकरणों ने दिये हैं ।
शौरसेनी की विशेषतायें
1. शौरसेनी में अनादि में वर्तमान असंयुक्त 'त्' का 'द्' होता है । यथा— एतस्मात् > एदाओ ।
2. शौरसेनी में वर्णान्तर के अध: वर्तमान 'त' का 'द्' होता है । यथा— महान्तः>महंदो, निश्चिन्तः>णिच्चिदो ।
3. शौरसेनी में 'तावत्' के आदि 'त्' का दकार होता है । यथा - तावत् दाव, ताव । 4. शौरसेनी में आमन्त्रण वाले 'सु' के पर में रहने पर पूर्ववाले नकारान्त शब्द के 'म' के स्थान पर विकल्प से 'य्' होता है । यथा - भो रायं ! भो राजन् ! भो. विअयवम्मं ! >भो विजयवर्मन् ! |
5. शौरसेनी में 'र्य' के स्थान पर विकल्प से 'य्य' आदेश होता है । यथा – सुय्यो> सूर्य, अज्जो - आर्य, पज्जाकुलो पर्याकुलः ।
6. शौरसेनी में 'थ्' के स्थान पर विकल्प से 'घ्' होता है । यथा - नाथ: > णाधो, कथम्>कथं, राजपथः> राजपधो ।
1
7. शौरसेनी में 'भू' धातु के हकार का 'भ्' आदेश होता है। यथा—भवति>भोदि, होदि 8. शौरसेनी में 'इह' आदि के हकार के स्थान में 'ध' विकल्प से होता है - इह > ध, भव हो, होह ।
9. शौरसेनी में 'क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'इय' और 'दूण', 'य' आदेश विकल्प से होते हैं। यथा—भविय, भोदूण, हविय, होदूण, पढिय, पढिदूण, रमिय, रमिदूण । 10. शौरसेनी में 'पूर्व' शब्द का 'पुरव' आदेश होता है। यथा— अपूर्वं नाट्यम् अपुरवं णाड्यं । 11. शौरसेनी में 'त्यादि' के आदेश 'दि' और 'ए' के स्थान पर दे' आदेश होता है । यथा— दि, देदि, भोदि, होदि रमदे ।
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12. अकार से परे 'इ' और 'ए' हों, तो उनके स्थान पर दे' और ये', दोनों आदेश होते हैं । यथा— अच्छदे, अच्छदि, गच्छदे, गच्छदि, रमदे, रमदि, विज्जदे, किज्जदि । 13. शौरसेनी में 'तस्मात्' के स्थान में 'ता' आदेश होता है । यथा— ता जाव पविसामि, ता अलं एदिणा भाणेण ।
14. शौरसेनी में 'एव' के अर्थ में 'य्येव' निपात प्रयुक्त होता है । यथा - मम य्येव बम्भणस्स, सोय्येव एसो ।
15. चेटी के आह्वान अर्थ में शौरसेनी में 'हंजे ' निपात का प्रयोग होता है । यथा —हंजे चडुरिके ! 16. शौरसेनी में 'ननु' के अर्थ में 'णं' निपात प्रयुक्त होता है । यथा—णं अफलोदया,
णं अय्यमिस्सेहिं ।
-"ही - ही भो । ”
17. शौरसेनी में हर्ष के लिये 'अम्महे' का प्रयोग होता है । 18. विदूषक हर्ष के लिये 'ही - ही' का प्रयोग करता है । यथा - " 19. कहीं 'त्' का 'ड्' होता है । यथा—- - पुत्रः > पुत्तो, पुडो । 20. शौरसेनी में 'ऋकार' का 'इकार' होता है । यथा— 21. शौरसेनी में ण्य, ज्ञ, न्य के स्थान में ण्ण होता है । यथा— पण्यः, विज्ञ, कन्या के
— गृधः>गिद्धो ।
स्थान पर पण्णो, विण्णो, कण्णा ।
22. शौरसेनी में 'कृञ्' धातु को 'कर' आदेश होता है । यथा- —करोमि> करेमि । 23. शौरसेनी में 'तिङ्' के परे 'स्था' का चिट्ठ' आदेश होता है । यथा — चिट्ठदि > तिष्ठति । 24. शौरसेनी में 'तिङ्' के परे 'स्मृ, दृश्, अस्' धातुओं के 'सुमर, पेक्ख, अच्छ' आदेश होते हैं । यथा - सुमरदि, पेक्खदि, अच्छदि ।
25. शौरसेनी में 'स्त्री' के स्थान में 'इत्थी' आदेश होता है । यथा - स्त्री इत्थी । 26. 'जस्' सहित 'अस्मद्' के स्थान पर 'वअं, अम्हे' होते हैं । यथा— अं, अम्हे । 27. शौरसेनी में 'कृ' और 'गम्' धातुओं से परे आने वाले 'क्त्वा' के स्थान में 'अडुअ' आदेश विकल्प से होता है । यथा— कृत्वा कडुअ, गत्वा > गडुअ ।
I
28. शौरसेनी में 'इत्' और 'एत्' के परे होने पर अन्त्य मकार के आगे णकार का आगम विकल्प से होता है। यथा— जुत्तणिमं, सरिसणिमं, किण्णेदं ( किमेदं), एवणेवं (एवमेदं) । 29. शौरसेनी में नपुंसकलिंग में वर्तमान शब्दों से परे आने वाले 'जस्' और 'शस्' के स्थान में 'णि' आदेश और पूर्व स्वर का दीर्घ होता है । यथा – वनानि - वाणि, धनानि > धणाणि
1
30. शौरसेनी में ‘तिङ्' प्रत्ययों के पर में होने पर भू धातु के स्थान पर 'भो' आदेश होता है । यथा - भवामि> भोमि ।
31. विस्मय और निर्वेद अर्थों में शौरसेनी के 'हीमाणहे' निपात का प्रयोग होता है । यथा - हीमाणहे जीवंतवच्छा मे जणणी ।
- (साभार उद्धृत, 'पालि- प्राकृत संग्रह' चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, पृष्ठ 74-76)
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सम्राट अशोक की जैनदृष्टि
-डॉ० उदयचंद्र जैन
यह तो सर्वविदित एवं सर्वमान्य है कि अशोक मात्र एक सम्राट ही नहीं, श्रमण एवं ब्राह्मण संस्कृतियों के संरक्षक भी थे। उसके प्रत्येक शिलालेख इस बात के साक्षी हैं और यह प्रतिपादित करते हैं कि सम्राट अशोक ने अपने दृष्टिकोण को श्रमण संस्कृति के सिद्धान्तों पर विशेष रूप से केन्द्रित किया। वे महान् विचारक थे, यह लिखने या कहने की आवश्यकता नहीं; पर जो भी अभिलेख प्राप्त होते हैं, उनमें निम्न दृष्टियाँ हैं• सामाजिक दृष्टि - समाज के श्रमण, ब्राह्मण, स्थविर आदि के उत्थान, सेवा
आदि की दृष्टि । • वैचारिक दृष्टि - जनचेतना, जन प्रतिनिधित्व एवं जन-जागरण आदि का संदेश। • धार्मिक दृष्टि - मैत्री, करुणा, जीवदया एवं उनके जीवन के उन्नयन
आदि के लिये विशाल दृष्टि। • जीवन मूल्यपरक दृष्टि - जीने का समान अधिकार आदि। • भाषात्मक दृष्टि - भाषा की प्रियता में प्राकृत और उसमें भी शौरसेनी
प्राकृत के प्रति लगाव। भारतीय विचारकों के मत अशोक सम्राट के विषय में विविध हो सकते हैं, पर यह सर्वत्र कहा गया कि वह श्रमण-संस्कृति का समादर करता है। ‘साईंस ऑफ कम्परेटिव रिलीजन' में मेजर जनरल श्री सी०आर० फरलांग कथन करते हैं कि जैन और बौद्ध धर्म' के मध्य राजा अशोक इतना कम भेद देखता था कि उसने सर्वसाधारण में अपना बौद्ध होना अपने राज्य के 12वें वर्ष में कहा था। इसलिये करीब-करीब उसके कई शिलालेख 'जैन सम्राट् के रूप में हैं।
गिरनार शिलालेख की दृष्टि- गिरनार शिलालेख के प्रथम अभिलेख में जो पूर्ण मांस-भक्षण का निषेध है, वह यह भी दर्शाता है कि जो समाज बृहद् है, उसके बृहद् भोज में हजारों प्राणियों का आरंभ किया जाता था, उसे रोकने का पूर्ण निषेध किया।' उनके द्वारा प्रयुक्त 'महानसम्हि' शब्द से यह भी ध्वनित होता है कि जो भी आरंभ था, वह उस समय महानस - महान+अस (बड़े-बड़े भोज) में विशेष रूप से होता था। उसे रोकना
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अर्थ की प्रथम दृष्टि थी।
धर्माचरण सम्बंधी दृष्टि- अशोक ने समाज में बहुत से दोष देखे, उन्हें देखकर ही समाज कर्त्तव्य को समझाया और कहा कि प्राणियों, ज्ञातिजनों, ब्राह्मण, श्रमणों आदि के अतिरिक्त माता-पिता की सेवा और स्थविरजनों की सुश्रूषा सबसे बड़ा धर्माचरण है । यह धर्माचरण धर्मशील व्यक्ति में रहता है । इसलिये धर्मानुशासन/धर्मपूर्वक अनुशासन सबसे प्रमुख आचरण है ।
धंमचरणे पि न भवति असीलस - अशील / क्षुद्रजनों की धर्माचरण में प्रवृत्ति नहीं होती है। इसलिये जो धर्माचरण की ओर प्रवत्त होता है, वह 'दुकटं करोति' - दुष्कर कार्य करता है। कठिन से कठिन कार्य करता है । 'सुकरं हि पापं ' पाप शीघ्र किए जा सकते हैं, ऐसा नहीं; अपितु पाप सहज रूप में मन, वचन और काय किसी भी रूप में हो सकते हैं। इसलिये धर्म का पालन कठिन है और पाप होना सहज है। इससे यह भी ध्वनित होता है कि आत्मकल्याण अत्यंत कठिन है । जैसाकि स्वयं अशोक की दृष्टि है— 'कलाणं दुकरं, यो आदिकरो कलाणस सो दुकरं करोति – सत्य है और स्वाभाविक है, इसी उद्देश्य ही धर्ममहामात्र / घोषित कर श्रमण-र - संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार किया ।
I
विशिष्ट तिथियों पर करने योग्य कार्य — अशोक समग्र प्राणिमात्र का हितैषी था, इसलिये उसके छब्बीसवें वर्ष के अभिषेक के समय जो शिलालेख उत्कीर्ण कराया गया, उसमें जैनधर्म की अष्टमी, चतुर्दशी एवं पञ्चदशी तिथियों का विशेष उल्लेख है । इससे यह बात सहज अनुमानित की जाती है कि सम्राट् अशोक ने श्रमण-संस्कृति की उक्त प्रचलित तिथियों को ध्यान में रखकर प्रत्येक माह इन तिथियों पर 'आरंभ करने' का विशेष रूप से निषेध किया। ये ही तिथियाँ जैनधर्म की विशेष पर्वकालिक तिथियाँ मानी गई हैं । ये माह में छह, पक्ष में तीन आती हैं । 'प्रतिपदा' की तिथि भी पार्विक तिथि है, उस पर भी आरंभ को वर्जित किया ।
एक ओर जहाँ पाक्षिक तिथियों का उल्लेख है, वहीं दूसरी ओर यह भी संकेत किया गया कि केवल चातुमार्सिक तिथियों अर्थात् वर्षावास की तिथियों में हिंसक कार्य नहीं किये जायें, अपितु वर्ष के वर्षाकाल, शरदकाल और ग्रीष्मकाल में पड़नेवाली तिथियों में भी हिंसक कार्य का पूर्ण निषेध किया गया है । जीव समुदाय एवं जीव जगत् की व्यापक जीवंतता का मौलिक चिन्तन इससे बढ़कर और क्या हो सकता है कि जितने भी पशु-पक्षी या अन्य प्राणी हैं, वे जीने का अधिकार रखते हैं ।
" भारत के सीमान्त से विदेशी सत्ता को सर्वथा पराजित करके भारतीयता की रक्षा करनेवाले सम्राट् चन्द्रगुप्त ने जैन आचार्य श्री भद्रबाहु से दीक्षा ग्रहण की थी। उनके पुत्र बिम्बसार थे। सम्राट् अशोक उनके पौत्र थे । कुछ दिन जैन रहकर अशोक पीछे बौद्ध हो गये थे । " - ( श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार, 'कल्याण' मासिक, पृष्ठ 864, सन् 1950 )
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जैनदर्शन में रत्नत्रय की मीमांसा
–डॉ॰ दयाचन्द्र साहित्याचार्य
लोक में रत्न दो प्रकार के होते हैं— (1) आध्यात्मिक - रत्न, (2) भौतिक-रत्न । भौतिक- रत्न पृथ्वी में, समुद्रों में, खदानों में, जौहरी - बाजारों में, स्वर्गों में, मंदिरों में और श्रीमानों के भवनों में उपलब्ध होते हैं । अनेक जन्म-जन्मान्तरों में देव - देवांगनाओं और नर-नारियों ने अनेक बार रत्नों के आभूषणों से अपने शरीर को सुन्दर बनाकर आनन्द के सागर में गोते लगाये, परन्तु वह आनन्द क्षणिक था और वे चमकीले बहुमूल्य आभूषण भी क्षणिक और यह देह भी क्षणिक थी; इसलिये इन भौतिक आभूषणों में मोह के कारण आत्मा का कल्याण नहीं हो सका और न कभी हो सकता है । कविवर भूधरदास जी ने सत्य कहा है-— “धन- कन- कंचन - राजसुख, सबहि सुलभ कर जान ।
दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान ।।”
मानवों और देवों के इस जगत् में सर्ववस्तुयें प्राप्त करना सुलभ है, परन्तु यथार्थ रत्नत्रय प्राप्त करना अतिदुर्लभ है ।
ये आध्यात्मिक रत्न ( रत्नत्रय) प्रत्येक आत्मा में ही विद्यमान हैं । आत्मा सें अतिरिक्त किसी अन्य पुद्गल या जड़पदार्थों में नहीं रहते हैं; अतएव इनको आध्यात्मिक रत्न कहते हैं। यद्यपि ये अक्षय रत्न प्रत्येक आत्मा में रहते हैं, तथापि इनका स्वानुभव वर्तमान में नहीं हो रहा है और न अब तक हुआ है, इसका प्रमुख कारण मोह एवं अज्ञान है । इस विषय में कवि का कथन है
“सब के पल्ले लाल, लाल बिना कोई नहीं ।
किन्तु हुआ कंगाल, गाँठ खोल देखा नहीं।।”
अर्थात् सब प्राणियों के आत्मा में लाल (रत्नत्रय) विद्यमान है, ऐसा कोई आत्मा नहीं, जिसके पल्ले में लाल न हो । किन्तु मोह एवं अज्ञान की गाँठ को खोलकर इस आत्मा ने देखा नहीं, इसीकारण से रत्नत्रय के बिना कंगाल हो रहा है – यह दुःखका विषय है।
अब सत्यार्थ देव-शास्त्र-गुरु की उपासना का पुरुषार्थ करके इन अक्षय रत्नों को खोजकर विकसित या उज्ज्वल करने की आवश्यकता है । कविवर द्यानतराय जी लिखते
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हैं- "देव-शास्त्र-गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार।" ____तात्पर्य यह है कि देव-शास्त्र-गुरु ये तीन प्रशस्त रत्न हैं और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी तीन रत्नों को विकसित करनेवाले हैं, अत: देव-शास्त्र-गुरु रूपी तीन रत्नों की उपासना से रत्नत्रय का विकास करना परम आवश्यक है। __ प्रथमानुयोग की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का स्वरूप भद्रपरिणामी मिथ्यादृष्टि को सर्वप्रथम तीर्थंकर आदि शलाका-पुरुषों के जीवनचरित्र या कथापुराणों के स्वाध्याय करने से जो जैनधर्म या देव-शास्त्र-गुरु का श्रद्धान निर्मल हुआ है, वह 'प्रथमानुयोग' का सम्यग्दर्शन कहा गया है। 'करणानुयोग' की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का स्वरूप अनन्तानुबन्धीकषाय के क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति –इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय एवं क्षयोपशम से आत्मा में तत्त्वश्रद्धान होता है; उसे क्रम से औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं। 'चरणानुयोग' की अपेक्षा सम्यग्दर्शन की परिभाषा सत्यार्थ देव-शास्त्र-गुरु का मान-मूढ़तारहित, अष्टांग के साथ श्रद्धा करना चरणानुयोगदृष्टि का सम्यग्दर्शन कहा गया है। सात तत्त्व, नवपदार्थ एवं छह द्रव्यों का यथार्थ श्रद्धान करना अथवा आत्मविशुद्धिरूप परिणाम को 'द्रव्यानुयोग' की दृष्टि से सम्यग्दर्शन कहते हैं।
चारों अनुयोगों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के लक्षणों में शब्दों की अपेक्षा भेद (अन्तर) प्रतिभासित होता है, पर आत्मश्रद्धान (रुचि) की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है। इसलिये चारों अनुयोगों में विरोध नहीं, अपितु समन्वय है।
सम्यग्दर्शन के उत्पन्न होने पर जो सत्यार्थ ज्ञान व्यक्त होता है, उसे 'सम्यग्ज्ञान' कहते हैं। एवं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के उत्पन्न होने पर, चारित्रमोहजन्य कषाय आदि विकारों की कृशता से आत्मा में विशुद्ध परिणामों की उपलब्धि को सम्यक्चारित्र' कहते हैं। ये तीन आत्मिकरत्न अक्षय तथा आनन्दमय हैं।
शंका आदि 25 दोषों का निराकरण करने के लिये सम्यग्दर्शन में 'सम्यक्' विशेषण प्रयुक्त हैं। संशय, विमोह एवं विपरीतता का परित्याग करने के लिये सम्यक्ज्ञान में 'सम्यक्' विशेषण उपयोगी है। अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार (भ्रष्टाचार) - इन चार दोषों का निराकरण करने के प्रयोजन से सम्यक्चारित्र में सम्यक्' विशेषण सार्थक है।
इस रत्नत्रय के क्रम का भी एक विशेष कारण है— अनादिकालिक मिथ्यादृष्टि जीव के करणलब्धिपूर्वक सबसे पहिले सम्यग्दर्शन होता है; इसलिये सम्यग्दर्शन को प्रथम कहा गया है। सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यग्ज्ञान होता है, तथा सम्यग्ज्ञान श्रद्धान को दृढ़ करता है और चारित्र को भी दृढ़ता प्रदान करता है; अत: सम्यग्ज्ञान को मध्य में कहा गया है। सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान के अनन्तर ही सम्यक्चारित्र व्यक्त होता है, अत: तीसरे
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नम्बर पर सम्यक्चारित्र कहा गया है। इन्हीं कारणों को लक्ष्यकर आचार्य समन्तभद्र ने कहा है- “मोहतिमिरापहरणे, दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञान: । रागद्वेषनिवृत्त्यै, चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।।”
-(रत्नकरण्डक श्रावकाचार, पद्य 47) यह विषय विशेषरूप से ज्ञातव्य है कि एक आत्मा में एक साथ तीनों रत्नों का प्रभाव हो, तो आत्मा का कल्याण हो सकता है। अगर एकमात्र सम्यग्दर्शन हो, या मात्र सम्यग्ज्ञान हो अथवा केवल एक सम्यक्चारित्र हो; तो आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता। अथवा दर्शन-ज्ञान, दर्शन-चारित्र, ज्ञान-चारित्र -ये दो-दो गुण विद्यमान हों; तो भी आत्मकल्याण एवं मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। जब तीनों का युगपत् सद्भाव हो; तब ही मुक्ति का मार्ग बन सकता है, अन्यथा नहीं। ___ जैसे किसी डॉक्टर ने रोग जाँचकर रोगी को दवा प्रदान की। यदि रोगी पुरुष को दवा पर विश्वास हो, दवा के सेवन का ज्ञान हो, तथा दवा का विधिपूर्वक सेवन करे; तो वह रोगी रोग से मुक्त हो सकता है, अन्यथा नहीं। इसीप्रकार रत्नत्रयरूप दवा के श्रद्धान-ज्ञान-आचरण से ही जन्म-जरा-मरण का रोगी यह मानव रोग से मुक्त हो सकता है, अन्यथा नहीं। इसी प्रयोजन का लक्ष्य कर आचार्य उमास्वामी ने घोषित किया है- “सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग:" – (तत्त्वार्थसूत्र)। ___अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का एक आत्मा में एक साथ एकीकरण ही मुक्ति का मार्ग है।
इसी विषय पर दूसरा उदाहरण यह है कि एक विशाल वन में तीन ओर से आग लग रही थी। एक ओर आग नहीं लगी थी। उस वन के मध्य में अंधा, पंगु और आलसी ये तीन मनुष्य जल जाने के भय से रो रहे थे। इसी समय एक विवेकी व्यक्ति वहाँ से निकला। उसने शीघ्र ही जाकर उन तीनों का एकीकरण किया कि अन्धे के कन्धे पर पंगु को बैठाया तथा आलसी को अन्धे का हाथ पकड़ाया और तेजी से भागने की प्रेरणा दी, तो तीनों ही सुरक्षितरूप से अपने इष्टस्थान को चले गये। इसी तरह संसारी जीव को द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म की तीन ओर से आग लगी हुई है, एक ओर से ज्ञानी आचार्य सम्बोधित करते हैं कि “श्रद्धा-ज्ञान-आचरण को शीघ्र प्राप्त करो, तो तुम्हारी दु:खों से मुक्ति हो सकती है।” कविवर द्यानतराय जी ने 'रत्नत्रयपूजा' की 'जयमाल' में कहा भी है—
“सम्यग्दर्शन-ज्ञान-व्रत, इन बिन मुकति न होय । अध-पंगु-अरु आलसी, जुदे जलें दवलोय ।।"
-(रत्नत्रयपूजा, समुच्चय जयमाल, पद्य 9) अथवा
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"ज्ञानं पंगौ क्रिया चान्धे, नि:श्रद्धे नार्थकद्वयम् ।
ततो ज्ञान-क्रिया-श्रद्धामयं तत्पदकारणम् ।।" -(राजवार्तिक) अर्थात् पंगुजन में ज्ञान, अंधेजन में क्रिया, आलसीजन में विश्वास होने से पृथक्-पृथक् ये तीनों पुरुष दावानल से सुरक्षित नहीं हो सकते; किन्तु तीनों पुरुष एक साथ मिलकर पुरुषार्थ करें, तो दावानल से मुक्त हो सकते हैं। इसीप्रकार जो मानव सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एक साथ साधना करें, तो संसार के कर्मरूप दावानल से मुक्त हो सकते हैं, अन्यथा नहीं। रत्नत्रय का महत्त्व
“रत्नत्रयं तज्जननार्ति-मृत्यु-सर्पत्रयी-दर्पहरं नमामि । यद्भूषणं प्राप्य भवन्ति शिष्टा:, मुक्ते: विरूपाकृतयोप्यभीष्टाः ।।"
–(महाकवि हरिचन्द्रः, 'धर्मशर्माभ्युदय') तात्पर्य यह है कि जरा और मरणरूप सर्पत्रय के कष्टरूप विष के नाशक उस सफल रत्नत्रय को हम प्रणाम करते हैं कि जिस रत्नत्रयरूप आभूषण को धारण कर श्रेष्ठपुरुष तपस्वी, विरूप आकृतिवाले होने पर भी मुक्ति-लक्ष्मी के वरण के योग्य हो जाते हैं। अर्थात्-रत्नत्रय से मुक्ति की प्राप्ति होती है। रत्नत्रय सर्वधनों में प्रधान है
“न चौरहार्यं न च राजहार्य, न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धत एव नित्यं, रत्नत्रयं सर्वधनप्रधानम् ।।" __ सारांश:- भौतिकधन को चोर अपहरण कर सकते हैं, किन्तु इस रत्नत्रयरूपी धन को नहीं। भौतिकधन को राजा टैक्स आदि के द्वारा हरण कर सकता है, परन्तु रत्नत्रयरूपी धन को नहीं। भौतिकधन का भाई-बन्धु बटवारा कर सकते हैं, परन्तु रत्नत्रयरूपी धन का नहीं। भौतिकधन का वजन या भार हो सकता है, परन्तु रत्नत्रयरूपी धन का नहीं। भौतिकधन व्यय होने पर घटता है, परन्तु रत्नत्रय दूसरे को सिखाने आदि से बढ़ता है, इसलिये रत्नत्रयधन विश्व के सर्व धनों में प्रधान धन है। राष्ट्रपति महात्मा गांधी द्वारा रत्नत्रय का समर्थन
सत्य-अहिंसा-ब्रह्मचर्य ये रत्नत्रय आत्मकल्याण एवं विश्वकल्याण का मूलमंत्र है। Right belief, Right knowledge, Right conduct these together constitute the path to liberation. -(स्वतंत्रता के सूत्र, तत्त्वार्थसूत्र : आचार्य कनकनन्दि) श्रीमती इंदिरा गांधी (पूर्व प्रधानमंत्री) द्वारा रत्नत्रय का समर्थन __ दूरदृष्टि (श्रद्धा), पक्का इरादा (ज्ञान), कड़ा अनुशासन (सदाचरण) -ये तीन कर्तव्य राष्ट्र का कल्याण करते हैं एवं इनसे व्यक्ति की आत्मा पवित्र होती है।
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वैज्ञानिकों द्वारा रत्नत्रय का समर्थन ___ जर्मन के प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर अल्बर्ट आइंस्टीन— “दिल (श्रद्धा), दिमाग (ज्ञान) के स्वस्थ (सदाचरणयुक्त) रहने पर ही आत्मा महान् शान्ति का अनुभव करता है।" ___ “वह व्यक्ति 'नास्तिक' है, जो अपने आप में विश्वास नहीं करता। विश्वासपूर्वक ज्ञान आचरण को बनाता है।"
-(हिन्दुस्तान सन् 1963 जनवरी) "हैट (विश्वास), हार्ट (विज्ञान), हैण्ड (आचरण) — इन तीन स्वस्थ साधनों से ही मानव जीवन के कार्य बहुत अच्छे होते हैं।"
-(वैज्ञानिक टेनीसन) जिसप्रकार पिपरमेंट, अजवानफूल, कपूर ये तीनों युगपत् समान मात्रा में मिलकर 'अमृतधारा' को जन्म देते हैं और वह रोग से मुक्त करती है; उसीप्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र ये तीन गुण युगपत् मिलकर अमृतधारा (मोक्षमार्ग) को दशति हैं।
-(विज्ञानपूर्ण भौतिक प्रयोग) उपसंहार
भौतिकरत्नों के आभूषणों को भवभव में इस मानव ने प्राप्त किये हैं; परन्तु अक्षय आत्मिक आभूषणों को आज तक प्राप्त नहीं किये। यद्यपि निश्चयदृष्टि से रत्नत्रयभूषण आत्मा में विद्यमान हैं, परन्तु मोह एवं अज्ञान के कारण इनका संकेत नहीं मिल रहा है। अत: इन रत्नों के खोजने की आवश्यकता प्रतीत होती है। तत्त्वार्थश्रद्धान (सम्यग्दर्शन), तत्त्वार्थज्ञान, (सम्यग्ज्ञान) और सदाचरण (सम्यक्चारित्र) को ही 'रत्नत्रय' कहा जाता है। इनका क्रम एवं निर्दोषत्व सिद्ध है। दृष्टान्त द्वारा रत्नत्रय का एकत्व सिद्ध है। वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा आत्मिक रत्नत्रय का समर्थन होता है। रत्नत्रय का मूल्यांकन – आत्मा से परमात्मा की उपलब्धि है।
"सम्मदसणणाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे। ववहारा णिच्छयदो तत्तियमइयो णिओ अप्पा ।।"
___ -(आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव : दव्वसंगहो, गाथा 39) अर्थात् व्यवहारनय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र –इन तीनों का समीकरण मोक्ष का कारण (मार्ग) है और निश्चयनय से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप अखण्ड स्वभावात्मक आत्मा ही मोक्ष है।
"रयणत्तयं ण वट्टदि, अप्पाणं मुयत्तु अण्णदवियम्हि । तम्हा तत्तियमइयो, होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा।।"
__ -(वही, गाथा 40) अर्थ:- निश्चय दृष्टिकोण से रत्नत्रयभाव आत्मा को छोड़कर अन्य पाँच द्रव्यों (पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश, काल) में नहीं है। इस विशेष युक्ति से उक्त रत्नत्रय-स्वभाव आत्मा ही मोक्ष कहने के योग्य है।
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भाषा का स्वरूप एवं विश्लेषण
