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आचार्य यतिवृषभ के अनुसार अन्तरिक्ष विज्ञान एवं ग्रहों पर जीवों की धारणा
- धर्मेन्द्र जैन
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जैनधर्म पूर्णत: वैज्ञानिक है। वर्तमान में विज्ञान ने जो भी विकास किया है, उसका यदि चिन्तन करके विश्लेषण किया जाये, तो 'विज्ञान की देन' के 'उद्भवसूत्र' जैनदर्शन एवं प्राकृत-स - साहित्य से प्राप्त होते हैं । इसी सन्दर्भ में अन्तरिक्ष विज्ञान के बारे में 'तिलोयपण्णत्ति' में विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है । आचार्य यतिवृषभ ने 9 अधिकारों में अन्तरिक्ष-विज्ञान की चर्चा की है । ग्रन्थकार की भाषा में अन्तरिक्ष विज्ञान का नाम ऊर्ध्वलोक है । ग्रन्थानुसार अन्तरिक्ष में ज्योतिर्लोक, सुरलोक तथा सिद्धलोक आता है। ज्योतिषी देवों का निवास होने के कारण 'ज्योतिर्लोक' कहा जाता है । नाम से ही स्पष्ट है कि ज्योति यानि प्रकाश, इन देवों के विमान प्रकाशमान होने के कारण भी इन्हें 'ज्योतिषी देव' कहते हैं । ज्योतिषी देवों की गति के कारण ही इस विश्व की कालगणना का निर्वाह हो रहा है। जैसा कि आचार्य उमास्वामी ने कहा है- “तत्कृत: काल-विभागः।” एक राजू लम्बे-चौड़े और 110 योजन मोटे क्षेत्र में इन ज्योतिषी देवों का निवास है । मध्यलोक के चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर आकाश में सर्वप्रथम तारागण, इनसे 10 योजन ऊपर सूर्य, उससे 80 योजन ऊपर चन्द्रमा, उससे 4 योजन ऊपर नक्षत्र, उससे 4 योजन ऊपर बुध, उससे 3 योजन ऊपर शुक्र, उससे 3 योजन ऊपर गुरु, उससे 3 योजन ऊपर मंगल और उससे 3 योजन ऊपर जाकर शनि के विमान हैं। ये विमान ऊर्ध्व-मुख, अर्ध-गोलक के आकार वाले हैं । मध्यलोक से ऊपर 'सुमेरु पर्वत' की प्रदक्षिणा देते हुए सूर्य और चन्द्रमा एक निश्चित क्षेत्र में गमन करते हैं। 51048 / 91 योजन क्षेत्र में चन्द्रमा गमन करता है । यह कुल 15 चक्कर लगाता है। उस चक्कर का अन्तराल 56/91 योजन है। चन्द्रमा के ठीक नीचे 4 अंगुलप्रमाण राहु-विमान है । गति-विशेष के कारण जब एक-एक अंश (चन्द्र - विमान का ) आच्छादित होता जाता है, तब 'कृष्ण पक्ष' बनता है; तथा जिस दिन चन्द्र - विमान की मात्र एक कला दिखती, उस दिन 'अमावस्या' होती है। जब चन्द्र -विमान का एक-एक अंश उद्घाटित हो जाता है, तब पूर्णिमा होती है। इसीप्रकार सूर्य 184 चक्कर लगाता है। इसमें एक चक्कर से दूसरे चक्कर का
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प्राकृतविद्या�अप्रैल-जून '2000
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