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अभिमत
0 प्राकृतविद्या' का जनवरी-मार्च '2000 ई० का अंक प्राप्त हुआ। पत्रिका की सबसे सुखद बात लगी कि इसके सभी लेख आगम की कसौटी पर कसे हुए होने से पाठकों को दिग्भ्रान्त होने से बचाकर सही सामग्री प्रदान कर यथार्थता से परिचय करवाते हैं। आज के इस युग में इसकी ही महती आवश्यकता है। ___ 'अभीक्ष्णज्ञानोपयोग' लेख में समस्त प्राणियों के लिए व्यक्तिगत निराकुलता, सामाजिक जीवन में व्यवहार स्थिरता का मूलमंत्र बताकर विश्वव्यापी सभी समस्याओं का समाधान बता दिया। जैनशासन के संकट में पड़ने का प्रमुख कारण आगम-ग्रन्थों के प्रमाणों का विरोध या उपेक्षा करना है – इस पर प्रकाश डालते हुए डॉ० सुदीप जैन ने उन महामनीषियों को, जो आत्मध्यान या आत्मज्ञान के द्वारा मिथ्यात्व का क्षय करके संसारमार्ग से हटकर जीवन में मोक्षमार्ग की शुरुआत कर रहे हैं; उन्हें 'एकदेश जिन' संज्ञा से समाहूत किया है। इसके लिये उन्होंने विभिन्न आगम-ग्रन्थों के प्रमाणों से पुष्टि करते हुए उन मनीषियों को स्व-पर-श्रद्धा करने का विश्वास भी जगाया है। यदि ये मनीषी इतने उपकारभावी को 'एकदेश-आगमचक्खू साहू' संज्ञा से विभूषित करें, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
उत्कृष्ट सांस्कृतिक विरासत के सूचक कातन्त्र व्याकरण' का जो अपनी अनेकों विशेषताओं के कारण देश-विदेश में सदैव आदर को प्राप्त रहा है, सभी आवश्यक क्षेत्रों में पुन: पठन-पाठन होना उसके विस्मृत गौरव को पुन: प्रतिष्ठित कराना है।
–श्रीमती स्नेहलता जैन, जयपुर ** ● 'प्राकृतविद्या' पत्रिका प्राकृतभाषा पर तो अनुसंधान करती है, धार्मिक, ऐतिहासिक विषयों की जानकारी व मार्गदर्शन भी करती है। ___ अप्रैल-जून अंक में 'भट्टारक परम्परा' पर जो प्रभाव डाला है समयानुकूल है। हिन्दी-साहित्य के प्रचार और प्रसार में प्रारम्भिक काल से ही जैनाचार्यों, विद्वानों, लेखकों का विशेष योगदान रहा है, उन्होंने महाकाव्यों, पुराणों आदि की रचना कर साहित्य को ऊँचा उठाया है। 'प्राकृतविद्या' पत्रिका के अनुसार ही तिमाही हिन्दी-साहित्य-संबंधी पत्रिका के प्रकाशन की भी व्यवस्था हो जाये तो जैन-साहित्य विशेषरूप से प्रकाश में आयेगा।
-जैनप्रकाश जैन, विकासनगर, देहरादून **
प्राकृतर्विद्या अप्रैल-जून '2000
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