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________________ को संस्कृत भाषा को सीखने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं विश्वविख्यात साधन रहा है। इसी कारण से न केवल भारतवर्ष अपितु भारत के बाहर भी विभिन्न एशियाई देशों में इसका व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है।" -ये विचार प्रख्यात भाषाशास्त्री एवं समालोचक डॉ० नामवर सिंह जी ने कातंत्र-व्याकरण पर 'श्री कुन्दकुन्द भारती न्यास' द्वारा आयोजित अखिल भारतीय संगोष्ठी में व्यक्त किए, जो श्रुतपंचमी महापर्व के अवसर पर दिनांक 6-7 मई 2000 ई० को सम्पन्न हुई। संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र' की अध्यक्षता करते हुए श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ के कुलपति प्रो० वाचस्पति उपाध्याय ने अनेक प्रमाणों के साथ यह स्पष्ट किया कि “कातंत्र-व्याकरण प्राकृतभाषा एवं संस्कृत दोनों का सामंजस्य स्थापित करता है।" उन्होंने बताया कि हमारी संस्कृति के ऐसे अमूल्य रत्नों के प्रति पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने सदैव एक नई दिशा दी है। ___ संगोष्ठी में अपने मंगल-आशीर्वचन में आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने कहा कि कातंत्र-व्याकरण केवल प्राचीन होने के कारण ही महान् नहीं है, अपितु लोकोपयोगी होने के कारण इसकी वास्तविक महत्ता है। संस्कृत एक प्राचीन साहित्यिक भाषा है, अत: इसके ज्ञान का प्रसार अधिक से अधिक लोगों में होना चाहिए। यह कार्य आज तक कातंत्र-व्याकरण के प्रचार से ही सम्भव हुआ है और आगे भी होगा। संगोष्ठी में कुल चार सत्रों में 19 आलेख प्रस्तुत किये गये तथा 3 आलेख ऐसे भी आये, जिनके लेखक अपरिहार्य कारणवश इस संगोष्ठी में उपस्थित नहीं हो सके थे, फिर भी उन्होंने अपने शोधपूर्ण-आलेख प्रेषित किये थे। ऐसे लेखकों में प्रो० एम०डी० वसंतराज का 'Katantra Vyakarana in the view of Jain tradition' शीर्षक आलेख, प्रो० गंगाधर भट्ट जयपुर का 'पाणिनीय-कातन्त्र-व्याकरणयोस्तुलनात्मकमनुशीलनम्' शीर्षक आलेख तथा डॉ० (श्रीमती) राका जैन लखनऊ का कातन्त्र व्याकरण का कारण वैशिष्ट्य' शीर्षक आलेख थे। 'उद्घाटन-सत्र' -प्रात:काल 8.45 बजे से 12.00 बजे तक संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र' की अध्यक्षता स्वनामधन्य विद्वद्वर्य प्रो० वाचस्पति उपाध्याय, कुलपति श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय), नई दिल्ली ने की। इस सत्र में कुल 3 शोध-आलेख पढ़े गये और उन पर विशद चर्चा हुई। पठित आलेखों के प्रस्तोता विद्वान् एवं आलेख-विषय निम्नानुसार हैं :1. डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी, वाराणसी : कातन्त्र व्याकरण की विषय-विवेचना (शब्दविद्यासंकायाध्यक्ष, तिब्बती संस्थान सारनाथ) पद्धति। 2. डॉ० रामसागर मिश्र, लखनऊ : कातन्त्र व्याकरण की परम्परा एवं (रीडर, केन्द्रिय संस्कृत विद्यापीठ, लखनऊ) महत्त्व। 3. प्रो० वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ : कातन्त्र पर कुछ विचार। (प्रो० म०गा० अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय) इनमें डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी का आलेख अपने विषय-गाम्भीर्य एवं प्रो. वृषभप्रसाद प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000 40 105
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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