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________________ है. तो कभी परिवार से। उसे यह ध्यान नहीं कि “आज कालि पीजरें सों पंछी उड़ जात है।" हे चिदानंद ! तुम अपने मूलस्वरूप पर विचार करो। जब तक तुम अन्य रूप में पगे रहोगे, तब तक वास्तविक सुख तुम्हें नहीं मिल सकेगा। नरभव की दुर्लभता का उपदेश सद्गुरु की प्रेरणा से साधक पाकर सचेत होता है _ "एतो दुख संसार में, एतो सुख सब जान। इमि लखि 'भैया' चेतिये, सुगुरु-वचन उर आन।।" ___ 'मधु-बिन्दु' की चौपाई में उन्होंने अन्य रहस्यवादी संतों के समान गुरु के महत्त्व को स्वीकार किया है। उनका विश्वास है कि सद्गुरु के मार्गदर्शन के बिना जीव का कल्याण नहीं हो सकता; पर वीतरागी सद्गुरु भी आसानी से नहीं मिलता, पुण्य के उदय से ही ऐसा सद्गुरु मिलता है । "सुभटा सौचै हिए मॅझार, ये सांचे तारनहार। मैं सठ फिरयौ करमवन-मांहि, ऐसे गुरु कहुँ पाए नाहिं। अब मो पुण्य-उदय कुछ भयौ। साँचे गुरु को दर्शन लयौ।।" जैसा हम सभी जानते हैं, आत्मा की विशुद्धतम अवस्था परमात्मा कहलाती है। इस पर 'भैया भगवतीदास' ने अपने चेतन कर्मचारित्र' में जीव के समूचे तत्त्वों पर विशद प्रकाश डाला है “एकहि ब्रह्म असंख्य प्रदेश। गुण अनंत चेतनता भेश। शक्ति अनंत लसै जिस मांहि । जा सम और दूसरौ नाहिं।। पर का परस रंच नहि जहाँ। शुद्धसरूप कहावै तहाँ। अविनाशी अविचल अविकार। सो परमातम है निरधार।।" -(परमात्मा की जयमाल) इसीप्रकार चेतन और पुद्गल के अंतर को उन्होंने बड़ी काव्यात्मक-शैली में स्पष्ट किया है—“जिसप्रकार लाल वस्त्र पहिनने से शरीर लाल नहीं होता। वस्त्र जीर्ण-शीर्ण होने से शरीर जीर्ण-शीर्ण नहीं होता, उसी तरह शरीर के जीर्ण-शीर्ण होने से आत्मा जीर्ण-शीर्ण नहीं होता। शरीर पुद्गल की पर्याय है। और उसमें चिदानंदरूप आत्मा का निवास है (ब्रह्मविलास, आश्चर्य-चतुर्दशी)। परन्तु चित्तशुद्धि के बिना साधक आत्मविकास नहीं कर पाता; इसीलिए उन्होंने 'पुण्य-पचीसिका' में सम्यक्त्व को 'सुगति का दाता' और 'दुर्गति का विनाशक' कहा तथा भेदविज्ञान को ही आत्मोपलब्धि माना है। उन्होंने “जैसो शिवखेत तेसौ देह में विराजमान, ऐसो लखि सुमति स्वभाव में पगाते हैं", कहकर "ज्ञान बिना बेर-बेर क्रिया करी फेर-फेर, किया कोऊ कारज जतन को", कहा है। कवि का चेतन जब अनादिकाल से लगे मोहादिक को नष्ट कर अनन्तज्ञान शक्ति को पा जाता है, तो वह कह उठता है प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000 0093
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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