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जैन - संस्कृति में आहार - शुद्धि
- श्रीमती रंजना जैन
" जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन। जैसा पीवे पानी, वैसी बोले वाणी । " -यह एक सर्वपरिचित उक्ति है। इसके अनुसार खाद्यपदार्थों एवं पेयपदार्थों का प्रभाव चित्त के संस्कारों और वाग्व्यवहार पर सुनिश्चितरूप से पड़ता ही है । इसी बात की पुष्टि वैदिक संस्कृति के कथन से भी होती है, जिसमें कहा गया है कि ' आहार की शुद्धि से चित्त की शुद्धि होती है।' इससे स्पष्ट हो जाता है कि अन्न-जल आदि जड़ पदार्थों का भी चेतन के परिणामों पर निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध की अपेक्षा से पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। संभवत: इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए जैन - परम्परा में आहारशुद्धि के सम्बन्ध में व्यापक निरूपण मिलता है | आहारशुद्धि-सम्बन्धी उनके नियम भी बहुत वैज्ञानिक हैं। यद्यपि आज की जिह्वा - लोलुपी एवं भक्ष्याभक्ष्य - विवेक से रहित पीढ़ी को वे नियम अनावश्यक रूप से कठोर एवं अव्यावहारिक प्रतीत होते हैं; किंतु इनकी वैज्ञानिकता से वे नितान्त अपरिचित हैं और इसीकारण शारीरिक एवं मानसिक दुष्प्रभावों की नयी श्रृंखला इस नयी पीढ़ी में जन्म ले रही है ।
जैनाचार्य रविषेण ने 'पद्मपुराण' नामक ग्रंथ के चौबीसवें पर्व में कैकेयी के गुणों का वर्णन करते समय उसकी पाकशास्त्र - विशेषज्ञता का परिचय इसप्रकार दिया है- . “भक्ष्यं भोज्यं च पेयं च लेह्य चूष्यं च पञ्चधा । आसाद्यं तत्र भक्ष्यं तु कृत्रिमाकृत्रिमं स्मृतम् ।। भोज्यं द्विधा यावाग्वादिविशेषाश्चौदनादय: । शीतयोगो जलं मधुरमिति पेयं त्रिधोदितम् । । राग-खाण्डव-लेह्याख्यं लेह्यं त्रिविधमुच्यते । कृत्रिमाकृत्रिमं चूष्यं द्विविधं परिकीर्तितम् ।। पाचनच्छेदनोष्णत्व- शीतत्व-करणादिभिः । युक्तमास्वाद्यविज्ञानमासीत्तस्या मनोहरम् । ।”
- ( पद्मपुराण, पर्व 24, पद्य 53-56) अर्थ:- भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य और चूष्य के भेद से भोजन - सम्बन्धी पदार्थों के
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प्राकृतविद्या+अप्रैल-जून 2000