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________________ में द्रव्य या भौतिक संसाधन प्राप्त करते हैं। वे विवाह भी करते हैं और संतति उत्पन्न करने से भी कोई परहेज नहीं करते। वे इतने प्रभावशाली हैं कि वयोवृद्ध ऋषि भी किसी राजा के पास उसकी युवा राजकुमारी से विवाह का प्रस्ताव लेकर जाता है, तो राजा उसे मना नहीं कर पाता। भौतिक जीवन की सुख-सुविधाओं और भौतिक पदार्थों के परित्याग की ऋषि के लिए कोई अनिवार्यता नहीं है। 'मुनि' शब्द ऋग्वेद में केवल वातरशना मुनियों के सन्दर्भ में ही आता है। वातरशना का तात्पर्य है अपने शरीर को वायु से ढंकने वाला अर्थात् नग्न रहनेवाला। वातरशना मुनियों का वर्णन करनेवाली ऋचाओं (ऋग, 10, 136, 2-3) में कहा गया है, “अतीन्द्रयार्थदर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते हैं, जिससे वे पिंगल वर्ण दिखाई देते हैं; जब वे वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं, अर्थात् रोक लेते हैं, तब वे अपने तप की महिमा से दैदीप्यमान होकर देवता-स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं। सर्वलौकिक व्यवहार को छोड़कर हम मौनवृत्ति से उन्मत्तवत् (उत्कृष्ट आनन्द सहित) वायुभाव को (अशरीर ध्यानवृत्ति) प्राप्त होते हैं और साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीर मात्र को देख पाते हैं, हमारे सच्चे अभ्यंतर स्वरूप को नहीं।” (एसा वे वातरशना मुनि प्रकट करते हैं) . इन ऋचाओं के ठीक पहले (ऋग० 10, 136, 1) केशी का उल्लेख है, “केशी अग्नि, जल तथा स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है। केशी समस्त विश्व के तत्त्व का दर्शन कराता है। केशी ही प्रकाशमान (ज्ञान-) ज्योति (केवलज्ञान) कहलाता है।" । केशी वातरशना मुनियों के पंथ के प्रधान प्रतीत होते हैं। सूक्त की अगली ऋचा (10, 136, 4) में कहा गया है, “(केशी) देव देवों के मुनि व उपकारी और हितकारी सखा हैं।" एक अन्य ऋचा (ऋग, 10, 102, 6) में कहा गया है “मुद्गल ऋषि ने केशी वृषभ को अपना सारथी बनाया, जिसके वचन मात्र से वे गायें पीछे की और लौट पड़ी।" ऋचा में भावार्थ यह है कि मुद्गल ऋषि की गायें अर्थात् इंद्रियाँ बाहर की ओर जा रही थीं, जो केशी की सहायता से फिर उनके वश में आ गई। वृषभ का समीकरण जैनों के आदिनाथ ऋषभ से किया गया है। वे ही वातरशना मुनियों के पंथ के प्रधान थे। उनका प्रतीक चिह्न भी वृषभ है। स्पष्ट है कि 'ऋग्वेद' के समय में ही कर्मकांड और पशुबलि से भरे यज्ञों से अलग अपने में डूबे रहनेवाले मुनियों की एक परम्परा प्रचलित हो गई थी। इनके साधक समस्त भौतिक पदार्थों और भौतिक जीवन की स्नानादि क्रियाओं से परे रहकर मात्र तत्त्व-चिंतन में लगे रहते हैं। -(साभार उद्धृत हिन्दुस्तान दैनिक, 2 जुलाई 2000, पृष्ठ 7) प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000 00 85
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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