- डॉ० (श्रीमती) माया जैन
'भाषा' शब्दगत उद्गार है । यह मानवीय वचन द्वारा निःसृत ऐसा अर्थयुक्त एवं शब्दगत भाव है, जिसमें सब कुछ समाहित है । जिसमें वाणी, वाक्, वचन आदि यन्त्रसाधना है, वही भीतरी आत्मसंकल्प का व्यापार है । जो मूलत: वाक्केन्द्रित चिन्तन है, जिसका कोई न कोई अभिप्राय भी होता है । कहने का अभिप्राय है कि भाषा अर्थोमय एवं शब्दबद्ध उद्गार का नाम है। 'शब्द' भाषिक संकल्पना है, 'भाषा' चिन्तन की दृष्टि शब्द सार्वत्रिक व्याकरणिक इकाई भी है, जो वाक्य, रूपिम और स्वनिम को महत्त्व देता है।
जिस अर्थ में शब्द भाषा संरचनात्मक इकाई को लेकर चलता है, वह उसी रूप में स्थित नहीं हो पाता है; क्योंकि भाषा का सम्पूर्ण विश्लेषण वर्ण, पद और वाक्य रूप में भी होता है। उसमें क्षेत्रीयता, प्रान्तीयता, आंचलिकता आदि का प्रभाव भी पड़ता है। इसी से भाषा के विविध रूप सामने आते हैं, उन्हीं से साहित्य को गति प्राप्त होती है । 'भाषा' शब्द पर विचार
भाषा में 'शब्द' सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संकल्पना है । भाषा की मौलिक इकाई 'वाक्य' है, उपवाक्य है, पदबंध है, मूलप्रकृति, प्रत्यय आदि भी है; परन्तु जब शब्द को महत्त्व दिया जाता है, उस समय वह भाषा - विवरण शब्दानुशासन को प्राप्त हो जाता है । शब्दानुशासन व्याकरणिक पद्धति है । इसका अपना स्वकीय तत्त्व-दर्शन है और यह भाषा की भी स्वतन्त्र एक इकाई है, जो वाक्य के रूप में रूपविज्ञान, शब्द के रूप में शब्दविज्ञान और अर्थ के रूप में अर्थविज्ञान को अभिव्यक्त करता है । जब 'शब्द' और 'अर्थ' की सहभागिता हो जाती है, तब वही साहित्यिक रूप ग्रहण करता है, उसमें काव्यशास्त्रीय की गम्भीरता भी समाहित हो जाती है ।
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भाषा मनुष्य के विचारों का प्रयोग है । जैसे ही मनुष्य शब्दों के प्रयोग को गतिमान करता है, वैसे ही अर्थों को समझकर मन को बोलने की इच्छा से प्रेरित करता है । अर्थात् जो कुछ भी प्रयोग शब्द के रूप में मन की शक्ति वायु को प्रेरित करती है । उस समय 'शब्द वाक्' की उत्पत्ति होती है, यही शब्द वाक् 'भाषा' है। मनुष्य की वाणी जैसे-जैसे
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खुलती गई, भाषा का विकास होता गया । समयानुसार परिवर्तन हुए एवं विभिन्न संपर्क के प्रभाव से भाषा की एकरूपता भी बदलती गई । विभिन्न जातियों, वर्गों एवं क्षेत्रीय प्रभाव की जलवायु तथा प्राकृतिक परिस्थितियों ने नये-नये प्रयोगों को जन्म दिया । वेद' के प्रयोग 'वैदिक' कहलाये और आर्षपुरुषों बुद्ध और महावीर के वचन 'प्राकृत' के स्वरूप को प्राप्त हुए। प्रकृति के नियमों के आधार पर भाषा, भाव और प्रक्रिया में परिवर्तन भी हुआ । भाष्यते इति भाषा
जो बोली जाती है, वह भाषा कहलाती है । 'तत्त्वार्थभाष्य' में कहा गया है कि व्यक्त वाणी के द्वारा वर्ण, पद एवं वाक्य के रूप में जो कही जाती है, उसे 'भाषा' कहते हैं— “व्यक्तवाग्भिर्वर्ण-पद- वाक्याकारेण भाष्यत इति भाषा । "
- (तत्त्वार्थभाष्य सिद्धसेन वृ०, 5/24 ) अर्थात् सिद्धसेन का यही भाव है कि वर्ण, पद और वाक्य के आकार से कथन करना भाषा है। दूसरी ओर 'प्रज्ञापना सूत्र' के टीकाकार मलयगिरि ने इसप्रकार कथन किया है— “भाष्यते इति भाषा, तद्योग्यतया परिणामित - निसृज्यमान- द्रव्यसंहतिः ।”
- ( प्रज्ञा० मलयवृत्ति, 161 ) 'षट्खण्डागम धवला टीका' खण्ड 1, पुस्तक 1 ( पृ० 258) में भाषा पर विचार करते हुए कथन किया है कि “भाषा - वर्गणा के स्कंधों के निमित्त से चार प्रकार की भाषा रूप से परिणमन करने की शक्ति के निमित्तभूत नोकर्म - पुद्गल - प्रचय की प्राप्ति को 'भाषा पर्याप्ति' कहते हैं । भाषा 'वचनबल' है । वचनबल के बिना पर्याप्ति नहीं बनती। दो-इन्द्रिय जीव से लेकर पंचेन्द्रिय-जीव - पर्यन्त 'भाषा - वर्गणा' होती है । वचनसूत्र भाषा. का सूत्र है। इसलिए जो कुछ कहा जाता है या बोला जाता है, वह भाषा है। इसी 'षट्खण्डागम' की द्वितीय पुस्तक में प्राणों के अंतर्गत वचनबल को महत्त्व दिया गया है। नयसूत्र के विवेचन में भाषा के विविध रूपों पर विचार किया गया है, इसमें शब्द के आधार से अर्थ के ग्रहण करने में समर्थ ' शब्दनय' है । यह नय लिंग, संख्या, काल, कारक, पुरुष और उपग्रह के व्यभिचार की निवृत्ति करनेवाला है । जो लिंग आदि जिस स्थान के लिए प्रयुक्त किया जाता है, उसका वैसा प्रयोग न करना 'व्यभिचार' कहा जाता है। यथा— स्त्रीलिंग के स्थान पर पुल्लिंग का और पुल्लिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग आदि का प्रयोग लिंग- व्यभिचार है । इसलिए भाषास्वरूप में इस बात को महत्त्व दिया जाता है कि बोलने वाला किसप्रकार के वर्ण, पद और वाक्यों के आकार को लेकर कथन कर रहा है? यदि वर्ण, अर्थ, संख्या एवं कालादि का भेद न हो, तो एक पद एक ही अर्थ का वाचक नहीं हो सकता। इसलिए जिसमें समस्त वर्ण, पद और वाक्य का यथार्थ हो वह भाषा है । भाषा प्रयोग
भाषा को जानकर उसके प्रयोग तद्रूप होना चाहिए । भाषा के विहित और निषिद्ध
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दोनों ही प्रयोग होते हैं। परन्तु विचारपूर्वक किस तरह से किसप्रकार की भाषा का प्रयोग करना चाहिए - यह भी एक महत्त्वपूर्ण भाषा के लिए अनिवार्य है। आगमों में प्रत्येक के अलग-अलग पद दिये गये हैं। यदि वह 'एगे आया' ऐसा कथन करता है, तो 'एकवचन' की अपेक्षा एक आत्मा का बोध होता है। यदि दुविहा दव्वा पण्णत्ता' —ऐसा कथन करता है, तो द्रव्य के दो प्रकार समझ में आते हैं। आगमों के ही स्थानांग, समवायांग आदि सूत्रों में भाषा पर कई प्रकार से विचार किया गया है। जिसमें शब्द के आकार एवं प्रकार से दो-दो विशेषतायें दी गई हैं :
भासासद्दे चेव, णोभासासद्दे चेव। भाषा-शब्द और नोभाषा-शब्द । भासासद्द – अक्षर-संबद्ध (वर्णणात्मक) और नोअक्षर-संबद्ध । णोभासासद्य - आतोद्य-वादित्य और नो-आतोद्य-शब्द । आउज्जसद्ये - तत और वितत । तत - घन और शुषिर। वितत - घर और शुषिर। णोआउज्जसद्य - भूषण शब्द और नोभूषण शब्द । णोभूसणसद्य - ताल शब्द और लत्तिका शब्द ।
अर्थात् जीव के वचनयोग से प्रगट होने वाला शब्द 'भाषा शब्द' है। इसके प्रहार, संघात से भी शब्द की उत्पत्ति होती है। घड़ी की सुईयाँ चलने से या मशीन के चलने से भी शब्द की उत्पत्ति होती है। और कुछ ऐसे शब्द भी होते हैं, जो भेद को प्रगट करते हैं। भेद से शब्द की उत्पत्ति तड़-तड़, चट-चट आदि के रूप में भी होती है। भाषा-वचन-व्यवहार
जैसाकि ऊपर प्रयोग में भाषा-शब्द, नोभाषा-शब्द, अक्षर-संबद्ध, नोअक्षर-संबद्ध आदि का कथन किया गया है, वह भाषा-भेद का प्रकार है। यदि भाषा को वचन के रूप में प्रयुक्त करते हैं, तो समस्त भाषाओं में मूलत: एकवचन और बहुवचन के प्रयोग की सूचना सामने आती है। परन्तु संस्कृत के वचन की दृष्टि से इस पर विचार करते हैं, तो एकवचन, द्विवचन और बहुवचन ये तीन प्रकार सामने आते हैं। शौरसेनी, अर्द्धमागधी, महाराष्ट्री आदि प्राकृतों, अंग्रेजी-विधानों एवं अन्य सभी प्रकार के हिन्दी भाषा-विभाषा आदि में एकवचन और बहुवचन के प्रयोग होते हैं। ___ वचन का अपना एक नियम है, यदि वह स्त्रीवाची है, तो स्त्रीवचन; पुरुषवाची है, तो पुरुषवचन और नपुंसकवाची है, तो नपुंसकवचन भी है। इसमें क्षेत्रीय भाषा-दृष्टिकोण नहीं होता; अपितु स्त्री-पुरुष और नपुंसक के प्रयोग से उसके सूत्र तद्प कहे जाते हैं। यदि वे ही वचन अतीत, प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) और अनागत दृष्टि से प्रयोग किये गये हैं; तो अतीत-वचन, प्रत्युत्पन्न-वचन और अनागत-वचन कहलाते हैं।
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'षट्खण्डागम' (1/1/1 पृ० 86-90) में 'अर्थनय' और 'व्यंजननय' —ये दो नय के भेद करने के उपरान्त विवेचनकार ने “शब्द: समभिरूढ़ एवंभूत इति ।" से शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत — इन तीन नयों को व्यंजननय में रखा गया है।
"शब्दपृष्ठतोऽर्थग्रहणप्रवण: शब्दनय ।” अर्थात् शब्द के आधार से अर्थ के ग्रहण करने में समर्थ 'शब्दनय' है। इसमें लिंग, संख्या, काल, कारक, पुरुष और उपग्रह के व्यभिचार की निवृत्ति होती है। विवेचनकार ने इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। शब्द-भेद से जो नाना अर्थों में अभिरूढ़ होता है, उसे 'समभिरूढ़' कहा जाता है। इसमें इन्द्र, पुरन्दर और शक्र तीनों पर्यायवाची हैं; पर तीनों का अर्थ अलग-अलग है। अत: 'नय' की भाषा में पर्यायवाची शब्द, शब्द तो होते हैं; पर वे भिन्न-भिन्न अर्थों से अलंग-अलग हैं —ऐसा भी आभास कराते हैं। इसी तरह ‘एवंभूतनय' जिस शब्द का जो वाच्य है, वह तदरूप क्रिया से परिणत समय में ही पाया जाता है। उसे जो विषय करता है, उसे 'भूतनय' कहते हैं। इस नय की दृष्टि में पदों का समास नहीं हो सकता; क्योंकि भिन्न-भिन्न कालवर्ती और भिन्न-भिन्न अर्थ वाले शब्दों में एकपने का विरोध है। 'धवला' टीकाकार की यह भाषा- दृष्टि भाषा के उस भेद पर प्रकाश डालती है; जिसमें लिंग, कारक, संख्या, काल, पुरुष आदि का वैशिष्ट्य बना रहता है। कहा है"ततो यथालिंगं यथासंख्यं यथासाधनादि च न्यायमभिधानमिति।"
-(धवला पृ० 90) अर्थात् समान लिंग, समान संख्या, समान साधन आदि का कथन करना समीचीन माना गया है। शब्द वचन पर आधारित होते हैं अर्थात् जितने वचन-व्यवहार हैं, उतने ही नयवाद हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि वाक्य, वचन, पद आदि व्यवहार से जिस रूप को प्राप्त होते हैं; वहीं द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से उसी रूप को प्राप्त हो जाती है। भाषा का विषय व्यापक है। यदि उसे क्षेत्र की दष्टि से देखा गया, तो शूरसेन के क्षेत्र मथुरा एवं उसके आसपास सीमावर्ती स्थानों पर जो भाषा का स्वरूप हजारों वर्ष पहले प्राप्त होता है, वह अपने आप ही 'शौरसेनी भाषा' अर्थात् एक ऐसी प्राकृत भाषा का उल्लेख कर जाता, जिसमें षट्खण्डागम, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार आदि पाहुडग्रन्थ, षट्खण्डागम एवं उसकी धवला आदि टीकायें, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, द्रव्यसंग्रह, गोम्मटसार आदि ग्रन्थों एवं ग्रन्थकारों के प्रयोगों का भी आभास है।
अर्द्धमगध क्षेत्र एवं उसके आसपास में बोली जाने वाली भाषा 'अर्द्धमागधी' और सम्पूर्ण मगध के जनसाधारण व्यक्तियों के द्वारा बोली जाने वाली भाषा ‘मागधी' और सम्पूर्ण प्राकृत व्याकरण के विकास के आधार पर व्यापक क्षेत्र की भाषा 'महाराष्ट्री' ने अपना स्थान बनाया। कहने का तात्पर्य यह है कि भाषा का अपना स्वरूप पृथक्-पृथक् होता गया। उसमें भाव और प्रक्रिया के नियम ने जो स्वरूप प्रदान किया, वही भाषा
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वैज्ञानिकों के माध्यम से पृथक् पृथक् नामकरण को प्राप्त हुआ ।
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है मानव- - सृष्टि का जितना महत्त्व है, उतना ही भाषा के विकास का भी महत्त्व डॉ॰ नेमिचन्द शास्त्री ने 'प्राकृतभाषा और साहित्य के आलोचनात्मक इतिहास' नामक पुस्तक में भाषा के विषय में कथन किया है कि “ मनुष्य के विकास के साथ-साथ वाणी का भी विकास हुआ है। अतएव आदिकाल में यदि भिन्न-भिन्न भाषायें आरंभ से ही विकसित हुई हों। यदि एक ही स्थान पर सुसंगठित रूप में मनुष्य, समुदाय का आर्विभाव माना जाये; तो आरंभ में एक भाषा का अस्तित्व स्वयमेव सिद्ध हो जाता है । परन्तु स्थान और कालभेद से ही भाषाओं में वैविध्य उत्पन्न होता है। तथ्य यह है कि मूलभाषा क थी, अनेक रूप में जैसी भी रही हो, पर भौगोलिक परिस्थितियों का आधार पाकर विकास व विस्तार के आधार को प्राप्त करती रही है ।
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जिनवाणी भाषा का स्वरूप क्या था? क्या है ? — यह एक प्रश्न सामने आया। यदि इस पर विचार किया जाता है, तो अर्थरूप में सर्वज्ञ अर्हत् प्रभु के वचन 'दिव्यध्वनि' को प्राप्त होते हैं, जो सभी को मान्य एवं प्रामाणिक हैं। साथ ही साथ वह वीतराग - वाणी समवशरण में समागत मनुष्य एवं सभी प्रकार के तिर्यञ्चों को भी समझ में आती है । सर्वज्ञ वीतराग की वाणी को 'जिनवाणी' के नाम से जाना जाता है, जिसे 'सर्वभाषात्मक' कहा जाता है। परन्तु सर्वभाषा गर्भित से यह अभिप्राय है कि जो भी दिव्य - देशना को सुनता है, वह चाहे अट्ठारह महाभाषाओं या सात सौ क्षुद्र भाषाओं से युक्त क्यों न हो, उसको अक्षर या अनक्षर सभी को समझ में आ जाते हैं । जो मूल दिव्यध्वनि है, उसमें अर्थ का समावेश है और उनके ही प्रमुख शिष्य गौतम गणधर सूत्रबद्ध करते हैं और आगे विकास और विस्तार करते-करते एक से अनेक भाषायें बनती जाती हैं। उन सभी भाषाओं के परिवार को क्षेत्रीय दृष्टि से भाषा वैज्ञानिकों ने बारह परिवारों में विभाजित किया । प्राकृतभाषा के परिवार को 'भारोपीय परिवार' में रखा गया और इस परिवार का भी विभाजन हुआ। क्षेत्रीय दृष्टि से 'आर्यभाषा' और 'आर्यभाषा' में भी स्थान विशेष के कारण शौरसेनी, अर्द्धमागधी, मागधी, पालि, पैशाची, चूलिका आदि नाम दिया गया । अतः भाषा क्षेत्रीय स्वरूप शौरसेनी आदि भी हैं ।
ध्यानरत - साधु
“ये व्याख्यान्ति न शास्त्रं न ददाति दीक्षादिकञ्च शिष्याणाम् । कर्मोन्मूलनशक्त ध्यानरतास्तेत्र साधवो ज्ञेयाः । । ”
(क्रियाकलाप ।। 5 ।। पृष्ठ 143 )
अर्थ:- जो मुनि न व्याख्यान देते हैं, न ही शास्त्र - रचना करते हैं, और न ही शिष्यों को दीक्षा आदि देते हैं; ऐसे कर्मों के विनाश में समर्थ ध्यानलीन (ज्ञानध्यानतपोरक्ता) पुरुषों को 'साधु' जानना चाहिये ।
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महाकवि स्वयंभूकृत 'पउमचरिउ' के 'विद्याधर काण्ड' में विद्याधरों का देश भारत
-श्रीमती स्नेहलता जैन
समाज और संस्कृति का पारस्परिक अटूट सम्बन्ध है । मनुष्य जब अपनी संस्कृति से प्रेरित होकर समाज की उन्नति के लिए कोई कार्य करता है, तो उस कार्य से उसकी सभ्यता के दर्शन होते हैं । इसी तरह संस्कृति और साहित्य का भी अटूट सम्बन्ध है । समाज में रहते हुए साहित्यकार पर भी अपनी संस्कृति का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है, जिसकी अभिव्यक्ति अनायास उसके साहित्य में हो जाती है ।
वही साहित्यकार अपने साहित्य के माध्यम से चिरस्थायी कीर्ति प्राप्त कर सकता है, जो अपने साहित्य को बहुजन हिताय बनाने की चिन्ता से युक्त हुआ सम्पूर्ण सांस्कृतिक परम्परा पर विचार करके सम्पूर्ण समाज को उसके वास्तविक रूप के दर्शन कराने तथा सही मार्ग दिखलाने का दायित्व भी ग्रहण करता है ।
कवि स्वयंभू भी साहित्यकार के दायित्व का निर्वाह करने में पूर्ण समर्थ रहे । यही कारण है कि भारतीय संस्कृति और साहित्य के जाने माने समीक्षक पं० राहुल सांकृत्यायन ने कहा है— “हमारे इसी युग में नहीं, हिन्दी कविता के पाँचों युगों में स्वयम्भू सबसे बड़े कवि थे । वे भारत के एक दर्जन अमर कवियों में से एक थे।" महाकवि स्वयंभू ने अपने 'पउमचरिउ ' के 'विद्याधर काण्ड' में वैदिक और श्रमण - परम्परा के मेल से निर्मित भारतीय सभ्यता व संस्कृति का चित्रण तो किया ही है, साथ ही विभिन्न घटनाओं के माध्यम से इस तथ्य को भी उजागर किया है कि “वैदिक-परम्परा के विभिन्न वर्गों में विभाजित अनुयायियों में परस्पर कितना ही वैमनस्य रहा हो, किन्तु श्रमण-परम्परा के अनुयायियों के साथ इनके मधुर सम्बन्ध थे; साथ ही श्रमण- परम्परा के लोगों द्वारा भी इनके बीच कभी हस्तक्षेप नहीं किया गया । "
यह अकेला 'विद्याधर काण्ड' ही अपने आप में इतना निरपेक्ष है कि इसका पाठक स्वयंभू के समय तक अर्थात् 8वीं शती तक अनवरतरूप से प्रवाहित भारतीय - संस्कृति से अवगत तो होता ही है; साथ ही अपने जीवन को सार्थक बनाने का सामर्थ्य भी पाता है । इस 'विद्याधर काण्ड' में कुल 20 सन्धियाँ है, जिनमें प्रारम्भ की 4 सन्धियाँ 'इक्ष्वाकु
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वंश' से संबंधित है तथा श्रमण-परम्परा का प्रतिनिधित्व करती है। इसके प्रमुख प्रतिनिधि (1) ऋषभजिन, (2) भगवान् बाहुबलि रहे हैं। आगे की 16 सन्धियाँ विद्याधर-वंश से सम्बन्धित हैं। वैसे तो विद्याधर-वंश भी इक्ष्वाकुवंशी ऋषभदेव द्वारा ही स्थापित किया गया है।) इस विद्याधर-वंश से ही श्रेष्ठ व हीनता की भावना से ग्रसित राक्षस एवं वानर-वंशों का उद्भव हुआ। यह विद्याधर-वंश ही अपने समस्त विभाजित वर्गों सहित वैदिक-परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है। इस वैदिक-परम्परा के प्रमुख प्रतिनिधि इन्द्र (दवेन्द्र नहीं), रावण व बालि रहे हैं; जो क्रमश: विद्याधर, राक्षस व वानर वंश का प्रतिनिधित्व करते हैं। ___इन दोनों परम्पराओं के प्रतिनिधियों को भाव या नैतिकता के आधार पर दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम वर्ग में है— ऋषभजिन, बाहुबलि, बालि। दूसरे वर्ग में है— भरत, इन्द्र, रावण।
ऋषभजिन अनेकों विद्याओं के ज्ञाता होते हुए भी अपने शुद्धस्वभाव में स्थित हैं। बाहुबलि व बालि दोनों ही ऐसे विशिष्ट पात्र हैं, जिन्हें स्वचेतना की किंचित् भी परतन्त्रता मान्य नहीं है। प्रत्येक मनुष्य की समानता व स्वतन्त्रता के उद्घोषक इनके मन में सभी के प्रति सम्मानभाव का उदय होता है। ऐसे व्यक्ति वैयक्तिक अभ्युदय के बजाय सर्वोदय के इच्छुक होते हैं तथा सभी तरह के भयों से मुक्त एवं निर्भीक हो तनावमुक्त व शान्तियुक्त जिंदगी जीते हैं। बालि उस वानरवंश' के शक्तिशाली प्रतिनिधि हैं, जिस वंश में बालि के होने से पहले कोई प्रतापी राजा नहीं हुआ था; अत: ये कभी विद्याधर-वंश' के राजाओं से अपमानित होते थे, तो कभी राक्षसवंशी राजाओं की अधीनता में जीते थे। ___दूसरे वर्ग में इन्द्र (एक पृथ्वी का राजा) उस 'विद्याधर वंश' का प्रतिनिधि राजा है, जो इक्ष्वाकुवंशीय राजा से ही आश्रय एवं विद्या ग्रहण कर अपने आपको शक्तिशाली विद्याधर मानने लगा। उसकी इस ही प्रवृत्ति से आभास होता है कि शायद वैदिक-परम्परा में अपने आपको श्रेष्ठ माननेवालों ने 'आर्य' शब्द भी श्रमण-परम्परा से ही ग्रहण किया
धीरे-धीरे इन विद्याधरों में शासन करने की प्रवृत्ति बढ़ती गयी। कुछ समय तक तो ये राजा इस शासन-प्रवृत्ति में सफल रहे; किन्तु आगे राक्षसवंश में रावण के शक्तिशाली होने.पर दोनों में एक-दूसरे को अधीन करने की होड़ लग गयी। वानरवंश में अभी तक कोई इतना शक्तिशाली राजा नहीं था। विद्याधर-वंश व राक्षसवंश चाहते थे कि यह शक्तिहीन वानरवंश उन्हीं के लिए जिये। ___ अब आगे 'विद्याधर काण्ड' में कवि स्वयंभू द्वारा निर्दिष्ट उन सभी घटनाचक्रों का उल्लेख करने का प्रयास किया जा रहा है, जिससे अपने भारत देश की संस्कृति से परिचित होकर उसको अधोगामी होने से रोक सकें तथा उन्नयन में योगदान दे सकें।
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'विद्याधर काण्ड' में भरतक्षेत्र की श्रमण-परम्परा
इक्ष्वाकुवंश के नायक ऋषभजिन को केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद उनके पुत्र भरत को चक्ररत्न प्राप्त हुआ। उसके द्वारा सबको अपने अधीन सिद्ध कर लेने के बाद भरत की अधीनता मात्र स्वाभिमानी बाहुबलि ने स्वीकार नहीं की । भरत ने जब बाहुबलि से आज्ञा मनवाने हेतु अपने दूत भेजे, तो बाहुबलि ने दूत को अपमानित कर तथा गरजकर कहा – “एक पिता की आज्ञा स्वीकार की थी, दूसरी आज्ञा स्वीकार नहीं की जा सकती । प्रवास करते समय परम जिनेश्वर ने जो कुछ भी विभाजन करके दिया है, वही हमारा सुखनिधान शासन है; ना ही मैं लेता हूँ, ना ही देता हूँ।” इससे भरत व बाहुबलि में युद्ध हुआ। युद्ध में बाहुबलि विजयी हुये । अन्त में भरत बाहुबलि के पास जाकर बोले—“धरती तुम्हारी है, मैं तुम्हारा दास हूँ ।" यह सुनते ही बाहुबलि को वैराग्य उत्पन्न हो गया ।
प्रारम्भ की 4 संधियों के बाद श्रमण परम्परा की एक और घटना का उल्लेख चौदहवीं संधि में मिलता है, जिसमें राक्षसवंशी राजा रावण द्वारा विद्याधरराज इन्द्र के प्रति युद्ध में में प्रयाण करते समय इक्ष्वाकुवंशी सहस्रकिरण की जलक्रीड़ा से रावण की पूजा विघ्न पड़ जाता है । विघ्न को लेकर रावण व सहस्रकिरण के बीच हुए युद्ध में सहस्रकिरण रावण द्वारा बन्दी बना लिया जाता है; तभी जंघाचरण मुनि द्वारा अपने पुत्र सहस्रकिरण को मुक्त करने के लिए कहने पर रावण ने यह कहते हुए शीघ्र ही मुक्त कर दिया कि “मेरा इनके साथ किस बात का क्रोध ? केवल पूजा को लेकर हम में युद्ध हुआ था । आज भी प्रभु हैं। "
ये
'विद्याधर काण्ड' में भरतक्षेत्र की वैदिक-परम्परा
प्रारम्भ में तीनों वंशों विद्याधरों में 'विद्याधर वंश' के राजा सबसे अधिक शक्तिशाली थे। वानरवंश के विद्याधरों में बालि जैसे शक्तिमान राजा के होने से पूर्व तक 'वानरवंश' व 'राक्षसवंश' में मैत्री व प्रेम के सम्बन्ध रहे हैं । 'विद्याधर वंश' के साथ हुये युद्ध में 'राक्षसवंश' ने 'वानरवंश' का साथ दिया है । जैसे—
1. विद्याधर 'विद्यामंदिर' की कन्या 'श्रीमाला' ने जब विद्यमान सभी विद्याधरवंशी राजाओं को छोड़कर वानरवंश के 'किष्किन्ध' को माला पहना दी, तो विद्याधरवंश का 'विजयसिंह' भड़क उठा कि "श्रेष्ठ विद्याधरों के मध्य वानरों को प्रवेश क्यों दिया गया, अत: वर को मार वानरवंश की जड़ उखाड़ दो।" यह सुन वानरवंशीय राजा 'अन्धक' ने ललकारा— "तुम विद्याधर और हम वानर, यह कौन - सा छल है।" तब इन दोनों वंशों के बीच हुए इस युद्ध में राक्षसवंश का राजा 'सुकेश' वानरवंश की तरफ से लड़ा। जब युद्ध में विद्याधर 'भिन्दपाल' से आहत होकर 'किष्किन्ध' मूच्छित हो गया, तो 'सुकेश' किष्किन्ध को लेकर अपने साथ पाताललोक गया । 'विद्याधर वंश' के 'विद्युत्-वाहन' ने 'किष्किन्ध' व 'सुकेश' के नगर प्रमुखों का अपहरण कर वहाँ के विद्याधरों को अपने
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अधीन बना लिया। ___ 2. कुछ समय बाद राक्षसवंश में भी सुकेश-पुत्र 'माली' शक्तिशाली शासक हुआ। सुकेश द्वारा माली को यह बताने पर कि “लंका-नगरी विद्याधरों द्वारा हमने छीन ली गयी है, चारों और दुश्मनों की शंका है, कहाँ जायें?" यह सुन माली प्रदीप्त हो उठा और उसने विद्याधरराज निधति' को मारकर पुन: लंका पर अपना आधिपत्य कर लिया और सभी विद्याधरों को भी अपने अधीन कर लिया।
