________________
जैनदर्शन में रत्नत्रय की मीमांसा
–डॉ॰ दयाचन्द्र साहित्याचार्य
लोक में रत्न दो प्रकार के होते हैं— (1) आध्यात्मिक - रत्न, (2) भौतिक-रत्न । भौतिक- रत्न पृथ्वी में, समुद्रों में, खदानों में, जौहरी - बाजारों में, स्वर्गों में, मंदिरों में और श्रीमानों के भवनों में उपलब्ध होते हैं । अनेक जन्म-जन्मान्तरों में देव - देवांगनाओं और नर-नारियों ने अनेक बार रत्नों के आभूषणों से अपने शरीर को सुन्दर बनाकर आनन्द के सागर में गोते लगाये, परन्तु वह आनन्द क्षणिक था और वे चमकीले बहुमूल्य आभूषण भी क्षणिक और यह देह भी क्षणिक थी; इसलिये इन भौतिक आभूषणों में मोह के कारण आत्मा का कल्याण नहीं हो सका और न कभी हो सकता है । कविवर भूधरदास जी ने सत्य कहा है-— “धन- कन- कंचन - राजसुख, सबहि सुलभ कर जान ।
दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान ।।”
मानवों और देवों के इस जगत् में सर्ववस्तुयें प्राप्त करना सुलभ है, परन्तु यथार्थ रत्नत्रय प्राप्त करना अतिदुर्लभ है ।
ये आध्यात्मिक रत्न ( रत्नत्रय) प्रत्येक आत्मा में ही विद्यमान हैं । आत्मा सें अतिरिक्त किसी अन्य पुद्गल या जड़पदार्थों में नहीं रहते हैं; अतएव इनको आध्यात्मिक रत्न कहते हैं। यद्यपि ये अक्षय रत्न प्रत्येक आत्मा में रहते हैं, तथापि इनका स्वानुभव वर्तमान में नहीं हो रहा है और न अब तक हुआ है, इसका प्रमुख कारण मोह एवं अज्ञान है । इस विषय में कवि का कथन है
“सब के पल्ले लाल, लाल बिना कोई नहीं ।
किन्तु हुआ कंगाल, गाँठ खोल देखा नहीं।।”
अर्थात् सब प्राणियों के आत्मा में लाल (रत्नत्रय) विद्यमान है, ऐसा कोई आत्मा नहीं, जिसके पल्ले में लाल न हो । किन्तु मोह एवं अज्ञान की गाँठ को खोलकर इस आत्मा ने देखा नहीं, इसीकारण से रत्नत्रय के बिना कंगाल हो रहा है – यह दुःखका विषय है।
अब सत्यार्थ देव-शास्त्र-गुरु की उपासना का पुरुषार्थ करके इन अक्षय रत्नों को खोजकर विकसित या उज्ज्वल करने की आवश्यकता है । कविवर द्यानतराय जी लिखते
☐☐ 50
प्राकृतविद्या + अप्रैल-जून 2000