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अधिक पाया जाता है। अत: संस्कृत में अनेकत्र जहाँ स्वरसन्धि का विधान है, प्राकृत में वहाँ पर भी प्रकृतिभाव प्रवृत्त होता है। जैसे- वनेऽटति>वणे अडइ, एकोऽत्र>एओ एत्थ, भवतीह>होइ इह' इत्यादि; परन्तु ओकारान्त 'निपात' में 'प्रकृतिभाव' का विधान समान रूप में देखा जाता है। जैसे- अहो आश्चर्यम्>अहो अच्छरिअं। 8. तर-तमभाव ___ संस्कृत के अनुसार दो में से एक का निर्धारण करने में 'डतरच्-तरप्' प्रत्यय तथा बहुतों में से एक का निर्धारण करने में ‘डतमच्-तमप्' प्रत्यय होते हैं। जैसे— 'अनयो: कतरो वैष्णव:, कतमो भवतां कठः । अयमेषामतिशयेनाढ्य: आढ्यतमः, अयमनयोरतिशयेन लघुर्लघुतरः, उदीच्या:, प्राच्येभ्य: पटुतरा:' इत्यादि। एतदर्थ पाणिनि के सूत्र हैं"किंयत्तदो निर्धारणे द्वयोरेकस्य डतरच्, वा बहूनां जातिपरिप्रश्ने डतमच्, अतिशायने तम बिष्ठनौ, द्विर्वचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ” (अ० 5/3/92, 83, 55, 4/11)। प्राकृत में उक्त के समान ही एक से तथा सबसे श्रेष्ठता को बताने के लिए क्रमश: तर अर, तम अम्, ईयसुन्-ईअस और इष्ठन् = इट्ट का प्रयोग होता है। जैसे- तीक्ष्णतर तिक्खअर, तीक्ष्णतम तिक्खअम। अधिकतर अहिअअर, अधिकतम=अहिअअम आदि। 9. 'भिस्' आदि प्रत्ययों के लौकिक वैदिक शब्द _ अकारान्त शब्दों से 'भिस्' को 'एस्' आदेश वेद में विकल्प से होता है— देवै:, देवेभिः । वेद में 'ड' को 'क' आदेश भी देखा जाता है— “अग्निमीळे पुरोहितम् ।" हस्व अकारान्त शब्दों से टा को इन आदेश हस्व इकारान्त शब्दों से 'टा' को 'ना' आदेश एवं समास के लिए 'स' संज्ञा का भी प्रयोग संस्कृत में देखा जाता है। प्राकृत में भी इन सभी विधियों का अनुसरण किया गया है। इस संक्षिप्त लेख में प्राकृत के कुछ ही तत्त्वों का संस्कृत के साथ सामञ्जस्य प्रस्तुत किया जा सका है। इनका विस्तार परवर्ती लेख में यथावसर किया जाएगा।
जिनोपदिष्ट शास्त्रों की माध्यम भाषायें ___ “पाइय भासा-रइया, मरहट्ठय-देसि-वण्णय-णिबद्धा। सुद्धा सयलकहच्चिय, तावस-जिण-सत्थ-वाहिल्ला ।।"
- (उद्योतनसूरि, कुवलयमालाकहा', अनुच्छेद 7. पद्य 11, पृष्ठ 6) अर्थ:—प्राकृतभाषा अर्थात् शौरसेनी प्राकृत में रचित, महाराष्ट्रीप्राकृत एवं देशी वर्णो (दश्यपदों) में निबद्ध समस्त कथायें शुद्ध अर्थात् निर्दोष ही हैं। जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा उपदिष्ट एवं तपस्वी आचार्यों के द्वारा प्रणीत शास्त्रों की माध्यमभाषायें भी ये ही हैं।
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प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
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