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________________ "देखो मेरी सखी ये आज चेतन घर आवै। काल अनादि फिर्यो परवश ही अब निज सुधहिं चितावै।।" परमात्म-पद पाने के लिए साधक अनेक प्रकार के मार्ग अपनाता है। जब उसे योग-साधना का मार्ग दुर्गम प्रतीत होता है, तो वह प्रपत्ति (अनन्यशरणागत) भक्ति का सहारा लेता है। रहस्य-साधकों के लिए यह मार्ग अधिक सुलभ है, इसीलिए 'भैया भगवतीदास' प्रभु के चरणों की शरण में जाकर प्रबल कामदेव की निर्दयता का शिकार होने से बचना चाहते हैं। वे पार्श्व-जिनेन्द्र की भक्ति में अगाध निष्ठा व्यक्त कर उनकी सेवा से ही रात-दिन की चिन्ता नष्ट हो जायेगी, ऐसा मानते हैं "काहे को देश दिशांतर धावत, काहे रिझावत इन्द्र नरिंद। काहे को देवि औ' देव मनावत, काहे को सीस नवावत चंद ।। काहे को सूरज-सों कर जोरत, काहे निहोरत मूढ़ मुनिंद। काहे को सोच करे दिन रैन त, सेवत क्यों नहिं पार्श्व-जिनंद ।।" –(ब्रह्म विलास) इस स्थिति में भक्त-साधक की आत्मा विशुद्धतम होकर अपने में ही परमात्मा का रूप देखती है। तब वह प्रेम और श्रद्धा की अतिरेकता के कारण उससे अपना घनिष्ठ संबंध स्थापित करने लगती है। कभी साधक उसे पतिरूप में देखता है, कभी पत्नी और कभी बालक। 'भैया' का 'लाल' उनसे कहीं दूर चला गया, इसलिए उसको पुकारते हुए वे कहते हैं—“हे लाल, तुम किसके साथ घूम रहे हो? तुम अपने ज्ञान के महल में क्यों नहीं आते? तुमने अपने अंतर में झाँक कर कभी नहीं देखा कि वहाँ दया, क्षमा, समता और शांति जैसी सुंदर नारियाँ तुम्हारे लिए खड़ी हुई हैं। वे अनुपम रूप सम्पन्न हैं।" ‘शत अष्टोत्तरी' का निम्न पद द्रष्टव्य है— “कहाँ कहाँ कौन संग लागे ही फिरत लाल, आवौ क्यों न आज तुम ज्ञान के महल में।....." अन्य सन्त कवियों-कबीर बनारसीदास, भूधरदास, द्यानतराय आदि की भाँति आध्यात्मिक होली का रंग भी मनोरथ है। भगवतीदास अपनी चूनरी को इष्टदेव के रंग में रँगने के लिए आतुर दिखाई देते हैं। उसमें आत्मारूपी सुंदरी विश्वरूप प्रीतम को प्राप्त करने का प्रयत्न करती है। सम्यक्त्वरूपी वस्त्र को धारणकर ज्ञानरूपी जल के द्वारा सभी प्रकार का मल धोकर वह सुंदरी शिव से विवाह करती है। इस उपलक्ष्य में एक सरस 'ज्योंनार' (सहभोज) होती है, जिसमें गणधर परोसने वाले होते हैं, जिसके खाने से अनन्त-चतुष्टय की प्राप्ति होती है "तुम्ह जिनवर देहि रंगाई हो, विनवड़ सषी पिया शिव सुंदरी। अरुण अनुपम माल हो मेरो भव जलतारण चूनडी।।..... 00 94 प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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