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________________ और शरीर के भेद-विज्ञान का निरूपण किया और बतलाया कि जैन रहस्यवादी धारा में शुद्धात्मभावों के अनन्त-वैभव के साथ ज्ञान की अखण्ड व्यापकता विद्यमान रहती है। जब भेदानुभूति द्वारा शरीर और आत्मा की पृथक्ता स्पष्ट हो जाती है, तो आत्मा शुद्ध परमतत्त्व में लीन हो जाती है। इसी प्रसंग में उन्होंने अपनी स्वविरचित कविता के एक पद्य का सस्वर पाठ करते हुए आत्मा के प्रतीक माने जाने वाले हंस, शुद्धज्ञान के लिये प्रयुक्त दीपक, अज्ञान के प्रतीक तिमिर, शरीर के प्रतीक तेल एवं सांसारिक विषय वासनाओं की सारहीनता के लिये तूल जैसे मान्य रहस्यवादी प्रतीकों के उदाहरण प्रस्तुत किये। जो व्यक्ति चतुर्दिक वैभव से घिरा हो, भौतिक विषय वासनायें जिसके चरण चूमती रहती हों, और अपने उद्योगों के प्रबन्धन-सम्बन्धी विकट समस्यायें जिसके सम्मुख बिखरी पड़ी हों, ईर्ष्यालु एवं विद्वेषी जन-समूह जिसकी खींचतान में षडयन्त्र-रत हों; फिर भी यह आश्चर्य का विषय है कि उन्होंने कभी भी अपना मानसिक सन्तुलन नहीं खोया। बल्कि समताभाव के साथ अन्त-अन्त तक वे समाज एवं संस्कृति के पुनरुत्थान में लगे रहे। उनकी अवधारणाशक्ति, स्मृति की तीक्ष्णता अपूर्व थी और विचारों की अभिव्यक्ति के लिये उनके पास शब्द-भण्डार की कमी नहीं रहती थी। __ कुन्दकुन्द भारती ट्रस्ट के अध्यक्ष होने तथा परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी के परमभक्त होने के नाते वे कुन्दकुन्द भारती द्वारा आयोजित प्राय: प्रत्येक आयोजन में सम्मिलित होते तथा प्रसंगानुकूल अपने विचार रोचक-शैली में अवश्य व्यक्त किया करते थे। शौरसेनी-प्राकृतागमों का उन्होंने केवल विषय की दृष्टि से स्वाध्याय किया होगा, भाषा की दृष्टि से नहीं; फिर भी, 'श्रुतपचंमी-पर्व' की स्मृति में कुन्दकुन्द भारती में जब शौरसेनी प्राकृत-सम्बन्धी 'राष्ट्रिय कवि-सम्मेलन एवं संगोष्ठी' का आयोजन होता, तो वे सभी कवियों की शौरसेनी प्राकृत में ग्रन्थित कविताओं के अर्थ को समझने का मनोयोगपूर्वक प्रयत्न किया करते थे और यदि किसी शब्द का अर्थ समझ में नहीं आता था, तो वे बाद में उसी कवि से बेहिचक उस विशेष शब्द का अर्थ पूछकर अपनी शंका का समाधान कर लिया करते थे। एक बार दिल्ली के परेड-ग्राउण्ड में आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के दीक्षा-दिवस का आयोजन था, जिसमें माननीय श्री बलराम जाखड़, राजेश पायलट, शिवराज-पाटिल, कल्लप्पा अवाडे सहित देश के कोने-कोने से अनेक राजनेता एवं समाजनेता पधारे थे। श्रीकम्मोजी की धर्मशाला में हम लोग शौरसेनी प्राकृत की प्राचीनता तथा सरसता पर बातचीत कर रहे थे। भीतरी-कक्ष में पूज्य आचार्यश्री विराजमान थे। इतने में ही साहू अशोक जी आचार्यश्री के दर्शनार्थ पधारे; किन्तु शौरसेनी शब्द सुनते ही हम लोगों से पूछने लगे कि "शौरसेनी-प्राकृत कितनी प्राचीन है तथा व्युत्पत्ति की दृष्टि से उसकी प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000 40 43
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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