SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृतविद्या-प्रशस्ति: -पं० वासुदेव द्विवेदी शास्त्री अतिरुचिर-वर्ण-पत्रक-मुद्रण-सौन्दर्य-चारुतर-चित्रैः। प्रसभं मनो हरन्ती 'प्राकृतविद्या' चिरं जयतात् ।। 1।। अर्थ:- अत्यन्त रुचिर वर्णों से युक्त पृष्ठों एवं सुन्दर मनोहर मुद्रित चित्रों से मन को स्वभावत: मोहित करती हुई यह 'प्राकृतविद्या' निरन्तर उत्कर्षशालिनी हो। केयं प्राकृतभाषा कुत आयाता स्वरूपमस्या: किम् । इति विमृशन्ती विशदं 'प्राकृतविद्या' चिरं जयतात् ।। 2 ।। __अर्थ:- यह प्राकृतभाषा क्या है? कहाँ से आयी है? इसका स्वरूप क्या है? — ऐसे प्रश्नों पर विशद विचार करती हुई यह 'प्राकृतविद्या' निरन्तर उत्कर्षशालिनी हो। ___विविधैः रुचिरतरंगैः प्राकृतवाणी सुधापगोच्छलितैः । खेलन्ती विबुधैः सा 'प्राकृतविद्या' चिरं जयतात् ।। 3 ।। अर्थ:- अमृत की विविध मनमोहक तरंगों से विद्वानों के साथ क्रीड़ा करती वह 'प्राकृतविद्या' निरन्तर उत्कर्षशालिनी हो। आगमगुम्फित-तत्त्वैर्मूलाचारैर्मुनीन्द्र चरितैश्च । जीवन-दिशो दिशन्ती 'प्राकृतविद्या' चिरं जयतात् ।। 4।। अर्थ:- आगमों से युक्त तत्त्वों, मूलाचारों और श्रेष्ठ मुनियों के आचरणों से जीवनदर्शन का उपदेश देती हुई यह 'प्राकृतविद्या' निरन्तर उत्कर्षशालिनी हो। रचयित्वा ललिताभा नित्यं नव-नव-निबन्धमणिमाला: । विदुषो विभूषयन्ती 'प्राकृतविद्या' चिरं जयतात्।। 5।। ___ अर्थ:- सुन्दर स्वरूपवाली वाणी से नित्य नवीन निबन्धों की मणिमाला को रचकर विद्वानों का विभूषित करती हुई यह 'प्राकृतविद्या' निरन्तर उत्कर्षशालिनी हो। अभिनव-प्राकृत-कविता-कुसुम-पराग-प्रमोदमादधती। विद्वज्जन-मधुपानां 'प्राकृतविद्या' चिरं जयतात् ।। 6।। अर्थ:- नवीन प्राकृत-कवितारूपी कुसुम-पराग की सुगन्ध को धारण करती हुई मधुपरूपी विद्वज्जनों को आह्लादित करती हुई यह 'प्राकृतविद्या' निरन्तर उत्कर्षशालिनी हो। 0016 प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy