SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाँच भेद हैं। इनमें से जो स्वाद के लिए खाया जाता है, उसे 'भक्ष्य' कहते हैं। यह कृत्रिम' और 'अकृत्रिम' के भेद से दो प्रकार का है। तथा जो क्षुधानिवृत्ति के लिए खाया जाता है, उसे 'भोज्य' कहते हैं। इसके मुख्य' और. साधक' की अपेक्षा से दो भेद हैं। ओदन, रोटी आदि मुख्य भोज्य' हैं और लप्सी, दाल, शाक आदि 'साधक भोज्य' हैं। शीत योग (शर्बत), जल और मधुररस के भेद से पेय-पदार्थ तीन प्रकार के कहे गये हैं। इन सबका ज्ञान होना 'आस्वाद्य-विज्ञान' है। यह 'आस्वाद्य-विज्ञान' पाचन, छेदन, उष्णत्वकरण एवं शीतत्वकरण आदि से सहित है। कैकया (कैकेयी) को इन सबका अच्छा ज्ञान था। उपरोक्त कथन से यह तो भलीभाँति स्पष्ट हो ही जाता है कि वह मात्र भक्ष्य-पदार्थों को बनाने की कला में निष्णात थी, अभक्ष्य-पदार्थों का परिचय एवं उनकी संसाधनविधि उसके परिचित विषयों तक में नहीं थी। इन भक्ष्य-पदार्थों के निर्माण की प्रक्रिया के सोलह' नियम जैन-परम्परा में वर्णित हैं। इसीकारण आहारशुद्धि की पक्षधर महिलायें अपनी भोजन-निर्माण प्रक्रिया को 'सोला' करना भी कहती हैं। आज भी बुन्देलखण्ड के संस्कारी जैन-परिवारों की रसोई में 'सोला' शब्द का जीवन्तरूप देखा जा सकता है। प्रथमत: यह जानें कि यह सोलह प्रकार की आहारशुद्धि क्या थी? भोजन-निर्माण के ये सोलह नियम मुख्यत: चार वर्गों में विभाजित हैं— (1) द्रव्यशुद्धि, (2) क्षेत्रशुद्धि, (3) कालशुद्धि, (4) भावशुद्धि। इनमें से प्रत्येक के चार-चार भेद हैं, जिनका विवरण निम्नानुसार है :.. (1) द्रव्य-शुद्धि, (2) क्षेत्र-शुद्धि, (3) काल-शुद्धि, भाव-शुद्धि । (1) द्रव्य-शुद्धि (1) अन्न-शुद्धि - खाद्य-सामग्री सड़ी, गली, घुनी एवं अभक्ष्य न हो। (2) जल-शुद्धि - जल 'जीवानी' किया हुआ हो और प्रासुक हो। (3) अग्नि-शुद्धि - ईंधन देखकर, शोधकर उपयोग किया गया हो। (4) कर्ता-शुद्धि भोजन बनानेवाला स्वस्थ हो, तथा स्नान करके धुले शुद्ध, वस्त्र पहने हो, नाखून बड़े न हों, अंगुली वगैरह कट जाने पर खून का स्पर्श खाद्य-वस्तु से न हो, गर्मी में पसीना का स्पर्श न हो, या पसीना खाद्य-वस्तु में न गिरे। (2) क्षेत्र-शुद्धि (5) प्रकाश-शुद्धि – रसोई में समुचित सूर्य का प्रकाश रहता हो। (2) वायु-शुद्धि - रसोई में शुद्ध हवा का संचार हो। (3) स्थान-शुद्धि – रसोई लोगों के आवागमन का सार्वजनिक स्थान न हो एवं __ अधिक अंधेरेवाला स्थान न हो। (4) दुर्गंध-शुद्धि – हिंसादिक कार्य न होता हो, गंदगी से दूर हो। प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000 00 81
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy