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________________ पहले मुक्त होती; दुग्धपान से मुक्ति होती, तो बालक सर्वप्रथम मुक्त होगा; अंग में विभूति लगाने से मुक्ति होती, तो गधों को भी मुक्ति मिलेगी; मात्र राम कहने से मुक्ति हो, तो शुक भी मुक्त होगा; ध्यान से मुक्ति हो, तो बक मुक्त होगा; सिर मुंडाने से मुक्ति हो, तो भेड़ भी तिर जायेगी; मात्र वस्त्र छोड़ने से कोई मुक्त होता हो, तो पशु मुक्त होंगे; आकाश गमन करने से मुक्ति प्राप्त हो, तो पक्षियों को भी मोक्ष मिलेगा। यह सब संसार की विभिन्न रीति है। सच तो यह है कि तत्त्वज्ञान के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।" कबीर आदि संतों ने भी इसी तरह बाह्याडम्बरों का विरोध किया है। 'ब्रह्मविलास' की अनेक रचनाओं—“सुपंथ-कुपंथ-पचीसिका, अनित्य-पचीसिका, सुबुद्धि-चौबीसी, शतअष्टोत्तरी आदि में ऐसे बाह्याचारों की खिल्ली उड़ायी है। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं: नर देह पाये कहाँ पंडित कहाये कहा। तीरथ के न्हाये कहा तीर तो न जैहे रे।। शुद्धि ते मीन, पियें पय बालक, रासभ अंग विभूति लगाये। राम कहे शुक ध्यान गहे बक, भेड़ तिरे पुनि मूड मुडाये ।। अध्यात्म-साधना का केन्द्र मन है। उसकी गति तीव्रतम है, इसलिए उसे वश में किये बिना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। 'भैया' को मन सबसे अधिक प्रबल लगा। त्रिलोकों में भ्रमण करानेवाला यही मन है। उसका स्वभाव चंचल है। इसे उन्होंने 'ब्रह्मविलास' की निम्न पंक्तियों में चित्रित किया है "मन सो बली न दूसरो, देख्यो इहिं संसार । तीन लोक में फिरत ही, जतन लागै बार ।। मन दासन को दास है, मन भूपन को भूप। मन सब बातनि योग्य है, मन की कथा अनूप ।। इसीलिए......... जब मन मूंधों ध्यान में, इन्द्रिय भई निराश । । तब इह आतम-ब्रह्म ने, कीने निज-परकाश।।" इसीलिए 'शत-अष्टोत्तरी' में उन्होंने मन को फटकारते हुए कहा है—“हे ! चेतन, तेरी मति किसने हर ली? तु अपने परमपद को क्यों नहीं समझता? अनादिकाल व्यतीत हो गया, क्या तुझे अब भी चेत नहीं हुआ? चार दिन के लिए ठाकुर हो जाने से क्या तू गतियों में घूमना भूल गया - "केवलरूप विराजत चेतन, ताहि विलोकि अरे ! मतवारे। ____ काल अनादि वितीत भयो, अजहुँ तोहि चेत न होत कहा रे।।" ___ इसी संदर्भ में उन्होंने व्यक्ति को पहले सांसारिक इच्छाओं की ओर से सचेत किया और फिर नरभव दुर्लभता की ओर संकेत किया कि जीव अनादिकाल से मिथ्याज्ञान के वशीभूत होकर कर्म कर रहा है। कभी वह वामा के चक्कर में पड़ता है, कभी शरीर से राग करता 092 प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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