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(दूसरा अध्याय की उत्थानिका) में भावना, शुद्धोपयोग, निर्विकल्प समाधि आदि उसी को कहा गया है (देखें पृ० 83)। इसके स्पष्टीकरण में भावना की व्याख्या करते हुए लिखा है'द्रव्यशक्ति रूप शुद्ध-पारिणामिकभावविषये भावना भण्यते।.......यत: एव भावना मुक्तिकारणं तत एव शुद्धपारिणामिकभावो ध्येयरूपो भवति, ध्यानभावनारूप: न भवति. ......'। ऐसे उत्कृष्ट संपादकीय के लिये आभारी हूँ। वैसे पूर्ण अंक की सामग्री एक आगम-स्वरूप स्वाध्याय-प्रेमियों को पौष्टिक आहार-स्वरूप है।
आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज का प्रवचन 'अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग' अध्यात्म में प्रवेश करानेवाला है। स्वाध्याय व्यवहारमार्ग और आत्मस्वरूप हूँ —ऐसा ज्ञानोपयोग निश्चय परिणाम है। यह अतिशय मननीय है।
भट्टारक-परम्परा पर दोनों विद्वानों के लेख दृष्टि सम्यक् करने वाले हैं। परंतु भट्टारकों ने पीछी-कमंडलु धारण करना यह कौन-सी प्रतिमा स्वीकार की है? —यह स्पष्ट नहीं हुआ। अस्तु, सम्पूर्ण अंक की सर्वांग सुंदरता-हेतु पुनश्च अभिनंदन।
-श्री मनोहर मारवडकर, महावीर नगर, नागपूर ** ● 'प्राकृतविद्या' का जनवरी-मार्च '2000 ई० का अंक पढ़ने को मिला। इस अंक में आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के व उनके विषय में लेख बड़े प्रभाव पैदा करने वाले हैं। सम्पादकीय तो सम्पादकीय न होकर स्तंभ-लेख होता, तो और अधिक श्रेयस्कर होता। पत्रिका के पृ० 73 पर 'श्रेणिक व कुणिक का वृत्तांत' पढ़कर मुझे लगा कि औरंगजेब से बढ़कर पितृ-विरोधी लोगों की भारतीय इतिहास में कमी नहीं है।
–एम०एल० जैन, नई दिल्ली ** 0 'प्राकृतविद्या' का पुराना अंक अप्रैल-जून 1998 ई० का अंक हाथ लगा। पढ़ने पर ऐसा लगा कि इस प्रकार की शोधपरक, अधिकृत व अनूठी पत्रिका से हम वंचित रह गये, खिन्नता हुई। 'जागे तभी सबेरा' की दृष्टि से पत्र लिख रहा हूँ।
-सुरेन्द्र पाल जैन, नई दिल्ली ** ● 'प्राकृतविद्या' का जनवरी-मार्च का अंक मिला। पत्र-पत्रिकाओं में संपादकीय' ही से उसका स्तर ज्ञात हो जाता है। प्रतीत हो जाता है कि रुझान किस ओर है। परन्तु विलम्ब से ही सही मुझे 'मिथ्यात्व-रहित सभी एकदेशजिन हैं' पढ़कर असीम शांति मिली। ऐसा लगा कि इस युग में कोई दूसरा टोडरमल अज्ञान-अंधकार को ज्ञानदीप से दूर कर रहा है। प्राकृतविद्या में गर्भित जिनवाणी के दुर्लभ-रत्न जनसामान्य एवं उच्च पदासीनों के यथार्थबोध में सहायक बने, सभी को कल्याणकारी हो - यही भावना है। आपके उत्कृष्ट ज्ञान की सराहना किये बिना रह पाना मुझसे संभव-सा नहीं था।
-दिनेश कुमार जैन एडवोकेट, सागर, (म०प्र०) **
प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
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