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जैन वाङ्मय में द्रोणगिरि
-डॉ० लालचन्द जैन जैन मनीषियों ने विभिन्न कालों तथा विभिन्न (तत्कालीन प्राकृत, संस्कृति आदि) भाषाओं में प्रचुर साहित्य-सृजन कर भारतीय साहित्य-भंडार को समृद्ध किया। उक्त साहित्य का आलोकन करने से सोनागिरि, पपौरा, आहार, खजुराहो, कुण्डलपुर, नैनागिरि रिशंदीगिरि) द्रोणगिरि आदि बुन्देलखण्ड के पवित्र तीर्थों का इतिहास और तत्संबंधी महत्त्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी होती है। 'द्रोणगिरि' एक ऐसा पावन क्षेत्र है, जिसे गुरुदत्त आदि मुनिराजों ने विहार कर यहाँ के कण-कण को अपने चरणरज से पवित्र किया। यहीं पर साधना कर तथा भयंकर उपसर्ग सहन कर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया और अंत में अघातिया कर्मों का निर्मूल क्षय करके मुक्त हुए। इस कारण द्रोणगिरि 'सिद्धक्षेत्र' के नाम से विश्व-विश्रुत है।
इसप्रकार के धर्मप्रेरणा के स्रोत तथा 28 कलात्मक जिन-मन्दिरों से युक्त द्रोणगिरि के संबंध में प्रचुर सामग्री उपलब्ध नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द, शिवार्य, पूज्यपाद, हरिषेण, श्रुतसागर सूरि प्रभृति मनीषी सन्तों की कृतियों में द्रोणगिरि-संबंधी इतिहास और संस्कृति की स्वल्प जानकारी मिलती है। फलत: यहाँ उनका विश्लेषण करना अपेक्षित है। __ 1. आचार्य कुन्दकुन्द :- द्रोणगिरि-शिखर का उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द (ई० सन् प्रथम शताब्दी) कृत 'निर्वाण-भक्ति' की निम्नांकित गाथा में सर्वप्रथम हुआ है :
"फलहोडी-वरगामे पच्छिम-भायम्मि दोणगिरि-सिहरे।
गुरुदत्ताइ-मुणिंदा णिव्वाण-गया णमो तेसिं ।। 14 ।।" उक्त गाथा में निम्नांकित तथ्य प्रस्तुत किये गये हैं:(i) प्राचीनकाल में ‘फलहोडी' नामक ग्राम आसपास के सभी ग्रामों से श्रेष्ठ था। (i) उस ‘फलहोडी ग्राम' के पश्चिम दिशा की ओर 'द्रोणगिरि' नामक पर्वत था। (iii) उसके शिखर से 'गुरुदत्त' आदि मुनियों को निर्वाण की प्राप्ति हुई थी।
उक्त गाथा अन्य निर्वाण-काण्डों में भी उपलब्ध है। इसका संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद भी गाथानुरूप किया गया है। यथा
प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
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