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हैं- "देव-शास्त्र-गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार।" ____तात्पर्य यह है कि देव-शास्त्र-गुरु ये तीन प्रशस्त रत्न हैं और सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी तीन रत्नों को विकसित करनेवाले हैं, अत: देव-शास्त्र-गुरु रूपी तीन रत्नों की उपासना से रत्नत्रय का विकास करना परम आवश्यक है। __ प्रथमानुयोग की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का स्वरूप भद्रपरिणामी मिथ्यादृष्टि को सर्वप्रथम तीर्थंकर आदि शलाका-पुरुषों के जीवनचरित्र या कथापुराणों के स्वाध्याय करने से जो जैनधर्म या देव-शास्त्र-गुरु का श्रद्धान निर्मल हुआ है, वह 'प्रथमानुयोग' का सम्यग्दर्शन कहा गया है। 'करणानुयोग' की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का स्वरूप अनन्तानुबन्धीकषाय के क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति –इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय एवं क्षयोपशम से आत्मा में तत्त्वश्रद्धान होता है; उसे क्रम से औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं। 'चरणानुयोग' की अपेक्षा सम्यग्दर्शन की परिभाषा सत्यार्थ देव-शास्त्र-गुरु का मान-मूढ़तारहित, अष्टांग के साथ श्रद्धा करना चरणानुयोगदृष्टि का सम्यग्दर्शन कहा गया है। सात तत्त्व, नवपदार्थ एवं छह द्रव्यों का यथार्थ श्रद्धान करना अथवा आत्मविशुद्धिरूप परिणाम को 'द्रव्यानुयोग' की दृष्टि से सम्यग्दर्शन कहते हैं।
चारों अनुयोगों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के लक्षणों में शब्दों की अपेक्षा भेद (अन्तर) प्रतिभासित होता है, पर आत्मश्रद्धान (रुचि) की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है। इसलिये चारों अनुयोगों में विरोध नहीं, अपितु समन्वय है।
सम्यग्दर्शन के उत्पन्न होने पर जो सत्यार्थ ज्ञान व्यक्त होता है, उसे 'सम्यग्ज्ञान' कहते हैं। एवं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के उत्पन्न होने पर, चारित्रमोहजन्य कषाय आदि विकारों की कृशता से आत्मा में विशुद्ध परिणामों की उपलब्धि को सम्यक्चारित्र' कहते हैं। ये तीन आत्मिकरत्न अक्षय तथा आनन्दमय हैं।
शंका आदि 25 दोषों का निराकरण करने के लिये सम्यग्दर्शन में 'सम्यक्' विशेषण प्रयुक्त हैं। संशय, विमोह एवं विपरीतता का परित्याग करने के लिये सम्यक्ज्ञान में 'सम्यक्' विशेषण उपयोगी है। अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार (भ्रष्टाचार) - इन चार दोषों का निराकरण करने के प्रयोजन से सम्यक्चारित्र में सम्यक्' विशेषण सार्थक है।
इस रत्नत्रय के क्रम का भी एक विशेष कारण है— अनादिकालिक मिथ्यादृष्टि जीव के करणलब्धिपूर्वक सबसे पहिले सम्यग्दर्शन होता है; इसलिये सम्यग्दर्शन को प्रथम कहा गया है। सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यग्ज्ञान होता है, तथा सम्यग्ज्ञान श्रद्धान को दृढ़ करता है और चारित्र को भी दृढ़ता प्रदान करता है; अत: सम्यग्ज्ञान को मध्य में कहा गया है। सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान के अनन्तर ही सम्यक्चारित्र व्यक्त होता है, अत: तीसरे
प्राकृतविद्या+ अप्रैल-जून '2000
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