3. विद्याधरवंश में राजा सहस्रार के शक्तिशाली ‘इन्द्र' नामक पुत्र हुआ। इन्द्र के शक्तिशाली होने पर माली के अधीनस्थ विद्याधर पुन: इन्द्र से जाकर मिल गये। इन्द्र के साथ हुये युद्ध में वानरवंशी राजाओं ने माली का साथ दिया। युद्ध में माली के अस्त्र विफल होने पर विद्याधरवंशी इन्द्र अपने आपको दव' सम्बोधित करते हुए मालि से कहता है—“अरे मानव ! क्या देव के दानव (राक्षसवंश) टिक सकते हैं?" तभी मालि ने कहा—“तुम कौन से देव हो, तुमने तो केवल इन्द्रजाल सीखा है।" इस युद्ध में विद्याधरराज इन्द्र विजयी हुआ और पुन: लंका पर अधिकार कर लिया।
4. फिर राक्षसवंश में रावण सबसे अधिक शक्तिशाली शासक सिद्ध हुआ। उसने विद्याधरों को आहत कर पुन: लंका पर अपना आधिपत्य कर लिया। रावण के होने से अब राक्षसवंश विद्याधरवंश की तुलना में अधिक बलशाली हुआ।
5. पुन: वानरवंशी 'किष्किन्ध' के बेटों के साथ विद्याधर 'यम' के द्वारा हुये युद्ध में रावण ने वानरवंशियों का साथ देकर यम के साथ युद्ध किया। विद्याधरों को पराजित तो किया ही साथ ही, यम ने अपनी नगरी में बहुत से लोगों को सन्त्रस्त कर रखा था, उनको भी मुक्त करवाया तथा किष्किन्ध के बेटों को पुन: 'किष्किन्धपुरी' दिलवायी।
6. आगे कुछ समय पश्चात् वानरवंश में उत्पन्न हुये बालि ने अब तक की राक्षसों के अधीन वानरों की रहने की जो परम्परा थी, वह तोड़ दी और उसने अपना अलग ही अस्तित्व बनाया, जिससे रावण ने आशंकित हो बालि से युद्ध किया। युद्ध में बालि की अभूतपूर्व विजय हुई। रावण ने बालि की वन्दना कर अपनी स्वयं की निन्दा भी की। बालि के द्वारा श्रमणदीक्षा अंगीकार कर लिए जाने पर पुनः वानरवंश राक्षसवंश के अधीन हो गया।
वैसे तो विद्याधर काण्ड' की कथा का निरपेक्षरूप यहीं समाप्त हो जाता है। मात्र आगे तो शुरू होने वाली रामकथा के लिए हनुमान नामक पात्र को लाया गया है और यह भी संकेत दिया गया है कि जिस हनुमान ने अभी तक रावण के पक्ष में रहकर जिस पराक्रम से विद्याधरवंशी राजाओं से युद्ध किया, वही हनुमान आगे राम के पक्ष में रहकर रावण के साथ युद्ध करेगा।
इसप्रकार इक्ष्वाकुवंश चार सन्धि के बाद आगे का पूरा विद्याधर काण्ड' एक ही मूल
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से उद्भूत विद्याधर, वानर, और राक्षसवंश के विद्याधर राजाओं की परम्परा, ईर्ष्या, प्रीति, प्रतियोगिता, पारिवारिक कलह एवं युद्धों से भरा हुआ है। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि ये चाहे परस्पर कितना ही लड़े हों, किन्तु इन तीनों का ही इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं से किसी भी बात को लेकर आमना-सामना नहीं हुआ; बल्कि श्रमण-संस्कृति के प्रति इनका आदर-सम्मान का भाव ही रहा है । श्रमण परम्परा के अनुयायी भी अपने मूल सिद्धान्तों का पालन करते हुए अपनी बौद्धिक स्वतन्त्रता को कायम रखते हुए उदारवादी दृष्टिकोण से सम्पूर्ण मानव समाज के साथ रहते आये हैं ।
इस तरह इस महाकवि स्वयंभू ने भरतक्षेत्र की वैदिक एवं श्रमण परम्परा रूप दोनों धाराओं से निर्मित भारतीय संस्कृति का स्वरूप बताते हुए यह 'विद्याधरकाण्ड' रचा है। पउमचरिउ के विद्याधरकाण्ड के राजाओं की वंशावली
:―
1. इक्ष्वाकुवंश: – 14 कुलकर (प्रतिश्रुत, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमन्धर, सीमंकर, सीमन्धर, चक्षुष्मान्, यशस्वी, विमलवाहन, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभिराज), ऋषभजिन, भरत, बाहुबलि, धरणीधर, त्रिरथजय, जितशत्रु, जयसागर, सगर, भीम, भगीरथ, मुनि जंघाचरण, सहस्रकिरण, अणरण्य, अनन्तरथ और दशरथ ।
2. विद्याधरवंशः— नमि, विनमि, पूर्णधन, मेघवाहन, सुलोचन, सहस्रनयन, , विद्यामन्दिर, विजयसिंह, अशनिवेग, भिन्दपाल, विद्युद्वाहन, सहस्रार, इन्द्र, यम, धनद, चन्द्रोदर, वैश्रवण, खरदूषण, विराधित, ज्वलनसिंह, महेन्द्र, प्रह्लाद, पवनजंय और हनुमान ।
3. राक्षसवंश: - भीम, सुभीम, तोयदवाहन, महारक्ष, देवरक्ष, कीर्तिधवल, तडित्केश, सुकेश, श्रीमाली, सुमालि माल्यवन्त, रत्नाश्रव, दशानन, भानुकर्ण, विभीषण, इन्द्रजीत, मेघवाहन, हस्त, प्रहस्त एवं अक्षय कुमार ।
4. वानरवंशः– श्रीकंठ, वज्रकण्ठ, इन्द्रायुध, इन्द्रमूर्ति, मेरु, समुन्दर, पवनगति, रविप्रभ, अमरप्रभ, कपिध्वज, प्रतिबल, नयनानन्द, खेचरानन्द, गिरिनन्दन, उदधिरथ, प्रतिचन्द्र, किष्किन्ध, अन्धक, ऋक्षुराज, सूररज, नील, नल, बाली, सुग्रीव, जाम्बवंत, शशिकरण, अंग और अंगद ।
सन्दर्भ – हिन्दी काव्यधारा, राहुल सांकृत्यायन, पृ० 50 (किताब महल, इलाहाबाद ) ।
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सर्वज्ञता का सुप्रभाव
“ तुह वयणं चिय साहइ, णूणमणेगंतवाय विहड पहं । तह हिदय-पयासयरं, सव्वण्णूत्तमप्पणो णाण । । ”
- (उसहदेव थुदि, 33 )
अर्थ:- हे भगवान् वृषभदेव ! आपके दिव्यध्वनि - प्रसूत वचन वर्गणा ही निश्चय से अवश्य ही 'अनेकांतवाद' के विकट पथ को सिद्ध करते हैं तथा हे वृषभनाथ ! आपका स्वयं का सर्वज्ञत्व हृदय-कमल को प्रकाशित करनेवाले सूर्य के समान है ।
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एक क्रांति का जनक : लुइ ब्रेल
चार जनवरी 1809 को फ्रांस में 'लुई ब्रेल' का जन्म हुआ। उनके पिता घोड़े पर रखी जाने वाली जीन व चमड़ों की सिलाई का काम करते थे। लुई ब्रेल जब तीन वर्ष के थे, वे एक दिन खेलते-खेलते अपने पिता के पास पहुँच गये। उनके पिता अपने काम में मशगूल थे। लुई ब्रेल सुओं से खेलने लगे। अचानक एक सुआ उनकी आँख में घुस गया, जिससे उनकी आँखें लहुलुहान हो गईं। उन्हें डॉक्टर के पास ले जाया गया, पर तब तक काफी देर हो चुकी थी; उनकी एक आँख खराब हो गई थी। लुई ब्रेल के पिता को गहरा आघात लगा। वे उनकी आँख का इलाज कराते रहे, पर कुछ वर्षों बाद लुई ब्रेल की दूसरी आँख से भी रोशनी खत्म हो गई। वे इस विपत्ति से विचलित हो उठे थे। अंत में उन्होंने संकल्प लिया कि लुई ब्रेल को अपाहिज नहीं होने देंगे। उन्होंने लुई ब्रेल को पढ़ाने का काम शुरू किया। उस समय दृष्टिहीनों को पढ़ाने के लिए प्लास्टिक व लकड़ी के बने बड़े अक्षरों से शिक्षा दी जाती थी। वह एक अवैज्ञानिक तरीका था। इससे दृष्टिहीन अल्पज्ञान ही प्राप्त कर सकते थे। ___ लुई ब्रेल ने कुछ दिनों शिक्षा प्राप्त की। लुईब्रेल के सोचने की क्षमता बेमिसाल थी। वे हर वक्त कुछ न कुछ सोचा ही करते थे। एक दिन वे बैठकर कुछ कर रहे थे, तो उनके हाथ एक पेपर व पिन आ गया। पिन को हाथ में लेकर वे कुछ सोचने लगे. अचानक उक्त पेपर में वह पिन चुभ गई। जब लुई ब्रेल ने उक्त पिन को पेपर से निकालना चाहा, तो पेपर उलट गया और जिस जगह वह पिन चुभी थी, वहां एक उभार बन गया। लुई ब्रेल की जिज्ञासा बढ़ गई। उन्होंने इस पेपर पर कई जगह पिन चुभोई और उसके उभारों को महसूस किया। इन्हीं उभारों से उन्हें एक सिद्धांत मिल गया। उसी समय लुई ब्रेल ने उभारों के सहारे दृष्टिहीनों के लिए लिपि बनाने की बात सोची। इस काम को कैसे आगे बढ़ाया जाए, इसी उधेड़बुन में वे लगे रहते थे। ___ एक दिन एक रिटायर्ड फौजी अधिकारी चार्ल्स बार्बियर से लुई ब्रेल की मुलाकात हुई। लुई ब्रेल ने चार्ल्स बार्बियर को अपनी योजना के बारे में बतलाया। चार्ल्स ने कहा हमारी सेना ने भी कुछ इसी तरह की लिपि बनाई है। सैनिकों को संदेश भेजने के लिए इस लिपि का इस्तेमाल होता है। सैनिक अंधेरे में भी संदेशों को पढ़ सकें, इसलिये हाथ
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के सहारे पढ़ी जाने वाली लिपि की मदद ली जाती थी। चार्ल्स ने बतलाया इस लिपि में 12 बिंदु होते हैं। इन्हीं 12 बिंदुओं के माध्यम से संकेत दिये जाते हैं।
लुई को चार्ल्स बार्बियर की बातों से काफी राहत मिली। लुई ब्रेल ने उन बारह बिंदुओं के सहारे ब्रेल लिपि' बनाने की सोची, पर उन्हें यह हिचकिचाहट हुई कि 12 बिंदु बहुत ज्यादा होते हैं। काफी विचार करने के बाद लुई ब्रेल ने 6 बिंदुओं के माध्यम से लिपि बनाने का संकल्प किया। उन्होंने 6 बिंदुओं को 63 आकार दिये। लुई ब्रेल ने जब ब्रेल लिपि का आविष्कार किया, उस समय वे शिक्षक के रूप में काम कर रहे थे। उन्होंने सबसे पहले अपने विद्यालय में ही इस लिपि से बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। इस लिपि को मान्यता देने के लिए उन्होंने सरकार से आग्रह किया। इसके बाद ब्रेल में स्लेटें बननी शुरू हुईं, किताबें बनी। इसके बाद इस लिपि का धीरे-धीरे पूरे विश्व में प्रसार हुआ। लुई ब्रेल एक कर्मठ व्यक्ति थे। अपना मिशन पूरा करने में उन्होंने अपने स्वास्थ्य पर भी ध्यान नहीं दिया। फलस्वरूप उन्हें टी०बी० हो गयी। 1852 में लुईब्रेल का निधन हो गया।
एकेन्द्रियों की परिग्रह-संज्ञा 'वनशब्देन च धवादीनां'
-(आप्तपरीक्षा, स्वोपज्ञ 5, पृष्ठ 31) अर्थ:- वन शब्द से धव, पलाश आदि अनेक वृक्षादि पदार्थों के समूह का ज्ञान होता
'धव' वृक्ष निधि को पकड़ता है —ऐसी मान्यता है
'न' धवस्य अप्राप्तनिधिग्राहिण उपलम्भात् । अलाबू वलयादीनामप्राप्तवृत्तिवृक्षादि ग्रहणोपलम्भात् ।। -(धवला वग्ग०, 5/5/24, पृष्ठ 220)
अर्थ:- नहीं, क्योंकि धव वृक्ष अप्राप्त निधि को ग्रहण करता हुआ देखा जाता है और तूंबडी की लतादि अप्राप्त बाडी व वृक्ष आदि को ग्रहण करती हुई देखी जाती है। इससे शेष चार इन्द्रियाँ भी अप्राप्त अर्थ को ग्रहण कर सकती हैं, यह सिद्ध है।
-(धव कातन्त्र, पृष्ठ 354, द्वितीय खण्ड) यह एक विचित्र संयोग है कि वृक्ष एकेन्द्रिय होते हुए भी 'परिग्रहसंज्ञा' के प्रभाव से धन-सम्पत्ति को पकड़ता है। प्रतीत होता है कि संभवत: ऐसे ही संस्कारों के प्रभाव से संज्ञी-पंचेन्द्रिय 'त्यागी-व्रती' पदधारी होकर भी आज जीवों की परिग्रह को पकड़ने (संग्रह करने) की प्रवृत्ति छूट नहीं रही है। बल्कि संज्ञी पंचेन्द्रियत्व के प्रभाव से वे विरक्त-पद पर होते हुए भी परिग्रह-संग्रह के अवसर एवं बहाने खोजकर अपेक्षाकृत अन्य जीवों के अधिक परिग्रह-संचय में लगे हुए हैं।
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जैन वाङ्मय में द्रोणगिरि
-डॉ० लालचन्द जैन जैन मनीषियों ने विभिन्न कालों तथा विभिन्न (तत्कालीन प्राकृत, संस्कृति आदि) भाषाओं में प्रचुर साहित्य-सृजन कर भारतीय साहित्य-भंडार को समृद्ध किया। उक्त साहित्य का आलोकन करने से सोनागिरि, पपौरा, आहार, खजुराहो, कुण्डलपुर, नैनागिरि रिशंदीगिरि) द्रोणगिरि आदि बुन्देलखण्ड के पवित्र तीर्थों का इतिहास और तत्संबंधी महत्त्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी होती है। 'द्रोणगिरि' एक ऐसा पावन क्षेत्र है, जिसे गुरुदत्त आदि मुनिराजों ने विहार कर यहाँ के कण-कण को अपने चरणरज से पवित्र किया। यहीं पर साधना कर तथा भयंकर उपसर्ग सहन कर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया और अंत में अघातिया कर्मों का निर्मूल क्षय करके मुक्त हुए। इस कारण द्रोणगिरि 'सिद्धक्षेत्र' के नाम से विश्व-विश्रुत है।
इसप्रकार के धर्मप्रेरणा के स्रोत तथा 28 कलात्मक जिन-मन्दिरों से युक्त द्रोणगिरि के संबंध में प्रचुर सामग्री उपलब्ध नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द, शिवार्य, पूज्यपाद, हरिषेण, श्रुतसागर सूरि प्रभृति मनीषी सन्तों की कृतियों में द्रोणगिरि-संबंधी इतिहास और संस्कृति की स्वल्प जानकारी मिलती है। फलत: यहाँ उनका विश्लेषण करना अपेक्षित है। __ 1. आचार्य कुन्दकुन्द :- द्रोणगिरि-शिखर का उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द (ई० सन् प्रथम शताब्दी) कृत 'निर्वाण-भक्ति' की निम्नांकित गाथा में सर्वप्रथम हुआ है :
"फलहोडी-वरगामे पच्छिम-भायम्मि दोणगिरि-सिहरे।
गुरुदत्ताइ-मुणिंदा णिव्वाण-गया णमो तेसिं ।। 14 ।।" उक्त गाथा में निम्नांकित तथ्य प्रस्तुत किये गये हैं:(i) प्राचीनकाल में ‘फलहोडी' नामक ग्राम आसपास के सभी ग्रामों से श्रेष्ठ था। (i) उस ‘फलहोडी ग्राम' के पश्चिम दिशा की ओर 'द्रोणगिरि' नामक पर्वत था। (iii) उसके शिखर से 'गुरुदत्त' आदि मुनियों को निर्वाण की प्राप्ति हुई थी।
उक्त गाथा अन्य निर्वाण-काण्डों में भी उपलब्ध है। इसका संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद भी गाथानुरूप किया गया है। यथा
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“फलहोडी बड़ग्रामे पश्चिमभागे द्रोणगिरिशिखरे । निर्वाणगता: नमस्तेभ्यः । ।
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गुरुदत्तादि-मुनिंद्रा :
“फलहोडी बड़गाम अनूप, पश्चिम दिशा द्रोणगिरिरूप । गुरुदत्तादि मुनीसुर जहाँ, मुक्ति गये वन्द नित तहाँ ।।
"
2. आचार्य शिवार्य :- प्रथम शताब्दी के आचार्य शिवार्य की 'भगवती आराधना'
नामक ग्रन्थ में कहा गया है :
“हत्यिणापुर गुरुदत्त संबलियाली व दोणिमंतम्मि । उज्झतो अधियासिम पडिवण्णो उत्तमं अट्ठ ।।”
आचार्य शिवार्य की उक्त गाथा से फलित होता है कि(क) गुरुदत्त मुनि हस्तिनापुर के रहने वाले थे।
I
(ख) 'संबलिथाली' की तरह अर्थात् जिस तरह एक बर्तन में उड़द की फलियाँ भरकर उसे आक के पत्रों से ढँककर और उसके मुख को नीचे की ओर करके और चारों ओर से आग लगाकर पकाया जाता है, उसीप्रकार रुई से लपेटकर मुनि गुरुदत्त के मस्तक पर आग लगा दी गई थी। उसे जली हुई अग्नि की वेदनारूपी उपसर्ग सहने कर ‘द्रोणीमंत' पर्वत से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई थी।
(ग) शिवार्य ने 'द्रोणगिरि शिखर' को 'द्रोणिमंत' कहा है। ऐसा कहकर भ्रम हो जाना स्वाभाविक है कि 'द्रोणिगिरि' और 'द्रोणिमंत' दोनों भिन्न हैं या अभिन्न ? – इस संबंध में आगे चिन्तन किया जायेगा ।
(घ) आचार्य शिवार्य ने आ० कुन्दकुन्द की तरह 'द्रोणिमंत पर्वत' की स्थिति का उल्लेख नहीं किया ।
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3. आचार्य पूज्यपाद ई० सन् पांचवीं शताब्दी के सर्वमान्य आचार्य ने पूज्यपाद संस्कृत भाषा में भक्तियों की रचना की है। उन्होंने 'निर्वाण - भक्ति' में 'द्रोणिमति पर्वत'. से मुक्त हुए अनेक मुनिराजों को नमस्कार किया है। 1
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पूज्यपाद 'द्रोणिमंत पर्वत' की स्थिति के संबंध में तो मौन हैं ही, वे इस संबंध में भी मौन हैं कि कौन-कौन से विशिष्ट मुनि किस प्रकार उक्त पर्वत से मुक्त हुए ? दूसरे शब्दों में कुन्दकुन्द और शिवार्य की तरह गुरुदत्त मुनि के उक्त पर्वत से मुक्त होने का उल्लेख न करके उन्होंने मात्र यहाँ से मुक्त होने वाले मुनियों को नमस्कार किया है।
4. आचार्य हरिषेण :― ई० सन् 10वीं शताब्दी के आचार्य हरिषेण के द्वारा ‘अनुष्टुप् छन्द’ में संरचित 'बृहत्कथा कोश" के 'गजकुमार कथानकम्' में बतलाया है कि हस्तिनापुर के राजा विजयदत्त और रानी विजया के पुत्र गुरुदत्त का विवाह लाटदेश के पूर्वोत्तर दिशा भाग में 'तोणिमद् भूधर" नामक पर्वत के समीप स्थित चन्द्रपुरी के राजा चन्द्रकीर्ति एवं चन्द्रलेखा की अभयमती नामक कन्या से हुआ था । चन्द्रपुरी के लोगों द्वारा
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यह बतलाये जाने पर कि 'तोणिमत्' पर्वत की गुफा में स्थित भयंकर सिंह के उपद्रव से सभी लोग दु:खी हैं, गुरुदत्त सेना समुदाय के साथ तोणिमत् पर्वत गया और गुफा के मुख- पर्यन्त तृणादि भरकर उसमें आग लगा दी, जिसके फलस्वरूप वह सिंह गुफा के अन्दर मर गया और उसी नगर के एक ब्राह्मण के यहाँ कपिल नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। गुरुदत्त राजा कालान्तर में जैन - दीक्षा लेकर मुनि हो गये । विहार करते हुए वे 'तोणिमत् पर्वत' पर आये। जब वे ध्यानस्थ थे, तो कपिल ने भ्रम से क्रोधित होकर पैरों से लेकर मस्तक - पर्यन्त रुई लपेटकर उनके मस्तक में आग लगा दी । उन्होंने उस उपसर्ग को धैर्यपूर्वक सहन किया; जिसके परिणामस्वरूप उन्हें केवलज्ञान हो गया। इस कथानक से स्पष्ट है कि — (i) गुरुदत्त कुरुवंशी हस्तिनापुर के राजा थे । (ii) वृहत्कथाकोश में पाँच स्थलों पर तोणिमत् पर्वत का उल्लेख हुआ, जो लाटदेश में चन्द्रपुरी के पश्चिम-दक्षिण में स्थित था । इसी पर्वत में स्थित गुफा में एक सिंह रहता था। (iii) गुरुदत्त ने मुनि - दीक्षा लेकर आग की दहन - वेदना रूप उपसर्ग सहन करके तोणिमत पर्वत पर केवली हुए थे ।
5. प्रभाचन्द्र : - - डॉ० नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य के अनुसार ई० सन् 11वीं शताब्दी के आचार्य प्रभाचन्द्र ने संस्कृत भाषा में गद्यमय 'कथाकोश' की रचना की थी।' इसमें आई 'हस्तिनागपुर-गुरुदत्त' नामक कथा का कथानक 'वृहत्कथाकोश' का अनुगामी है । विशेषता यह है कि हरिषेण ने जिसे 'द्रोणिमद् पर्वत' कहा है, प्रभाचन्द्र ने उसे 'द्रोणीपर्वत' और 'द्रोणीमति पर्वत' कहा है । '
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6. ब्रह्मचारी श्री नेमिदत्त :- वि० की 16वीं शती के कवि भट्टारक मल्लिभूषण के शिष्य तथा नेमिनाथ, श्रीपालचरित, आराधनाकोश आदि 12 ग्रन्थों के रचयिता ब्र०
मदत्त ने 'गुरुदत्त मुनि की कथा' नामक शीर्षक का कथानक 'वृहद्कथाकोश' की तरह है।" लेकिन इसमें 'द्रोणिपर्वत' के स्थान पर 'द्रोणीमान' पर्वत का उल्लेख किया गया है। इसके अलावा शेष संबंधित तथ्य हरिषेण की तरह बतलाये गये हैं ।
तोणि, तोणिमत, द्रोणिमंत, द्रोणिमति, द्रोणी आदि शब्दों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि इनमें केवल शब्दों का अंतर है, वास्तविक नहीं। पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने 'द्रोणिमंत' का अनुवाद ‘द्रोणगिरि’ किया है । इसीप्रकार डॉ० ए०एन० उपाध्ये ने 'तोणि' या 'तोणिमत' को 'द्रोणगिरि' का वाचक माना है । अतः उक्त शब्द 'द्रोणगिरि' से अभिन्न हैं ।
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7. आचार्य श्रुतसागर सूरि वि०सं० 16वीं शताब्दी के बहुश्रुत विद्वान् आचार्य श्रुतसागर सूरि ने 'बोधपाहुड' की 27वीं गाथा की टीका में अन्य तीर्थ पर्वतों के साथ 'द्रोणीगिरि' पर्वत का उल्लेख करते हुए उसकी वन्दना करने की प्रेरणा प्रदान की है। श्रुतसागर सूरि ने 'द्रोणगिरि' को 'द्रोणीगिरि' कहा है; किन्तु आ० पूज्यपाद की तरह इससे संबंधित तथ्यों के संबंध में वे भी मौन हैं।
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गुणकीर्ति 15वीं शती के मराठी भाषा के कवि हैं । इन्हें
8. गुणकीर्त गृहस्थावस्था में गुणदास नाम जाना जाता था । 'धर्मामृत' नामक प्राचीनतम गद्यमय लिखित ग्रन्थ में यद्यपि द्रोणगिरि पर्वत और गुरुदत्त मुनि का उल्लेख नहीं किया गया है, किन्तु 'फलहोडि ग्रामि आहूढ कोडि सिद्धासि नमस्कुरु माझा । ' कहकर 'फलहोडि ग्राम' से मुक्त हुए 82 करोड़ सिद्धों को नमस्कार किया गया है। यहाँ 'फलहोडि ग्राम' का निहितार्थ 'फलोडि ग्राम' के समीप स्थित 'द्रोणगिरि पर्वत' ही है ।
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9. चिमणाथं 16वीं शताब्दी के मराठी कवि और भ० अजयकीर्ति के शिष्य पं० चिमण ने 'तीर्थवन्दना' नामक ग्रन्थ में 'बड़ग्राम' नामक प्रसिद्ध ग्राम के पश्चिम दिशा में स्थित और कैलाश पर्वत की तरह द्रोणगिरि पर्वत से गुरुदत्त मुनि के सिद्ध होने का उल्लेख कर आचार्य कुन्दकुन्द का अनुकरण किया है।
उपर्युक्त विवेच्य साहित्य के विश्लेषण करने के पश्चात् कहा जा सकता है कि—(क) उक्त साहित्य में द्रोणगिरि, द्रोणिमंत, द्रोणिमति, द्रोणीगिरि, तोणिमत, द्रोणी पर्वत, द्रोणीमति और तोणिमतभूधर शब्दों के प्रयोग 'द्रोणगिरि' नामक पर्वत के वाचक के रूप हुए हैं।
(ख) द्रोणगिरि से गुरुदत्त आदि मुनिराजों को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इसकारण यह सिद्ध तीर्थक्षेत्र के रूप में विश्रुत है ।
(ग) द्रोणगिरि (पर्वत) की स्थिति के संबंध में दो प्रकार की विचारधारा आई हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'द्रोणगिरि' को 'फलहोडी' नामक ग्राम के पश्चिम में बतलाया है। गुणकीर्ति और चिमण पंडित ने कतिपय अंशों में कुन्दकुन्द से सहमति प्रकट की है। चिमण पंडित बड़ग्राम के पश्चिम में 'द्रोणगिरि' को मानते हैं । संभव है 16वीं शताब्दी में 'फलहोडी बड़ग्राम' के रूप में प्रसिद्ध हो गया हो। क्योंकि 'फलहोडी ग्राम' आसपास के 400 ग्रामों से बड़ा सर्वश्रेष्ठ था । आप्टे ने संस्कृत - हिन्दी कोष में 'द्रोण' शब्द का अर्थ 400 ग्रामों का 'प्रधान नग' भी बतलाया है। लेकिन आजकल 'फलहोडी' नामक ग्राम नहीं है। दूसरी बात यह है कि 'फलहोडीवर' ग्राम के बदले चिमड़ पंडित के 'बड़ग्राम' के प्रयोग के देखने से प्रतीत होता है कि छन्द-रचना के कारण 'फलहोडी' शब्द का लोप हो गया और उच्चारण-भेद के कारण शेष 'वरग्राम' बड़ग्राम के रूप में प्रसिद्ध हो गया ।
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यह भी सम्भावना की जा सकती है कि कालान्तर में 'फलहोडी ग्राम' उजड़ गया हो और बाद में सेंधपा' (पहाड़ों की निचली भूमि) नामक ग्राम बसाया गया हो और ऐसा होना असम्भव भी नहीं है ।
दूसरी ओर हरिषेण, प्रभाचन्द्र और ब्र० नेमिदत्त कथाकारों की मान्यता है कि 'द्रोणगिरि पर्वत' लाट देश की चन्द्रपुरी के दक्षिण-पश्चिम में स्थित था । प्राचीन 'लाट 'देश' वर्तमान में 'गुजरात' के नाम से प्रसिद्ध है । लेकिन वहाँ न तो कोई 'द्रोणगिरि' नामक पर्वत है और न ही इस नाम वाला कोई तीर्थक्षेत्र है ।
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ग्राम
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चार्ट – 1- द्रोणगिरि-दिग्दर्शन क्र० आचार्य नाम | समीपस्थ ____दिशा | पर्वत नाम | सिद्धहस्त मुनि केवलज्ञान उपसर्ग
विशेष . ग्राम
प्राप्त किया 1. | आ० कुन्दकुन्द| फलहोडी पर्वत के द्रोणगिरि | गुरुदत्त आदि
निर्वाण प्राप्त किया पश्चिम शिखर | मुनि 2. | आ० शिवार्य
दोणिमंत | हस्तिनापुर के
अग्नि-ज्वाला के | उत्तमार्थ (मोक्ष) गुरुदत्त मुनि
दाहरूप उपसर्ग प्राप्त किया
सहन कर 3. | आ० पूज्यपाद दोणिमति | अनेक मुनि
मुक्त हुए 4. | श्रुतसागर सूरि द्रोणिगिरि
कर्मक्षय कर मुक्त हुए 5. | गुणकीर्ति फलहोडि ग्राम
आहूढ कोडि
सिद्ध हुए 6. | चिमण पंडित | बड़ग्राम | पश्चिम दिशा द्रोणगिरि | गुरुदत्त मुनि 7. आ० हरिषेण | लाट देश | पूर्वोत्तर दिशा तोणिमद्भूधर| गुरुदत्त मुनि | केवलज्ञान | अग्नि-ज्वाला की की चन्द्रपुरी| भाग में
प्राप्त किया | वेदना को सहनकर आ० प्रभाचन्द्र
द्रोणी पर्वत
द्रोणीमति पर्वत 9. | ब्र० नेमिदत्त
द्रोणीमान
४.
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'फलहोडी' और 'फलोदी' शब्दों में कतिपय समानता मानकर पं० नाथूराम प्रेमी ने राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम में स्थित फलौदी' को ‘फलहोडी' माना है। डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी उनके इस मत से सहमत नहीं हैं; क्योंकि फलौदी में श्वेताम्बर आम्नाय का पार्श्वनाथ भगवान् का मंदिर तो है, लेकिन न तो यहाँ कोई द्रोणगिरि नामक पहाड़ है
और न यह सिद्धक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है। दूसरी बात यह है कि जिस शेर की गुफा के होने का उल्लेख हरिषेण आदि ने किया वह संधपा' के सन्निकट वाले पर्वत पर अभी भी है। उपर्युक्त मतैक्य के कारण प्राचीन द्रोणगिरि की स्थिति सुनिश्चित नहीं होती है, तो क्या यह मान लिया जाये कि प्राचीन सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरि का लोप हो गया है? ___इस संबंध में मेरी मान्यता है कि उक्त तीर्थ का लोप मानना न तो उचित है और न तर्कसंगत। क्योंकि 'द्रोणगिरि' विन्ध्याचल नामक पर्वत की एक श्रेणी है, जिसका उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्य में मिलता है। दूसरी बात यह है कि इसे सिद्धक्षेत्र के रूप में ख्याति कम से कम 2500 वर्ष पूर्व अवश्य प्राप्त हुई होगी। इतने लम्बे अन्तराल में तत्कालीन ग्रामों का नाम परिवर्तन और खंडहरों में बदलना असंभव नहीं है। इसी संभावना के आधार पर कहा जा सकता है कि 'फलहोडी ग्राम' कालान्तर में वीरान हो गया होगा और उसके नष्ट हो जाने पर सेंधपा' नामक ग्राम बसाया गया होगा। डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी' छतरपुर ने भी लिखा है “द्रोणगिरि पर्वत के प्रवेश द्वार के बायीं ओर पर्वत तलभाग से बिल्कुल लगा हुआ महलन बाबा के महल का खंडहर अब भी वर्तमान है। जिसके आसपास और भी ऐसे ध्वंसावशेष हैं, जिससे अनुमान होता है कि यही 'फलहोडी गाँव' होगा। जिसके मुखिया इस महल के वासी महलन बाबा' रहे होंगे। उजड़ जाने पर 'सेंधपा' बसाया गया होगा।""
‘लघु सम्मेद शिखर : द्रोणगिरि' के लेखक कमलकुमार जैन ने भी माना है कि "द्रोणगिरि पर्वत की पूर्व दिशा में लगभग एक फर्लाग दूर चलने पर एक प्राचीन ग्राम के अवशेष प्राप्त होते हैं, जो गाथा वर्णित फलहोडी ग्राम ही है। ग्राम के अवशेषों, भवनों की आधार भूमि (नीव) आदि देखने से निश्चितरूप से कहा जाता है कि 'फलहोडी ग्राम' बड़ा था, और कालान्तर में उजड़ जाने के कारण निकट में सेंधपा' नामक ग्राम बस गया।" ___अत: गुरुदत्तादि मुनियों की सिद्धभूमि के रूप में छतरपुर जिले में स्थित और भक्तों की आस्था तथा श्रद्धा का केन्द्र पूजनीय, वंदनीय वर्तमान सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरि को प्रामाणिक मानना न्यायसंगत है। संदर्भग्रंथ-सूची 1-2. पं० फूलचन्द्र शास्त्री : ज्ञानपीठ पूजाञ्जली, पृ० 426 एवं 428 । 3. गाथा 15471
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4. "द्रोणिमति प्रबल कुण्डले मेंढके च", श्लोक 29। 5. 139वीं कथा, श्लोक 1-172 । 6. “लाट देशाभिधे देशे.......।
पूर्वोत्तर दिशाभागे तोणिमद्भवधरस्य च।।" -139/45 7. श्लोक 139/61-62 । 8. “अध्यास वेदना घोरां गुरुदत्तो महामुनि।
संप्राप्य केवलज्ञानं लोकालोकावलोकनम्।।" -139/106 9. आराधना कथा-प्रबन्ध (कथाकोश) सं०—डॉ० रमेशचन्द्र जैन, आचार्य शान्तिसागर
(छाणी) स्मृति ग्रन्थमाला बुढ़ाना, सन् 1990 में प्रकाशित। 10. “लाटदेशे द्रोणीपर्वत समीपे....... । लोक: कधितम-द्रोणीमति पर्वते व्याघ्रस्तिष्ठति।"
पृ० 106-207। 11. आराधना कथा कोश (भा० अनेकान्त विद्वत्परिषद् सन् 1863) कथा सं० 69। द्रष्टव्य ___ – हिन्दी अनुवाद, पृ० 197-300। 12. I. नर्मदातट द्रोणगिरि......ज्ञातव्याः ।
षट्प्राभृतादि-संग्रह (माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, वि० 1977)
बोधप्राभृत टीका, पृ. 93। II. अष्टपाहुड (भा० अनेकान्त विद्वत्-परिषद् सन् 1955), पृ० 179-180। 13. तीर्थवंदन संग्रह (सं०—डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर, गुलाबचन्द्र हीराचन्द्र दोषी जैन,
संस्कृति संरक्षक सोलापुर, वी०नि० 2491), पृ. 50। 14. “बड़ग्राम सुनाम पच्छिम दिसा। द्रोणगिरि पर्वत कैलास जैसा। तेथे सिद्ध झाले मुनि गुरुदत्त। ऐसे तीर्थ वंदा तुम्ही एकचित्ता।।"
-(श्लोक 19, द्रष्टव्य - तीर्थवंदन संग्रह, पृ० 50-51) 15. द्रष्टव्य - पं० बाबूलाल जैन जमादार अभिनन्दन ग्रन्थ, बड़ौत, मेरठ, सन् 1981 । _16. वही, पृ० 388। 17. लघु सम्मेदशिखर : द्रोणगिरि, प्रकाशक-गणेश प्रसाद वर्णी शोध केन्द्र, द्रोणगिरि,
छतरपुर, म०प्र०, 1988, पृ० 7।
कमण्डलु में ही भूमण्डल का अर्थशास्त्र है 'कमण्डलु' भारतीय संस्कृति का सारोपदेष्टा है। उसका आगमनमार्ग स्फीत और निर्गमनमार्ग संकुचित है। अधिक ग्रहण करना और अल्पव्यय करना अर्थशास्त्र का ही नहीं, सम्पूर्ण लोकशास्त्र का विषय है। संयम का पाठ कमण्डलु से सीखना चाहिये। कमण्डलु का | जल शुद्धिकार्य में आता है।
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'प्राकृतविद्या' के वर्ष 10 एवं 11,अंक 1-4 में प्रकाशित लेखों का विवरण
-डॉ० सुदीप जैन वर्ष 10, अंक 1, अप्रैल-जून 1998 ई० क्र०सं० आलेख का शीर्षक ।
लेखक पृष्ठ संख्या 1. ण हि सव्वो सव्वं जाणादि (संपादकीय) डॉ० सुदीप जैन 5-9 2. उच्चकोटि के विद्वान् पुन: तैयार करें पं० नाथूलाल शास्त्री 10-11 3. ओड्मागधी प्राकृत : एक परिचयात्मक अनुशीलन डॉ० सुदीप जैन 12-15 4. शौरसेनी प्राकृत में प्राचीन भाषातत्त्व । प्रो० प्रेमसुमन जैन 27-37 5. दुर्लभ पाण्डुलिपि 'पुण्णासवकहा'
प्रो० राजाराम जैन 38-45 6. भारत के बाहर जैन-संस्कृति
श्रीमती रंजना जैन 47-52 7. प्राकृत में 'लकार' की स्थिति
डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री 54-61 8. निर्दोष वाचिक सहिष्णुता का सिद्धांत 'स्याद्वाद' डॉ० सुदीप जैन 62-68 9. स्याद्वाद एवं सप्तभंगी नय
69-73 10. मागधी प्राकृत का संक्षिप्त परिचय
76-78 11. समयसार के पाठ, कं० 14
डॉ० सुदीप जैन 79-81 12. आर्ट-पेपर हिंसक उपकरणों से निर्मित नहीं होता प्रवीण कुमार जैन 82-83 13. 'प्राकृतविद्या' में गतवर्ष प्रकाशित लेखों का विवरण डॉ० सुदीप जैन 84-86
पुस्तक समीक्षा1. 'भगवद्-विआहपण्णत्ती' 2. कातन्त्र व्याकरणं (प्रथमो भाग:) 3. अमर जैन शहीद
| डॉ० सुदीप जैन 4. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ 15. गुणाढ्य की कथा
102-106
14.
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लेखक
वर्ष 10, अंक 2, जुलाई-सितम्बर 1998 ई० क्र०सं० आलेख का शीर्षक
पृष्ठ संख्या 1. विद्या विवादाय (संपादकीय)
डॉ० सुदीप जैन 5-8 2. युवकों को संदेश
आचार्यश्री विद्यानन्द मुनि 11-12 3. धर्मरूपी रथ को युवा ही वहन करेंगे मुनिश्री कनकोज्ज्वलनंदि 13-14 4. औचित्यपूर्ण उत्सव आगमसम्मत हैं
डॉ० सुदीप जैन 15-20 वास्तुविधान में मंगलवृक्ष
श्रीमती अमिता जैन 21-24 खारवेल शिलालेख कैसे प्रकाश में आया प्रो० राजाराम जैन 26-28 कलिंग
डॉ० रमेशचंद्र मजूमदार 29-30 8. शिक्षा की पर्याय : सरस्वती
श्रीमती रंजना जैन 31-33 9. भरतमुनि की दृष्टि में संस्कृत-रूपकों में डॉ० रमेशकुमार पाण्डेय 34-36
प्राकृत की अनिवार्यता 10. सम्यग्दर्शन का स्वरूप
प्रो० माधव रणदिवे 39-41 11. सिद्धक्षेत्रों में चरणचिह्नों का महत्त्व
पं० नाथूलाल शास्त्री 44-45 12. शौरसेनी प्राकृत का क्रमिक विकास
प्रो० गंगाधर पण्डा 46-48 13. प्राकृतभाषा में रचित 'रिट्ठ समुच्चय'
राजकुमार जैन 49-57 14. भरत-मंदिर इरिंगालकुडा
राजमल जैन 58-66 15. नारायण श्रीकृष्ण का जरे को क्षमादान पं० जयकुमार उपाध्ये 67-71 16. समयसार के पाठ, कं० 15
डॉ० सुदीप जैन 72-74 'भूतार्थ' और 'अभूतार्थ
75 18. प्राकृत पढ़ने की आवश्यकता क्यों?
डॉ० उदयचंद जैन 76-80 19. जैनदर्शन में शब्दार्थ-मीमांसा
स्व० डॉ० नेमिचंद्र शा० 81-83 20. कातंत्र-व्याकरण के कुछ सूत्र
84-85 11. शौरसेनी प्राकृत का उद्भव तथा विकास डॉ० रमेश चन्द जैन 86-92 22. आचार्य कुन्दकुन्द समाधि-संवत्
94 23. पुस्तक समीक्षा
1. महाबंधो (पुस्तक 1-2) 2. मयणजुद्ध कव्व
डॉ० सुदीप जैन 95-98 3. वैशाली के महावीर (बालकाव्य) ।
__ वर्ष 10, अंक 3-4, (संयुक्तांक) अक्तूबर-मार्च 1998-99 ई० क्र०सं० आलेख का शीर्षक
लेखक
पृष्ठ संख्या 1. अशोक जी शोकरहित थे (संपादकीय) डॉ० सुदीप जैन 5-10
17.
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आचार्यश्री विद्यानन्द मुनि 11-15
मुनि कनकोज्ज्वलनंदि 16-17
दिगम्बर जैन श्रावकों एवं विद्वानों को त्यागियों की समीक्षा का पूर्ण अधिकार है णमोकार मंत्र में 'लोए' एवं 'सव्व' पदों की विशेषता गृहस्थों को भी धर्मोपदेश का अधिकार एक: शरणं शुद्धोपयोगः
तीर्थंकर की दिव्यध्वनि की भाषा 7. यापनीय : एक विचारणीय बिन्दु 8. सम्राट् खारवेल की अध्यात्म-दृष्टि 9. धरसेन की एक कृति : जोणिपाहुड 10. कातन्त्र-व्याकरण एवं उसकी दो वृत्तियाँ 11. आचार्य कुन्दकुन्द का आत्मवाद 12. डॉ० हुकमचंद भारिल्ल 13. भारतीय शिक्षण-व्यवस्था एवं जैन विद्वान् 14. समयसार के पाठ, कं० 16 15. जैनदर्शन के प्रतीक पुरावशेष 16. आचार्यश्री के संकलन से 17. जलगालन-विधि तथा महत्ता 18. प्राकृत तथा अपभ्रंश काव्य और संगीत
जैनधर्म और अंतिम तीर्थंकर महावीर पुस्तक समीक्षा 1. पाहुडदोहा (ज्ञानपीठ) 2. सम्राट् खारवेल (कन्नड़) 3. प्रतिष्ठा-प्रदीप 4. अंगकोर के पंचमेरु मंदिर
स्व० पं० माणिकचंद्र कौंदेय 18-19 डॉ० सुदीप जैन 20-24 पं० नाथूलाल शास्त्री 25-28 डॉ० सुदीप जैन 29-32 श्रीमती रंजना जैन 33-35 आचार्य नगराज 36-49 डॉ० रामसागर मिश्र 50-53 डॉ० महेन्द्रसागर प्रचंडिया 54-56 श्रीमती ममता जैन 57-60 श्रीमती अमिता जैन 61-63 डॉ० सुदीप जैन 65-69 डॉ० कस्तूरचंद सुमन 70-73 डॉ० सुदीप जैन 74-78 डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री 79-82
83-85 डॉ० रमेशचन्द्र जैन 86-89
डॉ० सुदीप जैन
95-99
वर्ष 11, अंक 1, अप्रैल-जून 1999 ई० क्र०सं० आलेख का शीर्षक
लेखक पृष्ठ संख्या 1. प्रातिभ-प्रतिष्ठा की परम्परा और जैन प्रतिभायें (संपादकीय)
डॉ० सुदीप जैन 5-8 2. पहिले तौलो फिर बोलो
आचार्यश्री विद्यानन्द मुनि 9-13 3. तीर्थंकर-दिव्यध्वनि-भाषा से श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी सर्वथा भिन्न है ।
पं० नाथूलाल शास्त्री 14-16 प्राकृत में नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपातों की रूप-रचना
डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री 19-25
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पा काश-स्तम्भ
'कातंत्र व्याकरण' और आचार्य विद्यानन्द डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी 26-38 6. शौरसेनी आगम-साहित्य की भाषा का मूल्यांकन स्व० पं० हीरालाल जैन 40-47 7. प्राकृतभाषा के ग्रंथ 'तिलोयपण्णत्ती' में वर्णित
सिद्धलोक और आचार्य कुंदकुंद के पंच परमागम : एक तुलनात्मक अध्ययन
डॉ० राजेन्द्र कुमार बंसल 48-55 8. गणेशप्रसाद वर्णी का शिक्षा-जगत् में योगदान डॉ० दयाचंद्र साहित्याचार्य 56-59 9. प्राकृतभाषा के दो प्रकाश-स्तम्भ
डॉ० अभय प्रकाश जैन 62-65 10. जैन सम्राट् खारवेल के हाथीगुम्फा-अभिलेख के कतिपय अभिनव तथ्य
डॉ० सुदीप जैन 66-71 11. शौरसेनी प्राकृत एवं गणित
डॉ० अनुपम जैन 72-74 12. आयुर्वेद वाङ्मय की रचना-प्रक्रिया में जैनाचार्यों का अवदान
राजकुमार जैन 75-81 13. पंचत्थिकायसंगहसुत्तं' की आचार्य अमृतचन्द्र सूरिकृत व्याख्या में उद्धरण
डॉ० कमलेश कुमार जैन 82-85 14. पुस्तक समीक्षा
1. जैन-जागरण के अग्रदूत : हीराचंद नेमचंद | 2. जैनागम-इतिहास-दीपिका (कन्नड़) | डॉ० सुदीप जैन 86-89 3. अपभ्रंश-भाषा का पारिभाषिक कोश
वर्ष 11, अंक 2, जुलाई-सितम्बर 1999 ई० क्र०सं० आलेख का शीर्षक
लेखक
पृष्ठ संख्या 1. विद्वत्सेवा की रजत-जयंती (संपादकीय) डॉ० सुदीप जैन 5-8 2. कायोत्सर्ग : परमात्मा बनने का विधान आचार्यश्री विद्यानन्द मुनि 9-12 3. वस्त्रावेष्टित साधु : कृष्णा मेनन
___13-14 4. जैन-संस्कृति एवं तीर्थंकर-परम्परा
स्व० विशम्भरनाथ पाण्डे 15-18 'प्राचीन भारत पुस्तक' में जैनधर्म की कुछ भ्रान्तियों का निराकरण
राजमल जैन
19-30 6. स्वाध्याय.
आचार्यश्री विद्यानन्द मुनि 31-37 7. तिसट्ठि-महापुराण-पुरिस-आयार-गुणालंकारु प्रो० राजाराम जैन 39-48 8. अपभ्रंश की सरस सशक्त कृति 'चूनडी रासक' । कुन्दनलाल जैन 49-56 9. अपभ्रंश के आद्य महाकवि स्वयंभू एवं उनके नारीपात्र डॉ० विद्यावती जैन 57-66 10. अहिंसा : एक विश्वधर्म
श्रीमती रंजना जैन 67-68 11. डॉ० लुडविग अल्सडोर्फ
डॉ० अभय प्रकाश जैन 69-70 12. आदिब्रह्मा तीर्थंकर ऋषभदेव
डॉ० सुदीप जैन 71-73
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डॉ० प्रेमचंद रांवका डॉ० रमेशचन्द जैन रूपकमल चौधरी
74-82 83-85 86-88
13. हमारी बद्रीनाथ-यात्रा (रिपोतार्ज) 14. जिनधर्म-प्रभावक आचार्यश्री विद्यानन्द जी 15. बिहार के कुछ पवित्र जैनतीर्थ 14. पुस्तक समीक्षा
1. प्रेमयकमलमार्तण्ड-परिशीलन 2. ध्यानोपदेशकोष (योगसारसंग्रह)
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डॉ० सुदीप जैन
89-91
ॐ
वर्ष 11, अंक 3, अक्तूबर-दिसम्बर 1999 ई० क्र०सं० आलेख का शीर्षक
लेखक पृष्ठ संख्या 1. ग्रामे-ग्रामे कालापक..... (संपादकीय)
डॉ० सुदीप जैन 4-11 'महाबंध' किस भाषा में है?
डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री 12-17 3. 'छक्खंडागमसुत्त' की भाषा
स्व० पं० बालचन्द्र शास्त्री 18-28 4. देवनिर्मित जैनस्तूप 'वोद्वे थूमे'
कुन्दन लाल जैन 30-32 5. क्रोधादि कषायों का विशेष विवरण
33-39 पालि एवं प्राकृत : एक तुलनात्मक अध्ययन डॉ० विजय कुमार जैन 40-43 श्रमण-संस्कृति का प्रमुख केन्द्र कारंजा : कुछ संस्मरण
प्रो० (डॉ०) विद्यावती जैन 44-47 आत्मा और ज्ञान का स्वरूप तथा सम्बन्ध 'पवयणसार' के सन्दर्भ में
डॉ० जिनेन्द्र कुमार जैन 56-59 9. जिनपरम्परा के उद्घोषक महाकवि स्वयंभू स्नेहलता जैन 48-55 10. महाकवि कालिदास के नाटकों में प्राकृत-प्रयोग डॉ० (श्रीमती) राका जैन 62-67 11. कन्नड़ भाषा में रचित जैन-आयुर्वेद के ग्रंथ राजकुमार जैन 69-73 12. आचार्य कुन्दकुन्द का अध्यात्म
डॉ० जयकुमार उपाध्ये 74-81 13. प्राचीन वैशाली का व्यापारिक पक्ष
डॉ० जयंत कुमार 82-86 14. भरतपुत्री का क्षेत्र केरल'
राजमल जैन 87-94 15. पुस्तक समीक्षा
1. द्वादशानुप्रेक्षा (मराठी) 2. जिनागमों की मूलभाषा
डॉ० सुदीप जैन 95-100
ॐ
वर्ष 11, अंक 4, जनवरी-मार्च 2000 ई० क्र०सं० आलेख का शीर्षक
लेखक 1. मिथ्यात्व-रहित सभी एकदेशजिन हैं (संपादकीय) डॉ० सुदीप जैन
पृष्ठ संख्या
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2. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग
आचार्यश्री विद्यानन्द मुनि 9-20 'कुमार: श्रमणादिभि:' सूत्र का बौद्ध-परंपरा से संबंध नहीं
डॉ० सुदीप जैन 21-23 जैनसमाज का महनीय गौरवग्रंथ : ‘कातंत्र-व्याकरण' प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन 24-29
कातंत्र-व्याकरण और उसकी उपादेयता डॉ० उदयचंद जैन 30-33 6. हंसदीप : जैन-रहस्यवाद की एक उत्प्रेरक कविता प्रो० (डॉ०) विद्यावती जैन 34-37 7. आगम-मर्यादा एवं निर्ग्रन्थ श्रमण
श्रीमती रंजना जैन 38-41 8. एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न का समाधान
पं० नाथूलाल शास्त्री 42-44 9. गोरक्षा से अहिंसक संस्कृति की रक्षा
आचार्यश्री विद्यानन्द मुनि 45-50 10. श्रुतज्ञान और अंग-वाङ्मय
राजकुमार जैन 52-57 11. आचार्यश्री विद्यानंद जी सामाजिक चेतना डॉ० माया जैन 58-60 12. णक्खत्त-वण्णणं
62-65 13. अहिंसक अर्थशास्त्र
श्रीमती रंजना जैन 66-68 14. जैनदर्शनानुसार शिशु की संवेदन-शक्ति श्रीमती अमिता जैन 69-73 15. मनीषी साधक : पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ डॉ० प्रेमचंद रांवका 74-77 16. भट्टारक-परम्परा एवं एक नम्र निवेदन पं० नाथूलाल शास्त्री 80-81 भट्टारक-परम्परा
डॉ० जयकुमार उपाध्ये 82-85 ___ अपभ्रंश के 'कडवक छंद' का स्वरूप-विकास प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन 86-89
पुस्तक समीक्षा1. मूलसंघ और उसका प्राचीन साहित्य : 2. पाहुडदोहा (मराठी) 3. जैन-आगम प्राणी-कोश
| डॉ० सुदीप जैन 90-95 4. गोम्मटेश्वर बाहुबलि एवं श्रवणबेल्गोल : __इतिहास के परिप्रेक्ष्य में 5. गौरवगाथा : आचार्यश्री विद्यानन्द 6. भारतीय परंपरा में व्रत : अवधारणा तथा विकास
न
लोक मर्यादा और वचन प्रयोग “धम्मसभा णिव-पंचय, जादि लोयाय बंधुवग्गं णाणी। इण विरुद्धं वच करदि, स च सठ लोगणिंद दुक्खलहो।।"
-(सुदिट्ठि-तरंगिणी, 100) अर्थ:—यदि कोई व्यक्ति ज्ञानी होने पर भी धर्मसभा, राजसभा, पंचायती सभा, जातिगत सभा, लोकसभा और बन्धुवर्ग के विरुद्ध सत्य को भी बोलता है, तो वह 'शठ' कहलाता है, लोकनिंद्य होता है और तो और मानसिक दुःख को भी प्राप्त होता है। **
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जैन - संस्कृति में आहार - शुद्धि
- श्रीमती रंजना जैन
" जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन। जैसा पीवे पानी, वैसी बोले वाणी । " -यह एक सर्वपरिचित उक्ति है। इसके अनुसार खाद्यपदार्थों एवं पेयपदार्थों का प्रभाव चित्त के संस्कारों और वाग्व्यवहार पर सुनिश्चितरूप से पड़ता ही है । इसी बात की पुष्टि वैदिक संस्कृति के कथन से भी होती है, जिसमें कहा गया है कि ' आहार की शुद्धि से चित्त की शुद्धि होती है।' इससे स्पष्ट हो जाता है कि अन्न-जल आदि जड़ पदार्थों का भी चेतन के परिणामों पर निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध की अपेक्षा से पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। संभवत: इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए जैन - परम्परा में आहारशुद्धि के सम्बन्ध में व्यापक निरूपण मिलता है | आहारशुद्धि-सम्बन्धी उनके नियम भी बहुत वैज्ञानिक हैं। यद्यपि आज की जिह्वा - लोलुपी एवं भक्ष्याभक्ष्य - विवेक से रहित पीढ़ी को वे नियम अनावश्यक रूप से कठोर एवं अव्यावहारिक प्रतीत होते हैं; किंतु इनकी वैज्ञानिकता से वे नितान्त अपरिचित हैं और इसीकारण शारीरिक एवं मानसिक दुष्प्रभावों की नयी श्रृंखला इस नयी पीढ़ी में जन्म ले रही है ।
जैनाचार्य रविषेण ने 'पद्मपुराण' नामक ग्रंथ के चौबीसवें पर्व में कैकेयी के गुणों का वर्णन करते समय उसकी पाकशास्त्र - विशेषज्ञता का परिचय इसप्रकार दिया है- . “भक्ष्यं भोज्यं च पेयं च लेह्य चूष्यं च पञ्चधा । आसाद्यं तत्र भक्ष्यं तु कृत्रिमाकृत्रिमं स्मृतम् ।। भोज्यं द्विधा यावाग्वादिविशेषाश्चौदनादय: । शीतयोगो जलं मधुरमिति पेयं त्रिधोदितम् । । राग-खाण्डव-लेह्याख्यं लेह्यं त्रिविधमुच्यते । कृत्रिमाकृत्रिमं चूष्यं द्विविधं परिकीर्तितम् ।। पाचनच्छेदनोष्णत्व- शीतत्व-करणादिभिः । युक्तमास्वाद्यविज्ञानमासीत्तस्या मनोहरम् । ।”
- ( पद्मपुराण, पर्व 24, पद्य 53-56) अर्थ:- भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य और चूष्य के भेद से भोजन - सम्बन्धी पदार्थों के
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पाँच भेद हैं। इनमें से जो स्वाद के लिए खाया जाता है, उसे 'भक्ष्य' कहते हैं। यह कृत्रिम' और 'अकृत्रिम' के भेद से दो प्रकार का है। तथा जो क्षुधानिवृत्ति के लिए खाया जाता है, उसे 'भोज्य' कहते हैं। इसके मुख्य' और. साधक' की अपेक्षा से दो भेद हैं। ओदन, रोटी आदि मुख्य भोज्य' हैं और लप्सी, दाल, शाक आदि 'साधक भोज्य' हैं। शीत योग (शर्बत), जल और मधुररस के भेद से पेय-पदार्थ तीन प्रकार के कहे गये हैं। इन सबका ज्ञान होना 'आस्वाद्य-विज्ञान' है। यह 'आस्वाद्य-विज्ञान' पाचन, छेदन, उष्णत्वकरण एवं शीतत्वकरण आदि से सहित है। कैकया (कैकेयी) को इन सबका अच्छा ज्ञान था।
उपरोक्त कथन से यह तो भलीभाँति स्पष्ट हो ही जाता है कि वह मात्र भक्ष्य-पदार्थों को बनाने की कला में निष्णात थी, अभक्ष्य-पदार्थों का परिचय एवं उनकी संसाधनविधि उसके परिचित विषयों तक में नहीं थी।
इन भक्ष्य-पदार्थों के निर्माण की प्रक्रिया के सोलह' नियम जैन-परम्परा में वर्णित हैं। इसीकारण आहारशुद्धि की पक्षधर महिलायें अपनी भोजन-निर्माण प्रक्रिया को 'सोला' करना भी कहती हैं। आज भी बुन्देलखण्ड के संस्कारी जैन-परिवारों की रसोई में 'सोला' शब्द का जीवन्तरूप देखा जा सकता है। प्रथमत: यह जानें कि यह सोलह प्रकार की आहारशुद्धि क्या थी? भोजन-निर्माण के ये सोलह नियम मुख्यत: चार वर्गों में विभाजित हैं— (1) द्रव्यशुद्धि, (2) क्षेत्रशुद्धि, (3) कालशुद्धि, (4) भावशुद्धि। इनमें से प्रत्येक के चार-चार भेद हैं, जिनका विवरण निम्नानुसार है :.. (1) द्रव्य-शुद्धि, (2) क्षेत्र-शुद्धि, (3) काल-शुद्धि, भाव-शुद्धि ।
(1) द्रव्य-शुद्धि (1) अन्न-शुद्धि - खाद्य-सामग्री सड़ी, गली, घुनी एवं अभक्ष्य न हो। (2) जल-शुद्धि - जल 'जीवानी' किया हुआ हो और प्रासुक हो। (3) अग्नि-शुद्धि - ईंधन देखकर, शोधकर उपयोग किया गया हो। (4) कर्ता-शुद्धि भोजन बनानेवाला स्वस्थ हो, तथा स्नान करके धुले शुद्ध,
वस्त्र पहने हो, नाखून बड़े न हों, अंगुली वगैरह कट जाने पर खून का स्पर्श खाद्य-वस्तु से न हो, गर्मी में पसीना का स्पर्श न हो, या पसीना खाद्य-वस्तु में न गिरे।
(2) क्षेत्र-शुद्धि (5) प्रकाश-शुद्धि – रसोई में समुचित सूर्य का प्रकाश रहता हो। (2) वायु-शुद्धि - रसोई में शुद्ध हवा का संचार हो। (3) स्थान-शुद्धि – रसोई लोगों के आवागमन का सार्वजनिक स्थान न हो एवं
__ अधिक अंधेरेवाला स्थान न हो। (4) दुर्गंध-शुद्धि – हिंसादिक कार्य न होता हो, गंदगी से दूर हो।
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(3) काल-शुद्धि (1) ग्रहण-काल - चन्द्र-ग्रहण या सूर्य-ग्रहण के काल में भोजन न बनाया जाये। (2) शोक-काल – शोक, दुःख अथवा मरण के समय भोजन न बनाया जाये। (3) रात्रि-काल - रात्रि के समय भोजन नहीं बनाना चाहिये। (4) प्रभावना-काल- धर्म-प्रभावना अर्थात् उत्सव-काल के समय भोजन नहीं
बनाना या बनवाना चाहिये।
(4) भाव-शुद्धि (1) वात्सल्य-भाव - पात्र और धर्म के प्रति वात्सल्य होना चाहिये। (2) करुणा-भाव - सब जीवों एवं पात्र के ऊपर दया का भाव रखना चाहिये। (3) विनय-भाव - पात्र के प्रति विनय का भाव होना चाहिये। (4) दान-भाव - दान करने का भाव रहना चाहिये।
कषाय-रहित और हर्ष-सहित भोजन हितकारी होता है। इसी क्रम में यह जान लेना भी अपेक्षित है कि किस भोज्य-पदार्थ की किस ऋतु में कितने दिनों की मर्यादा है? इसे निम्नलिखित चार्ट से अच्छी तरह समझा जा सकता है
लं
क्रमांक पदार्थ 1. बूरा
सर्व प्रकार का आटा सर्व प्रकार का पिसा हुआ मसाला (क) नमक पिसा हुआ, (ख) नमक में मसाला मिला देने पर (ग) नमक को गर्म करने पर दूध दुहने के पश्चात् दही (गर्म दूध का) (क) छाछ बिलोते समय गर्म पानी
डालें तो (ख) छाछ में पीछे पानी ठंडा डालें तो घी, तेल, गुड़ अधिक जल वाले पदार्थ, रोटी, पूरी, हलुआ, बड़ा सेव, बूंदी आदि । तेल या घी में तले हुए पदार्थ, पापड़,
बड़ी, सेमइंया आदि 10. खिचड़ी, कड़ी, दाल, भात, तरकारी 11. बिना पानी के पकवान
शीतकाल ग्रीष्मकाल वर्षाकाल एक मास 15 दिन 7 दिन 7 दिन 5 दिन 3 दिन । 7 दिन 5 दिन 3 दिन 48 मि० 48 मि० 48 मि० । 6 घण्टे 6 घण्टे 6 घण्टे 24 घण्टे 24 घण्टे 24 घण्टे 48 मि० 48 मि० 48 मि० 24 घण्टे 24 घण्टे 24 घण्टे 12 घण्टे 12 दिन 12 दिन
48 मि० 1 वर्ष 12 घण्टे
48 मि० 1 वर्ष 12 घण्टे
48 मि० 1 वर्ष 12 घण्टे
6 घण्टे 5 दिन
6 घण्टे 5 दिन
6 घण्टे 5 दिन
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लाई, काजू आदि कुटे गर्म किये मेवा
मक्खन
गाय का दूध (प्रसूत के बाद)
भैंस का दूध (प्रसूत के बाद) प्रासुक पानी
गर्म उबला हुआ पानी
छना हुआ पान
7 दिन
48 मि०
10 दिन
15 दिन
6 घण्टे
24 घण्टे
48 मि०
5 दिन
48 मिo
10 दिन
15 दिन
6 घण्टे
24 घण्टे
48 मिo
3 दिन
48 मि०
10 दिन
15 दिन
6 घण्टे
किंतु आज की फास्टफूड-संस्कृति के लोगों को इतनी सारी वर्जनायें और नियमावलियाँ कहाँ सुहातीं हैं? उन्हें तो दौड़ते-भागते कहीं भी कुछ भी खाने की आदत जो पड़ गयी है। और आज की कोमलांगी ललनायें भोजन -शुद्धि के लिए इतनी सावधानी एवं श्रम के लिए तैयार ही कहाँ हैं? डिब्बाबंद खाद्यपदार्थ एवं पेयपदार्थ, जो मर्यादाविहीन, ताजगीरहित एवं पौष्टिकता से भी रहित हैं; आज की पीढ़ी इन्हीं से अपना गुजारा करने की आदत डाल रही है। इसी से शारीरिक स्वास्थ्य का केन्द्र 'उदर' या पेट' पूर्णतः दुष्प्रभाव से ग्रस्त हो जाता है, जिसके फलस्वरूप रोज-रोज डॉक्टरों की शरण में जाने वाली सन्तति का निर्माण हो रहा है । कई-कई लोग तो भोजन की तरह ही नियमितरूप से दवाई की गोलियों (टेब्लेट्स), कैप्सूलों एवं सिरपों का सेवन करते हैं । इन सब बीमारियों की जड़ आहार-जल की निर्माण-प्रक्रिया की अशुद्धता है। हम रुग्ण पीढ़ी को जन्म दे रहे हैं । आज के. डॉक्टर अपना धंधा चलाने के लिए इस क्षेत्र में 'आग में घी डालने की तरह' कहते हैं कि "कुछ भी खाओ, हमारी दवा साथ लो।" इनका उद्देश्य व्यक्ति को अपने बल पर स्वस्थ करना नहीं है, अपितु व्यक्ति को रोगी बनाये रखकर अपनी फीस व दवा कंपनियों की बिक्री की निरन्तरता बनाये रखना है ।
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आत्मा न श्रावक है, न श्रमण
“ तम्हा दु हित्तु लिंगे, सागारणगारिये हि वा गहिदे । दंसण - णाण- चरित्ते, अप्पाणं जुंज मक्खपहे । ।"
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24 घण्टे
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ऋतुचक्र के अनुसार भोजन - पान की मर्यादाओं का पालन कर हम अच्छा स्वास्थ्य, अच्छे विचार एवं दीर्घायु बन सकते हैं । वस्तुत: जैन - परम्परा में वर्णित आहारशुद्धि की शिक्षा ही 'आयुष्मान भव' के आशीर्वचन को सफल करेगी तथा 'पहिला सुख निरोगी काया' की लोकोक्ति को भी सार्थक करेगी 1
- ( आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार 411 ) अर्थ:- सागार (श्रावक ) अथवा अनगार (श्रमणों) द्वारा ग्रहण किये हुए समस्त लिंगों को छोड़कर के अपनी आत्मा को सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग में लगाओ ।
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ऋषि और मुनि में अंतर
-शारदा पाठक
भारत की प्राचीन भाषा संस्कृत के बहुतेरे शब्द हिन्दी सहित देश की वर्तमान भाषाओं में भी प्रचलित हुए हैं। उनमें दो शब्द 'ऋषि' और 'मुनि' शामिल हैं। दोनों का इस्तेमाल आमतौर पर संयुक्त रूप से किया जाता है। 'ऋषि-मुनि' बोला और लिखा जाता है। जन-सामान्य इन दोनों शब्दों को समानार्थी समझता है और मानता है कि जो 'ऋषि' है वही 'मुनि' है। दोनों के बीच कोई अंतर नहीं है। लेकिन वस्तुस्थिति इसके ठीक विपरीत है।
'ऋषि' शब्द ऋग्वेद में बार-बार आता है। संहिता की ऋचाओं के रचने वाले भी ये ऋषि ही हैं। उनके विभिन्न घराने और समूह हैं। घराने या आश्रम के संस्थापक के नाम से उसकी परम्परा के सारे 'ऋषि' पुकारे जाते हैं; जैसे भरद्वाज की परम्परा के ऋषि 'भारद्वाज', कश्यप की परम्परा के काश्यप', पराशर की परम्परा के 'पाराशर'। यह परम्परा भारत की लगभग सभी हिन्दू जातियों के गोत्रों के नामों में आज तक सुरक्षित चली आ रही है। एक ही जाति या उपजाति में अलग-अलग ऋषियों के नामों से जुड़े गोत्र मिलते हैं। भारद्वाज गोत्र वाले अपने वंश का आदिपुरुष भरद्वाज को मानते हैं, तो पाराशर गोत्र वाले पराशर को। ऋषि सब पुरुष ही नहीं हैं; महिला ऋषियों की परम्परा भी मिलती है, गार्गी और मैत्रेयी वगैरह इसके उदाहरण हैं। ___ ऋषि विद्वान् व ज्ञानवान् व्यक्ति हैं। उन्हें समाज के सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों के पूजनीय वर्ग के रूप में सामाजिक मान्यता प्राप्त है। जनजीवन के हर क्षेत्र पर इन ऋषियों का निर्णायक प्रभाव है। वे आश्रम और गुरुकुल चलाते हैं। नई पीढ़ी को शिक्षा और प्रशिक्षण प्रदान करते हैं। राजा से लेकर सामान्य व्यक्ति तक को हर प्रकार का परामर्श देते हैं। ऋषि राजाओं के गुरु हैं और राजा उनके आदेश का पालन करते हैं व उनकी सलाह के अनुसार चलते हैं। ऋषि समाज के लिए आचरण के नियमों का निर्धारण करते हैं। समाज के भौतिक जीवन के साथ-साथ उसके आध्यात्मिक जीवन के भी वे नियंता हैं। ऋषि लोगों को यज्ञों और कर्मकांड के लिए प्रेरित करते हैं। उनसे यज्ञ करवाते हैं और समाज के हर वर्ग से दान-दक्षिणा के रूप
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में द्रव्य या भौतिक संसाधन प्राप्त करते हैं। वे विवाह भी करते हैं और संतति उत्पन्न करने से भी कोई परहेज नहीं करते। वे इतने प्रभावशाली हैं कि वयोवृद्ध ऋषि भी किसी राजा के पास उसकी युवा राजकुमारी से विवाह का प्रस्ताव लेकर जाता है, तो राजा उसे मना नहीं कर पाता। भौतिक जीवन की सुख-सुविधाओं और भौतिक पदार्थों के परित्याग की ऋषि के लिए कोई अनिवार्यता नहीं है।
'मुनि' शब्द ऋग्वेद में केवल वातरशना मुनियों के सन्दर्भ में ही आता है। वातरशना का तात्पर्य है अपने शरीर को वायु से ढंकने वाला अर्थात् नग्न रहनेवाला। वातरशना मुनियों का वर्णन करनेवाली ऋचाओं (ऋग, 10, 136, 2-3) में कहा गया है, “अतीन्द्रयार्थदर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते हैं, जिससे वे पिंगल वर्ण दिखाई देते हैं; जब वे वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं, अर्थात् रोक लेते हैं, तब वे अपने तप की महिमा से दैदीप्यमान होकर देवता-स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। सर्वलौकिक व्यवहार को छोड़कर हम मौनवृत्ति से उन्मत्तवत् (उत्कृष्ट आनन्द सहित) वायुभाव को (अशरीर ध्यानवृत्ति) प्राप्त होते हैं और साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीर मात्र को देख पाते हैं, हमारे सच्चे अभ्यंतर स्वरूप को नहीं।” (एसा वे वातरशना मुनि प्रकट करते हैं) . इन ऋचाओं के ठीक पहले (ऋग० 10, 136, 1) केशी का उल्लेख है, “केशी
अग्नि, जल तथा स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है। केशी समस्त विश्व के तत्त्व का दर्शन कराता है। केशी ही प्रकाशमान (ज्ञान-) ज्योति (केवलज्ञान) कहलाता है।" ।
केशी वातरशना मुनियों के पंथ के प्रधान प्रतीत होते हैं। सूक्त की अगली ऋचा (10, 136, 4) में कहा गया है, “(केशी) देव देवों के मुनि व उपकारी और हितकारी सखा हैं।" एक अन्य ऋचा (ऋग, 10, 102, 6) में कहा गया है “मुद्गल ऋषि ने केशी वृषभ को अपना सारथी बनाया, जिसके वचन मात्र से वे गायें पीछे की और लौट पड़ी।" ऋचा में भावार्थ यह है कि मुद्गल ऋषि की गायें अर्थात् इंद्रियाँ बाहर की ओर जा रही थीं, जो केशी की सहायता से फिर उनके वश में आ गई।
वृषभ का समीकरण जैनों के आदिनाथ ऋषभ से किया गया है। वे ही वातरशना मुनियों के पंथ के प्रधान थे। उनका प्रतीक चिह्न भी वृषभ है। स्पष्ट है कि 'ऋग्वेद' के समय में ही कर्मकांड और पशुबलि से भरे यज्ञों से अलग अपने में डूबे रहनेवाले मुनियों की एक परम्परा प्रचलित हो गई थी। इनके साधक समस्त भौतिक पदार्थों और भौतिक जीवन की स्नानादि क्रियाओं से परे रहकर मात्र तत्त्व-चिंतन में लगे रहते हैं।
-(साभार उद्धृत हिन्दुस्तान दैनिक, 2 जुलाई 2000, पृष्ठ 7)
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आचार्य यतिवृषभ के अनुसार अन्तरिक्ष विज्ञान एवं ग्रहों पर जीवों की धारणा
- धर्मेन्द्र जैन
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जैनधर्म पूर्णत: वैज्ञानिक है। वर्तमान में विज्ञान ने जो भी विकास किया है, उसका यदि चिन्तन करके विश्लेषण किया जाये, तो 'विज्ञान की देन' के 'उद्भवसूत्र' जैनदर्शन एवं प्राकृत-स - साहित्य से प्राप्त होते हैं । इसी सन्दर्भ में अन्तरिक्ष विज्ञान के बारे में 'तिलोयपण्णत्ति' में विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है । आचार्य यतिवृषभ ने 9 अधिकारों में अन्तरिक्ष-विज्ञान की चर्चा की है । ग्रन्थकार की भाषा में अन्तरिक्ष विज्ञान का नाम ऊर्ध्वलोक है । ग्रन्थानुसार अन्तरिक्ष में ज्योतिर्लोक, सुरलोक तथा सिद्धलोक आता है। ज्योतिषी देवों का निवास होने के कारण 'ज्योतिर्लोक' कहा जाता है । नाम से ही स्पष्ट है कि ज्योति यानि प्रकाश, इन देवों के विमान प्रकाशमान होने के कारण भी इन्हें 'ज्योतिषी देव' कहते हैं । ज्योतिषी देवों की गति के कारण ही इस विश्व की कालगणना का निर्वाह हो रहा है। जैसा कि आचार्य उमास्वामी ने कहा है- “तत्कृत: काल-विभागः।” एक राजू लम्बे-चौड़े और 110 योजन मोटे क्षेत्र में इन ज्योतिषी देवों का निवास है । मध्यलोक के चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर आकाश में सर्वप्रथम तारागण, इनसे 10 योजन ऊपर सूर्य, उससे 80 योजन ऊपर चन्द्रमा, उससे 4 योजन ऊपर नक्षत्र, उससे 4 योजन ऊपर बुध, उससे 3 योजन ऊपर शुक्र, उससे 3 योजन ऊपर गुरु, उससे 3 योजन ऊपर मंगल और उससे 3 योजन ऊपर जाकर शनि के विमान हैं। ये विमान ऊर्ध्व-मुख, अर्ध-गोलक के आकार वाले हैं । मध्यलोक से ऊपर 'सुमेरु पर्वत' की प्रदक्षिणा देते हुए सूर्य और चन्द्रमा एक निश्चित क्षेत्र में गमन करते हैं। 51048 / 91 योजन क्षेत्र में चन्द्रमा गमन करता है । यह कुल 15 चक्कर लगाता है। उस चक्कर का अन्तराल 56/91 योजन है। चन्द्रमा के ठीक नीचे 4 अंगुलप्रमाण राहु-विमान है । गति-विशेष के कारण जब एक-एक अंश (चन्द्र - विमान का ) आच्छादित होता जाता है, तब 'कृष्ण पक्ष' बनता है; तथा जिस दिन चन्द्र - विमान की मात्र एक कला दिखती, उस दिन 'अमावस्या' होती है। जब चन्द्र -विमान का एक-एक अंश उद्घाटित हो जाता है, तब पूर्णिमा होती है। इसीप्रकार सूर्य 184 चक्कर लगाता है। इसमें एक चक्कर से दूसरे चक्कर का
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अन्तराल 48/61 योजन है । इसके गमन के कारण ही दिन और रात्रि की व्यवस्था होती है। गति करते-करते जब क्षेत्र - विशेष में प्रकाश होता है, वहाँ दिन होता है; तब ठीक उसके पीछे के हिस्से में रात्रि होती है । इसीकारण भारत में दिन है, तो अमेरिका में रात्रि आदि प्रकार से समझा जा सकता है। 'चन्द्रग्रहण' और 'सूर्यग्रहण' का कारण आचार्य यतिवृषभ ने सुस्पष्ट किया है। राहु के दो भेद है, पर्व- राहु और दिन- राहु । पर्व- राहु-नियम से गति-विशेष के कारण छह मास में पूर्णिमा के अन्त में चन्द्र- बिम्बों को आच्छादित कर हैं, उस दिन चन्द्रग्रहण होता है । यह पर्व - राहु चन्द्र - विमान से ठीक 4 अंगुल नीचे स्थित है। इसीप्रकार केतु-विमान भी गति-विशेष के कारण छह मासों में अमावस्या के अन्त में सूर्य-विमान को आच्छादित करता है, इसकारण सूर्यग्रहण होता है । यह केतु - विमान भी
4 अंगुलीचे स्थित है । 'उत्तरायण' और 'दक्षिणायन' का ज्ञान भी सूर्य की गति से होता है। जब सूर्य प्रथम गति से अर्थात् प्रथम चक्कर से क्रमश: आगे बढ़ता है, तब दक्षिणायन होता है। जब सूर्य अन्तिम चक्कर से पुन: पूर्व के चक्कर की ओर क्रमश: आता है, तब उत्तरायन होता है । इसप्रकार सूर्य और चन्द्रमा के अतिरिक्त अन्य सभी ग्रह-नक्षत्र और तारागण भी गतिशील हैं; जैसाकि तत्त्वार्थसूत्रकार ने कहा है “ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके” अर्थात् सभी ज्योतिषी मेरु के चारों ओर निरन्तर घूमते हैं । किन्तु इनकी गति में विशेषता होती है कि चन्द्र से सूर्य, सूर्य से ग्रह, ग्रहों से नक्षत्र और नक्षत्रों से भी तारागण शीघ्र ही गति करनेवाले हैं । उपर्युक्त विवेचन से 'पृथ्वी घूमती है' वैज्ञानिकों की यह मान्यता नितरां खण्डित होती है। पृथ्वी घूमती है, इसका निर्णय प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भी नहीं होता है; जबकि ज्योतिषी देवों के भ्रमण का प्रभाव कालगणना, ज्योतिषशास्त्र की विधि आदि स्पष्टरूप से दृष्टिगोचर होता है। इन सभी ज्योतिषी देवों के विमान मेरु से 1121 योजन दूर- क्षेत्र में गमन करते हैं।
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इतना मात्र ही अन्तरिक्ष नहीं है, किन्तु सिद्धलोक और स्वर्ग की व्यवस्था भी इसी में आती है; क्योंकि आचार्य यतिवृषभ के अनुसार मेरुतल से लेकर सिद्धलोकत ऊर्ध्वलोक की संज्ञा है, जो 7 राजू प्रमाण है । मेरु की चूलिका से उत्तम - भोग भूमि के मनुष्य के एक बाल के अन्तराल के बाद स्वर्गों का प्रारम्भ है । सौधर्म, ईशानादि सोलह स्वर्ग विमान है। उसके बाद नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पांच अनुत्तर विमान है लोक के अंत में 1575 धनुष - प्रमाण 'तनुवातवलय', एक कोश - प्रमाण 'घनवातवलय', 2 कोश-प्रमाण ‘घनोदधि वातवलय' है अर्थात् 425 धनुष कम एक योजन क्षेत्र में 'उपरिम वातवलय' है । इसके नीचे 'सिद्धशिला' है । सिद्धशिला से 12 योजन नीचे 'सर्वार्थसिद्धि' विमान का ध्वजदण्ड है। इसतरह सि०प० के अनुसार मेरु-तल से लेकर सिद्धलोक - पर्यन्त 'ऊर्ध्वलोक' अर्थात् अन्तरिक्ष है ।
खगोल-वैज्ञानिक इस अनुसंधान में लगे हुए हैं कि अन्तरिक्ष में ग्रहों पर जीवन जी
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सकते हैं या नहीं। अनेक प्रयोग किये जा रहे हैं, किन्तु इसका समाधान आचार्य यतिवृषभ 700 वर्ष पूर्व तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ में करते हैं कि वहाँ तो अनादिकाल से प्राणी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वे सैनी पञ्चेन्द्रिय जीव हैं । उन समस्त ज्योतिषी - विमानों में देव रहते हैं । उन समस्त ग्रहों में रहनेवाले जीवों की संख्या भी निश्चित है, जो अलौकिक गणितीय आंकड़ों में दर्शाई गई है । संख्या मात्र ही नहीं, उनकी जातियाँ, भेद, वहाँ के नगरों की व्यवस्था, उनके शरीर का वर्णन, ऊँचाई आदि आचार्य यतिवृषभ ने वर्णित की है। ग्रहों पर ही जीव रहते हो ऐसी बात नहीं, अपितु उससे आगे स्वर्गों की व्यवस्था है वहाँ पर भी देव रहते हैं। उनका भी उपर्युक्त प्रकार से वर्णन किया है। इनसे और ऊपर जाते हैं, तो सिद्ध परमात्मा भी अन्तरिक्ष में है । अत: निर्णीत हुआ कि अंतरिक्ष में संसारी और मुक्त दोनों प्रकार के जीव रहते हैं । मुक्त - जीव एक नियत स्थान में सिद्धशिला पर विराजमान हैं। संसारी जीव अर्थात् वहाँ के सभी देव यथावसर गमनागमन करते हैं। क्षेत्रजन्य ऐसी व्यवस्था है कि उन देवों की गति - आगति भी एक निश्चित क्षेत्र तक सीमित । अतः ग्रहों पर जीवन की अवधारणा को आचार्य यतिवृषभ और अन्यान्य भी दिगम्बर जैनाचार्यों ने पूर्व में ही स्पष्ट कर दिया था ।
है
ध्यान
'ध्यान' शब्द भारत में बहुत प्रचलित है, बहुत प्रसिद्ध है। 'ध्यान' शब्द का अर्थ है 'किसी चीज में एकाग्र हो जाना।' इसका व्यावहारिक जीवन में भी बहुत महत्त्व है, बहुत उपयोग है। ध्यान से सुनो, ध्यान से देखो, ध्यान से पढ़ो, ध्यान से काम करो जैसे वाक्य हम सदैव बोलते रहते हैं । ध्यान कोई सिखाता नहीं है, प्राणी अनादिकाल से इसे जानता है, समझता है और इसका व्यवहार / प्रयोग करता है । यदि ध्यान सिखाये जाते, तो बताइये मनुष्य को आर्त - रौद्र ध्यान किसने सिखाया ? वह एकाग्र होकर किसी का नुकसान करने के लिए, हानि पहुँचाने के लिए चिन्तन करता रहता है। सोचता है ' इसने मुझे हानि पहुँचाई है, मैं भी इसका नुकसान करूँगा।' मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी भी आर्त - रौद्र ध्यान करते हैं। बगुला पानी में एक पैर से खड़ा होकर इसीप्रकार का ध्यान करता रहता है। किसी प्रकार की चिन्ता, भय से सम्बन्धित चिन्तन करना 'आर्तध्यान' है और किसी को मारने, झूठ बोलने, चोरी करने से सम्बन्धित चिन्तन 'रौद्रध्यान', है । बगुले को रौद्रध्यान
होता रहता
से हैं ।
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है
।
उसे किसने सिखाया है यह? उसमें इसप्रकार के संस्कार अनादिकाल
- ( आचार्य श्री विद्यानन्द मुनिराज )
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अध्यात्मसाधक भैया भगवतीदास एवं उनका 'ब्रह्म विलास'
–(डॉ०) श्रीमती पुष्पलता जैन हिन्दी के संत-साहित्य का गौरव बढ़ाने और उसकी श्रीवृद्धि करने वाले कवियों की श्रृंखला में भैया भगवतीदास एक मज़बूत कड़ी के रूप में प्रख्यात रहे हैं। हिन्दी-साहित्य के रीतिकालीन कवि केशव, बिहारी आदि जहाँ रीतिबद्ध श्रृंगारिक रचनायें प्रस्तुत कर रहे हों, ऐसे रसिक वातावरण में अध्यात्म और नैतिकता का संदेश देना वास्तव में बड़ा दुष्कर कार्य था। ऐसे परिवेश में अध्यात्म की ज्योति जलानेवाले भैया भगवतीदास अपने समकालीन कवियों में इसीलिए अप्रतिम थे।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी, अध्यात्मरसिक भैया भगवतीदास का जन्म सं० 1731 को आगरा के 'ओसवाल' समाज के 'कहारिया गोत्र' में हुआ था। वे बहुभाषाविद् थे, वे न केवल प्राकृत-संस्कृत के विद्वान् थे; वरन् हिन्दी, गुजराती, बंगला तथा अरबी-फारसी पर भी अपना विशेष अधिकार रखते थे। 'ब्रजभाषा' के साथ अपनी प्रांतीय भाषा 'मारवाड़ी' के शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग उनके काव्य में सहज ही देखा जा सकता है, जिससे उनकी भाषा में प्रांजलता और अर्थ ग्रहण करने की सामर्थ्य आ गयी है। ___ अधिकांश पच्चीसी' और 'बत्तीसी' नामान्त रचनायें भैया भगवतीदास ने ही लिखीं हैं। 'पच्चीसी' और 'बत्तीसी' सहित 67 रचनायें 'ब्रह्मविलास' नामक ग्रंथ में संकलित हैं। ब्रह्मविलास का प्रकाशन पहली बार सन् 1903 में 'जैनग्रंथ रत्नाकर, बम्बई' से हुआ था। इसकी सभी रचनायें अध्यात्म और भक्ति से सराबोर हैं। अध्यात्म-विद्या में परिपक्व होने के कारण शांत-भाव की भक्ति के अनूठे दृष्टांत इन रचनाओं में प्रचुर मात्रा में समाहित हैं।
उच्चकुल में पले-पुसे भैया भगवती के जीवन में लक्ष्मी का वास होते हुए भी वीतराग प्रभु के चरणों में आत्मसमर्पण भाव कूट-कूट कर भरा था। वे प्रतिदिन आध्यात्मिक ग्रंथों का स्वाध्याय और तदनुसार धर्माचरण में रत रहते थे। उस सामंतवादी युग में 'भैया' जैसे अध्यात्मरसिक विरल ही थे।
चूँकि इस काल में तीन और 'भगवतीदास' नाम के विद्वानों का उल्लेख स्व०
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नाथूराम प्रेमी ने अपने 'हिन्दी साहित्य का जैन इतिहास' नामक ग्रंथ में किया है। इन तीनों से अपने को अलग सिद्ध करने के लिए 'ब्रह्मविलास' के रचयिता भगवतीदास अपने नाम के साथ 'भैया' उपनाम जोड़ने लगे होंगे। तभी से 'भैया' शब्द उनके साथ प्रचलित हो गया, यहाँ संकेतित है—“जैसाकि उक्त पंक्तियों में उल्लेख है कि 'भैया' ने 'ब्रह्मविलास' में संग्रहीत रचनाओं की रचना-संवत् 1731 से 1755 तक की थी।"
'ब्रह्मविलास' के अन्तर्गत 'भैया भगवतीदास' ने 'मन-बत्तीसी, पंचेन्द्रिय-संवाद, परमात्म-छत्तीसी, सुआ-बत्तीसी, पुण्णपच्चीसिका, शत-अष्टोत्तरी, चेतन-कर्मचरित्र, बावीस परिषह, परमात्मा की जयमाल, निर्वाणकांड-भाषा, पार्श्वनाथ-स्तुति, चतुर्विंशति-जिनस्तुति आदि-आदि रचनाओं में 'मन की चंचलता', नरभव-दुर्भलता, सद्गुरु महिमा, मन को चेतावनी, आत्म-संबोधन, नवधा-भक्ति, आत्मा-परमात्मा-चिंतन, चित्तशुद्धि, भेद-विज्ञान एवं रहस्यभावनात्मक आध्यात्मिक प्रेम आदि का चित्रण बड़े ही मनोरम ढंग से किया है। इनमें अध्यात्म और भक्ति का सुंदर समन्वय, भाषा में आज, सादृश्यमूलक अलंकारों की संदर छटा एवं छन्दों का वैविध्य देखते ही बनता है। 'चेतन-कर्मचरित्र', 'शत-अष्टोत्तरी' एवं 'मधुबिन्दुक-चौपाई' काव्यों में जहाँ रूपकों का सहारा लिया गया है; वहीं कवित्तों में 'अनुप्रास' एवं 'चित्रालंकार' से चित्रमय बिंब उपस्थित कर वीररस की सृष्टि की है
"अरिन के ठट्ट दह वट्ट कर डारे जिन, करम सुभट्टन के पट्टन उजारे हैं। नर्क तिरजंच चट पट्ट देके बैठे रहे, विषै-चोर झट्ट झट्ट पकर पधारे हैं।। भौ-वन कटाय डारे अट्ठ मद दुट्ठ मारे, मदन के देस जारे क्रोध हू संवारे हैं। चढ़त सम्यक्त सूर बढ़त प्रताप-पूर, सुख के समूह भूर सिद्ध के निहारे हैं ।।"
-(ब्रह्मविलास, फुटकर कवित्त, पृ० 273) अध्यात्म-साधक कवियों ने सांसारिक विषय-वासना पर चिंतन करते हुए संसार और शरीर की नश्वरता को विचारते हुए संसरण का प्रबलतम कारण मोह और अज्ञान को माना है। इसी संदर्भ में 'भैया' ने चौपट के खेल में संसार का चित्रण प्रस्तुत किया है- "चौपट के खेल में तमासौ एक नयो दीसै।
जगत की रीति सब याही में बनाई है।" अपने एक अन्य पद में संसार की विचित्रता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं किसी के घर मंगल के दीप जलते हैं, उनकी आशायें पूरी होती हैं; पर कोई अंधेरे में रहता है, इष्ट-वियोग से रुदन करता है, निराशा उसके घर में छायी रहती है। कोई सुंदर-सुंदर वस्त्राभूषण पहिनता, घोड़ों पर दौड़ता है; पर किसी को तन ढाँकने के लिए भी कपड़े नहीं मिलते। जिसे प्रात:काल राजा के रूप में देखा, वही दोपहर में जंगल की ओर जाता दिखाई देता है। जल के बबूले के समान यह संसार अस्थिर और क्षणभंगुर है। इस पर दर्प करने से क्या आवश्यकता?
