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नम्बर पर सम्यक्चारित्र कहा गया है। इन्हीं कारणों को लक्ष्यकर आचार्य समन्तभद्र ने कहा है- “मोहतिमिरापहरणे, दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञान: । रागद्वेषनिवृत्त्यै, चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।।”
-(रत्नकरण्डक श्रावकाचार, पद्य 47) यह विषय विशेषरूप से ज्ञातव्य है कि एक आत्मा में एक साथ तीनों रत्नों का प्रभाव हो, तो आत्मा का कल्याण हो सकता है। अगर एकमात्र सम्यग्दर्शन हो, या मात्र सम्यग्ज्ञान हो अथवा केवल एक सम्यक्चारित्र हो; तो आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता। अथवा दर्शन-ज्ञान, दर्शन-चारित्र, ज्ञान-चारित्र -ये दो-दो गुण विद्यमान हों; तो भी आत्मकल्याण एवं मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। जब तीनों का युगपत् सद्भाव हो; तब ही मुक्ति का मार्ग बन सकता है, अन्यथा नहीं। ___ जैसे किसी डॉक्टर ने रोग जाँचकर रोगी को दवा प्रदान की। यदि रोगी पुरुष को दवा पर विश्वास हो, दवा के सेवन का ज्ञान हो, तथा दवा का विधिपूर्वक सेवन करे; तो वह रोगी रोग से मुक्त हो सकता है, अन्यथा नहीं। इसीप्रकार रत्नत्रयरूप दवा के श्रद्धान-ज्ञान-आचरण से ही जन्म-जरा-मरण का रोगी यह मानव रोग से मुक्त हो सकता है, अन्यथा नहीं। इसी प्रयोजन का लक्ष्य कर आचार्य उमास्वामी ने घोषित किया है- “सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग:" – (तत्त्वार्थसूत्र)। ___अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का एक आत्मा में एक साथ एकीकरण ही मुक्ति का मार्ग है।
इसी विषय पर दूसरा उदाहरण यह है कि एक विशाल वन में तीन ओर से आग लग रही थी। एक ओर आग नहीं लगी थी। उस वन के मध्य में अंधा, पंगु और आलसी ये तीन मनुष्य जल जाने के भय से रो रहे थे। इसी समय एक विवेकी व्यक्ति वहाँ से निकला। उसने शीघ्र ही जाकर उन तीनों का एकीकरण किया कि अन्धे के कन्धे पर पंगु को बैठाया तथा आलसी को अन्धे का हाथ पकड़ाया और तेजी से भागने की प्रेरणा दी, तो तीनों ही सुरक्षितरूप से अपने इष्टस्थान को चले गये। इसी तरह संसारी जीव को द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म की तीन ओर से आग लगी हुई है, एक ओर से ज्ञानी आचार्य सम्बोधित करते हैं कि “श्रद्धा-ज्ञान-आचरण को शीघ्र प्राप्त करो, तो तुम्हारी दु:खों से मुक्ति हो सकती है।” कविवर द्यानतराय जी ने 'रत्नत्रयपूजा' की 'जयमाल' में कहा भी है—
“सम्यग्दर्शन-ज्ञान-व्रत, इन बिन मुकति न होय । अध-पंगु-अरु आलसी, जुदे जलें दवलोय ।।"
-(रत्नत्रयपूजा, समुच्चय जयमाल, पद्य 9) अथवा
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प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000