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________________ © 'प्राकृतविद्या' जनवरी-मार्च '2000 का अंक प्राप्त हुआ। सम्पादकीय आध्यात्मिक साधना के अन्तर्गत मिथ्यात्व' की व्याख्या सुन्दर ढंग से रखता है। 'अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग' लेख काफी सूझबूझ से लिखा गया शोधपूर्ण लेख है। 'कुमार-श्रमणादिभि:' 'जैन समाज का महनीय गौरवग्रन्थ कातन्त्र व्याकरण' भी अच्छे ज्ञानवर्धक लेख है। 'निर्ग्रन्थ श्रमण' संबंधी लेख भी आकर्षित करते हैं। 'गोरक्षा से अहिंसक संस्कृति की रक्षा' भारतीय परम्परा व प्रवृत्ति पर अच्छा प्रकाश डालता है। सिद्धार्थ का लाड़ला' काव्य सरल होते हुए भी अच्छी स्थिति बताता है। भगवान् महावीर के संबंध में अन्य जानकारी सामयिक होकर विचारणीय है। ___ अंक दूरदर्शिता को दर्शाने के साथ-साथ सम्पादन की कुशलता भी बताता है। अच्छे अंक देने हेतु बधाई स्वीकार करें। –मदन मोहन वर्मा, ग्वालियर, (म०प्र०) ** ® 'प्राकृतविद्या' का नवीनतम अंक प्राप्त हुआ। 'अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग' आदि लेख बहुत ज्ञानवर्द्धक है। पूज्य आचार्यश्री के लेखों का एक संकलन समग्ररूप से निकलना उपयुक्त रहेगा, ताकि सब लेखों का एक साथ लाभ मिल सके। इस हेतु प्राकृतविद्या के विशेषांक भी प्रकाशित किए जा सकते हैं। -रमेश चन्द जैन ** © 'प्राकृतविद्या' (वर्ष 11, अंक 4) जनवरी-मार्च '2000 ई० के मुखपृष्ठ पर 'पीयूष-पर्व' के उपलक्ष्य में पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के पावन सान्निध्य में ब्र० कमलाबाई जी को 'साहू श्री अशोक जैन स्मृति पुरस्कार' की चिर-स्मरणीय छवि निहार कर पुण्य का बंध हुआ। श्रमण-दीक्षा के उपरांत आत्मध्यान में लीन राष्ट्रसंत मुनिश्री विद्यानंद जी का दुर्लभ चित्र साधर्मी बंधुओं तथा भक्तों के लिए 'प्राकृतविद्या' की अनुपम भेंट के मानिंद है। ध्यान को 'चिंता-निरोध' के रूप में निरूपित करते हुए संजोई गई सामग्री के लिए साधुवाद ज्ञापित करना मेरा परम कर्तव्य है। 'पीयूष-पर्व' की रंगारंग झलकियों ने भी धर्मसभा में उपस्थित श्रद्धालुओं का मान बढ़ाते हुए मन मोह लिया है। अतएव इस निमित्त भी बधाई स्वीकार कीजिए। –हुकमचंद सोगानी, उज्जैन (म०प्र०) ** © 'प्राकृतविद्या' मार्च '2000 ई० मिली। 'सम्पादकीय' से बड़ी बौद्धिक ऊर्जा मिलती है। डॉ० सुदीप जैन, प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन, डॉ० जयकुमार उपाध्ये के लेख संग्रहणीय हैं। आपका श्रम धन्य है। -डॉ० प्रणव शास्त्री, विजय नगर, बंदायूँ ** 0 'प्राकृतविद्या' का जनवरी-मार्च '2000 ई० का अंक पढ़ा। आपके द्वारा लिखा संपादकीय 'मिथ्यात्व रहित सभी एकदेश जिन हैं' वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अतिशय उपयुक्त है। स्व-संवेदन या आत्मानुभूति अथवा शुद्धोपयोग सभी एकार्थवाची होने से शुद्धोपयोगी सातवें गुणस्थान से ही मानने वालों को यह करारा उत्तर है। वृहद् द्रव्यसंग्रह' की गाथा 27 00 102 प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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