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उन्हें यह शरीर सप्त-धातु से निर्मित, महादुर्गंध से परिपूर्ण दिखाई देता है; इसलिए उन्हें आश्चर्य होता है कि कोई उसमें आसक्त क्यों हो जाता है? अपनी ‘शत अष्टोत्तरी' में वे आगे कहते हैं कि “ऐसे घिनौने अशुद्ध शरीर को शुद्ध कैसे किया जा सकता है? शरीर के लिए कैसा भी भोजन दो, पर उससे रुधिर, मांस, अस्थियाँ आदि ही उत्पन्न होती हैं। इतने पर भी वह क्षणभंगुर बना रहता है। पर अज्ञानी मोही व्यक्ति उसे यथार्थ मानता है। ऐसी मिथ्या बातों को वह सत्य समझ लेता है।" इसीलिए वे सुख-दु:ख के कारणभूत स्वयंकृत कर्मों की निर्जरा करने की सलाह देते हैं; क्योंकि कर्म ही जीव को इधर से उधर त्रिभुवन में नचाता रहता है। अपनी 'पुण्य-पचीसिका' और 'नाटकपचीसी' में वे करुणार्द्र होकर कह उठते हैं कि धुयें के समुदाय को देखकर गर्व कौन करेगा? क्योंकि पवन के चलते ही वह समाप्त हो जाने वाला है। संध्या का रंग देखते-देखते जैसे विलीन हो जाता है, ओस बूंद जैसे धूप के निकलते ही सूख जाती है। उसीप्रकार कर्म जाल में फंसा मूढ जीव दु:खी बना रहता है“धूमन के धौरहर देख कहा गर्व करै, ये तो छिन-मांहि जाहिं पौन परसत ही। संध्या के समान रंग देखत ही होय भंग, दीपक पतंग जैसे काल गरसत ही।। सुपने में भूप जैसे इन्द्र-धनु रूप जैसे, ओस-बूंद जैसें दुरै दरसत ही। ऐसोई भरम जब कर्मजाल वर्गणा को, तामें मूढ मग्न होय मरै बरसत ही।।"
इसीलिए वे चेतन को उद्बोधित करते हुए कहते हैं—“अरे क्रोधादि कषायों के वशीभूत होकर दर-दर भटक गये...... । अष्ट-मदों से तुम खूब खेले और धन-धान्य, पुत्रादि इच्छाओं की पूर्ति में लगे रहे। पर ये सब सुख मात्र सुखाभास हैं, क्षणिक हैं, तुम्हारा साथ देने वाले नहीं" (ब्रह्मविलास, पृ० 39-44)। ___ मोह के भ्रम से ही अधिकांश कर्म किये जाते हैं। मोह को चेतन और अचेतन में कोई भेद नहीं दिखाई देता। मोह के वश किसने क्या किया है। इसे 'मोह-भ्रमाष्टक' में पुराण कथा का आधार लेकर भगवतीदास ने सूचित किया है। आगे वे कहते हैं—“मेरे मोह ने मेरा सब कुछ बिगाड़ कर रखा है। कर्म-रूप गिरिकन्दरा में उसका निवास रहता है। उसमें छिपे हुए ही वह अनेक पाप करता है, पर किसी को दिखाई नहीं देता।" अंतिम पंक्तियों में वे कहते हैं कि “इन सभी विकारों को दूर करने का एकमात्र उपाय जिनवाणी
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"मोह मेरे सारे ने बिगारे आन जीव सब, जगत के बासी तैसे बासी कर राखे हैं। कर्म-गिरि-कन्दरा में बसत छिपाये आप, करत अनेक पाप जात कैसे भाखे हैं।"
अध्यात्मसाधक भगवतीदास ने धार्मिक बाह्याडम्बरों/क्रियाओं को परमात्म-पद प्राप्ति में बाधक माना है; इसलिए उन्होंने बाह्य क्रियाओं को ही सब कुछ माननेवालों से प्रश्न किये कि “यदि मात्र जल स्नान से मुक्ति मिलती हो, तो जल में रहने वाली मछली सबसे
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पहले मुक्त होती; दुग्धपान से मुक्ति होती, तो बालक सर्वप्रथम मुक्त होगा; अंग में विभूति लगाने से मुक्ति होती, तो गधों को भी मुक्ति मिलेगी; मात्र राम कहने से मुक्ति हो, तो शुक भी मुक्त होगा; ध्यान से मुक्ति हो, तो बक मुक्त होगा; सिर मुंडाने से मुक्ति हो, तो भेड़ भी तिर जायेगी; मात्र वस्त्र छोड़ने से कोई मुक्त होता हो, तो पशु मुक्त होंगे; आकाश गमन करने से मुक्ति प्राप्त हो, तो पक्षियों को भी मोक्ष मिलेगा। यह सब संसार की विभिन्न रीति है। सच तो यह है कि तत्त्वज्ञान के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।" कबीर आदि संतों ने भी इसी तरह बाह्याडम्बरों का विरोध किया है। 'ब्रह्मविलास' की अनेक रचनाओं—“सुपंथ-कुपंथ-पचीसिका, अनित्य-पचीसिका, सुबुद्धि-चौबीसी, शतअष्टोत्तरी आदि में ऐसे बाह्याचारों की खिल्ली उड़ायी है। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:
नर देह पाये कहाँ पंडित कहाये कहा। तीरथ के न्हाये कहा तीर तो न जैहे रे।। शुद्धि ते मीन, पियें पय बालक, रासभ अंग विभूति लगाये।
राम कहे शुक ध्यान गहे बक, भेड़ तिरे पुनि मूड मुडाये ।। अध्यात्म-साधना का केन्द्र मन है। उसकी गति तीव्रतम है, इसलिए उसे वश में किये बिना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। 'भैया' को मन सबसे अधिक प्रबल लगा। त्रिलोकों में भ्रमण करानेवाला यही मन है। उसका स्वभाव चंचल है। इसे उन्होंने 'ब्रह्मविलास' की निम्न पंक्तियों में चित्रित किया है
"मन सो बली न दूसरो, देख्यो इहिं संसार । तीन लोक में फिरत ही, जतन लागै बार ।। मन दासन को दास है, मन भूपन को भूप।
मन सब बातनि योग्य है, मन की कथा अनूप ।। इसीलिए......... जब मन मूंधों ध्यान में, इन्द्रिय भई निराश ।
। तब इह आतम-ब्रह्म ने, कीने निज-परकाश।।" इसीलिए 'शत-अष्टोत्तरी' में उन्होंने मन को फटकारते हुए कहा है—“हे ! चेतन, तेरी मति किसने हर ली? तु अपने परमपद को क्यों नहीं समझता? अनादिकाल व्यतीत हो गया, क्या तुझे अब भी चेत नहीं हुआ? चार दिन के लिए ठाकुर हो जाने से क्या तू गतियों में घूमना भूल गया
- "केवलरूप विराजत चेतन, ताहि विलोकि अरे ! मतवारे।
____ काल अनादि वितीत भयो, अजहुँ तोहि चेत न होत कहा रे।।" ___ इसी संदर्भ में उन्होंने व्यक्ति को पहले सांसारिक इच्छाओं की ओर से सचेत किया और फिर नरभव दुर्लभता की ओर संकेत किया कि जीव अनादिकाल से मिथ्याज्ञान के वशीभूत होकर कर्म कर रहा है। कभी वह वामा के चक्कर में पड़ता है, कभी शरीर से राग करता
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है. तो कभी परिवार से। उसे यह ध्यान नहीं कि “आज कालि पीजरें सों पंछी उड़ जात है।" हे चिदानंद ! तुम अपने मूलस्वरूप पर विचार करो। जब तक तुम अन्य रूप में पगे रहोगे, तब तक वास्तविक सुख तुम्हें नहीं मिल सकेगा। नरभव की दुर्लभता का उपदेश सद्गुरु की प्रेरणा से साधक पाकर सचेत होता है
_ "एतो दुख संसार में, एतो सुख सब जान।
इमि लखि 'भैया' चेतिये, सुगुरु-वचन उर आन।।" ___ 'मधु-बिन्दु' की चौपाई में उन्होंने अन्य रहस्यवादी संतों के समान गुरु के महत्त्व को स्वीकार किया है। उनका विश्वास है कि सद्गुरु के मार्गदर्शन के बिना जीव का कल्याण नहीं हो सकता; पर वीतरागी सद्गुरु भी आसानी से नहीं मिलता, पुण्य के उदय से ही ऐसा सद्गुरु मिलता है ।
"सुभटा सौचै हिए मॅझार, ये सांचे तारनहार। मैं सठ फिरयौ करमवन-मांहि, ऐसे गुरु कहुँ पाए नाहिं।
अब मो पुण्य-उदय कुछ भयौ। साँचे गुरु को दर्शन लयौ।।" जैसा हम सभी जानते हैं, आत्मा की विशुद्धतम अवस्था परमात्मा कहलाती है। इस पर 'भैया भगवतीदास' ने अपने चेतन कर्मचारित्र' में जीव के समूचे तत्त्वों पर विशद प्रकाश डाला है
“एकहि ब्रह्म असंख्य प्रदेश। गुण अनंत चेतनता भेश। शक्ति अनंत लसै जिस मांहि । जा सम और दूसरौ नाहिं।। पर का परस रंच नहि जहाँ। शुद्धसरूप कहावै तहाँ। अविनाशी अविचल अविकार। सो परमातम है निरधार।।"
-(परमात्मा की जयमाल) इसीप्रकार चेतन और पुद्गल के अंतर को उन्होंने बड़ी काव्यात्मक-शैली में स्पष्ट किया है—“जिसप्रकार लाल वस्त्र पहिनने से शरीर लाल नहीं होता। वस्त्र जीर्ण-शीर्ण होने से शरीर जीर्ण-शीर्ण नहीं होता, उसी तरह शरीर के जीर्ण-शीर्ण होने से आत्मा जीर्ण-शीर्ण नहीं होता। शरीर पुद्गल की पर्याय है। और उसमें चिदानंदरूप आत्मा का निवास है (ब्रह्मविलास, आश्चर्य-चतुर्दशी)। परन्तु चित्तशुद्धि के बिना साधक आत्मविकास नहीं कर पाता; इसीलिए उन्होंने 'पुण्य-पचीसिका' में सम्यक्त्व को 'सुगति का दाता' और 'दुर्गति का विनाशक' कहा तथा भेदविज्ञान को ही आत्मोपलब्धि माना है। उन्होंने “जैसो शिवखेत तेसौ देह में विराजमान, ऐसो लखि सुमति स्वभाव में पगाते हैं", कहकर "ज्ञान बिना बेर-बेर क्रिया करी फेर-फेर, किया कोऊ कारज जतन को", कहा है। कवि का चेतन जब अनादिकाल से लगे मोहादिक को नष्ट कर अनन्तज्ञान शक्ति को पा जाता है, तो वह कह उठता है
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"देखो मेरी सखी ये आज चेतन घर आवै।
काल अनादि फिर्यो परवश ही अब निज सुधहिं चितावै।।" परमात्म-पद पाने के लिए साधक अनेक प्रकार के मार्ग अपनाता है। जब उसे योग-साधना का मार्ग दुर्गम प्रतीत होता है, तो वह प्रपत्ति (अनन्यशरणागत) भक्ति का सहारा लेता है। रहस्य-साधकों के लिए यह मार्ग अधिक सुलभ है, इसीलिए 'भैया भगवतीदास' प्रभु के चरणों की शरण में जाकर प्रबल कामदेव की निर्दयता का शिकार होने से बचना चाहते हैं। वे पार्श्व-जिनेन्द्र की भक्ति में अगाध निष्ठा व्यक्त कर उनकी सेवा से ही रात-दिन की चिन्ता नष्ट हो जायेगी, ऐसा मानते हैं
"काहे को देश दिशांतर धावत, काहे रिझावत इन्द्र नरिंद। काहे को देवि औ' देव मनावत, काहे को सीस नवावत चंद ।। काहे को सूरज-सों कर जोरत, काहे निहोरत मूढ़ मुनिंद। काहे को सोच करे दिन रैन त, सेवत क्यों नहिं पार्श्व-जिनंद ।।"
–(ब्रह्म विलास) इस स्थिति में भक्त-साधक की आत्मा विशुद्धतम होकर अपने में ही परमात्मा का रूप देखती है। तब वह प्रेम और श्रद्धा की अतिरेकता के कारण उससे अपना घनिष्ठ संबंध स्थापित करने लगती है। कभी साधक उसे पतिरूप में देखता है, कभी पत्नी और कभी बालक। 'भैया' का 'लाल' उनसे कहीं दूर चला गया, इसलिए उसको पुकारते हुए वे कहते हैं—“हे लाल, तुम किसके साथ घूम रहे हो? तुम अपने ज्ञान के महल में क्यों नहीं आते? तुमने अपने अंतर में झाँक कर कभी नहीं देखा कि वहाँ दया, क्षमा, समता
और शांति जैसी सुंदर नारियाँ तुम्हारे लिए खड़ी हुई हैं। वे अनुपम रूप सम्पन्न हैं।" ‘शत अष्टोत्तरी' का निम्न पद द्रष्टव्य है—
“कहाँ कहाँ कौन संग लागे ही फिरत लाल,
आवौ क्यों न आज तुम ज्ञान के महल में।....." अन्य सन्त कवियों-कबीर बनारसीदास, भूधरदास, द्यानतराय आदि की भाँति आध्यात्मिक होली का रंग भी मनोरथ है। भगवतीदास अपनी चूनरी को इष्टदेव के रंग में रँगने के लिए आतुर दिखाई देते हैं। उसमें आत्मारूपी सुंदरी विश्वरूप प्रीतम को प्राप्त करने का प्रयत्न करती है। सम्यक्त्वरूपी वस्त्र को धारणकर ज्ञानरूपी जल के द्वारा सभी प्रकार का मल धोकर वह सुंदरी शिव से विवाह करती है। इस उपलक्ष्य में एक सरस 'ज्योंनार' (सहभोज) होती है, जिसमें गणधर परोसने वाले होते हैं, जिसके खाने से अनन्त-चतुष्टय की प्राप्ति होती है
"तुम्ह जिनवर देहि रंगाई हो, विनवड़ सषी पिया शिव सुंदरी। अरुण अनुपम माल हो मेरो भव जलतारण चूनडी।।.....
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अनंत चतुष्टय सुष घणां जन्म मरण नहि होइ हो।।" – (श्री चूनरी) ‘शत अष्टोत्तरी' के एक सवैये में उन्होंने कहा है कि कायारूपी नगरी में चिदानंद रूपी राजा राज्य करता है। वह मायारूपी रानी में मग्न रहता है; पर जब उसका सत्यार्थ की ओर ध्यान गया, तो उसे ज्ञान उपलब्ध हो गया और मायाजाल दूर हो गयाकाया-सी जु नगरी में चिदानंद राज करै, माया-सी जू रानी पै मगन बहु भयो है। ऐसी राजधानी में अपने गुण भूलि रह्यो, सुधि जब आई तबै ज्ञान आप गह्यो है।।
इसप्रकार कबीर आदि संतों की भाँति भगवतीदास ने अपना अद्वैतवादी दृष्टिकोण प्रकट किया है। बहिरात्मा के ऊपर जो माया-कर्म जाल का पर्दा पड़ा हुआ है, वह सद्गुरु और भेदविज्ञान से दूर होकर अन्तरात्मा की ओर उन्मुख होता है और वही अन्तरात्मा चरम-विशुद्धि प्राप्तकर परमात्मा का अनुभव अपने घर में करने लगता है। यही आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार है, यही परमपद की प्राप्ति है, यही अद्वैतवाद है और यही आध्यात्मिकता की चरम-सीमा रूप रहस्यवाद है। जिसके दर्शन हमें उनके ब्रह्मविलास' में यत्र-तत्र मिल जाते हैं।
एक ओर जहाँ भगवतीदास की रचनाओं का भावपक्ष सुगठित और पुष्ट हैअध्यात्म और भक्ति समन्वय की दृष्टि से, वहीं दूसरी ओर कला-सौष्ठव की दृष्टि से भी वे अपने समकालीन कवियों से कम नहीं। उनकी भाषा तो प्रांजल है ही, साथ में कवित्तों में यथावश्यक मुहावरों का प्रयोग सौंदर्य-वृद्धि में कितना स्वाभाविक है, देखिए
“चेत रे अचेत पुनि चेतवे को नहिं ठौर ।
भाव कालि पींजरे सों पंछी उड़ जातु है।।" उनके पंचेन्द्रिय-संवाद' में अद्भुत लालित्य है। ब्रह्मविलास की विविध रचनाओं में भिन्न-भिन्न छंदों का प्रयोग हम पहले देख ही चुके हैं। विस्तार-भय से हम केवल नामोल्लेख ही कर रहे हैं—यथा- चौपाई, कवित्त, सवैया, छप्पय, कुंडलियाँ, अडिल्ल आदि। रूपक, उपमा, यम, अनुप्रास, चित्रालंकार आदि का स्वाभाविक प्रयोग कतिपय उद्धरणों में हमने देखा ही है। उन्होंने प्रकृति को कहीं आलम्बन रूप में तो कहीं शांत रस के उद्दीपन रूप में अधिक प्रस्तुत किया है। __ उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि अध्यात्मसाधक भैया भगवतीदास ने शृंगार भरे वातावरण में अपनी लेखनी को अध्यात्म-निरूपण और अहेतुक-भक्ति की ओर मोड़कर जो असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया है, वह हिन्दी के उत्तर मध्यकालीन साहित्य में अप्रतिम है। उन्होंने बाह्याडम्बरों से दूर रहकर संसारी जीव को वीतराग प्रभु के नाम-स्मरण, णमोकार-मंत्र और अहेतुक-भक्ति का महत्त्व बताकर आत्मकल्याण करने का मार्ग प्रशस्त किया। ऐसे अध्यात्म-साधक कवियों के साहित्यिक योगदान का पुनर्मूल्यांकन करना अपेक्षित है।
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पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : पत्रों द्वारा करणानुयोग परिचय लेखक : डॉ० श्रीमती उज्ज्वला शहा प्रकाशक .: वीतराग वाणी प्रकाशक, 157/9, निर्मला निवास, सायन ईस्ट, मुम्बई मूल्य : दस रुपये, (डिमाई साईज़, पेपरबैक, 160 पृष्ठ) संस्करण : प्रथम संस्करण 2000 ई० ___ इस लघु पुस्तिका में करणानुयोग जैसे सूक्ष्म एवं कठिन विषय का सरल एवं मनोवैज्ञानिक पद्धति से प्रभावी परिचय दिया गया है। शास्त्रीय विषयों को नई पीढ़ी तक पहुँचाने के लिये ऐसे प्रयोगों का स्वागत होना चाहिये। समाज की युवा पीढ़ी को करणानुयोग-विषयक जानकारी के लिये यह पुस्तक घर-घर में पहुँचाई जानी चाहिये।
इसका मुद्रण एवं प्रकाशन स्तरीय है, कहीं-कहीं मराठी भाषा का हल्का प्रभाव देखने को मिलता है। फिर भी समग्ररूप से यह प्रयास स्तुत्य है। इस श्रेष्ठ कार्य के लिए विदुषी लेखिका एवं प्रकाशक —दोनों ही साधुवाद के पात्र हैं। –सम्पादक **
(2)
पुस्तक का नाम : कराहता कुण्डलपुर लेखक : नीरज जैन प्रकाशक : मनीशा ट्रस्ट, शान्ति सदन, कम्पनी बाग, सतना (म०प्र०) मूल्य : पच्चीस रुपये, (डिमाई साईज, पेपरबैक, 136 पृष्ठ) संस्करण : ग्यारहवां संस्करण, 2000 ई० ___कुण्डलपुर क्षेत्र के परमपूज्य बड़े बाबा एवं अन्य पुरातात्त्विक महत्त्व की सामग्री के साथ अनपेक्षित रूप से जो परिवर्तन किया जा रहा है, उसके प्रति किसी पूर्वाग्रही पृष्ठभूमि के बिना देखने पर यह पुस्तक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध कराती है। तथा जीर्णोद्धार के अति आकर्षण में अपेक्षित सावधानियों के प्रति अच्छी जानकारी इस पुस्तक में मिलती है। आशा है कि निष्पक्षभाव से समाज में इसका स्वागत होगा, और
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अपेक्षित सुधार भी दृष्टिगोचर होगा ।
इसका मुद्रण एवं प्रकाशन स्तरीय है, तथा समग्ररूप से यह प्रयास स्तुत्य है ।
-सम्पादक **
(3)
पुस्तक का नाम : शौरसेनी प्राकृत और उसका साहित्य
लेखक
प्रकाशक
मूल्य संस्करण
प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन
श्री कुन्दकुन्द भारती ट्रस्ट, नई दिल्ली
: दस रुपये, (डिमाई साईज़, पेपरबैक, 48 पृष्ठ) : प्रथम संस्करण 2000 ई०
इस लघु पुस्तिका में श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली में चल रही 'आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला' के पांचवें सत्र में प्रदत्त शौरसेनी प्राकृतभाषा और साहित्य विषयक व्याख्यानों का आलेख रूप में संकलन कर संपादित एवं प्रकाशित किया गया है। इसमें विद्वान् लेखक ने शौरसेनी प्राकृत की परम्परा के प्रामाणिक बोध के साथ-साथ शौरसेनी प्राकृत के साहित्य की भी प्रभावी झलक प्रस्तुत की है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि न केवल शौरसेनी प्राकृतभाषा, अपितु उसका साहित्य भी बहुआयामी एवं व्यापक प्रसारक्षेत्र वाला था ।
इसके प्रारम्भ में विद्यापीठ के माननीय कुलपति प्रो० वाचस्पति उपाध्याय का प्रभावी 'प्राक्कथन' एवं विषयानुसारी जानकारियों से समन्वित डॉ० सुदीप जैन की 'प्रस्तावना' भी उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करते हैं ।
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इसका सम्पादन, मुद्रण एवं प्रकाशन स्तरीय है। तथा समग्र रूप से यह प्रयास स्तुत्य है । इस श्रेष्ठ कार्य के लिए विद्वान् लेखक एवं प्रकाशक - दोनों ही साधुवाद के पात्र हैं
1
- सम्पादक **
(4)
अनुवादक
प्रकाशक :
पुस्तक का नाम: बारहक्खर - कक्क लेखक
मूल्य संस्करण
: महमंद मुि
: हरिवल्लभ भायाणी
: अपभ्रंश साहित्य अकादमी, श्रीमहावीरजी (राज० )
: पच्चीस रुपये, (डिमाई साईज़, पेपरबैक, 96 पृष्ठ) : प्रथम संस्करण 2000 ई०
इस लघु पुस्तिका में श्री महयंद मुणि द्वारा विरचित 'बारहक्खरिय' एवं 'दोहा-वेल्ली' नामों से प्रसिद्ध 'बारहक्खर - कक्क' नामक कृति का सम्पादन एवं अनुवाद करके प्रकाशन किया गया है ।
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प्रख्यात भाषाशास्त्री डॉ० हरिवल्लभ भायाणी के द्वारा इसकी प्रामाणिक भूमिका, अनुवाद, मूलपाठ की शुद्धि अपेक्षित टिप्पण एवं विशिष्ट शब्दों की सूची के साथ-साथ सन्दर्भ-ग्रंथों की सूची देकर इस लघु कृति पर अच्छा शोधकार्य प्रस्तुत किया है। ___ बोलचाल की भाषा में जिसे 'बारहखड़ी' कहा जाता है, उसे आधार बनाकर इसमें जैनतत्त्वज्ञान को संक्षिप्त दोहों के रूप में पिरोकर मनोहारी प्रस्तुति की गई है। अपभ्रंश भाषा की इस उपयोगी कृति के उद्धार के लिये डॉ० हरिवल्लभ भायाणी एवं अपभ्रंश साहित्य अकादमी —दोनों ही साधुवाद के पात्र हैं। इसका सम्पादन, मुद्रण एवं प्रकाशन स्तरीय है। तथा समग्र रूप से यह प्रयास स्तुत्य
–सम्पादक **
(5) पुस्तक का नाम : हमारे पूर्वज हमारे हितैषी संकलन . : सुबोध कुमार जैन संपादन : जुगल किशोर जैन प्रकाशक : श्री जैन सिद्धान्त भवन, देवाश्रम, आरा-802301 (बिहार) मूल्य : पच्चीस रुपये, (डिमाई साईज़, पेपरबैक, 140+10=150 पृष्ठ) संस्करण : प्रथम संस्करण 2000 ई०
जैनसमाज में अनेकों ऐसे यशस्वी परिवार हुये हैं, जिनकी परम्परा में सामाजिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर उल्लेखनीय कार्य सम्पन्न हुये। ऐसा ही एक परिवार देवाश्रम परिवार' के नाम से प्रसिद्ध है। जैन सिद्धान्त भवन, आरा' इसी परिवार की एक ऐसी यशस्वी प्रस्तुति है, जिससे आज विश्वभर के विद्यानुरागी सुपरिचित हैं।
उच्च चारित्रिक मूल्यों एवं नैतिक परम्पराओं के पोषक इस परिवार के द्वारा विगत चार पीढ़ियों से जैनसमाज के साथ-साथ संपूर्ण राष्ट्र की जो महनीय सेवा की गई है, उसकी विनम्र एवं संक्षिप्त प्रस्तुति इस पुस्तक में तथ्यात्मक रूप से हुई है। इससे हम अपने देश एवं समाज के यशस्वी पूर्वजों के आदर्शों और कार्यशैली की प्रेरणा अपने जीवन के लिये ले सकते हैं, तथा उन आदर्शों को अपनाकर राष्ट्र और समाज को सर्वविध उन्नति के मार्ग पर ले जा सकते हैं।
पाण्डुलिपियों के संरक्षण, पुरातात्त्विक महत्त्व की कलाकृतियों की सुरक्षा तथा स्तरीय उपयोगी साहित्य के प्रकाशन के कारण यह परिवार विशिष्ट शिक्षा-प्रेमियों के द्वारा भी बहुमानित रहा है। शैक्षिक संस्थाओं के निर्माण तथा सफल संचालन का यशस्वी इतिहास इस परिवार के साथ जुड़ा हुआ है।
आशा है, देश-विदेश के प्रत्येक स्तरीय पुस्तकालय में तथा शिक्षण-केन्द्रों में इसकी प्रति अवश्य उपलब्ध कराई जायेगी, साथ ही देशभर के प्रत्येक जैन-मंदिर में भी इसे भेजा
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जायेगा, ताकि समाज अपने पूर्वजों की यशोगाथा से परिचित एवं लाभान्वित हो सके ।
इसका सम्पादन एवं प्रकाशन स्तरीय है । यद्यपि इसकी बाईंडिंग एवं मुद्रण का स्तर इस कृति की गरिमा के अनुरूप नहीं बन पाया है, तथापि विषय की महनीयता के कारण समग्ररूप से यह प्रयास स्तुत्य है । इस श्रेष्ठ कार्य के लिए विद्वान् लेखक एवं प्रकाशक दोनों ही साधुवाद के पात्र हैं 1
- सम्पादक **
(6)
पुस्तक का नाम : त्रिशलानंदन तीर्थंकर महावीर ( मराठी ) लेखन-संपादन : सुश्री विशल्यादेवी गंगवाल
प्रकाशक
मूल्य
संस्करण
: श्री स्वयंभू प्रकाशन, सोलापुर-413004 (महा०) : एक सौ रुपये, (डिमाई साईज़, पेपरबैक, 151 पृष्ठ) : प्रथम संस्करण 1999 ई०
मराठी भाषा में साहित्य-प्रकाशन की परम्परा प्राचीन होते हुये भी विगत दशक में इस दिशा में जैनसमाज की जागृति उल्लेखनीय है । अभी कुछ वर्षों में बहुआयामी दृष्टिकोण से मराठी भाषा का व्यापक जैन - साहित्य प्रकाशित हुआ है। कई संस्थायें इसमें संलग्न हैं, इससे महाराष्ट्र अंचल में जैन - साहित्य एवं तत्त्वज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिये • अच्छा वातावरण निर्मित हुआ है।
नासिक-निवासी सुश्री विशल्या गंगवाल द्वारा निर्मित इस कृति में कुल 23 परिच्छेदों के माध्यम से भगवान् महावीर की जीवन-दर्शन विषयक उपयोगी सामग्री प्रस्तुत की गई है। यद्यपि इसमें आधार-सामग्री एवं संदर्भ - सूचनाओं का प्राय: अभाव है, फिर भी भाषा एवं विषय के प्रवाह में यह कमी अधिक नहीं खलती है । आवरण-पृष्ठ पर पुरातात्त्विक महत्त्व की अर्वाचीन एवं प्राचीन सामग्री को चित्रित कर एक अच्छा प्रयास किया गया है । क्या ही अच्छा होता कि यदि इन चित्रों का परिचय भी आवरण-पृष्ठ के पीछे प्रकाशित कर दिया गया होता। इससे इन चित्रों की उपादेयता अधिक बढ़ जाती ।
इसका सम्पादन, मुद्रण एवं प्रकाशन स्तरीय है । इस अच्छे कार्य के लिए विद्वान् लेखक एवं प्रकाशक - दोनों ही बधाई के पात्र हैं ।
(7)
: हिमालयात दिगम्बर मुनी
: पद्मचन्द शास्त्री
संपादन एवं प्रस्तावना : डॉ० सुदीप जैन
मराठी अनुवाद
प्रकाशक
पुस्तक का नाम लेखन
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:
महामहोपाध्याय श्रीमती रेखा जैन : धर्ममंगल प्रकाशन, पुणे - 411007 ( महा० )
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संस्करण : प्रथम संस्करण 2000 ई० (पॉकेट बुक साईज़, पेपरबैक,
107 पृष्ठ) कुन्दकुन्द भारती संस्थान द्वारा प्रकाशित साहित्य को विभिन्न भाषाओं में अनूदित कर प्रकाशित किया जा रहा है, यह इस संस्था के द्वारा प्रकाशित साहित्य की उपादेयता को सूचित करता है, साथ ही अन्य प्रकाशकों के सौमनस्य को भी ज्ञापित करता है।
इस लघु पुस्तिका में आचार्यश्री विद्यानन्द मुनिराज के द्वारा मुनि-अवस्था में की गई हिमालय यात्रा का वृत्तान्त प्रस्तुत हुआ है। यद्यपि यह विवरण हिन्दी भाषा में विगत 25 वर्षों से कई संस्करणों में प्रकाशित हो चुका है, तथा देशभर में इसकी कई हजार प्रतियाँ पहुँच चुकी हैं; किन्तु मराठी भाषा में इसका यह प्रथम प्रकाशन है, इससे मराठी भाषा-भाषी जिज्ञासुओं के लिये जैनमुनि की चर्या एवं सूक्ष्म तत्त्वज्ञान के बारे में उपयोगी जानकारी उपलब्ध होगी।
इसका सम्पादन, मुद्रण एवं प्रकाशन स्तरीय है। इस उपयोगी कार्य के लिए विद्वान् लेखक एवं प्रकाशक -दोनों ही धन्यवाद के पात्र हैं।
–सम्पादक **
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पुस्तक का नाम : जिनवाणी का निर्झर लेखक : दुलीचन्द जैन साहित्यरत्न वितरक : जैन इंडस्ट्रियल कॉर्पोरेशन, 70, सेम्बुदोस स्ट्रीट, चेन्नई-600 001 मूल्य : पच्चीस रुपये, (गुटका साईज़, पेपरबैक, 149 पृष्ठ) संस्करण : प्रथम संस्करण 2000 ई० ___ इस कृति में नीतिपरक अनेकों सूक्तियां हिन्दी में अंग्रेजी-अनुवाद-सहित प्रकाशित की गई हैं। इनकी विशेषता यह है कि इनमें सांप्रदायिक संकीर्णता का अभाव है, तथा दार्शनिक गूढ़ता भी प्राय: नहीं है; सीधे सरल शब्दों में नीति एवं सदाचार की ज्ञानवर्धक सामग्री इसमें एकत्रित की गयी है।
इसका सम्पादन, मुद्रण एवं प्रकाशन स्तरीय है। तथा समग्र रूप से यह प्रयास स्तुत्य है। इस श्रेष्ठ कार्य के लिए विद्वान् लेखक एवं प्रकाशक -दोनों ही साधुवाद के पात्र हैं।
–सम्पादक **
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अभिमत
0 प्राकृतविद्या' का जनवरी-मार्च '2000 ई० का अंक प्राप्त हुआ। पत्रिका की सबसे सुखद बात लगी कि इसके सभी लेख आगम की कसौटी पर कसे हुए होने से पाठकों को दिग्भ्रान्त होने से बचाकर सही सामग्री प्रदान कर यथार्थता से परिचय करवाते हैं। आज के इस युग में इसकी ही महती आवश्यकता है। ___ 'अभीक्ष्णज्ञानोपयोग' लेख में समस्त प्राणियों के लिए व्यक्तिगत निराकुलता, सामाजिक जीवन में व्यवहार स्थिरता का मूलमंत्र बताकर विश्वव्यापी सभी समस्याओं का समाधान बता दिया। जैनशासन के संकट में पड़ने का प्रमुख कारण आगम-ग्रन्थों के प्रमाणों का विरोध या उपेक्षा करना है – इस पर प्रकाश डालते हुए डॉ० सुदीप जैन ने उन महामनीषियों को, जो आत्मध्यान या आत्मज्ञान के द्वारा मिथ्यात्व का क्षय करके संसारमार्ग से हटकर जीवन में मोक्षमार्ग की शुरुआत कर रहे हैं; उन्हें 'एकदेश जिन' संज्ञा से समाहूत किया है। इसके लिये उन्होंने विभिन्न आगम-ग्रन्थों के प्रमाणों से पुष्टि करते हुए उन मनीषियों को स्व-पर-श्रद्धा करने का विश्वास भी जगाया है। यदि ये मनीषी इतने उपकारभावी को 'एकदेश-आगमचक्खू साहू' संज्ञा से विभूषित करें, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
उत्कृष्ट सांस्कृतिक विरासत के सूचक कातन्त्र व्याकरण' का जो अपनी अनेकों विशेषताओं के कारण देश-विदेश में सदैव आदर को प्राप्त रहा है, सभी आवश्यक क्षेत्रों में पुन: पठन-पाठन होना उसके विस्मृत गौरव को पुन: प्रतिष्ठित कराना है।
–श्रीमती स्नेहलता जैन, जयपुर ** ● 'प्राकृतविद्या' पत्रिका प्राकृतभाषा पर तो अनुसंधान करती है, धार्मिक, ऐतिहासिक विषयों की जानकारी व मार्गदर्शन भी करती है। ___ अप्रैल-जून अंक में 'भट्टारक परम्परा' पर जो प्रभाव डाला है समयानुकूल है। हिन्दी-साहित्य के प्रचार और प्रसार में प्रारम्भिक काल से ही जैनाचार्यों, विद्वानों, लेखकों का विशेष योगदान रहा है, उन्होंने महाकाव्यों, पुराणों आदि की रचना कर साहित्य को ऊँचा उठाया है। 'प्राकृतविद्या' पत्रिका के अनुसार ही तिमाही हिन्दी-साहित्य-संबंधी पत्रिका के प्रकाशन की भी व्यवस्था हो जाये तो जैन-साहित्य विशेषरूप से प्रकाश में आयेगा।
-जैनप्रकाश जैन, विकासनगर, देहरादून **
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© 'प्राकृतविद्या' जनवरी-मार्च '2000 का अंक प्राप्त हुआ। सम्पादकीय आध्यात्मिक साधना के अन्तर्गत मिथ्यात्व' की व्याख्या सुन्दर ढंग से रखता है। 'अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग' लेख काफी सूझबूझ से लिखा गया शोधपूर्ण लेख है। 'कुमार-श्रमणादिभि:' 'जैन समाज का महनीय गौरवग्रन्थ कातन्त्र व्याकरण' भी अच्छे ज्ञानवर्धक लेख है। 'निर्ग्रन्थ श्रमण' संबंधी लेख भी आकर्षित करते हैं। 'गोरक्षा से अहिंसक संस्कृति की रक्षा' भारतीय परम्परा व प्रवृत्ति पर अच्छा प्रकाश डालता है। सिद्धार्थ का लाड़ला' काव्य सरल होते हुए भी अच्छी स्थिति बताता है। भगवान् महावीर के संबंध में अन्य जानकारी सामयिक होकर विचारणीय है। ___ अंक दूरदर्शिता को दर्शाने के साथ-साथ सम्पादन की कुशलता भी बताता है। अच्छे अंक देने हेतु बधाई स्वीकार करें।
–मदन मोहन वर्मा, ग्वालियर, (म०प्र०) ** ® 'प्राकृतविद्या' का नवीनतम अंक प्राप्त हुआ। 'अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग' आदि लेख बहुत ज्ञानवर्द्धक है। पूज्य आचार्यश्री के लेखों का एक संकलन समग्ररूप से निकलना उपयुक्त रहेगा, ताकि सब लेखों का एक साथ लाभ मिल सके। इस हेतु प्राकृतविद्या के विशेषांक भी प्रकाशित किए जा सकते हैं।
-रमेश चन्द जैन ** © 'प्राकृतविद्या' (वर्ष 11, अंक 4) जनवरी-मार्च '2000 ई० के मुखपृष्ठ पर 'पीयूष-पर्व' के उपलक्ष्य में पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के पावन सान्निध्य में ब्र० कमलाबाई जी को 'साहू श्री अशोक जैन स्मृति पुरस्कार' की चिर-स्मरणीय छवि निहार कर पुण्य का बंध हुआ। श्रमण-दीक्षा के उपरांत आत्मध्यान में लीन राष्ट्रसंत मुनिश्री विद्यानंद जी का दुर्लभ चित्र साधर्मी बंधुओं तथा भक्तों के लिए 'प्राकृतविद्या' की अनुपम भेंट के मानिंद है। ध्यान को 'चिंता-निरोध' के रूप में निरूपित करते हुए संजोई गई सामग्री के लिए साधुवाद ज्ञापित करना मेरा परम कर्तव्य है। 'पीयूष-पर्व' की रंगारंग झलकियों ने भी धर्मसभा में उपस्थित श्रद्धालुओं का मान बढ़ाते हुए मन मोह लिया है। अतएव इस निमित्त भी बधाई स्वीकार कीजिए।
–हुकमचंद सोगानी, उज्जैन (म०प्र०) ** © 'प्राकृतविद्या' मार्च '2000 ई० मिली। 'सम्पादकीय' से बड़ी बौद्धिक ऊर्जा मिलती है। डॉ० सुदीप जैन, प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन, डॉ० जयकुमार उपाध्ये के लेख संग्रहणीय हैं। आपका श्रम धन्य है। -डॉ० प्रणव शास्त्री, विजय नगर, बंदायूँ **
0 'प्राकृतविद्या' का जनवरी-मार्च '2000 ई० का अंक पढ़ा। आपके द्वारा लिखा संपादकीय 'मिथ्यात्व रहित सभी एकदेश जिन हैं' वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अतिशय उपयुक्त है। स्व-संवेदन या आत्मानुभूति अथवा शुद्धोपयोग सभी एकार्थवाची होने से शुद्धोपयोगी सातवें गुणस्थान से ही मानने वालों को यह करारा उत्तर है। वृहद् द्रव्यसंग्रह' की गाथा 27
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(दूसरा अध्याय की उत्थानिका) में भावना, शुद्धोपयोग, निर्विकल्प समाधि आदि उसी को कहा गया है (देखें पृ० 83)। इसके स्पष्टीकरण में भावना की व्याख्या करते हुए लिखा है'द्रव्यशक्ति रूप शुद्ध-पारिणामिकभावविषये भावना भण्यते।.......यत: एव भावना मुक्तिकारणं तत एव शुद्धपारिणामिकभावो ध्येयरूपो भवति, ध्यानभावनारूप: न भवति. ......'। ऐसे उत्कृष्ट संपादकीय के लिये आभारी हूँ। वैसे पूर्ण अंक की सामग्री एक आगम-स्वरूप स्वाध्याय-प्रेमियों को पौष्टिक आहार-स्वरूप है।
आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज का प्रवचन 'अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग' अध्यात्म में प्रवेश करानेवाला है। स्वाध्याय व्यवहारमार्ग और आत्मस्वरूप हूँ —ऐसा ज्ञानोपयोग निश्चय परिणाम है। यह अतिशय मननीय है।
भट्टारक-परम्परा पर दोनों विद्वानों के लेख दृष्टि सम्यक् करने वाले हैं। परंतु भट्टारकों ने पीछी-कमंडलु धारण करना यह कौन-सी प्रतिमा स्वीकार की है? —यह स्पष्ट नहीं हुआ। अस्तु, सम्पूर्ण अंक की सर्वांग सुंदरता-हेतु पुनश्च अभिनंदन।
-श्री मनोहर मारवडकर, महावीर नगर, नागपूर ** ● 'प्राकृतविद्या' का जनवरी-मार्च '2000 ई० का अंक पढ़ने को मिला। इस अंक में आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के व उनके विषय में लेख बड़े प्रभाव पैदा करने वाले हैं। सम्पादकीय तो सम्पादकीय न होकर स्तंभ-लेख होता, तो और अधिक श्रेयस्कर होता। पत्रिका के पृ० 73 पर 'श्रेणिक व कुणिक का वृत्तांत' पढ़कर मुझे लगा कि औरंगजेब से बढ़कर पितृ-विरोधी लोगों की भारतीय इतिहास में कमी नहीं है।
–एम०एल० जैन, नई दिल्ली ** 0 'प्राकृतविद्या' का पुराना अंक अप्रैल-जून 1998 ई० का अंक हाथ लगा। पढ़ने पर ऐसा लगा कि इस प्रकार की शोधपरक, अधिकृत व अनूठी पत्रिका से हम वंचित रह गये, खिन्नता हुई। 'जागे तभी सबेरा' की दृष्टि से पत्र लिख रहा हूँ।
-सुरेन्द्र पाल जैन, नई दिल्ली ** ● 'प्राकृतविद्या' का जनवरी-मार्च का अंक मिला। पत्र-पत्रिकाओं में संपादकीय' ही से उसका स्तर ज्ञात हो जाता है। प्रतीत हो जाता है कि रुझान किस ओर है। परन्तु विलम्ब से ही सही मुझे 'मिथ्यात्व-रहित सभी एकदेशजिन हैं' पढ़कर असीम शांति मिली। ऐसा लगा कि इस युग में कोई दूसरा टोडरमल अज्ञान-अंधकार को ज्ञानदीप से दूर कर रहा है। प्राकृतविद्या में गर्भित जिनवाणी के दुर्लभ-रत्न जनसामान्य एवं उच्च पदासीनों के यथार्थबोध में सहायक बने, सभी को कल्याणकारी हो - यही भावना है। आपके उत्कृष्ट ज्ञान की सराहना किये बिना रह पाना मुझसे संभव-सा नहीं था।
-दिनेश कुमार जैन एडवोकेट, सागर, (म०प्र०) **
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समाचार दर्शन
आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला का छठवां सत्र सम्पन्न
श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय), नई दिल्ली में दिनांक 23 एवं 24 मार्च 2000 ई० को शौरसेनी प्राकृतभाषा एवं साहित्य-विषयक आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला का छठवां सत्र गरिमापूर्वक सम्पन्न हुआ। श्री कुन्दकुन्द भारती न्यास द्वारा इस विद्यापीठ में स्थापित यह व्याख्यानमाला विगत 6 वर्षों से प्राकृतभाषा और साहित्य के उच्चस्तरीय सुप्रसिद्ध विद्वानों के गरिमापूर्ण व्याख्यान प्रतिवर्ष आयोजित करती है । तथा प्रत्येक वर्ष दो दिन दो शैक्षणिक सत्रों में अलग-अलग विषयों पर महत्त्वपूर्ण व्याख्यान मुख्यवक्ता के द्वारा प्रदान किये जाते हैं। यह एक विशेष उपलब्धि है कि प्रायः इस व्याख्यानमाला में परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज का पावन सान्निध्य भी प्राप्त होता है ।
इस वर्ष की व्याख्यानमाला में मुख्यवक्ता के रूप में पधारे विद्ववर्य प्रो० प्रेमसुमन जैन (अध्यक्ष, जैनविद्या एवं प्राकृतविभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर) के दो महत्त्वपूर्ण व्याख्यान हुये। दिनांक 23 मार्च के व्याख्यान का विषय था- 'प्राकृत - अध्ययन के सौ वर्ष', तथा 24 मार्च को उन्होंने ‘शौरसेनी प्राकृत साहित्य की सांस्कृतिक धरोहर' विषय पर अपना व्याख्यान दिया । इन दोनों व्याख्यान-स - सत्रों में परमपूज्य आचार्यश्री के मंगल प्रवचन भी समागत विद्वानों एवं जिज्ञासुओं के लिये विशेष आकर्षण के केन्द्र रहे। व्याख्यानमाला में समागत विद्वानों एवं अतिथियों का वैदुष्यपूर्ण स्वागत विद्यापीठ के माननीय कुलपति प्रो० ( डॉ० ) वाचस्पति उपाध्याय ने किया ।
इस व्याख्यानमाला के द्वारा विद्यापीठ में ही नहीं, अपितु सारे देश में प्राकृतभाषा, विशेषतः शौरसेनी प्राकृत के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त हो रही हैं। सदा की भाँति इस सत्र का भी संयोजन एवं संचालन विद्यापीठ में प्राकृतभाषा विभाग के अध्यक्ष डॉ० सुदीप जैन ने किया । --डॉ० जयकुमार उपाध्ये ** 'कातंत्र - व्याकरण' भारतीय लोकभाषाओं एवं संस्कृत दोनों का सेतु
“ ईसापूर्व काल में रचित कातंत्र - व्याकरण नामक ग्रंथ समस्त भारतीय लोकभाषाओं एवं संस्कृत भाषा के बीच 'सेतु' का काम करता है । यह ग्रंथ सरलतम पद्धति से हर वर्ग के लोगों
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को संस्कृत भाषा को सीखने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं विश्वविख्यात साधन रहा है। इसी कारण से न केवल भारतवर्ष अपितु भारत के बाहर भी विभिन्न एशियाई देशों में इसका व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है।" -ये विचार प्रख्यात भाषाशास्त्री एवं समालोचक डॉ० नामवर सिंह जी ने कातंत्र-व्याकरण पर 'श्री कुन्दकुन्द भारती न्यास' द्वारा आयोजित अखिल भारतीय संगोष्ठी में व्यक्त किए, जो श्रुतपंचमी महापर्व के अवसर पर दिनांक 6-7 मई 2000 ई० को सम्पन्न हुई। संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र' की अध्यक्षता करते हुए श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ के कुलपति प्रो० वाचस्पति उपाध्याय ने अनेक प्रमाणों के साथ यह स्पष्ट किया कि “कातंत्र-व्याकरण प्राकृतभाषा एवं संस्कृत दोनों का सामंजस्य स्थापित करता है।" उन्होंने बताया कि हमारी संस्कृति के ऐसे अमूल्य रत्नों के प्रति पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने सदैव एक नई दिशा दी है। ___ संगोष्ठी में अपने मंगल-आशीर्वचन में आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने कहा कि कातंत्र-व्याकरण केवल प्राचीन होने के कारण ही महान् नहीं है, अपितु लोकोपयोगी होने के कारण इसकी वास्तविक महत्ता है। संस्कृत एक प्राचीन साहित्यिक भाषा है, अत: इसके ज्ञान का प्रसार अधिक से अधिक लोगों में होना चाहिए। यह कार्य आज तक कातंत्र-व्याकरण के प्रचार से ही सम्भव हुआ है और आगे भी होगा।
संगोष्ठी में कुल चार सत्रों में 19 आलेख प्रस्तुत किये गये तथा 3 आलेख ऐसे भी आये, जिनके लेखक अपरिहार्य कारणवश इस संगोष्ठी में उपस्थित नहीं हो सके थे, फिर भी उन्होंने अपने शोधपूर्ण-आलेख प्रेषित किये थे। ऐसे लेखकों में प्रो० एम०डी० वसंतराज का 'Katantra Vyakarana in the view of Jain tradition' शीर्षक आलेख, प्रो० गंगाधर भट्ट जयपुर का 'पाणिनीय-कातन्त्र-व्याकरणयोस्तुलनात्मकमनुशीलनम्' शीर्षक आलेख तथा डॉ० (श्रीमती) राका जैन लखनऊ का कातन्त्र व्याकरण का कारण वैशिष्ट्य' शीर्षक आलेख थे।
'उद्घाटन-सत्र' -प्रात:काल 8.45 बजे से 12.00 बजे तक संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र' की अध्यक्षता स्वनामधन्य विद्वद्वर्य प्रो० वाचस्पति उपाध्याय, कुलपति श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय), नई दिल्ली ने की। इस सत्र में कुल 3 शोध-आलेख पढ़े गये और उन पर विशद चर्चा हुई। पठित आलेखों के प्रस्तोता विद्वान् एवं आलेख-विषय निम्नानुसार हैं :1. डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी, वाराणसी : कातन्त्र व्याकरण की विषय-विवेचना
(शब्दविद्यासंकायाध्यक्ष, तिब्बती संस्थान सारनाथ) पद्धति। 2. डॉ० रामसागर मिश्र, लखनऊ
: कातन्त्र व्याकरण की परम्परा एवं (रीडर, केन्द्रिय संस्कृत विद्यापीठ, लखनऊ) महत्त्व। 3. प्रो० वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ
: कातन्त्र पर कुछ विचार। (प्रो० म०गा० अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय) इनमें डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी का आलेख अपने विषय-गाम्भीर्य एवं प्रो. वृषभप्रसाद
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जैन का आलेख प्रस्तुति की विशेषता के कारण अधिक चर्चित रहे । इस सत्र का संचालन डॉ० सुदीप जैन ने किया ।
'द्वितीय सत्र'
संगोष्ठी के 'द्वितीय सत्र' की अध्यक्षता विद्वद्वर्य प्रो० सत्यरंजन बनर्जी, कलकत्ता ने की। इस सत्र में कुल 6 शोध - आलेख पढ़े गये और उन पर विशद चर्चा हुई। पठित आलेखों के प्रस्तोता विद्वान् एवं आलेख - विषय निम्नानुसार हैं
1. प्रो० प्रेमसुमन जैन, उदयपुर
- अपराह्न 3.00 बजे से 5.30 बजे तक
-
(प्रो० प्राकृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय ) 2. डॉ० सुदीप जैन, नई दिल्ली
(प्रो० संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय ) 4. डॉ० विद्यावती जैन, आरा
(रीडर, ला०ब०शा०रा०सं० विद्यापीठ, नई दिल्ली) वैशिष्ट्य ।
3. प्रो० गंगाधर पण्डा, वाराणसी
-:
( निदेशक, कोटा मुक्त विश्वविद्यालय) 2. डॉ० उदयचन्द जैन, उदयपुर
: कातन्त्र व्याकरण और कथात्मक तथ्य।
( रीडर, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर) 3. प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन, आरा
(प्रो० संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय ) 4. प्रो० रमेशकुमार पाण्डेय, नई दिल्ली (प्रो० ला०ब०शा०रा०सं० विद्यापीठ, नई दिल्ली)
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: कातन्त्र व्याकरण की मूल परम्परा एवं
( पूर्व प्रो० मगध विश्वविद्यालय, आरा ) 5. डॉ० प्रकाशचन्द्र जैन, साहिबाबाद (पूर्व प्राचार्य समन्तभद्र महाविद्यालय ) 6. डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री, नई दिल्ली (शोध अधिकारी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली)
इनमें प्रो० प्रेमसुमन जैन का आलेख अपने विषय चयन एवं डॉ० सुदीप जैन का आलेख शोधात्मक दृष्टि की विशेषता एवं डॉ० विद्यावती जैन का आलेख पाण्डुलिपियों की . व्यापक जानकारी की दृष्टि से अधिक चर्चित रहे । इस सत्र का संचालन प्रो० ( डॉ०) राजाराम जैन ने किया ।
: कातन्त्र व्याकरण की अपूर्वता ।
'तृतीय- सन्न' - प्रात: काल 9.00 बजे से 12.00 बजे तक
संगोष्ठी के 'तृतीय सत्र' की अध्यक्षता विद्वद्वर्य एवं वरिष्ठ समालोचक प्रो० नामवर सिंह, नई दिल्ली ने की। इस सत्र में कुल 6 शोध - आलेख पढ़े गये और उन पर विशद चर्चा हुई। पठित आलेखों के प्रस्तोता विद्वान् एवं आलेख - विषय निम्नानुसार हैं। 1. डॉ० सुषमा सिंघवी, उदयपुर
:
: Katantra Vyakrana - The Style and Technical Terms
: राजस्थान के शास्त्र - भण्डारों में
: कातन्त्र व्याकरण सम्बन्धी कुछ दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ ।
शर्ववर्म प्रणीत कातन्त्र व्याकरण में वर्ण-विचार
: कातन्त्र व्याकरण की प्राचीनता ।
उपलब्ध कातन्त्र व्यारण । अद्यावधि अप्रकाशित कातन्त्र - विस्तर परिचयात्मक अध्ययन ।
: कातन्त्र का नाट्यशास्त्र पर प्रभाव ।
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5. डॉ० आर०एस० सैनी, नई दिल्ली
: कातन्त्र व्याकरण का संपादन- अनुभव ।
(सेवानिवृत्त रीडर, दिल्ली विश्वविद्यालय) 6. प्रो० धर्मचन्द्र जैन, कुरुक्षेत्र
: कातन्त्र व्याकरण और उसकी उपादेयता ।
(प्रो० कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय )
इनमें डॉ० राजाराम जैन का आलेख अपने प्रतिपाद्य ग्रंथ की सूचना एवं डॉ० सुषमा सिंघवी का आलेख विषय- प्रस्तुतीकरण दृष्टि से अधिक चर्चित रहे। इस सत्र का संचालन प्रो० प्रेमसुमन जैन ने किया । • अपराह्न 3.00 बजे से 5.30 बजे तक
'समापन सत्र'
संगोष्ठी के 'समापन सत्र' की अध्यक्षता विद्ववर्य प्रो० प्रेमसिंह, नई दिल्ली ने की। इस सत्र कुल 3 शोध-आलेख पढ़े गये और उन पर विशद चर्चा हुई। पठित आलेखों के प्रस्तोता विद्वान् एवं आलेख - विषय निम्नानुसार हैं 1. प्रो० अश्विनी कुमार दास, नई दिल्ली
:―
(प्रो० ला०ब०शा०रा०सं० विद्यापीठ, नई दिल्ली) 2. डॉ० रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर
पाणिनीय व्याकरण और कातन्त्र
व्याकरण का तुलनात्मक वैशिष्ट्य । : कातन्त्र व्याकरण : पाणिनीय व्याकरण के आलोक में ।
: कातन्त्र व्याकरण का पालि - व्याकरणों पर प्रभाव ।
( रीडर, केन्द्रिय संस्कृत विद्यापीठ, लखनऊ ) इनमें प्रो० अश्विनी कुमार दास का आलेख अपने प्रतिपाद्य विषय के वैशिष्ट्य एवं डॉ० विजय कुमार जैन का आलेख तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से अधिक चर्चित रहे। इस सत्र का संचालन डॉ० सुदीप जैन ने किया ।
संगोष्ठी के अन्त में संयोजक डॉ० सुदीप जैन ने सभी विद्वानों की ओर से निम्नलिखित संस्तुतियाँ सर्वसम्मति से प्रस्तुत कीं
(1) कुन्दकुन्द भारती संस्थान द्वारा आगामी दो वर्षों के अन्दर कातन्त्र - व्याकरण विषयक एक वृहद् राष्ट्रिय संगोष्ठी का आयोजन पुनः किया जाने का निश्चय व्यक्त किया । (2) श्री कुन्दकुन्द भारती प्रांगण में शीघ्र ही निर्मित कराये जाने वाले सम्राट् खारवेल भवन नामक पुस्तकालय में कातन्त्र व्याकरण विषय स्वतंत्र कक्ष की स्थापना की जाय, जिसमें देश-विदेश में उपलब्ध सभी कातन्त्र सम्बन्धी पाण्डुलिपियों की मूल अथवा माइक्रोफिल्मिंग प्रतिलिपियों, प्रकाशित सामग्री की न्यूनतम एक - एक प्रति का संग्रह किया जाये । (3) कातन्त्र-व्याकरण के बहुआयामी शोध परक मूल्यांकन हेतु एक 'कातन्त्र-परिषद्' की स्थापना का संकल्प व्यक्त किया गया, जिसका उद्देश्य कातन्त्र व्याकरण विषयक बहुआयामी शोध कार्य की रूपरेखा बनाना एवं उसे क्रियान्वित करके उसका प्रकाशन कराना होगा ।
( अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, जैन कॉलेज, बिजनौर) 3. डॉ० विजय कुमार जैन, लखनऊ
:
(4) ‘पाणिनीकालीन भारतवर्ष' की पद्धति पर 'कातन्त्रकालीन भारत' नामक एक बहूपयोगी शोधपरक ग्रन्थ की रचना की जाये, जिसमें भारतीय इतिहास, संस्कृति तथा उसके
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विविध अंगों का ससन्दर्भ प्रकाशन हो। (5) पूर्वोक्त कातन्त्र-विस्तर, दुर्गवृत्ति द्वयाश्रय काव्य एवं प्राकृत-मिश्रित बालावबोध टीका
का सम्पादन एवं प्रकाशन शीघ्र ही किया जाय।
इस संगोष्ठी में देशभर से आये लगभग पचास केन्द्रिय विद्यालय के संस्कृत अध्यापकों, स्थानीय शताधिक संस्कृत विद्वानों, जिज्ञासु शोधछात्रों एवं समाज के व्यक्तियों ने उत्साहपूर्वक सहभागिता की। इसप्रकार यह संगोष्ठी अत्यंत गरिमापूर्वक सम्पन्न हुई।
–सम्पादक ** प्राकृतभाषा विभाग की गौरवपूर्ण उपलब्धियाँ श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय), नई दिल्ली110016 में नवस्थापित प्राकृतभाषा विभाग ने शत-प्रतिशत परीक्षा परिणाम हासिल करके अपनी सार्थकता ज्ञापित की है। विशेष उल्लेखनीय बात यह भी रही है कि इस शैक्षणिक सत्र में सम्पूर्ण विश्वविद्यालय में सर्वश्रेष्ठ तीनों स्थान इसी विभाग के छात्र-छात्राओं ने प्राप्त किये हैं। विभाग के परीक्षा परिणाम निम्नानुसार हैंआचार्य द्वितीय वर्ष - परीक्षा परिणाम शत-प्रतिशत प्रथम स्थान - श्रीमती रंजना जैन
- 85.9% द्वितीय स्थान - श्रीमती अमिता जैन
82.5% तृतीय स्थान - अमित जैन
80.1% विशेष उल्लेखनीय बात यह भी रही कि 11 छात्रों में 7 वरीयता सूची में (75% से अधिक), 3 छात्र प्रथमश्रेणी में तथा 1 छात्र द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। आचार्य प्रथम वर्ष
- परीक्षा-परिणाम शत-प्रतिशत प्रथम स्थान - सुश्री प्रीति अग्रवाल
- 74.4% प्राकृत प्रमाणपत्रीय पाठ्यक्रम - परीक्षा परिणाम शत-प्रतिशत प्रथम स्थान - (1) श्रीमती बिंदु जैन
96.5% (2) श्रीमती ममता जैन
96.5% द्वितीय स्थान - श्रीमती ऋतु जैन
93% तृतीय स्थान - श्रीमती सरोज श्रीवास्तव
90% डिप्लोमा पाठ्यक्रम - परीक्षा परिणाम शत-प्रतिशत प्रथम स्थान - कु० लीना जैन
91% द्वितीय स्थान - श्रीमती सरिता जैन
- 90% तृतीय स्थान - रजनीश शुक्ल
- 85%
—संपादक ** डॉ० मनोरमा जैन को बधाई पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी द्वारा प्रकाशित एवं श्रीमती डॉ० मनोरमा जैन द्वारा
। । । ।
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लिखित 'पञ्चाध्यायी में प्रतिपादित जैनदर्शन' नामक शोध-प्रबन्ध पर 'उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान' ने वर्ष 1998 का पाँच हजार रुपये का 'श्रमण पुरस्कार' प्रदान कर श्रीमती डॉ० जैन का सम्मान किया है । -अर्चना अग्रवाल, दुर्गाकुंड रोड, वाराणसी **
पत्राचार पाठ्यक्रमों में प्रवेश प्रारम्भ
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी द्वारा संचालित अपभ्रंश साहित्य अकादमी द्वारा 'पत्राचार अपभ्रंश सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम' का नवां सत्र 1 जनवरी, 2001 से आरम्भ किया जा रहा है। 'पत्राचार जैनधर्म दर्शन एवं संस्कृति सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम 2001 में प्रवेश' का सत्र 1 जनवरी, 2001 से 31 दिसम्बर, 2001 तक रहेगा ।
-डॉ० कमलचन्द सोगाणी, श्रीमहावीरजी, (राज० ) ** 'नियम सल्लेखना' के अंतर्गत संस्तरारोहण - विधि के साथ समाधिमरण
सोलापुर स्थित श्राविका संस्थाननगर की संचालिका, विदुषी पद्मश्री ब्र० पंडिता सुमतिबाई शहा की द्वादशवर्षीय नियम- संल्लेखना के अंतर्गत संस्तरारोहण - विधि से रविवार दिनांक 11.6.2000 दिन सुबह 7.53 बजे विधिपूर्वक संपन्न हुई ।
इस विधि में पूर्व 3.6.2000 के दिन श्री भक्तामर विधान पं० महावीर शास्त्री एवं ब्र० रेवतीबेन दोशी के मार्गदर्शन में तथा आश्रमवासी महिलाओं की उपस्थिति में संपन्न हुआ।
लगभग एक साल से वृद्धावस्थावश बिस्तर में अस्वस्थ होने पर भी अचानक उन्होंने जागृत अवस्था में दिशाबंधन, परिग्रह एवं वाहन - त्याग, सभी प्रकार के अनाजों का त्याग स्वयं किया और नारियल जल लेने की छूट रखी। ये नियम क्षु० जयश्री माताजी की उपस्थिति में उन्होंने धारण किये । कायक्षीणता - प्रतिदिन बढ़ती गयी; परंतु अपूर्व शांति एवं जागृतता सभी के लिए आश्चर्य का विषय बनी रही । अखंड णमोकार मंत्रोच्चार, स्तवनपाठ, भक्तिपाठ, इत्यादि के पाठ से वातावरण मंगलमय एवं पवित्र बना रहा और सुमतिबेनजी शहा का समाधिमरण ता० 6.7.2000 को रात्रि 8.10 बजे हो गया ।
प्राकृतभाषा के लिए समर्पित व्यक्तित्व का वियोग
प्राकृतभाषा एवं जैनदर्शन के लिए समर्पित व्यक्तित्व श्री शांतिलाल वनमाली शेठ का दिनांक 11 जुलाई 2000 ई० को सांयकाल 7.00 बजे धर्मध्यानपूर्वकं देहावसान हो गया । आप जीवनभर प्राकृतभाषा एवं जैनदर्शन के प्रचार-प्रसार के लिए राष्ट्रीय - अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समर्पित रहे ।
प्राकृतविद्या परिवार की ओर से दिवंगत आत्माओं को बोधिलाभ एवं सुगतिगमन की कामना के साथ श्रद्धासुमन समर्पित हैं । संपादक **
प्राकृतविद्या के स्वत्वाधिकारी एवं प्रकाशक श्री सुरेशचन्द्र जैन, मंत्री, श्री कुन्दकुन्द भारती, 18-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली- 110067 द्वारा प्रकाशित; एवं मुद्रक श्री महेन्द्र कुमार जैन द्वारा, पृथा ऑफसेट्स प्रा० लि०, नई दिल्ली- 110028 पर मुद्रित ।
भारत सरकार पंजीयन संख्या 48869/89
प्राकृतविद्या + अप्रैल-जून 2000
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इस अंक के लेखक-लेखिकायें
1. पं० वासुदेव द्विवेदी शास्त्री – आप संस्कृत - प्राकृत भाषाओं के प्रकांड वयोवृद्ध विद्वान् एवं समर्पित शिक्षाविद् हैं । ज्ञाननगरी वाराणसी को केंद्र बनाकर आप विगत 60 वर्षों से अहर्निश संस्कृत-प्राकृत के प्रचार में संलग्न हैं । इस अंक में प्रकाशित 'प्राकृतविद्या - प्रशस्तिः' नामक संस्कृत कविता आपकी लेखनी से प्रसूत है ।
स्थायी पता – सार्वभौम संस्कृत प्रचार संस्थान, वाराणसी ( उ०प्र०)
2. डॉ० राजाराम जैन—आप मगध विश्वविद्यालय में प्राकृत, अपभ्रंश के ‘प्रोफेसर' पद से सेवानिवृत्त होकर श्री कुन्दकुन्द भारती जैन शोध संस्थान के निदेशक' हैं। अनेकों महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों, पाठ्यपुस्तकों एवं शोध - आलेखों के यशस्वी लेखक भी हैं। इस अंक के अन्तर्गत प्रकाशित 'इक्कीसवीं सदी : कातन्त्र- व्याकरण का स्वर्णयुग' एवं 'यशस्वी- सुत के पावन संस्मरण' नामक आलेखों के लेखक आप हैं ।
पत्राचार - पता — महाजन टोली नं० 2, आरा- 802301 ( बिहार )
3. डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री — आप जैनदर्शन के साथ-साथ प्राकृत-अपभ्रंश एवं हिंदी भाषाओं के विश्वविख्यात विद्वान् एवं सिद्धहस्त लेखक हैं । पचासों पुस्तकें एवं दो सौ से अधिक शोध-निबंध प्रकाशित हो चुके हैं। संप्रति आप भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली में कार्यरत हैं। इस अंक में प्रकाशित 'आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों की भाषा' नामक लेख आपकी लेखनी से प्रसूत है।
स्थायी पता – 243, शिक्षक कालोनी, नीमच - 458441 ( म०प्र०)
4. डॉ० जानकी प्रसाद द्विवेदी —- वर्ष 1997 के 'आचार्य उमास्वामी पुरस्कार' से सम्मानित डॉ० द्विवेदी सारनाथ (वाराणसी) स्थित तिब्बती शिक्षण संस्थान' में संस्कृत के उपाचार्य पद पर कार्यरत हैं । 'कातंत्र - व्याकरण' के संबंध में आपके द्वारा किया गया शोधकार्य अद्वितीय है। इस अंक में प्रकाशित 'प्राकृत का संस्कृत से सामंजस्य' नामक आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है।
स्थायी पता— एस०-19/134, ए०सी०- 1, जदीद बाजार, नदेसर, वाराणसी कैण्ट-2210021
5. डॉ० दयाचन्द्र साहित्याचार्य — संस्कृत - साहित्य - जगत् में आप एक मूर्धन्य विद्वान् के रूप में जाने जाते हैं, तथा जैनदर्शन, इतिहास एवं संस्कृति के क्षेत्र में भी आपका व्यापक अध्ययन है। इस अंक में प्रकाशित 'जैनदर्शन में रत्नत्रय की मीमांसा' लेख आपका है।
स्थायी पता – प्राचार्य, श्री गणेश दि० जैन संस्कृत महाविद्यालय, लक्ष्मीपुरा, मोराजी, सागर- 470002 ( म०प्र० )
6. अनूपचन्द न्यायतीर्थ —— आप वयोवृद्ध जैनविद्वान् एवं कवि हैं । इस अंक में प्रकाशित '2600वीं वीर जयंती' शीर्षक हिन्दी कविता आपके द्वारा लिखित है ।
स्थायी पता – 769, गोदिकों का रास्ता, किशनपोल बाज़ार, जयपुर-302003 ( राज० ) 00 110 प्राकृतविद्या + अप्रैल-जून '2000
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7. डॉ० उदयचंद जैन–सम्प्रति सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज०) में प्राकृत विभाग में उपाचार्य हैं। प्राकृतभाषा एवं व्याकरण के विश्रुत विद्वान् एवं सिद्धहस्त प्राकृत कवि हैं। इस अंक में प्रकाशित 'सम्राट अशोक की जैनदृष्टि' शीर्षक लेख आपकी लेखनी से प्रसूत हैं।
स्थायी पता—पिऊकुंज, अरविन्द नगर, ग्लास फैक्ट्री चौराहा, उदयपुर-313001 (राज०)
8. डॉ० (श्रीमती) पुष्पलता जैन—आप हिन्दी एवं अपभ्रंश भाषाओं की विदुषी हैं। नागपुर के महाविद्यालय में वरिष्ठ व्याख्याता हैं। इस अंक में प्रकाशित 'अध्यात्मसाधक भैया भगवतीदास एवं उनका ब्रह्मविलास' शीर्षक लेख आपके द्वारा लिखित है।
स्थायी पता—न्यू एक्सटेंशन एरिया, तुकाराम चाल, सदर, नागपुर-440001 (महा०)
9. डॉ० लालचन्द जैन—आप संप्रति 'प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली' में कार्यरत हैं। इस अंक में प्रकाशित आलेख 'जैन वाङ्मय में द्रोणगिरि' आपके द्वारा रचित है।
स्थायी पता—प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली-844128 (बिहार)
10. डॉ० (श्रीमती) माया जैन—आप जैनदर्शन की अच्छी विदुषी हैं। इस अंक में प्रकाशित भाषा का स्वरूप एवं विश्लेषण' शीर्षक आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है।
स्थायी पता-पिऊकुंज, अरविन्द नगर, ग्लास फैक्ट्री चौराहा, उदयपुर-313001 (राज०)
11. डॉ० सुदीप जैन श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली में 'प्राकृतभाषा विभाग' में उपाचार्य एवं विभागाध्यक्ष हैं। तथा प्राकृतभाषा पाठ्यक्रम के संयोजक भी हैं। अनेकों पुस्तकों के लेखक, सम्पादक । प्रस्तुत पत्रिका के 'मानद सम्पादक' । इस अंक में प्रकाशित ‘सम्पादकीय', के अतिरिक्त प्राकृतविद्या' के वर्ष 10 एवं 11 के अंकों में प्रकाशित लेखों का विवरण', आपके द्वारा लिखित हैं।
स्थायी पता—बी-32, छत्तरपुर एक्सटेंशन, नंदा फार्म के पीछे, नई दिल्ली-110030
12. जयचन्द्र शर्मा—आप 'श्री संगीत भारती' शोध विभाग, बीकानेर (राज०) में निदेशक पद पर कार्यरत हैं। इस अंक में प्रकाशित ‘णमोकार मंत्र की जापसंख्या एवं पंचतंत्री वीणी' नामक आलेख आपके द्वारा रचित है !
पत्राचार पता—'श्री संगीत भारती' शोध विभाग, रानी बाज़ार, बीकानेर-334001 (राज०)
13. शारदा पाठक—इस अंक में प्रकाशित 'ऋषि और मुनि में अंतर' शीर्षक टिप्पणी आपकी लेखनी से प्रसूत है।
14.श्रीमती रंजना जैन—आप प्राकृतभाषा, जैनदर्शन एवं हिन्दी साहित्य की विदुषी लेखिका हैं। इस अंक में प्रकाशित आलेख 'जैन-संस्कृति में आहार-शुद्धि' आपके द्वारा लिखित है।
स्थायी.पता—बी-32, छत्तरपुर एक्सटेंशन, नंदा फार्म के पीछे, नई दिल्ली-110030
15. स्नेहलता जैन—आप अपभ्रंश की शोधछात्रा हैं। इस अंक में प्रकाशित 'महाकवि स्वयंभूकृत पउमचरिउ के विद्याधर काण्ड में विद्याधरों का देश भारत' शीर्षक आलेख आपके द्वारा लिखित है।
स्थायी पता-14/35, शिप्रापथ, मानसरोवर, जयपुर-302020 (राज०)
16. धर्मेन्द्र जैन—आप जैनदर्शन एवं प्राकृत के शोध-छात्र हैं एवं सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर के जैनविद्या-प्राकृत विभाग' में शोधरत हैं। इस अंक में प्रकाशित 'आचार्य यतिवृषभ के अनुसार अंतरिक्ष-विज्ञान एवं ग्रहों पर जीवों की धारणा' शीर्षक आलेख आपके द्वारा रचित हैं। प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
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'सर्वास्वेह हि शुद्धासु जातिषु द्विजसत्तमाः।
शौरसेनी समाश्रित्य भाषा काव्येषु योजयेत् ।।' –(नाट्यशास्त्र) अर्थ: हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! सभी शुद्ध जातिवाले लोगों के लिए शौरसेनी प्राकृतभाषा का आश्रय लेकर ही काव्यों में भाषा का प्रयोग करना चाहिये।
शौरसेनी प्राकृत "शौरसेनी प्राकृतभाषा का क्षेत्र कृष्ण-सम्प्रदाय का क्षेत्र रहा है। इसी प्राकृतभाषा में प्राचीन आभीरों के गीतों की मधुर अभिव्यंजना हुई, जिनमें सर्वत्र कृष्ण कथापुरुष रहे हैं और यह परम्परा ब्रजभाषा-काव्यकाल तक अक्षुण्णरूप से प्रवाहित होती आ रही है।”
-डॉ० सुरेन्द्रनाथ दीक्षित
(भरत और भारतीय नाट्यकला, पृष्ठ 75) "भक्तिकालीन हिंदी काव्य की प्रमुख भाषा 'ब्रजभाषा' है। इसके अनेक कारण हैं। परम्परा से यहाँ की बोली शौरसेनी मध्यदेश' की काव्य-भाषा रही है। ब्रजभाषा आधुनिक आर्यभाषाकाल में उसी शौरसेनी का रूप थी। इसमें सूरदास जैसे महान् लोकप्रिय कवि ने रचना की और वह कृष्ण-भक्ति के केन्द्र ‘ब्रज' की बोली थी, जिससे यह कृष्ण-भक्ति की भाषा बन गई।” –विश्वनाथ त्रिपाठी
(हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 18) "मथुरा जैन आचार्यों की प्रवृत्तियों का प्रमुख केन्द्र रहा है, अतएव उनकी रचनाओं में शौरसेनी-प्रमुखता आना स्वाभाविक है। श्वेतांबरीय आगमग्रन्थों की अर्धमागधी
और दिगम्बरीय आगमग्रन्थों की शौरसेनी में यही बडा अन्तर कहा जा सकता है कि 'अर्धमागधी' में रचित आगमों में एकरूपता नहीं देखी जाती, जबकी 'शौरसेनी' में रचितभाषा की एकरूपता समग्रभाव से दृष्टिगोचर होती है।" -डॉ०जगदीशचंद्र जैन
(प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० 30-31) "प्राकृत बोलियों में बोलचाल की भाषायें व्यवहार में लाई जाती है, उनमें सबसे प्रथम स्थान शौरसेनी का है। जैसा कि उसका नाम स्वयं बताता है, इस प्राकृत के मूल में शूरसेन के मूल में बोली जानेवाली भाषा है। इस शूरसेन की राजधानी मथुरा थी। -आर. पिशल (कम्पेरिटिव ग्रामर ऑफ प्राकृत लैंग्वेज, प्रवेश 30-31)
प्राकृतभाषा के प्रयोक्ता "मथुरा के आस-पास का प्रदेश 'शूरसेन' नाम से प्रसिद्ध था और उस देश की भाषा 'शौरसेनी' कहलाती थी। उक्त उल्लेख से इस भाषा की प्राचीनता अरिष्टनेमि से भी पूर्ववर्ती काल तक पहुँचती है।"
- (मघवा शताब्दी महोत्सव व्यवस्था समिति, सरदारशहर (राज०) द्वारा प्रकाशित संस्कृत प्राकृत व्याकरण एवं कोश की परम्परा' नामक पुस्तक से साभार उद्धृत)
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________________ (भारत सरकार पंजीयन संख्या 48869/89) “परस्परोपग्रहो जीवानाम्” -(तत्त्वार्थसूत्र) “सुदतित्थं धम्मचक्कपवट्टणहेदू" -(तिलोयपण्णत्ति) “अहिंसा-प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।” - (महर्षि पतंजलिकृत योगसूत्र) Printed at PRITHA OFFSETS (P) LTD, Ph.: 5708654-55